तुगलक विख्यात रंगकर्मी गिरीश कारनाड की मूलत: कन्नड़ में रचित नाट्य कृति है, जिसके हिंदी सहित कई आधुनिक भारतीय भाशाओं में अनुवाद और मंचन हुए हैं। इसके नाटककार गिरीश कारनाड आधुनिक भारतीय साहित्य और रंगमंच की महत्वपूर्ण शख्शियत हैं। यह कृति आदर्शवादी, स्वप्नदृष्टा और बुध्दिजीवी, लेकिन इतिहास में सनकी और पागल के रूप में चर्चित मुस्लिम शासक मुहम्मद बिन तुगलक के चरित्र पर एकाग्र है।
गिरीश कारनाड विख्यात रंगकर्मी हैं और उन्हें रंगकला के सभी अनुषंगों-नाट्य लेखन, निर्देशन, अभिनय आदि का अनुभव है। तुगलक की रग योजना इसीलिए अपार संभावनाओं से युक्त है। खास बात यह है कि यहां नाटककार ने प्रस्तुति के लिए निर्देशक को पूरी छूट दी है। उसने मंच परिकल्पना, साज-सज्जा, प्रकाष व्यवस्था और संगीत के लिए अपनी तरफ से कोई बांधने वाला विधान नाटक में नहीं किया है। नाटक ऐतिहासिक है, इसमें वर्णित घटनाएं और चरित्र महान और भव्य हैं, इसलिए इसके मंचन के लिए व्यापक शोध और कल्पनाशीलता अपेक्षित है। नाटककार पहले दृष्य की शुरूआत में समय, 1327ई.का और दृष्यों के आरंभ में केवल भवनों या स्थानों का नामोल्लेख करता है। वह इस तरह उस समय के भवनों या स्थानों की मंच परिकल्पना निर्देषक पर छोड़ देता है। नाटक की कथावस्तु भव्य और महान है, इसलिए इसमें वृहदाकार दृबंध और भव्य वेषभूशा अपेक्षित है। यह दृष्य बंध और वेषभूशा यथार्थवादी भी हो सकते है और प्रयोगधर्मी भी।
भव्य और महान कथावस्तु के बावजूद गिरीष कारनाड इस नाटक में समय, स्थान और कार्य व्यापार की अिन्वति बनाए रखने में सफल रहे हैं। नाटक 25-30 वर्षों के कालखंड में विस्तृत है। नाटक की शुरूआत तुगलक के सत्तारूढ होने के आरंभिक समय 1327 ई. से होती है और तुगलक के सनकी और पागल हो जाने की अवस्था में नाटक खत्म हो जाता है। रोमिल थापर के अनुसार तुगलक का निधन 1357 ईण् में हो गया था। तेरह अंकों में विभक्त इस नाटक में आठ दृष्य बंध है। मंच सज्जा यदि प्रयोगधर्मी हो, तो दृष्य बंधों की संख्या कम भी की जा सकती है। नाटक की ‘ाुरुआत दिल्ली की मिस्जद के बाहरी हिस्से से होती है, जहां से तुगलक लोगों के मजमे की संबोधित करता है। आगे के अंकों में शाही महल, मिस्जद के सामने का सेहन, अमीर की कायमगाह, दिल्ली से दौलताबाद जाने के रास्ते पर एक खेमा, दौलताबाद किले का ऊपरी हिस्सा, पहाड़ी गुफा और दौलताबाद किले के बंद दरवाजे के दृष्य बंध हैं। कारनाड ने संपूर्ण भवन या स्थान के बजाय उसके बाहरी हिस्से या कोने को ही दृष्य बंध में शामिल किया है। यह अवश्य है कि माहौल को सल्तनतकालीन बनाने के लिए भवनों में तत्कालीन स्थापत्य की झलक बेहद जरूरी है। स्थानों के दिल्ली और दौलताबाद में होने के बावजूद कार्य व्यापार में गति होने के कारण नाटक की अन्विति नहीं टूटती।
ऐतिहासिक होने कारण इस नाटक में वेषभूशा का खास महत्व है। इसी से दृश्यों में भव्यता का माहौल बनता है। वेषभूशा के संबंध में भी नाटककार ने अपनी तरफ से कोई रंग निर्देष नहीं दिए हैं। यह उसने निर्देषक की कल्पना और सूझबूझ पर छोड़ दिए हैं। नाटक के ऐतिहासिक कथानक को देखते हुए सल्तनतकालीन दरबारी औपचारिक वेषभूशा इस नाटक के लिए जरूरी है। युद्ध और शडयंत्रों की निरंतरता के कारण इस नाटक के प्रमुख पात्रों को शस्त्रों से भी लैस होना चाहिए। माहौल की भव्य रूप देने और खास तौर पर तुगलक के अंतर्संघर्ष और द्वंद्व को व्यक्त करने के लिए इस नाटक के मंचन में संगीत का भी महत्व है।
तुगलक के बी.वी.कारंत के हिंदी अनुवाद का मंचन विख्यात रंगकर्मी इब्राहिम अलकाजी ने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली में किया था। उन्होंने इसका मंचन यथार्थवादी दृश्यबंधों के आधार पर तो नहीं किया, लेकिन मंच सज्जा, वेषभूशा, संगीत आदि के निर्धारण में उन्होंने तत्कालीन इतिहास सामग्री और स्थापत्य को आधार बनाया। उन्होंने इसकी प्रस्तुति राष्ट्रीयनाट्य विद्यालय के वृहदाकार खुले रंगमंच पर की। उन्होंने इसको एकाधिक भागों में बांटकर अलग-अलग भागों को कुछ खास पात्रों से संबद्ध किया। मंच के पृष्ठ भाग में तुगलक के अध्ययन कक्ष की मंच सज्जा इस तरह की गई कि जिससे उसकी अध्ययनषील, वैज्ञानिक और अन्वेषणप्रिय रुचि का संकेत मिल सके। उन्होंने मंच के पृष्ठ भाग में ही तुगलक की सौतेली मां के महल के दरवाजे का दृष्य बंध बनाया। इसी प्रकार ऊंची मेहराब वाले चबूतरे के एक दृष्यबंध को अलकाजी ने दो दष्यों के लिए काम लिया- एक बार जब अदालत के बाहर तुगलक भीड़ को संबोधित करता है, और दूसरी बार जब वह खलीफा के प्रतिनिधि गियासुद्दीन का दौलताबाद किले के दरवाजे के बाहर स्वागत करता है। इसी तरह नीचे स्थित चबूतरे से उन्होंने जंगल के खुले स्थान का काम लिया। अन्विति के लिए इन सभी ऊंचे-नीचे और अलग-अलग दृष्यबंधों को उन्होंने सीढ़ियों से जोड़ दिया। दृश्य बंधों की परिकल्पना और निर्माण में अलकाजी ने पर्सी ब्राउन के ग्रंथ इंडियन आर्किटेक्चर (द इस्लामिक पीरियड) और वास्तु विषेशज्ञों का भी सहयोग लिया। पहले और छठे दृश्य में दरबारी शान-शौकत और तड़क-भड़क के लिए अलकाजी ने फर्श पर कालीन बिछाया। तत्कालीन मुस्लिम दरबार का माहौल बनाने के लिए उन्होंने दरबारी अदब-कायदों की बारीकियां तबकात-अल-नासिरी और आईने-अकबरी जैसे ऐतिहासिक ग्रंथों की मदद से जुटाईं। अलकाजी ने इस नाटक के मंचन में पात्रों की वेषभूशा पर खास ध्यान दिया। उन्होंने विभिन्न सामाजिक तबकों के लिए अलग-अलग रंग-जनसाधारण के लिए भूरे, अमीर-उमरा के लिए भूरे और चटख गुलाबी, दरबारी औरतों के लिए फिरोजी, पन्ना और सोने तथा तुगलक के लिए काले और सुनहरी रंगों की पोषाकें रखीं। अलकाजी ने लंबे शोध के बाद पारंपरिक तुर्की और फारसी संगीत के टुकड़ों को मिला कर इस नाटक के लिए संगीत तैयार किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने बीच-बीच में स्थिति के अनुसार कुरान पाक की आयतों के पाठ का भी प्रावधान किया, जिससे तुगलक के निजी अंतर्संघर्ष् को उदात्तता देने में मदद मिली।
Thursday, 19 June 2008
Monday, 16 June 2008
गिरीश कारनाड के नाटक तुगलक में हमारा समय और समाज
तुगलक अपने समय और समाज के द्वंद्व और यथार्थ का सम्मोहक रूपक है। कोई समकालीन रचनाकार इतिहास या मिथ को केवल उसकी पुनर्रचना के लिए नहीं उठाता। जब इतिहास या मिथ में कहीं न कहीं वह अपने समय और समाज का साद्श्य पाता है, तभी वह उसे अपनी रचना का विषय बनाता है। अपने समय और समाज से सीधे मुठभेड में अक्सर खतरा रहता है। रचनाकार किसी समय और समाज में रह कर उस पर तटस्थ टिप्पणी या उसका तटस्थ मूल्यांकन नहीं कर पाता। इतिहास या मिथ की पुनर्रचना में पूरी तरह तटस्थ और निर्मम रहा जा सकता है और इस तरह अपने समय और समाज के द्वंद्व और यथार्थ को उसमें विन्यस्त करने में भी आसानी होती है।
आजादी के बाद के दो-ढाई दशकों का आधुनिक भारतीय इतिहास में खास महत्व है। एक तो इस समय का शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व देश निर्माण के उत्साह से लबालब था और दूसरे, इस समय यहां जन साधारण की आकांक्षाएं भी आसमान छू रही थीं। योजनाकारों ने नेतृत्व की पहल पर आदर्शवादी योजनाएं बनाईं, आर्थिक और सामाजिक विशमता समाप्त करने के संकल्प लिए गए और लोगों का जीवन स्तर ऊंचा उठाने की बातें हुईं, लेकिन तमाम शुभेच्छाओं के बावजूद हालात नहीं बदले। योजनाओं का लाभ जनसाधारण तक नहीं पहुंचा और विशमता बढ़ती गई। नौकरशाही की मंथर गति और टालमटोल तथा स्पष्ट नीति के अभाव में नेतृत्व द्वारा की गई पहल और निर्णयों को अमल में नहीं लाया जा सका।
गत सदी के सातवें दषक में नेतृत्व और जनसाधारण के सपनों और आकांक्षाओं का पराभव शुरू हो गया। उदाहरण के लिए आजादी के बाद भूमि सुधार तत्काल अपेक्षित थे,लेकिन प्रशासनिक शिथिलता और प्रबल इच्छा शक्ति के अभाव में इनको लागू नहीं किया जा सका। इसी तरह दूसरी पंचवर्षीय योजना (1957-61) में राष्टीय आय में 25 प्रतिशत वृध्दि का लक्ष्य रखा गया, लेकिन इसका आधा भी नहीं पाया जा सका। दरअसल आजादी के बाद में आरंभिक दो दशकों के आदर्शवाद और उससे मोहभंग का तुगलक के समय से गहरा साम्य है। तुगलक एक आदर्शवादी और स्वप्नदृश्टा शासक था और अपने समय से आगे की सोचता था। उसने सल्तनत के विस्तार और अपनी प्रजा के कल्याण की कई महत्वाकांक्षी, लेकिन अपारंपरिक योजनाएं बनाईं। विडंबना यह है कि उसे इन सपनों को अमली जामा पहनाने में समाज के किसी तबके का सहयोग नहीं मिलता। उसके विष्वस्त और आत्मीय व्यक्ति ही उसे धोखा देते हैं या घटनाक्रम से घबरा कर उसका साथ छोड़ जाते हैं। प्रजा उसकी अपारंपरिक भावनाओं और कार्यो को नहीं समझती, उलेमा अपनी उपेक्षा के कारण उसके विरुद्ध दुष्प्रचार करते हैं, अमीर-उमरा उसके विरुद्ध शडयंत्र करते हैं और अजीज और आजम जैसे लोग उसकी हर एक शुभेच्छामूलक घोशणा का अपने क्षुद्र स्वार्थ में दुरुपयोग करते हैं। उसकी सौतेली मां उसे धोखा देती है और उसका आत्मीय वाकया नवीस बरनी उसका साथ छोड़कर चल जाता है। विफल और सब तरफ से हताश तुगलक अंतत: तलवार की मदद से अपने विरोधियों के दमन का रास्ता अख्तियार करता है। देश में पराभव और मोहभंग का दौर 1962 के आसपास अपने चरम पर था और तुगलक प्रकाशन भी इसी दौरान 1964 में हुआ। जाहिर है, कारनाड ने अपने समय और समाज को बारीकी से देखा और उसको मुहम्मद बिन तुगलक के समय और समाज में रूपायित किया। यहां यथार्थ और द्वंद्व हमारे समय का है और केवल उसका ताना-बाना, मतलब घटनाएं और चरित्र सल्तनतकालीन है।
तुगलक की चरित्र सृष्टि में इतिहास और कल्पना, दोनों का योग है, लेकिन इतिहास पर आधारित होने के कारण कारनाड को चरित्र निर्माण में कल्पना की छूट ज्यादा नहीं मिली है। नाटक के ऐतिहासिक होने के कारण कारनाड ने इसके चरित्रों के वैयक्तिक जीवन, सामाजिक परिवेश और भाषा के संबंध में पर्याप्त शोध की है और उनके संबंध में इतिहास में उपलब्ध तथ्यों की कल्पना का पुट देकर जीवंत बनाया है। तुगलक में मुहम्मद बिन तुगलक नायक और धुरि चरित्र है और शेष सभी चरित्र यहां उसके चरित्र के विकास में पूरक की भूमिका निभाते हैं। नाटक में तुगलक का चरित्र आरंभ में आदर्शवादी और स्वप्नदृश्टा है, लेकिन परिस्थितियां धीरे-धीरे उसे क्रूर और निरंकुश तानाशाह और अंत में एकाकी और उन्मादी व्यक्ति में तब्दील कर देती है। तुगलक बुिद्धमान है,वह सल्तनत और प्रजा के हित में युक्तिसंगत निर्णय लेता है। राजधानी स्थानांतरण, प्रतीक मुद्रा का प्रचलन और खुरासान योजना केवल उसकी सनक के नतीजे नहीं हैं, इनके पीछे वजनदार तर्क है। तुगलक को अपने मनुष्य की ताकत पर पूरा भरोसा है वह खुदएतमादी है और धार्मिक कट्टरपंथियों का अंधानुगमन नहीं करता। सुल्तान के रूप में तुगलक कूटनीतिज्ञ भी है। वह चतुर राजनीतिज्ञ की तरह अपने विरोधियों को रास्ते से हटाता है। धार्मिक नेता शेख इमामुद्दीन और अमीर शहाबुद्दीन सियासी दाव-पेंच के खेल में उससे बुरी तरह पिट जाते हैं। अपने विरुद्ध होने वाले षडयंत्रों को वह चतुराई से नाकाम कर देता है। सब तरफ से जूझता हुआ, अपनी आत्मीय और विश्वस्त सौतेली मां तथा शहाबुद्दीन और अमीरों के षडयंत्रों से आहत तुगलक नाटक के अंतिम दृष्यों में हताश और निराष व्यक्ति के रूप में सामने आता है। इससे धर्म में उसकी आस्था को भी धक्का लगता है और वह अपनी सल्तनत में इबादत पर भी रोक लगा देता है। तुगलक अंत में निपट एकाकी होकर अपने ही हाथों किए गए सर्वनाश से घिरा उन्माद के छोर तक पहुंच जाता है। कारनाड के आलोचकों का कहना है कि वे अपने अन्य नाटकों की तरह तुगलक में भी अपने समय और समाज के यथार्थ और द्वंद्व को व्यक्त करने के लिए तुगलक के रूपक का सहारा लेते हैं, जिससे यथार्थ विकृत रूप में सामने आता है। इसके विपरीत कारनाड के समर्थकों का कहना है कि इस नाटक में अतीत के दूरस्थ यथार्थ को माध्यम बनाकर कारनाड अधिक निष्पक्ष और निर्भीक ढंग से अपने समय के यथार्थ को समझते-समझाते हैं। विख्यात कन्नड साहित्यकार यू.आर.अनंतमूर्ति के अनुसार कारनाड नाटक के कवि हैं। समसामयिक समस्याओं से निबटने के लिए इतिहास और मिथ का उपयोग उन्हें अपने समय पर टिप्पणी की मनोवैज्ञानिक दूरी प्रदान करता है। तुगलक बहुत सफल हुआ, क्योंकि यह एक यथार्थवादी नाटक नहीं था।
यह सही है कि तुगलक अपने समय और समाज के यथार्थ में सीधे हस्तक्षेप नहीं करता और उसके चरित्र भी कुछ हद अपने समाज के वर्गीय प्रतिनिधि हैं, लेकिन इससे एक रंग नाटक के रूप में तुगलक का महत्व कम नहीं होता। कारनाड भव्य और महान चरित्र और घटना वाले इस नाटक के माध्यम से दर्शकों के मन में अपने समय और समाज के यथार्थ को चरितार्थ करने में सफल रहे हैं।
आजादी के बाद के दो-ढाई दशकों का आधुनिक भारतीय इतिहास में खास महत्व है। एक तो इस समय का शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व देश निर्माण के उत्साह से लबालब था और दूसरे, इस समय यहां जन साधारण की आकांक्षाएं भी आसमान छू रही थीं। योजनाकारों ने नेतृत्व की पहल पर आदर्शवादी योजनाएं बनाईं, आर्थिक और सामाजिक विशमता समाप्त करने के संकल्प लिए गए और लोगों का जीवन स्तर ऊंचा उठाने की बातें हुईं, लेकिन तमाम शुभेच्छाओं के बावजूद हालात नहीं बदले। योजनाओं का लाभ जनसाधारण तक नहीं पहुंचा और विशमता बढ़ती गई। नौकरशाही की मंथर गति और टालमटोल तथा स्पष्ट नीति के अभाव में नेतृत्व द्वारा की गई पहल और निर्णयों को अमल में नहीं लाया जा सका।
गत सदी के सातवें दषक में नेतृत्व और जनसाधारण के सपनों और आकांक्षाओं का पराभव शुरू हो गया। उदाहरण के लिए आजादी के बाद भूमि सुधार तत्काल अपेक्षित थे,लेकिन प्रशासनिक शिथिलता और प्रबल इच्छा शक्ति के अभाव में इनको लागू नहीं किया जा सका। इसी तरह दूसरी पंचवर्षीय योजना (1957-61) में राष्टीय आय में 25 प्रतिशत वृध्दि का लक्ष्य रखा गया, लेकिन इसका आधा भी नहीं पाया जा सका। दरअसल आजादी के बाद में आरंभिक दो दशकों के आदर्शवाद और उससे मोहभंग का तुगलक के समय से गहरा साम्य है। तुगलक एक आदर्शवादी और स्वप्नदृश्टा शासक था और अपने समय से आगे की सोचता था। उसने सल्तनत के विस्तार और अपनी प्रजा के कल्याण की कई महत्वाकांक्षी, लेकिन अपारंपरिक योजनाएं बनाईं। विडंबना यह है कि उसे इन सपनों को अमली जामा पहनाने में समाज के किसी तबके का सहयोग नहीं मिलता। उसके विष्वस्त और आत्मीय व्यक्ति ही उसे धोखा देते हैं या घटनाक्रम से घबरा कर उसका साथ छोड़ जाते हैं। प्रजा उसकी अपारंपरिक भावनाओं और कार्यो को नहीं समझती, उलेमा अपनी उपेक्षा के कारण उसके विरुद्ध दुष्प्रचार करते हैं, अमीर-उमरा उसके विरुद्ध शडयंत्र करते हैं और अजीज और आजम जैसे लोग उसकी हर एक शुभेच्छामूलक घोशणा का अपने क्षुद्र स्वार्थ में दुरुपयोग करते हैं। उसकी सौतेली मां उसे धोखा देती है और उसका आत्मीय वाकया नवीस बरनी उसका साथ छोड़कर चल जाता है। विफल और सब तरफ से हताश तुगलक अंतत: तलवार की मदद से अपने विरोधियों के दमन का रास्ता अख्तियार करता है। देश में पराभव और मोहभंग का दौर 1962 के आसपास अपने चरम पर था और तुगलक प्रकाशन भी इसी दौरान 1964 में हुआ। जाहिर है, कारनाड ने अपने समय और समाज को बारीकी से देखा और उसको मुहम्मद बिन तुगलक के समय और समाज में रूपायित किया। यहां यथार्थ और द्वंद्व हमारे समय का है और केवल उसका ताना-बाना, मतलब घटनाएं और चरित्र सल्तनतकालीन है।
तुगलक की चरित्र सृष्टि में इतिहास और कल्पना, दोनों का योग है, लेकिन इतिहास पर आधारित होने के कारण कारनाड को चरित्र निर्माण में कल्पना की छूट ज्यादा नहीं मिली है। नाटक के ऐतिहासिक होने के कारण कारनाड ने इसके चरित्रों के वैयक्तिक जीवन, सामाजिक परिवेश और भाषा के संबंध में पर्याप्त शोध की है और उनके संबंध में इतिहास में उपलब्ध तथ्यों की कल्पना का पुट देकर जीवंत बनाया है। तुगलक में मुहम्मद बिन तुगलक नायक और धुरि चरित्र है और शेष सभी चरित्र यहां उसके चरित्र के विकास में पूरक की भूमिका निभाते हैं। नाटक में तुगलक का चरित्र आरंभ में आदर्शवादी और स्वप्नदृश्टा है, लेकिन परिस्थितियां धीरे-धीरे उसे क्रूर और निरंकुश तानाशाह और अंत में एकाकी और उन्मादी व्यक्ति में तब्दील कर देती है। तुगलक बुिद्धमान है,वह सल्तनत और प्रजा के हित में युक्तिसंगत निर्णय लेता है। राजधानी स्थानांतरण, प्रतीक मुद्रा का प्रचलन और खुरासान योजना केवल उसकी सनक के नतीजे नहीं हैं, इनके पीछे वजनदार तर्क है। तुगलक को अपने मनुष्य की ताकत पर पूरा भरोसा है वह खुदएतमादी है और धार्मिक कट्टरपंथियों का अंधानुगमन नहीं करता। सुल्तान के रूप में तुगलक कूटनीतिज्ञ भी है। वह चतुर राजनीतिज्ञ की तरह अपने विरोधियों को रास्ते से हटाता है। धार्मिक नेता शेख इमामुद्दीन और अमीर शहाबुद्दीन सियासी दाव-पेंच के खेल में उससे बुरी तरह पिट जाते हैं। अपने विरुद्ध होने वाले षडयंत्रों को वह चतुराई से नाकाम कर देता है। सब तरफ से जूझता हुआ, अपनी आत्मीय और विश्वस्त सौतेली मां तथा शहाबुद्दीन और अमीरों के षडयंत्रों से आहत तुगलक नाटक के अंतिम दृष्यों में हताश और निराष व्यक्ति के रूप में सामने आता है। इससे धर्म में उसकी आस्था को भी धक्का लगता है और वह अपनी सल्तनत में इबादत पर भी रोक लगा देता है। तुगलक अंत में निपट एकाकी होकर अपने ही हाथों किए गए सर्वनाश से घिरा उन्माद के छोर तक पहुंच जाता है। कारनाड के आलोचकों का कहना है कि वे अपने अन्य नाटकों की तरह तुगलक में भी अपने समय और समाज के यथार्थ और द्वंद्व को व्यक्त करने के लिए तुगलक के रूपक का सहारा लेते हैं, जिससे यथार्थ विकृत रूप में सामने आता है। इसके विपरीत कारनाड के समर्थकों का कहना है कि इस नाटक में अतीत के दूरस्थ यथार्थ को माध्यम बनाकर कारनाड अधिक निष्पक्ष और निर्भीक ढंग से अपने समय के यथार्थ को समझते-समझाते हैं। विख्यात कन्नड साहित्यकार यू.आर.अनंतमूर्ति के अनुसार कारनाड नाटक के कवि हैं। समसामयिक समस्याओं से निबटने के लिए इतिहास और मिथ का उपयोग उन्हें अपने समय पर टिप्पणी की मनोवैज्ञानिक दूरी प्रदान करता है। तुगलक बहुत सफल हुआ, क्योंकि यह एक यथार्थवादी नाटक नहीं था।
यह सही है कि तुगलक अपने समय और समाज के यथार्थ में सीधे हस्तक्षेप नहीं करता और उसके चरित्र भी कुछ हद अपने समाज के वर्गीय प्रतिनिधि हैं, लेकिन इससे एक रंग नाटक के रूप में तुगलक का महत्व कम नहीं होता। कारनाड भव्य और महान चरित्र और घटना वाले इस नाटक के माध्यम से दर्शकों के मन में अपने समय और समाज के यथार्थ को चरितार्थ करने में सफल रहे हैं।
Wednesday, 11 June 2008
गिरीश कारनाड के नाटक तुगलक में इतिहास और कल्पना की जुगलबंदी
तुगलक आधुनिक भारतीय नाटक और रंगमंच के शीर्षस्थानीय रंगकर्मी गिरीश कारनाड की मुस्लिम शासक मुहम्मद बिन तुगलक के जीवन पर आधारित नाट्य रचना है, जिसमें देश की आजादी के बाद के दो-ढाई दषकों के आदर्शवाद और उससे मोहभंग के यथार्थ को सम्मोहक रूपक में प्रस्तुत किया गया है। इतिहासकार तुगलक के चरित्र के संबंध में एक राय नहीं हैं। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि तुगलक अपने समय का सबसे महान और उल्लेखनीय शासक था, जबकि कुछ के अनुसार वह सनकी और पागल था। इतिहासकार एलफिन्स्टन के अनुसार उसमें पागलपन का कुछ अंष जरूर था, वी.एन. स्मिथ उसे आश्चर्यजनक विरोधी तत्वों का सिम्मश्रण मानते हैं, जबकि रोमिला थापर के अनुसार ´´यद्यपि उसकी कुछ नीतियां उसके सनकी दिमाग की तरंग मात्र प्रतीत होती है, तो भी उनके पीछे कुछ तर्क जरूर था।`` कुछ भी हो, जैसा वल्जले हेग ने कहा है कि ´´तुगलक दिल्ली के सिंहासन पर बैठने वाले असाधारण शासकों में से एक था।`` दरअसल तुगलक आदर्शवादी, स्वप्नद्रुष्टा और उदारचित्त बुध्दिजीवी शासक था, जिसे उसके अपारंपरिक कार्यों के कारण तत्कालीन जनसाधारण, अमीर और उलेमा वर्ग का सहयोग नहीं मिला। तुगलक के आदर्शों और सपनों के पराभव की यह कहानी ही इस नाटक की विशयवस्तु है। कारनाड ने आजादी के बाद के सपनों की उड़ान और कुछ समय बाद उनके धराषायी होने के यथार्थ को इस कथा के रूपक में बांधने का प्रयत्न किया है।
नाटक तुगलक विवादास्पद मध्यकालीन शासक मुहम्मद बिन तुगलक के जीवन पर आधारित है। कारनाड ने तुगलक के चरित्र निर्माण में उसके जीवन के संबंध में इतिहास में उपलब्ध सभी तथ्यों का उपयोग किया है। इतिहासकारों के अनुसार तुगलक अपने युग का सबसे उल्लेखनीय शासक था। कुछ इतिहासकार उसके अपरंपरागत कार्यों के कारण उसे पागल कहते हैं। उसके संबंध में सर्वाधिक महत्वपूर्ण उल्लेखनीय तथ्य यह है कि ´´उसकी महत्वाकांक्षाएं उसके साधनों की तुलना में हमेषा अधिक थीं।`` तुगलक ने कई साहसिक प्रयोग किए और उसने कृिश क्षेत्र के विकास में गहरी दिलचस्पी ली। उसने धर्म और दर्शन का गहन अध्ययन किया। वह आलोचनात्मक प्रवृत्ति और उदारचित्त वाला व्यक्ति था। इतिहासकार सतीशचंद्र के अनुसार ´´वह न केवल मुसलमान अध्यात्मवादियों के साथ, बल्कि हिन्दू योगियों और जिनप्रभा सूरी जैसे जैन महात्माओं के साथ तर्क-वितर्क कर सकता था।`` उसके समय के कट्टरपंथी मुसलमान उसे नापसंद करते थे। उनके अनुसार वह बुध्दिवादी था। मतलब यह कि वह धार्मिक मान्यताओं की केवल विष्वास के आधार पर स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था। वह महत्वाकांक्षी था और बड़े-बड़े सपने देखता था, लेकिन तत्कालीन इतिहासकार बरनी के अनुसार वह चिड़चिड़ा और अधीर स्वभाव का भी था। दुभाZग्य से उसके सपने पूरे नहीं हुए और उसकी योजनाएं क्रियान्वयन के दौरान असफल हो गईं।
तुगलक ने अपने सपनों को हकीकत में बदलने के लिए कई योजनाएं बनाईं और उनको सख्ती से अमल में लाने का प्रयास किया। वह एक भारतव्यापी साम्राज्य की स्थापना करना चाहता था इसलिए उसने कई साहसिक प्रयोग किए। वह मध्य एषिया में सैन्य अभियान कर खुरासान पर अधिकार करना चाहता था, इसलिए उसने दोआब के किसानों पर लगान बढ़ा दिया। दुभाZग्य से इसी समय दोआब में अकाल पड़ा और किसानों ने यह बढ़ा हुआ लगान देना अस्वीकार कर विद्रोह कर दिया। तुगलक का सबसे विवादास्पद निर्णय राजधानी का दिल्ली से दौलताबाद स्थानांतरण था। तुगलक दक्षिण भारत पर प्रभावषाली ढंग से शासन करना चाहता और दिल्ली उत्तर में स्थित होने के कारण दक्षिण से बहुत दूर थी, इसलिए उसने अपनी राजधानी दिल्ली से हटा कर सुदूर दक्षिण में स्थित देवागिरी, जिसका नामकरण उसने बाद में दौलताबाद किया, ले जाने का आदेष दिया। निर्णय तर्कसंगत था लेकिन अव्यावहारिक था। एक तो उसने दरबार की जगह समस्त दिल्लीवासियों को दौलताबाद जाने के लिए विवष किया और दूसरे इस निर्णय का क्रियान्वयन ग्रीश्मकाल में हुआ, जिससे कई लोग मार्ग में ही मर गए। इसके अलावा दिल्ली से दौलताबाद पहुंचे लोगों को घर की याद सताने लगी। तुगलक के विरुद्ध इस कारण जन असंतोश बढ़ गया और केवल दो ही साल बाद तुगलक स्वयं दिल्ली आ गया और यह फिर राजधानी हो गई। खुरासान पर अधिकार की अपनी महत्वाकांक्षी योजना के लिए धन अपेक्षित था, इसलिए तुगलक ने चांदी की जगह पीतल और तांबे की प्रतीक मुद्राएं जारी कीं। इस तरह के प्रयोग चीन और फारस में सफल हो चुके थे, लेकिन वह लोगों को नकली सिक्के ढालने से नहीं रोक पाया। नतीजा यह हुआ कि नकली सिक्कों के ढेर लग गए और मुद्रा का अवमूल्यन हो गया। अपनी योजनाओं और प्रयोगों की निरंतर असफलता से तुगलक को निराषा हुई। उसने खुरासान पर अधिकार की अपनी योजना छोड़ दी और हिमाचल में स्थित कांगडा पर आक्रमण कर संतोश कर लिया। तुगलक प्रतापी, महत्वाकांक्षी और स्वप्नदृश्टा शासक था, लेकिन उसकी अधिकांष योजनाएं और प्रयोग अपारंपरिक थे, इसलिए उसे इनके क्रियान्वयन में तत्कालीन अमीरों, उलेमाओं और जनसाधारण का सहयोग नहीं मिला। जनसाधारण में असफल प्रयोगों के कारण उसके लिए गुस्सा था, उलेमा और धार्मिक कट्टपंथी मुसलमान अपनी उपेक्षा के कारण उससे खफा थे और अमीर वर्ग में निहित स्वार्थों की पूर्ति नहीं होने के कारण उसके विरुद्ध नाराजगी थी। इस तरह तमाम शुभेच्छाओं के बावजूद तुगलक को सब जगह असफलताएं हाथ लगीं। इतिहासकार इसीलिए उसे अभागा आदषZवादी कहते हैं। तुगलक का यही महत्वाकांक्षी और स्वप्नदृश्टा, लेकिन सब जगह असफल और निराष व्यक्तित्व गिरीश कारनाड के इस नाटक का आधार है। उसके सपने और उनकी दुर्गति का यथार्थ ही इस नाटक की धुरि है।
इतिहास और साहित्य में बुनियादी अंतर यह है कि इतिहास तथ्य पर आधारित होता है, जबकि साहित्य में तथ्य कल्पना के साथ संयुक्त होकर जीवंत रूप ले लेता है। यह सही है कि तुगलक की रचना के लिए कारनाड के मध्यकालीन भारतीय इतिहास का गहन शोध और अध्ययन किया है, लेकिन उनकी कल्पनाशीलता ही इस नाटक को सही मायने में नाटक का रूप देती है। इतिहास इस नाटक की रीढ है, लेकिन कल्पना इसका जीवन है। इतिहास यहां तथ्य तो उपलब्ध करवाता है, लेकिन इन तथ्यों को जीवंत मानवीय सरोकारों और संबंधों में दरअसल कल्पना ही ढालती है। कारनाड ने इस नाटक में चरित्रों और घटनाओं का ताना-बाना इतिहास से लिया है, लेकिन संबंधों का विस्तार, उनकी प्रकृति आदि का निर्धारण उनकी उर्वर कल्पना ने किया है। तुगलक ऐतिहासिक व्यक्तित्व है, लेकिन उसकी सोच, उसके निरंतर अंतर्संघशZ और संवेदनषीलता को गढने का काम कारनाड के रचनाकार की कल्पना ने किया है। तुगलक इतिहास में सनकी और पागल के रूप में कुख्यात है, लेकिन यह अकारण नहीं है। दरअसल निरंता असफलता और हताशा तुगलक के सकारात्मक चरित्र को नकारात्मक बना देती है। कारनाड का कल्पनाषील रचनाकार तुगलक के सनकी और निरंकुष शासक में तब्दील हो जाने प्रक्रिया के मानवीय पहलू को बहुत खूबी ओर बारीकी के साथ पेष करता है। कारनाड की कल्पनाषीलता तुगलक को एक ऐसे असाधारण मनुश्य का रूप देती है, जो अपनी सोच को अमल में लाने की जद्दोजहद में टूटता जाता है और अंतत: हार जाता है। यह कारनाड की कल्पना का ही चमत्कार है कि नाटक के अंत में तुगलक ऐसे शख्स के रूप में सामने आता है, जिसे परिस्थितियों में सनकी और पागल बना दिया है और दषZकों को उससे सहानुभूति होती है। कारनाड की कल्पना तुगलक के एक साथ परस्पर विरोधी और एक-दूसरे को करते हुए कई रूप गढती है। वह चिंतनषील, संवेदनशील और परदुखकातर है, लेकिन साथ ही वह कूटनीतिज्ञ, नृषंश, क्रूर और निरंकुष भी है। इस तरह का परस्पर विरोधी चारित्रिक विषेशताओं वाला व्यक्तित्व गढना और उसको स्वीकार्य बनाए रखना मुिष्कल काम है, लेकिन कारनाड अपनी कल्पना के सहारे यह कर लेते हैं। तुगलक के संबंधों के बहुत विस्तार और बारीकी में कारनाड नहीं जाते, लेकिन सौतेली मां के चरित्र की कल्पना से उसके व्यक्तित्व को मानवीय जीवंतता का स्पषZ मिलता है। यह संबंध बहुत सांकेतिक है- इसके विस्तार में कारनाड नहीं जाते, लेकिन स्पश्ट हो जाता है कि सौतेली मां तुगलक पर अनुरक्त है और उससे उसकी अपेक्षाएं भी मां की नहीं है।
कारनाड की रचनात्मक कल्पना का इस नाटक में सबसे अच्छा उदाहरण धार्मिक नेता शेख इमामुद्दीन की कूटनीतिक ढंग से हत्या का प्रकरण है। यह प्रकरण कारनाड की कल्पना की असाधारण सूझबूझ का नतीजा है। इस घटना से उन्होंने समाज में धर्म की हैसियत की असलियत को सामने रख दिया है। मुहम्मद तुगलक का यह कथन कि ´´आमो-खास की मजहबी अकीदत की जड़ें किस कदर कमजोर है! अवाम का भोलापन फितरती तौर पर शुबहा और वहम से वाबस्ता होता है`` दरअसल हमारे समय और समाज में भी धर्म की कमजोर बुनियाद की ओर संंकेत है। कारनाड इस घटना की कल्पना से यह सिद्ध करते हैं कि समय कोई भी हो जनसाधारण की जड़ें धर्म में कम, चमत्कार और भ्रम में ज्यादा गहरी होती हैं। दौलताबाद किले के ऊपरी हिस्से पर तुगलक और बरनी के बीच हुआ संवाद भी कारनाड की कल्पनाशीलता का ही नतीजा है। इस प्रकरण की कल्पना से तुगलक का उदात्त और संवेदनषील शासक व्यक्तित्व उभरता है। इन संवादों से कारनाड तुगलक की सोच और उसके कार्यों के औचित्य पर रोषनी डालते हैं। बरनी के इस परामर्श पर कि सबको माफी बख्श दें, तुगलक कहता है-´´ लेकिन उससे पहले मुझे ये यकीनी तौर पर इल्म होना चाहिए कि मेरा मकसद ही गलत था। मेरे इरादे ही नाकिस थे। तब ‘यद तुम्हारा यह इलाज मुफीद साबित हो। लेकिन जब तक वो लम्हा नहीं आयेगा, तब तक इसी पर अमल करूंगा। मैंने जो सीखा है या जाना है, उसी को जारी रखूंगा, उसी से रिआया को रूशनास कराता रहूंगा। मैं यह कभी गवारा नहीं करूंगा कि तवारीख को फिर अंधों की तरह अपने- आपको दुहराने का मौका मिले। ये मजबूरी है कि अपने पास मौजूदा एक ही जिंदगी पड़ी है, इसलिए मैं इसे नाकाम नहीं होने दूंगा। (एक-एक हर्फ पर जोर देकर) लोग जब तक मेरी बातों पर गौर नहीं करेंगे, तब तक यह कत्ले-आम मुसलसल जारी रहेगा। दूसरा कोई चारा नहीं, बरनी।``
नाटक में ढिंढोरची और उसकी घोषणाएं भी कारनाड की कल्पनाषीलता का नमूना हैं। इस कल्पना से नाटक में समय के विस्तार और घटनाओं की भीड़भाड़ कम करने में बहुत मदद मिली है। ढिंढोरची मंच पर आकर अपने ऐलान से घटनाओं का वृत्तांत पेष करता है, जिससे दषZक, जो देख रहे हैं उसको व्यापक परिप्रेक्ष्य में समक्ष लेते हैं। सबसे पहले ढिंढोरची पहले दृष्य के बीच में आता है और उपस्थित जन साधारण को सुल्तान के विरुद्ध ब्राह्मण विष्श्णुप्रसाद की दरख्वास्त पर हाकिमे अदालत का फैंसला बताता है। दृष्य चार से पहले िढंढोरची आईन-उल-मुल्क की दिल्ली पर चढ़ाई, सुल्तान के कन्नोज प्रस्थान, शेख इमामुद्दीन द्वारा सुल्तान को सहयोग देने और सुल्तान की अनुपस्थिति में शहाबुद्दीन के नायब सुल्तान होने की सूचना देता है। दृष्य सात के पूर्व िढंढोरची के दो महत्वपूर्ण ऐलान हैं। एक में वह शाही महल में बगावत और उसमें शहाबुद्दीन शहीद होने की सूचना और दूसरे में वह दिल्ली के जनसाधारण को एक माह में दौलताबाद जाने का शाही फरमान सुनाता है।
नाटक तुगलक विवादास्पद मध्यकालीन शासक मुहम्मद बिन तुगलक के जीवन पर आधारित है। कारनाड ने तुगलक के चरित्र निर्माण में उसके जीवन के संबंध में इतिहास में उपलब्ध सभी तथ्यों का उपयोग किया है। इतिहासकारों के अनुसार तुगलक अपने युग का सबसे उल्लेखनीय शासक था। कुछ इतिहासकार उसके अपरंपरागत कार्यों के कारण उसे पागल कहते हैं। उसके संबंध में सर्वाधिक महत्वपूर्ण उल्लेखनीय तथ्य यह है कि ´´उसकी महत्वाकांक्षाएं उसके साधनों की तुलना में हमेषा अधिक थीं।`` तुगलक ने कई साहसिक प्रयोग किए और उसने कृिश क्षेत्र के विकास में गहरी दिलचस्पी ली। उसने धर्म और दर्शन का गहन अध्ययन किया। वह आलोचनात्मक प्रवृत्ति और उदारचित्त वाला व्यक्ति था। इतिहासकार सतीशचंद्र के अनुसार ´´वह न केवल मुसलमान अध्यात्मवादियों के साथ, बल्कि हिन्दू योगियों और जिनप्रभा सूरी जैसे जैन महात्माओं के साथ तर्क-वितर्क कर सकता था।`` उसके समय के कट्टरपंथी मुसलमान उसे नापसंद करते थे। उनके अनुसार वह बुध्दिवादी था। मतलब यह कि वह धार्मिक मान्यताओं की केवल विष्वास के आधार पर स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था। वह महत्वाकांक्षी था और बड़े-बड़े सपने देखता था, लेकिन तत्कालीन इतिहासकार बरनी के अनुसार वह चिड़चिड़ा और अधीर स्वभाव का भी था। दुभाZग्य से उसके सपने पूरे नहीं हुए और उसकी योजनाएं क्रियान्वयन के दौरान असफल हो गईं।
तुगलक ने अपने सपनों को हकीकत में बदलने के लिए कई योजनाएं बनाईं और उनको सख्ती से अमल में लाने का प्रयास किया। वह एक भारतव्यापी साम्राज्य की स्थापना करना चाहता था इसलिए उसने कई साहसिक प्रयोग किए। वह मध्य एषिया में सैन्य अभियान कर खुरासान पर अधिकार करना चाहता था, इसलिए उसने दोआब के किसानों पर लगान बढ़ा दिया। दुभाZग्य से इसी समय दोआब में अकाल पड़ा और किसानों ने यह बढ़ा हुआ लगान देना अस्वीकार कर विद्रोह कर दिया। तुगलक का सबसे विवादास्पद निर्णय राजधानी का दिल्ली से दौलताबाद स्थानांतरण था। तुगलक दक्षिण भारत पर प्रभावषाली ढंग से शासन करना चाहता और दिल्ली उत्तर में स्थित होने के कारण दक्षिण से बहुत दूर थी, इसलिए उसने अपनी राजधानी दिल्ली से हटा कर सुदूर दक्षिण में स्थित देवागिरी, जिसका नामकरण उसने बाद में दौलताबाद किया, ले जाने का आदेष दिया। निर्णय तर्कसंगत था लेकिन अव्यावहारिक था। एक तो उसने दरबार की जगह समस्त दिल्लीवासियों को दौलताबाद जाने के लिए विवष किया और दूसरे इस निर्णय का क्रियान्वयन ग्रीश्मकाल में हुआ, जिससे कई लोग मार्ग में ही मर गए। इसके अलावा दिल्ली से दौलताबाद पहुंचे लोगों को घर की याद सताने लगी। तुगलक के विरुद्ध इस कारण जन असंतोश बढ़ गया और केवल दो ही साल बाद तुगलक स्वयं दिल्ली आ गया और यह फिर राजधानी हो गई। खुरासान पर अधिकार की अपनी महत्वाकांक्षी योजना के लिए धन अपेक्षित था, इसलिए तुगलक ने चांदी की जगह पीतल और तांबे की प्रतीक मुद्राएं जारी कीं। इस तरह के प्रयोग चीन और फारस में सफल हो चुके थे, लेकिन वह लोगों को नकली सिक्के ढालने से नहीं रोक पाया। नतीजा यह हुआ कि नकली सिक्कों के ढेर लग गए और मुद्रा का अवमूल्यन हो गया। अपनी योजनाओं और प्रयोगों की निरंतर असफलता से तुगलक को निराषा हुई। उसने खुरासान पर अधिकार की अपनी योजना छोड़ दी और हिमाचल में स्थित कांगडा पर आक्रमण कर संतोश कर लिया। तुगलक प्रतापी, महत्वाकांक्षी और स्वप्नदृश्टा शासक था, लेकिन उसकी अधिकांष योजनाएं और प्रयोग अपारंपरिक थे, इसलिए उसे इनके क्रियान्वयन में तत्कालीन अमीरों, उलेमाओं और जनसाधारण का सहयोग नहीं मिला। जनसाधारण में असफल प्रयोगों के कारण उसके लिए गुस्सा था, उलेमा और धार्मिक कट्टपंथी मुसलमान अपनी उपेक्षा के कारण उससे खफा थे और अमीर वर्ग में निहित स्वार्थों की पूर्ति नहीं होने के कारण उसके विरुद्ध नाराजगी थी। इस तरह तमाम शुभेच्छाओं के बावजूद तुगलक को सब जगह असफलताएं हाथ लगीं। इतिहासकार इसीलिए उसे अभागा आदषZवादी कहते हैं। तुगलक का यही महत्वाकांक्षी और स्वप्नदृश्टा, लेकिन सब जगह असफल और निराष व्यक्तित्व गिरीश कारनाड के इस नाटक का आधार है। उसके सपने और उनकी दुर्गति का यथार्थ ही इस नाटक की धुरि है।
इतिहास और साहित्य में बुनियादी अंतर यह है कि इतिहास तथ्य पर आधारित होता है, जबकि साहित्य में तथ्य कल्पना के साथ संयुक्त होकर जीवंत रूप ले लेता है। यह सही है कि तुगलक की रचना के लिए कारनाड के मध्यकालीन भारतीय इतिहास का गहन शोध और अध्ययन किया है, लेकिन उनकी कल्पनाशीलता ही इस नाटक को सही मायने में नाटक का रूप देती है। इतिहास इस नाटक की रीढ है, लेकिन कल्पना इसका जीवन है। इतिहास यहां तथ्य तो उपलब्ध करवाता है, लेकिन इन तथ्यों को जीवंत मानवीय सरोकारों और संबंधों में दरअसल कल्पना ही ढालती है। कारनाड ने इस नाटक में चरित्रों और घटनाओं का ताना-बाना इतिहास से लिया है, लेकिन संबंधों का विस्तार, उनकी प्रकृति आदि का निर्धारण उनकी उर्वर कल्पना ने किया है। तुगलक ऐतिहासिक व्यक्तित्व है, लेकिन उसकी सोच, उसके निरंतर अंतर्संघशZ और संवेदनषीलता को गढने का काम कारनाड के रचनाकार की कल्पना ने किया है। तुगलक इतिहास में सनकी और पागल के रूप में कुख्यात है, लेकिन यह अकारण नहीं है। दरअसल निरंता असफलता और हताशा तुगलक के सकारात्मक चरित्र को नकारात्मक बना देती है। कारनाड का कल्पनाषील रचनाकार तुगलक के सनकी और निरंकुष शासक में तब्दील हो जाने प्रक्रिया के मानवीय पहलू को बहुत खूबी ओर बारीकी के साथ पेष करता है। कारनाड की कल्पनाषीलता तुगलक को एक ऐसे असाधारण मनुश्य का रूप देती है, जो अपनी सोच को अमल में लाने की जद्दोजहद में टूटता जाता है और अंतत: हार जाता है। यह कारनाड की कल्पना का ही चमत्कार है कि नाटक के अंत में तुगलक ऐसे शख्स के रूप में सामने आता है, जिसे परिस्थितियों में सनकी और पागल बना दिया है और दषZकों को उससे सहानुभूति होती है। कारनाड की कल्पना तुगलक के एक साथ परस्पर विरोधी और एक-दूसरे को करते हुए कई रूप गढती है। वह चिंतनषील, संवेदनशील और परदुखकातर है, लेकिन साथ ही वह कूटनीतिज्ञ, नृषंश, क्रूर और निरंकुष भी है। इस तरह का परस्पर विरोधी चारित्रिक विषेशताओं वाला व्यक्तित्व गढना और उसको स्वीकार्य बनाए रखना मुिष्कल काम है, लेकिन कारनाड अपनी कल्पना के सहारे यह कर लेते हैं। तुगलक के संबंधों के बहुत विस्तार और बारीकी में कारनाड नहीं जाते, लेकिन सौतेली मां के चरित्र की कल्पना से उसके व्यक्तित्व को मानवीय जीवंतता का स्पषZ मिलता है। यह संबंध बहुत सांकेतिक है- इसके विस्तार में कारनाड नहीं जाते, लेकिन स्पश्ट हो जाता है कि सौतेली मां तुगलक पर अनुरक्त है और उससे उसकी अपेक्षाएं भी मां की नहीं है।
कारनाड की रचनात्मक कल्पना का इस नाटक में सबसे अच्छा उदाहरण धार्मिक नेता शेख इमामुद्दीन की कूटनीतिक ढंग से हत्या का प्रकरण है। यह प्रकरण कारनाड की कल्पना की असाधारण सूझबूझ का नतीजा है। इस घटना से उन्होंने समाज में धर्म की हैसियत की असलियत को सामने रख दिया है। मुहम्मद तुगलक का यह कथन कि ´´आमो-खास की मजहबी अकीदत की जड़ें किस कदर कमजोर है! अवाम का भोलापन फितरती तौर पर शुबहा और वहम से वाबस्ता होता है`` दरअसल हमारे समय और समाज में भी धर्म की कमजोर बुनियाद की ओर संंकेत है। कारनाड इस घटना की कल्पना से यह सिद्ध करते हैं कि समय कोई भी हो जनसाधारण की जड़ें धर्म में कम, चमत्कार और भ्रम में ज्यादा गहरी होती हैं। दौलताबाद किले के ऊपरी हिस्से पर तुगलक और बरनी के बीच हुआ संवाद भी कारनाड की कल्पनाशीलता का ही नतीजा है। इस प्रकरण की कल्पना से तुगलक का उदात्त और संवेदनषील शासक व्यक्तित्व उभरता है। इन संवादों से कारनाड तुगलक की सोच और उसके कार्यों के औचित्य पर रोषनी डालते हैं। बरनी के इस परामर्श पर कि सबको माफी बख्श दें, तुगलक कहता है-´´ लेकिन उससे पहले मुझे ये यकीनी तौर पर इल्म होना चाहिए कि मेरा मकसद ही गलत था। मेरे इरादे ही नाकिस थे। तब ‘यद तुम्हारा यह इलाज मुफीद साबित हो। लेकिन जब तक वो लम्हा नहीं आयेगा, तब तक इसी पर अमल करूंगा। मैंने जो सीखा है या जाना है, उसी को जारी रखूंगा, उसी से रिआया को रूशनास कराता रहूंगा। मैं यह कभी गवारा नहीं करूंगा कि तवारीख को फिर अंधों की तरह अपने- आपको दुहराने का मौका मिले। ये मजबूरी है कि अपने पास मौजूदा एक ही जिंदगी पड़ी है, इसलिए मैं इसे नाकाम नहीं होने दूंगा। (एक-एक हर्फ पर जोर देकर) लोग जब तक मेरी बातों पर गौर नहीं करेंगे, तब तक यह कत्ले-आम मुसलसल जारी रहेगा। दूसरा कोई चारा नहीं, बरनी।``
नाटक में ढिंढोरची और उसकी घोषणाएं भी कारनाड की कल्पनाषीलता का नमूना हैं। इस कल्पना से नाटक में समय के विस्तार और घटनाओं की भीड़भाड़ कम करने में बहुत मदद मिली है। ढिंढोरची मंच पर आकर अपने ऐलान से घटनाओं का वृत्तांत पेष करता है, जिससे दषZक, जो देख रहे हैं उसको व्यापक परिप्रेक्ष्य में समक्ष लेते हैं। सबसे पहले ढिंढोरची पहले दृष्य के बीच में आता है और उपस्थित जन साधारण को सुल्तान के विरुद्ध ब्राह्मण विष्श्णुप्रसाद की दरख्वास्त पर हाकिमे अदालत का फैंसला बताता है। दृष्य चार से पहले िढंढोरची आईन-उल-मुल्क की दिल्ली पर चढ़ाई, सुल्तान के कन्नोज प्रस्थान, शेख इमामुद्दीन द्वारा सुल्तान को सहयोग देने और सुल्तान की अनुपस्थिति में शहाबुद्दीन के नायब सुल्तान होने की सूचना देता है। दृष्य सात के पूर्व िढंढोरची के दो महत्वपूर्ण ऐलान हैं। एक में वह शाही महल में बगावत और उसमें शहाबुद्दीन शहीद होने की सूचना और दूसरे में वह दिल्ली के जनसाधारण को एक माह में दौलताबाद जाने का शाही फरमान सुनाता है।
Sunday, 4 May 2008
इलेक्ट्रोनिक मीडिया से बदल रहा है साहित्य?
इलेक्ट्रोनिक मीडिया दृश्य और श्रव्य प्रविधि है। उपग्रह-प्रक्षेपण से इसकी पहुंच और प्रभाव का दायरा बड़ा हो गया और डिजिटल-तकनीक ने इसकी दृश्य-श्रव्य के संचार की गुणवत्ता बढ़ा दी। पारम्परिक प्रिंट मीडिया में अभिव्यक्ति का माध्यम भाषा थी। भाषा की लाक्षणिकता, व्यंजकता, मुहावरा आदि ही इसकी अभिव्यक्ति के खास औजार थे। इलेक्ट्रोनिक मीडिया, उसमें भी खास तौर पर टीण्वीण् ने अभिव्यक्ति की पद्धति को पूरी तरह बदल दिया। अब दृश्य का यथावत और त्वरित गति से संचार संभव हो गया। भाषा भी यहां श्रव्य रूप पाकर अधिक लाक्षणिक और व्यंजक हो गई। पाठ्य अभिव्यक्ति में भाषा की नाटकीयता लगभग खत्म हो गई थी-टीण्वीण् में उसका भी पुनराविष्कार हुआ। इस सबका नतीजा यह हुआ कि पारम्परिक अभिव्यक्ति-रूप इलेक्ट्रोनिक मीडिया की जरूरतों के अनुसार अपनी प्रकृति, प्रक्रिया और स्वरूप को बदलने के लिए तत्पर और बेचैन दिखे। इस प्रक्रिया में कुछ अभिव्यक्ति-रूपों का रूपान्तरण हुआ और कुछ सर्वथा नए अभिव्यक्ति-रूप भी अस्तित्व में आए।
इलेक्ट्रोनिक मीडिया बहुराष्ट्रीय पूंजी के स्वामित्व वाला व्यापारिक उपक्रम है, इसलिए यह अपने लाभ के लिए संस्कृति को उत्पाद और उद्योग में बदलता है। अपने विस्फोटक विस्तार के साथ ही हमारे देश में भी उसने यही किया। हमारे यहां यह तत्काल और आसानी से हो गया। दरअसल हमारे यहां परंपरा से समाज के सभी तबकों को संस्कृति के उपभोग की अनुमति नहीं थी। इस संबंध में कई सामाजिक विधि-निषेध और नैतिक अंतबाZधाएं थीं। 1990 के दशक में इलेक्ट्रोनिक मीडिया के विस्फोटक विस्तार से यह सब भरभरा कर ढह गए। संस्कृति के उपभोग में अब कोई बाधा नहीं रही। इसके लिए केवल उपभोक्ता होना पर्याप्त था। देखते-ही-देखते संस्कृति विराट उद्योग में तब्दील हो गई और इसके व्यवसाय का ग्राफ तेजी से ऊपर चढ़ गया। टीण्वीण्, रेडियो, केबल और लाइव मनोरंजन में उफान आ गया। एक सूचना के अनुसार वषZ 2003 के दौरान हमारे यहां मनोरंजन उद्योग 16,600 करोड़ रुपए का कूता गया। एक अनुमान के अनुसार हमारे यहां फिल्मों का कारोबार वषZ 2006 में 1.1 खरब डॉलर हो जाएगा। साहित्य भी संस्कृति-रूप है, इसलिए इस सब से या तो यह हािशए पर आ गया है या तेजी से अपने को उत्पाद और उद्योग में बदल रहा है। फरवरी, 2004 में दिल्ली में आयोजित सोलहवें विश्व पुस्तक मेले के उद्घाटन के अवसर पर भारतीय मूल के साहित्य के नोबेल पुरस्कार विजेता सर वी.स.नायपाल ने साहित्य की इस स्थिति पर टिप्पणी करते हुए कहा कि ´´दुर्भाग्य है कि आज साहित्य अपनी जड़ों से उखड़ गया हैं। साहित्य का स्थान घटिया कथानक, जादू-टोना और ओझाई लेखन ने ले लिया है। तकनीकी विकास के साथ पुस्तकों की बिक्री बढ़ी है और नए पाठक तैयार हो रहे है, लेकिन बिक्री की नई तरकीबों के बीच साहित्य मर रहा है। उसे कोने में धकेल दिया गया है।``
संस्कृति के औद्योगीकरण की प्रक्रिया से हमारे पारंपरिक साहित्य में जबर्दस्त बेचैनी है। आरिम्भक आंशिक प्रतिरोध के बाद थोड़े असमंजस के साथ इसमें बाजार की जरूरतों के अनुसार ढलने की प्रक्रिया की शुरुआत हो गई है। साहित्य को उत्पाद मानकर उसकी माकेZटिंग हमारे यहां भी शुरू हो गई है। इसका नतीजा यह हुआ कि साहित्य की घटती लोकप्रियता के बावजूद पिछले कुछ सालों से हमारे यहां पुस्तकों की बिक्री में असाधारण वृिद्ध हुई है। एक सूचना के अनुसार हमारे यहां 70,000 पुस्तकें प्रतिवर्ष छपती हैं और ये 10 से 12 प्रतिशत सालाना की दर से बढ़ रही है। अब हमारे यहां साहित्य भी साबुन या नूडल्स की तरह उत्पाद है, इसलिए इसकी मार्केटिंग के लिए फिल्म अभिनेताओं का सहारा लेने की बात की जा रही है। इंडिया टुडे कॉनक्लेव, 2004 में शामिल विश्वविख्यात अमरीकी प्रकाशक अल्फ्रेड एण् नॉफ के भारतीय मूल के अध्यक्ष और संपादक सन्नी मेहता ने प्रस्ताव किया कि ´´कुछ साल पहले अमरीकी टी.वी. के लोकप्रिय प्रस्तोता ऑप्रा विनफ्रे के साप्ताहिक टीण्वीण् बुक-क्लब शुरू करने के बाद पुस्तकों की बिक्री काफी बढ़ गई थी। कल्पना की जा सकती है कि अगर आज अमिताभ बच्चन या ऐश्वर्या राय भारत में टीण्वीण् पर ऐसा कार्यक्रम शुरू कर दें तो क्या कमाल हो सकता है।`` इलेक्ट्रोनिक मीडिया पर चर्चित और विख्यात होने के कारण सलमान रश्दी, विक्रम सेठ और अरुंधती राय की किताबें हमारे यहां तेजी से लोकप्रिय हुई हैं। बहुत उबाऊ और बोिझल होने के बावजूद इन किताबों के हिन्दी रूपान्तरण निकले और पाठकों द्वारा खरीदे भी गए।
हमारे यहां उत्पाद मानकर साहित्य की मार्केटिंग ही नहीं हो रही है, बाजार की मांग के अनुसार इसके सरोकार, वस्तु, ल्प आदि में भी बदलाव किए जा रहे हैं। इसमें मनोरंजन, उत्तेजना और सनसनी पैदा करने वाले तत्वों में घुसपैठ बढ़ी है। इस कारण पिछले कुछ वर्षों से हमारे साहित्य में भी राजनेताओं, उच्चाधिकारियों, अभिनेताओं और स्टार खिलािड़यों के व्यक्तिगत जीवन से पर्दा उठाने वाली आत्मकथात्मक, संस्मरणात्मक और जीवनपरक रचनाओं की स्वीकार्यती बढ़ी है। बिल िक्लंटन और मोनिका लेविंस्की की यौन लीलाओं के वृत्तांत का हिन्दी-रूपान्तरण ´मैं शर्मिंदा हूं` को साहित्य के एक विख्यात प्रकाशक ने प्रकाशित किया और यह हिन्दी-पाठकों में हाथों-हाथ बिक गया। हिन्दी में ही नेहरू और लेडी माउंटबेटन एडविना के प्रणय संबंधों पर आधारित केथरिन क्लैमां के फ्रेंच उपन्यास ने पर्याप्त लोकप्रियता अर्जित की। इसी तरह विख्यात पत्रिका ´हंस` में राजेन्द्र यादव द्वारा चर्चित प्रसंग ´होना और सोना एक औरत के साथ` को हिन्दी की साहित्यिक बिरादरी ने चटखारे लेकर पढ़ा और सराहा। हिन्दी की श्रेष्ठ साहित्यिक रचनाओं में भी जाने-अनजाने मनोरंजन और उत्तेजना पैदा करने वाले तत्वों की मात्रा पिछले दस-बारह सालों में बढ़ी है। मैत्रेयी पुष्पा के साहित्यिक उपन्यासों में रतिक्रियाओं के दृश्य अलग से पहचाने जा सकते हैं, विजय मोहन सिंह की कहानियों में सेक्स जबरन ठूंसा गया लगता है तथा अशोक वाजपेयी की कविताओं में रति की सजग मौजूदगी को भी इसी निगाह से देखा जा सकता है। पिछले दशक में प्रकािशत सुरेन्द्र वर्मा का हिन्दी उपन्यास ´दो मुर्दों के लिए गुलदस्ता` तो संपूर्ण ही ऐसा है।
इलेक्ट्रोनिक मीडिया व्यावसायिक उद्यम है और इसका लक्ष्य उपभोक्ता-समाज को अपने संजाल के दायरे में लाकर उसकी आकांक्षा, रुचि और स्वाद का, अपने विज्ञापित उत्पादों के उपभोग के लिए, अनुकूलीकरण करना है। यह काम, जाहिर है, उपभोक्ता समाज की संपर्क भाषा में ही हो सकता है। हमारे देश में अपने प्रसार के साथ ही इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने उपभोक्ता-समाज की संपर्क भाषा हिन्दी की अपनी जरूरतों के अनुसार नए सिरे से बनाना शुरू कर दिया है। पारम्परिक प्रिंट मीडिया और साहित्य की हिन्दी ठोस और ठस थी। इस भाषा में आम भारतीय उपभोक्ता समाज से संपर्क और संवाद संभव ही नहीं था। इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने दस-पंद्रह सालों में हिन्दी का नया रूपान्तरण ´हिंगलिश` कर दिया। देखते-ही-देखते इसका व्यापक इस्तेमाल भी होने लग गया। खास तौर पर यह नयी पीढ़ी के युवा वर्ग में संपर्क और संवाद की भाषा हो गई। विख्यात फिल्म अभिनेता विवेक ओबेराय से एक बार पूछा गया कि आप सपने किस भाषा में देखते हैं, तो उनका जवाब था ´हिंगलिश में` और जब उनसे पूछा गया कि आप किस भाषा में सोचते हैं तो उन्होंने कहा कि "भावना की बात हो तो हिन्दी में और विचार हो तो अंग्रेजी में। रस की बातें हिन्दी में होती हैं और अर्थ की बातें हो तो अंग्रेजी में।" हिन्दी के इस कायान्तरण से नफा और नुकसान दोनों हुए हैं। नफा यह कि अब हिन्दी अपने लिखित-पठित, ठोस-ठस रूप के दायरे से बाहर निकल कर सरल और अनौपचारिक हो गई है। अब इसमें शुद्धता का आग्रह नहीं है और इसने परहेज करना भी बंद कर दिया है इसलिए यह व्यापक सरोकारों वाली बाजार की जनभाषा का रूप ले रही है। नुकसान यह हुआ है कि इसमें विचार को धारण करने का सामथ्र्य कम होता जा रहा है। लेकिन इस संबंध में फिलहाल कोई निष्कर्ष निकालना ठीक नहीं है। यह समय संक्रमण का है-बाजार के बीच ही सही, व्यापक जनभाषा का रूप लेने से इसमें अभी नए पेच-खम बनेंगे और यह अभी और नया रूप धारण करेगी। आज तक, स्टार न्यूज और डिस्कवरी पर हिन्दी के इस नए रूप की झलक अभी से देखी जा सकती है। हिन्दी के इस कायान्तरण से गत दस-पंद्रह सालों के हिन्दी साहित्य की भाषा में भी असाधारण बदलाव आया है। यह अब पहले जैसी ठोस और ठस साहित्यिक भाषा नहीं रही। यह अब जनसाधारण के बोलचाल की बाजार की भाषा के निकट आ गई है। विख्यात कहानीकार उदयप्रकाश ने एक जगह स्वीकार किया कि ´´इधर हिन्दी में कई लेखक उभरकर आए हैं जो बाजार की भाषा में लिख रहे हैं और उनके विचार वही हैं, जो हमारे हैं। मुझे लगता है कि हम लोगों को भी जो उन मूल्यों के पक्ष में खड़े हैं, जिन पर आज संकट की घड़ी है, अपना एक दबाव बनाने के लिए बाजार की भाषा को अपनाना पडे़गा।`` यह बदलाव केवल साहित्य के गद्य रूपों की भाषा में ही नहीं, कविता की भाषा में भी हुआ है। यहां आग्रह अब सरलता का है और इसमें बोलचाल की भाषा की नाटकीयता एवं तनाव का रचनात्मक इस्तेमाल हो रहा है।
इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने हमारे देश में संस्कृति को उत्पाद और उद्योग में बदलकर उसका जो बाजारीकरण किया, उसका एक लाभ यह हुआ है कि इसका उपयोग पहले की तरह अब कुछ वर्गों तक सीमित नहीं रहा। इसके उपभोग में जाति, धर्म, संप्रदाय और लैंगिक भेदभाव समाप्त हो गया है। साहित्य भी संस्कृति का एक रूप है इसलिए इलेक्ट्रोनिक मीडिया के प्रसार के साथ हमारे देश में इसका भी व्यापक रूप से और त्वरित गति से जनतंत्रीकरण हुआ है। इस कारण हमारे यहां पिछले दस-पंद्रह सालों के दौरान साहिित्यक अभिव्यक्ति और इसके उपभोग की आकांक्षा समाज के सभी वर्गों में खुलकर व्यक्त हुई है। इस दौरान भारतीय भाषाओं के साहित्य में दलित वर्ग के कई साहित्यकारों ने अपनी अलग पहचान बनाई। हिन्दी में भी इस दौरान दलित-विमर्श मुख्यधारा में आया। दलित वर्ग की तरह ही इधर साहित्य में अपनी अस्मिता के प्रति सचेत स्त्री रचनाकारों ने भी बड़ी संख्या में उपस्थिति दर्ज करवाई है। अंग्रेजी और हिन्दी की लगभग सभी लोकप्रिय और साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं ने इस दौरान स्त्री रचनाओं पर विशेषांक प्रकाशित किए। साहित्य के जनतंत्रीकरण का एक और लक्षण गत कुछ वर्षों की हिन्दी की साहित्यिक सक्रियता और प्रकाशन के केन्द्र महानगरों में होते थे। अब ये वहां से शहरों, कस्बों और गांवों में फैल गए हैं। सूचनाओं की सुलभता के कारण दूरदराज के कस्बों-गांवों के रचनाकार आत्मविश्वास के साथ हिन्दी के समकालीन साहिित्यक विमर्श का हिस्सा बन रहे हैं और अपनी पहचान बना रहे हैं।
इलेक्ट्रोनिक मीडिया हमारे देश में बहुराष्ट्रीय पूंजी के नियंत्रण और निर्देशन में जिस उपभोक्तावाद और आर्थिक-सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का प्रसार कर रहा है उसका प्रतिरोध मुख्यतया हमारे साहित्य में ही हो रहा है। यूण्आरण् अनंतमूर्ति ने पिछले दिनों एक जगह कहा था कि जैसे टेलीविजन वाले करते हैं वैसे हमें नहीं करना चाहिए हमें रेसिस्ट करना है, डिसक्रिमीनेट करना है। इस प्रतिरोध के कारण गत दस-पंद्रह सालों के हमारे साहित्य के सरोकारों और विषय-वस्तु में बदलाव आया है। हिन्दी में भी यह बदलाव साफ देखा जा सकता है। मनुष्य को उसके बुनियादी गुण-धर्म और संवेदना से काटकर महज उपभोक्ता में तब्दील कर दिए जाने की प्रक्रिया का खुलासा करने वाली कई कविताएं इस दौरार हिन्दी में लिखी गई हैं। इसी तरह आर्थिक-सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के दुष्परिणामों में एकाग्र उपन्यास और कहानियां भी हिन्दी में कई प्रकाशित हुई हैं। उपभोक्तावाद और आर्थिक-सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के विरुद्ध प्रतिक्रिया इस दौरान हिन्दी कविता में पलायन की नई प्रवृत्ति के उभार में भी व्यक्त हुई है। कई कवि इस नई स्थिति से हतप्रभ और आहत होकर घर-गांव की बाल-किशोर कालानी स्मृतियों में लौट गए हैं। इस कारण इधर की हिन्दी कविता में कहीं-कहीं वर्तमान यथार्थ से मुठभेड़ की जगह स्मृति की मौजूदगी बढ़ गई है।
इलेक्ट्रोनिक मीडिया अपनी प्रविधि और खास चरित्र से पारम्परिक साहित्य की िशल्प-प्रविधि को भी अनजाने ढंग से प्रभावित कर बदलता है। साहित्यकार इलेक्ट्रोनिक मीडिया का उपभोक्ता है इसलिए अनजाने ही उसकी कल्पनाशीलता इससे प्रभावित होती है। इसके अनुसार उसका अनुकूलीकरण होता है। हमारे यहां खास तौर पर टी.वी. के कारण साहित्य की प्रविधि और शिल्प में जबर्दस्त बदलाव हुए हैं। दस-पंद्रह सालों के हिन्दी साहित्य में इस कारण दृश्य का आग्रह बढ़ गया-यहां वर्णन पहले की तुलना में कम, दृश्य ज्यादा आ रहे हैं। इसी तरह पाठक अब पहले से सूचित है और पहले से ज्यादा जातना है इसलिए इधर की रचनाओं में सूचनाएं कम हो गईं हैं या असाधारण सूचनाएं बढ़ गई हैं। टी.वी.के प्रभाव के कारण ही हिन्दी में लंबी कहानियों और उनके एपिसोडीकरण की प्रवृत्ति बढ़ी है। साहित्य की पारम्परिक तकनीक-रोचकता और रंजकता के पारम्परिक उपकरण ओवर एक्सपोजर से बासी हो गए हैं इसलिए इधर के हिन्दी साहित्य में इनके विकल्पों के इस्तेमाल की सजगता दिखाई पड़ती है। रचनाकार पुराकथाओं या मिथकों की तरफ लौट रहे हैं और वर्णन की पुरानी शैलियों का नवीनीकरण हो रहा है। इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने पारम्परिक साहित्य में एक और खास तब्दीली की है। गत दस-पंद्रह सालों के दौरान साहित्यिक विधाओं का स्वरूपगत अनुशासन ढीला पड़ गया है। इनमें परस्पर अंतर्क्रिया और संवाद बढ़ रहा है। इसका असर हिन्दी में भी दिखाई पड़ने लगा है। इसी कारण हिन्दी में उपन्यास आत्मकथा की शक्ल और आत्मकथा उपन्यास की शक्ल में लिखीं जा रही हैं। कहानियां पटकथाएं लगती हैं और संस्मरण कहानी के दायरे में जा घुसे हैं। इसी तरह हिन्दी कविता ने भी अपने पारम्परिक औजारों का मोह लगभग छोड़ दिया है। यह अधिकांश बोलचाल की भाषा के पेच और खम के सहारे हो रही है।
जाहिर है, साहित्य पर इलेक्ट्रोनिक मीडिया का गहरा और व्यापक प्रभाव है। यह अलग बात है कि आत्म मुग्ध और अपने तक सीमित साहित्यिक बिरादरी को अभी इसका अहसास बहुत कम है।
इलेक्ट्रोनिक मीडिया बहुराष्ट्रीय पूंजी के स्वामित्व वाला व्यापारिक उपक्रम है, इसलिए यह अपने लाभ के लिए संस्कृति को उत्पाद और उद्योग में बदलता है। अपने विस्फोटक विस्तार के साथ ही हमारे देश में भी उसने यही किया। हमारे यहां यह तत्काल और आसानी से हो गया। दरअसल हमारे यहां परंपरा से समाज के सभी तबकों को संस्कृति के उपभोग की अनुमति नहीं थी। इस संबंध में कई सामाजिक विधि-निषेध और नैतिक अंतबाZधाएं थीं। 1990 के दशक में इलेक्ट्रोनिक मीडिया के विस्फोटक विस्तार से यह सब भरभरा कर ढह गए। संस्कृति के उपभोग में अब कोई बाधा नहीं रही। इसके लिए केवल उपभोक्ता होना पर्याप्त था। देखते-ही-देखते संस्कृति विराट उद्योग में तब्दील हो गई और इसके व्यवसाय का ग्राफ तेजी से ऊपर चढ़ गया। टीण्वीण्, रेडियो, केबल और लाइव मनोरंजन में उफान आ गया। एक सूचना के अनुसार वषZ 2003 के दौरान हमारे यहां मनोरंजन उद्योग 16,600 करोड़ रुपए का कूता गया। एक अनुमान के अनुसार हमारे यहां फिल्मों का कारोबार वषZ 2006 में 1.1 खरब डॉलर हो जाएगा। साहित्य भी संस्कृति-रूप है, इसलिए इस सब से या तो यह हािशए पर आ गया है या तेजी से अपने को उत्पाद और उद्योग में बदल रहा है। फरवरी, 2004 में दिल्ली में आयोजित सोलहवें विश्व पुस्तक मेले के उद्घाटन के अवसर पर भारतीय मूल के साहित्य के नोबेल पुरस्कार विजेता सर वी.स.नायपाल ने साहित्य की इस स्थिति पर टिप्पणी करते हुए कहा कि ´´दुर्भाग्य है कि आज साहित्य अपनी जड़ों से उखड़ गया हैं। साहित्य का स्थान घटिया कथानक, जादू-टोना और ओझाई लेखन ने ले लिया है। तकनीकी विकास के साथ पुस्तकों की बिक्री बढ़ी है और नए पाठक तैयार हो रहे है, लेकिन बिक्री की नई तरकीबों के बीच साहित्य मर रहा है। उसे कोने में धकेल दिया गया है।``
संस्कृति के औद्योगीकरण की प्रक्रिया से हमारे पारंपरिक साहित्य में जबर्दस्त बेचैनी है। आरिम्भक आंशिक प्रतिरोध के बाद थोड़े असमंजस के साथ इसमें बाजार की जरूरतों के अनुसार ढलने की प्रक्रिया की शुरुआत हो गई है। साहित्य को उत्पाद मानकर उसकी माकेZटिंग हमारे यहां भी शुरू हो गई है। इसका नतीजा यह हुआ कि साहित्य की घटती लोकप्रियता के बावजूद पिछले कुछ सालों से हमारे यहां पुस्तकों की बिक्री में असाधारण वृिद्ध हुई है। एक सूचना के अनुसार हमारे यहां 70,000 पुस्तकें प्रतिवर्ष छपती हैं और ये 10 से 12 प्रतिशत सालाना की दर से बढ़ रही है। अब हमारे यहां साहित्य भी साबुन या नूडल्स की तरह उत्पाद है, इसलिए इसकी मार्केटिंग के लिए फिल्म अभिनेताओं का सहारा लेने की बात की जा रही है। इंडिया टुडे कॉनक्लेव, 2004 में शामिल विश्वविख्यात अमरीकी प्रकाशक अल्फ्रेड एण् नॉफ के भारतीय मूल के अध्यक्ष और संपादक सन्नी मेहता ने प्रस्ताव किया कि ´´कुछ साल पहले अमरीकी टी.वी. के लोकप्रिय प्रस्तोता ऑप्रा विनफ्रे के साप्ताहिक टीण्वीण् बुक-क्लब शुरू करने के बाद पुस्तकों की बिक्री काफी बढ़ गई थी। कल्पना की जा सकती है कि अगर आज अमिताभ बच्चन या ऐश्वर्या राय भारत में टीण्वीण् पर ऐसा कार्यक्रम शुरू कर दें तो क्या कमाल हो सकता है।`` इलेक्ट्रोनिक मीडिया पर चर्चित और विख्यात होने के कारण सलमान रश्दी, विक्रम सेठ और अरुंधती राय की किताबें हमारे यहां तेजी से लोकप्रिय हुई हैं। बहुत उबाऊ और बोिझल होने के बावजूद इन किताबों के हिन्दी रूपान्तरण निकले और पाठकों द्वारा खरीदे भी गए।
हमारे यहां उत्पाद मानकर साहित्य की मार्केटिंग ही नहीं हो रही है, बाजार की मांग के अनुसार इसके सरोकार, वस्तु, ल्प आदि में भी बदलाव किए जा रहे हैं। इसमें मनोरंजन, उत्तेजना और सनसनी पैदा करने वाले तत्वों में घुसपैठ बढ़ी है। इस कारण पिछले कुछ वर्षों से हमारे साहित्य में भी राजनेताओं, उच्चाधिकारियों, अभिनेताओं और स्टार खिलािड़यों के व्यक्तिगत जीवन से पर्दा उठाने वाली आत्मकथात्मक, संस्मरणात्मक और जीवनपरक रचनाओं की स्वीकार्यती बढ़ी है। बिल िक्लंटन और मोनिका लेविंस्की की यौन लीलाओं के वृत्तांत का हिन्दी-रूपान्तरण ´मैं शर्मिंदा हूं` को साहित्य के एक विख्यात प्रकाशक ने प्रकाशित किया और यह हिन्दी-पाठकों में हाथों-हाथ बिक गया। हिन्दी में ही नेहरू और लेडी माउंटबेटन एडविना के प्रणय संबंधों पर आधारित केथरिन क्लैमां के फ्रेंच उपन्यास ने पर्याप्त लोकप्रियता अर्जित की। इसी तरह विख्यात पत्रिका ´हंस` में राजेन्द्र यादव द्वारा चर्चित प्रसंग ´होना और सोना एक औरत के साथ` को हिन्दी की साहित्यिक बिरादरी ने चटखारे लेकर पढ़ा और सराहा। हिन्दी की श्रेष्ठ साहित्यिक रचनाओं में भी जाने-अनजाने मनोरंजन और उत्तेजना पैदा करने वाले तत्वों की मात्रा पिछले दस-बारह सालों में बढ़ी है। मैत्रेयी पुष्पा के साहित्यिक उपन्यासों में रतिक्रियाओं के दृश्य अलग से पहचाने जा सकते हैं, विजय मोहन सिंह की कहानियों में सेक्स जबरन ठूंसा गया लगता है तथा अशोक वाजपेयी की कविताओं में रति की सजग मौजूदगी को भी इसी निगाह से देखा जा सकता है। पिछले दशक में प्रकािशत सुरेन्द्र वर्मा का हिन्दी उपन्यास ´दो मुर्दों के लिए गुलदस्ता` तो संपूर्ण ही ऐसा है।
इलेक्ट्रोनिक मीडिया व्यावसायिक उद्यम है और इसका लक्ष्य उपभोक्ता-समाज को अपने संजाल के दायरे में लाकर उसकी आकांक्षा, रुचि और स्वाद का, अपने विज्ञापित उत्पादों के उपभोग के लिए, अनुकूलीकरण करना है। यह काम, जाहिर है, उपभोक्ता समाज की संपर्क भाषा में ही हो सकता है। हमारे देश में अपने प्रसार के साथ ही इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने उपभोक्ता-समाज की संपर्क भाषा हिन्दी की अपनी जरूरतों के अनुसार नए सिरे से बनाना शुरू कर दिया है। पारम्परिक प्रिंट मीडिया और साहित्य की हिन्दी ठोस और ठस थी। इस भाषा में आम भारतीय उपभोक्ता समाज से संपर्क और संवाद संभव ही नहीं था। इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने दस-पंद्रह सालों में हिन्दी का नया रूपान्तरण ´हिंगलिश` कर दिया। देखते-ही-देखते इसका व्यापक इस्तेमाल भी होने लग गया। खास तौर पर यह नयी पीढ़ी के युवा वर्ग में संपर्क और संवाद की भाषा हो गई। विख्यात फिल्म अभिनेता विवेक ओबेराय से एक बार पूछा गया कि आप सपने किस भाषा में देखते हैं, तो उनका जवाब था ´हिंगलिश में` और जब उनसे पूछा गया कि आप किस भाषा में सोचते हैं तो उन्होंने कहा कि "भावना की बात हो तो हिन्दी में और विचार हो तो अंग्रेजी में। रस की बातें हिन्दी में होती हैं और अर्थ की बातें हो तो अंग्रेजी में।" हिन्दी के इस कायान्तरण से नफा और नुकसान दोनों हुए हैं। नफा यह कि अब हिन्दी अपने लिखित-पठित, ठोस-ठस रूप के दायरे से बाहर निकल कर सरल और अनौपचारिक हो गई है। अब इसमें शुद्धता का आग्रह नहीं है और इसने परहेज करना भी बंद कर दिया है इसलिए यह व्यापक सरोकारों वाली बाजार की जनभाषा का रूप ले रही है। नुकसान यह हुआ है कि इसमें विचार को धारण करने का सामथ्र्य कम होता जा रहा है। लेकिन इस संबंध में फिलहाल कोई निष्कर्ष निकालना ठीक नहीं है। यह समय संक्रमण का है-बाजार के बीच ही सही, व्यापक जनभाषा का रूप लेने से इसमें अभी नए पेच-खम बनेंगे और यह अभी और नया रूप धारण करेगी। आज तक, स्टार न्यूज और डिस्कवरी पर हिन्दी के इस नए रूप की झलक अभी से देखी जा सकती है। हिन्दी के इस कायान्तरण से गत दस-पंद्रह सालों के हिन्दी साहित्य की भाषा में भी असाधारण बदलाव आया है। यह अब पहले जैसी ठोस और ठस साहित्यिक भाषा नहीं रही। यह अब जनसाधारण के बोलचाल की बाजार की भाषा के निकट आ गई है। विख्यात कहानीकार उदयप्रकाश ने एक जगह स्वीकार किया कि ´´इधर हिन्दी में कई लेखक उभरकर आए हैं जो बाजार की भाषा में लिख रहे हैं और उनके विचार वही हैं, जो हमारे हैं। मुझे लगता है कि हम लोगों को भी जो उन मूल्यों के पक्ष में खड़े हैं, जिन पर आज संकट की घड़ी है, अपना एक दबाव बनाने के लिए बाजार की भाषा को अपनाना पडे़गा।`` यह बदलाव केवल साहित्य के गद्य रूपों की भाषा में ही नहीं, कविता की भाषा में भी हुआ है। यहां आग्रह अब सरलता का है और इसमें बोलचाल की भाषा की नाटकीयता एवं तनाव का रचनात्मक इस्तेमाल हो रहा है।
इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने हमारे देश में संस्कृति को उत्पाद और उद्योग में बदलकर उसका जो बाजारीकरण किया, उसका एक लाभ यह हुआ है कि इसका उपयोग पहले की तरह अब कुछ वर्गों तक सीमित नहीं रहा। इसके उपभोग में जाति, धर्म, संप्रदाय और लैंगिक भेदभाव समाप्त हो गया है। साहित्य भी संस्कृति का एक रूप है इसलिए इलेक्ट्रोनिक मीडिया के प्रसार के साथ हमारे देश में इसका भी व्यापक रूप से और त्वरित गति से जनतंत्रीकरण हुआ है। इस कारण हमारे यहां पिछले दस-पंद्रह सालों के दौरान साहिित्यक अभिव्यक्ति और इसके उपभोग की आकांक्षा समाज के सभी वर्गों में खुलकर व्यक्त हुई है। इस दौरान भारतीय भाषाओं के साहित्य में दलित वर्ग के कई साहित्यकारों ने अपनी अलग पहचान बनाई। हिन्दी में भी इस दौरान दलित-विमर्श मुख्यधारा में आया। दलित वर्ग की तरह ही इधर साहित्य में अपनी अस्मिता के प्रति सचेत स्त्री रचनाकारों ने भी बड़ी संख्या में उपस्थिति दर्ज करवाई है। अंग्रेजी और हिन्दी की लगभग सभी लोकप्रिय और साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं ने इस दौरान स्त्री रचनाओं पर विशेषांक प्रकाशित किए। साहित्य के जनतंत्रीकरण का एक और लक्षण गत कुछ वर्षों की हिन्दी की साहित्यिक सक्रियता और प्रकाशन के केन्द्र महानगरों में होते थे। अब ये वहां से शहरों, कस्बों और गांवों में फैल गए हैं। सूचनाओं की सुलभता के कारण दूरदराज के कस्बों-गांवों के रचनाकार आत्मविश्वास के साथ हिन्दी के समकालीन साहिित्यक विमर्श का हिस्सा बन रहे हैं और अपनी पहचान बना रहे हैं।
इलेक्ट्रोनिक मीडिया हमारे देश में बहुराष्ट्रीय पूंजी के नियंत्रण और निर्देशन में जिस उपभोक्तावाद और आर्थिक-सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का प्रसार कर रहा है उसका प्रतिरोध मुख्यतया हमारे साहित्य में ही हो रहा है। यूण्आरण् अनंतमूर्ति ने पिछले दिनों एक जगह कहा था कि जैसे टेलीविजन वाले करते हैं वैसे हमें नहीं करना चाहिए हमें रेसिस्ट करना है, डिसक्रिमीनेट करना है। इस प्रतिरोध के कारण गत दस-पंद्रह सालों के हमारे साहित्य के सरोकारों और विषय-वस्तु में बदलाव आया है। हिन्दी में भी यह बदलाव साफ देखा जा सकता है। मनुष्य को उसके बुनियादी गुण-धर्म और संवेदना से काटकर महज उपभोक्ता में तब्दील कर दिए जाने की प्रक्रिया का खुलासा करने वाली कई कविताएं इस दौरार हिन्दी में लिखी गई हैं। इसी तरह आर्थिक-सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के दुष्परिणामों में एकाग्र उपन्यास और कहानियां भी हिन्दी में कई प्रकाशित हुई हैं। उपभोक्तावाद और आर्थिक-सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के विरुद्ध प्रतिक्रिया इस दौरान हिन्दी कविता में पलायन की नई प्रवृत्ति के उभार में भी व्यक्त हुई है। कई कवि इस नई स्थिति से हतप्रभ और आहत होकर घर-गांव की बाल-किशोर कालानी स्मृतियों में लौट गए हैं। इस कारण इधर की हिन्दी कविता में कहीं-कहीं वर्तमान यथार्थ से मुठभेड़ की जगह स्मृति की मौजूदगी बढ़ गई है।
इलेक्ट्रोनिक मीडिया अपनी प्रविधि और खास चरित्र से पारम्परिक साहित्य की िशल्प-प्रविधि को भी अनजाने ढंग से प्रभावित कर बदलता है। साहित्यकार इलेक्ट्रोनिक मीडिया का उपभोक्ता है इसलिए अनजाने ही उसकी कल्पनाशीलता इससे प्रभावित होती है। इसके अनुसार उसका अनुकूलीकरण होता है। हमारे यहां खास तौर पर टी.वी. के कारण साहित्य की प्रविधि और शिल्प में जबर्दस्त बदलाव हुए हैं। दस-पंद्रह सालों के हिन्दी साहित्य में इस कारण दृश्य का आग्रह बढ़ गया-यहां वर्णन पहले की तुलना में कम, दृश्य ज्यादा आ रहे हैं। इसी तरह पाठक अब पहले से सूचित है और पहले से ज्यादा जातना है इसलिए इधर की रचनाओं में सूचनाएं कम हो गईं हैं या असाधारण सूचनाएं बढ़ गई हैं। टी.वी.के प्रभाव के कारण ही हिन्दी में लंबी कहानियों और उनके एपिसोडीकरण की प्रवृत्ति बढ़ी है। साहित्य की पारम्परिक तकनीक-रोचकता और रंजकता के पारम्परिक उपकरण ओवर एक्सपोजर से बासी हो गए हैं इसलिए इधर के हिन्दी साहित्य में इनके विकल्पों के इस्तेमाल की सजगता दिखाई पड़ती है। रचनाकार पुराकथाओं या मिथकों की तरफ लौट रहे हैं और वर्णन की पुरानी शैलियों का नवीनीकरण हो रहा है। इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने पारम्परिक साहित्य में एक और खास तब्दीली की है। गत दस-पंद्रह सालों के दौरान साहित्यिक विधाओं का स्वरूपगत अनुशासन ढीला पड़ गया है। इनमें परस्पर अंतर्क्रिया और संवाद बढ़ रहा है। इसका असर हिन्दी में भी दिखाई पड़ने लगा है। इसी कारण हिन्दी में उपन्यास आत्मकथा की शक्ल और आत्मकथा उपन्यास की शक्ल में लिखीं जा रही हैं। कहानियां पटकथाएं लगती हैं और संस्मरण कहानी के दायरे में जा घुसे हैं। इसी तरह हिन्दी कविता ने भी अपने पारम्परिक औजारों का मोह लगभग छोड़ दिया है। यह अधिकांश बोलचाल की भाषा के पेच और खम के सहारे हो रही है।
जाहिर है, साहित्य पर इलेक्ट्रोनिक मीडिया का गहरा और व्यापक प्रभाव है। यह अलग बात है कि आत्म मुग्ध और अपने तक सीमित साहित्यिक बिरादरी को अभी इसका अहसास बहुत कम है।
Thursday, 1 May 2008
सिरोही राज्य में 1857 का सैनिक विद्रोह
1857 का विद्रोह देशव्यापी तो था, लेकिन उस समय क्षेत्रीय विषमताएं इतनी ज्यादा थीं कि यह विद्रोह सभी क्षेत्रों में एकरूप ढंग से नहीं हुआ। खास तौर पर राजस्थान, जहां हालात बंगाल, बिहार, अवध, दिल्ली आदि की तुलना में बहुत अलग थे, यह विद्रोह व्यापक जनसहभागिता वाली किसी मुहिम या संघर्ष का रूप नहीं ले पाया। यहां यह भिन्न परिस्थितियों के कारण केवल ब्रिटिश सेना के असंतुष्ट देशी सैनिकों और कुछ हद तक सामंत शासकों से निजी कारणों से नाराज जागीरदारों के विद्रोह तक सीमित रह गया। खास बात यह है कि इन जागीरदारों ने भी बहुत खुलकर अंग्रेजों की मुखालपत करने से परहेज किया। आऊवा और कोटा के विद्रोह में जनसाधारण की सहभागिता के जो साक्ष्य दिए जाते हैं वे सही मायने में किसी राजनीतिक चेतना से प्रेरित नहीं थे। प्रस्तुत आलेख में तत्कालीन राजपुताना के गुजरात की सीमा से लगे हुए सिरोही राज्य की ऐरिनपुरा छावनी के जोधपुर लीजन के सैनिकों के विद्रोह का अध्ययन है। यह अध्ययन यह संकेत करता है कि अलग प्रकार के हालात के कारण यहां विद्रोह में जनसाधारण की भागीदारी बिलकुल नहीं थी। खास बात यह है कि इस विद्रोह से यहां के जनजीवन पर भी कोई असर नहीं पड़ा। कुछ सीधे राज्य के कामकाज से जुड़े अभिजात तबके के अलावा अन्य किसी को इसकी जानकारी भी नहीं हुई। सिरोही राज्य से व्यक्तिगत कारणों से नाराज दो बागी जागीरदार ठाकुरों ने विद्रोही सैनिकों को उकसाया, पर वे भी खुलकर उनके साथ नहीं हुए।
ब्रिटिश सरकार और सिरोही
राजपुताना के दक्षिण-पिश्चम में गुजरात की सीमा से लगा हुआ सिरोही राज्य मराठों-पिंडारियों की लूटपाट और आतंक से तो अछूता रहा, लेकिन इसके बावजूद उन्नीसवीं सदी के आरंभिक दशकों में यहां के हालात बहुत खराब और चिंताजनक थे। पड़ोसी राज्य जोधपुर के निरंतर आक्रमण, जागीरदारों के स्वेच्छाचार और भील-मीणों की लूटपाट से यहां पूरी तरह अव्यवस्था हो गई थी। उदयभाण 1807 में सत्तारूढ हुआ लेकिन राज्य में प्रशासन कायम करने के बजाय उसकी दिलचस्पी रागरंग में थी।1 जोधपुर नरेश मानसिंह की मंशा सिरोही को अपने राज्य में मिलाने की थी इसलिए वह निरंतर आक्रमण और लूटपाट से इसको कमजोर करने में लगा हुआ था। उसने 1812 में सेना भेजकर आक्रमण किया और लूटपाट की। उसने तीर्थ यात्रा से लौटते हुए उदयभाण को पाली में गिरफ्तार करवाकर जोधपुर में तीन माह तक नजरबंद रखा। इस दौरान उसने उदयभाण से सिरोही के जोधपुर के अधीन होने की तहरीर भी लिखवा ली।2 जोधपुर नरेश ने 1816 में फिर सेना भेजकर सिरोही के भीतरोट परगने को तबाह कर दिया। 1817 में उसकी सेना ने फिर भीषण आक्रमण किया और इस बार लूटपाट निरंतर दस दिन तक जारी रही। यह सेना सिरोही से लगभग ढाई लाख का माल-असबाब लेकर जोधपुर लौटी। सिरोही नरेश को इस दौरान पहाड़ों में शरण लेनी पड़ी।3 निरंतर आक्रमणों से हालत इतनी खराब हो गई थी कि राज्य में आबाद गांव गिनती के ही रह गए थे।4 अंतत: सिरोही के जागीरदार एकमत होकर उदयभाण के छोटे भाई नादिया के जागीरदार ठाकुर िशवसिंह के पास गए और उससे राज्य का प्रबंध अपने हाथ में लेने का आग्रह किया। 1817 में शिवसिंह ने उदयभाण का नजर कैद कर राज्य का प्रबंध अपने हाथ में ले लिया।5 राज्य में इस समय माहौल अराजकता का था और इसका राजस्व केवल 60 हजार रुपए वार्षिक रह गया था। गौरीशंकर हीराचंद ओझा के अनुसार देश उजड़-सा गया था और राज्य की इतनी ताकत न थी कि प्रजा के जान-माल की रक्षा कर सके।6 चोरी-डकैती राज्य के भील-मीणों की आजीविका के मुख्य स्त्रोत थे। ये सिरोही सहित पड़ोसी जोधपुर और पालनपुर राज्यों में लूटपाट करते थे। जोधपुर के पॉलिटिकल एजेंट पीण्वाईण् वाघ ने अपने समाचार लेखकों के साक्ष्य से सिरोही राज्य के बिगड़ते हालातों के संबंध में एकाधिक बार दिल्ली और मालवा के रेजिडेंट डेविड ऑक्टरलोनी को लिखा। वाघ ने स्पष्ट किया कि भील-मीणों की लूटपाट रोकने की क्षमता और साधन सिरोही नरेश के पास नहीं है।7 उसने कुख्यात भील-मीणों-भरथ, हुरजीरा, राणोमा, रूपला, बिड्डा, कायरा, बेडिया, पीठा और जोधा के नामोल्लेख करते हुए ऑक्टरलोनी को यह भी लिखा कि इनको मोचाल, रेवाडा, अरठवाड़ा आदि के ठाकुरों का संरक्षण प्राप्त है।8 जागीरदार ठाकरों का स्वेच्छाचार भी इस समय बहुत बढ़ गया था। वे राज्य की अवज्ञा करते थे और संतान नहीं होने की स्थिति में राज्य अनुमति के बिना ही किसी को गोद ले लेते थे। निंबज का जागीरदार ठाकुर सिरोही नरेश का मुख्य शत्रु था, जिसको जोधपुर नरेश का संरक्षण प्राप्त था। सिरोही नरेश का अधिकांश समय इस बागी ठाकुर की छलकपटपूर्ण चालों का मुकाबला करने में बीतता था।9
उन्नीसवीं सदी दूसरे दशक तक आपसी प्रतिद्वंद्विता और द्वेष तथा मराठों और पिंडारियों की लूटपाट से कमजोर हो गई राजस्थान की अधिकांश रियासतों ने संधियों द्वारा ब्रिटिश सरकार का संरक्षण प्राप्त कर लिया था। जोधपुर के आक्रमणों और आतंरिक अव्यवस्था से परेशान सिरोही नरेश िशवसिंह ने भी सत्तारूढ होते ही 1817 में कंपनी सरकार के संरक्षण में जाने की इच्छा व्यक्त की। उसने इस निमित्त बड़ोदा के रेजिडेंट कप्तान करनिक को पत्र लिखा।10 सिरोही राजपुताना में होने के कारण दिल्ली रेजिडेंट के अधीन था, इसलिए करनिक ने सिरोही नरेश को इस संबंध में वहां से पत्राचार करने के निर्देश दिए।11 सिरोही नरेश की पहल पर पिश्चमी राजपुताना के पॉलिटिकल एजेंट कर्नल जेम्स टॉड के माध्यम से पत्राचार आरंभ हुआ, लेकिन इसमें जोधपुर के नरेश मानसिंह ने बाधा डाल दी। उसके अनुसार सिरोही जोधपुर राज्य के अधीन उसका एक अंग है और जोधपुर राज्य से 1818 में संधि हो चुकी है, इसलिए सिरोही से पृथक् से संधि गलत है।12 जोधपुर के इस दावे की पड़ताल का काम कर्नल टॉड को सौंपा गया, जिसने बहुत निष्पक्ष रहकर दोनों पक्षों के वकीलों की दलीलें सुनीं और दस्तावेज देखे। उसने जोधपुर के दावे को खारिज करते हुए सिरोही के स्वतंत्र राज्य होने की पुिष्ट कर दी।13 इसके बाद दिल्ली और मालवा के रेजिडेंट डेविड ऑक्टरलोनी ने कोषागार खाली होने, यात्रा असुरक्षित होने तथा कानून की अवज्ञा करने वाले तत्वों के निरंतर बढ़ने का उल्लेख करते हुए आपराधिक तत्वों के दमन और व्यापार को सुरक्षा प्रदान करने के लिए सिरोही राज्य को ब्रिटिश संरक्षण लेने की सिफारिश कर दी।14 कप्तान स्पीयर्स को सिरोही राज्य के साथ संधि करने का दायित्व दिया, जिसने विचार-विमशZ कर संधि का प्रारूप तैयार किया, जो स्वीकार कर लिया गया और अंतत: 11 सितंबर, 1823 को संधि हो गई और सिरोही राज्य ब्रिटिश संरक्षण और सुरक्षा में आ गया।15
ब्रिटिश संरक्षण में जनसाधारण और जागीरदार
सिरोही के ब्रिटिश संरक्षण में आ जाने के अच्छे परिणाम निकले। इससे यहां नरेश की सत्ता फिर कायम हुई। जनसाधारण ने राहत की सांस ली, भील-मीणों का आतंक कम हुआ और जागीरदारों के स्वेच्छाचार में भी कमी आई। जोधपुर के आक्रमणों के दौरान होने वाली लूटपाट और भील-मीणों के आतंक से यहां के जनसाधारण को कुछ हद तक मुक्ति मिली। गौरीशंकर हीराचंद ओझा के अनुसार सरकार अंग्रेजी की सहायता लोगों के वास्ते ऐसी फायदेमंद हुई, जैसी कि सूखती हुई खेती के लिए बारिश होती है।16 9 जून, 1822 को जब कर्नल टॉड इंग्लैंड जाने से पूर्व यात्रा करता हुआ यहां से गुजरा तो हालात सामान्य होने लगे थे। उसने लिखा कि ष् शहर जो पहले बिलकुल उजड़-सा गया था अब बसने लग गया है, जो व्यापारी तीन या चार साल पहले यह समझते थे कि सिरोही में घुसना चोरों की मांद में घुसना है और यह बात अक्षरश: सत्य भी थी, वे अब फिर दुकानें खोलने लगे हैं।17 यहां भील-मीणों की लूटपाट और आतंक में कमी आई। आधिपत्य में आते ही ब्रिटिश सरकार ने बंबई रेजिडेंसी की एक सैनिक टुकड़ी को सिरोही में नियुक्त कर दिया, जिसने बहुत अच्छा काम किया। ब्रिटिश सेना की मौजूदगी का यहां की लूटपाट ओर चोरी-चकारी करने वाली जनजातियों पर जादुई असर हुआ। जीण् स्वीन्टोन ने डेविड ऑक्टरलोनी को 11 जून, 1824 को एक पत्र में लिखा कि ष्जंगली जातियां सोचती हैं कि अंग्रेज जादूगर हैं, जो अपनी अपनी जेब में सेना छिपाकर ले जा सकते हैं और वे लड़ाई के समय कागज के सिपाहियों से काम लेते हैं।ष्18 अंग्रेजों के परामशZ पर राज्य में भील-मीणों की लूटपाट के विरुद्ध कई उपाय किए। टॉड ने अपने यात्रा विवरण में लिखा है कि ष्मीणा जाति की पूरी तरह रोक दिया गया हैं, मजबूत चौकियां कायम कर दी गई हैं और व्यापारियों, कारीगरों व किसानों को लूट के विरुद्ध सुरक्षा एवं प्रोत्साहन देने के पट्टे दिए जाते है।19
ब्रिटिश संरक्षण में यहां के स्वेच्छाचारी जागीरदार ठाकुरों के विरुद्ध भी कार्यवाही शुरू की गई। निंबज का ठाकुर जोधपुर नरेश की शह पर सिरोही नरेश की मुखालपत करता था। 1840 में उसने अपने पुत्र को गिरवर में गोद रखकर वहां का पट्टा अपने अधीन कर लिया। गिरवर पर सेना भेजी गई, जिसने ठाकुर के पुत्र को गिरफ्तार कर लिया। पॉलिटिकल एजेंट ने हस्तक्षेप कर निबंज ठाकुर को अपना दावा छोड़ने के लिए विवश किया, जिससे सिरोही नरेश ने गिरवर को खालसा घोषित कर सीधे अपने अधीन कर लिया।20 यहां के कुछ जागीरदार ठाकुर भील-मीणों को लूटपाट के लिए प्रोत्साहन और संरक्षण देकर उनसे हिस्सा लिया करते थे, इसलिए उन पर भी ब्रिटिश सेना के सहयोग से सख्ती की गई। जोगापुरा के ठाकुर को इसके लिए दंडित किया गया।21 भटाणा के जमीरदार ठाकुर के दो गांव सीमा निर्धारण के दौरान पालनपुर में चले गए थे, इसलिए उसने विद्रोह कर दिया। पहाड़ों में शरण लेकर उसने लूटपाट आरंभ कर दी। अंग्रेजी सेना के सहयोग से वह पकड़ा गया, लेकिन 1858 में वह जेल से भाग गया। उसको पकड़ने के सभी प्रयत्न व्यर्थ गए। अंत में उसने सिरोही नरेश से समझौता कर लिया।22 रोहुआ के बागी ठाकुर के विरुद्ध भी अंग्रेजी सेना के सहयोग से कार्यवाही की गई। इसी तरह धानता, वेलांगरी, सणवाड़ा, सिरोड़ी, पीथापुरा आदि ठिकानों के जागीरदारों के विद्रोह और झगड़ों को दबाने में भी अंग्रेजों ने नरेश की भरपूर मदद की।23
जोधपुर लीजन और सैनिक विद्रोह
1818 में संपन्न संधि के अनुसार जोधपुर राज्य को यथावश्यकता ब्रिटिश सरकार को 1500 घुड़सवार सैनिक उपलब्ध करवाने थे। 1832 में ब्रिटिश सरकार के आदेश पर भेजे गए ये सैनिक अनुशासनहीन और अयोग्य पाए गए। 1835 में इस संबंध में फिर संधि हुई और यह प्रावधान किया गया कि 1500 घुड़सवारों के बदले जोधपुर राज्य 1,15,000 रुपए वार्षिक देगा, जिससे ब्रिटिश सरकार एक सेना तैयार करेगी।24 इस रािश से ब्रिटिश सरकार ने 1836 में अजमेर में केिप्टन डाउनिंग के नेतृत्व जोधपुर लीजन नामक सेना का गठन किया। 1842 में इस सेना का मुख्यालय अजमेर से हटाकर जोधपुर की सीमा के निकट स्थित सिरोही राज्य के ऐरिनपुरा में कर दिया गया। विद्रोह के समय केिप्टन हॉल के नेतृत्व में जोधपुर लीजन के पैदल, तोपखाना और घुड़सवार, तीन अंग थे। इसकी पैदल सेना में आठ कंपनियां पूरबिया और शेष तीन भील सैनिकों की थीं।25 माउंटआबू राजपुताना में अरावली शृंखला का सबसे ऊंचा और ठंडा स्थान था, इसलिए 1845 में सिरोही के साथ संधि26 कर ब्रिटिश सरकार ने यहां एक सेनिटोरियम बनाया, जहां राजपुताना और उसके पास स्थित अन्य राज्यों के ब्रिटिश सैनिक स्वास्थ्य लाभ और विश्राम के लिए रहते थे। यह ब्रिटिश अधिकारियों और उनके परिवारों का ग्रीष्मकालीन आवास भी था। विद्रोह के समय यहां जोधपुर लीजन के 60 देशी सैनिकों की एक सुरक्षा टुकड़ी के अतिरिक्त हिजमेजेस्टीज रेजिमेंट के 30 या 35 बीमार ब्रिटिश सैनिक भी विश्राम कर रहे थे। 18 अगस्त, 1857 को जोधपुर लीजन की एक कंपनी रोहुआ के बागी जागीरदार ठाकुर के विद्रोह को दबाने के लिए माउंट आबू के नीचे अनादरा पहुंची। कोटिन हॉल, जो इस समय माउंटआबू में था, 19 अगस्त, 1857 की नीचे आया और उसने सैनिकों को जरूरी दिशा-निर्देश दिए और वह माउंट आबू लौट गया। मार्ग में उसकी भेंट माउंटआबू में नियुक्त जोधपुर लीजन की सुरक्षा टुकड़ी के हवलदार गोजनसिंह से हुई। गोजनसिंह ने उसके पूछने पर बताया कि वह अनादरा में नियुक्त अपने साथियों से मिलने जा रहा है। बाद में हुई जांच-पड़ताल में पता लगा कि अनादरा में जोधपुर लीजन की कंपनी के विद्रोह में इस गोजनसिंह ने निर्णायक भूमिका निभाई।28 अनादरा के निकट स्थित भटाना और रोहुआ के जागीरदार ठाकुरों की भी इस विद्रोह में महत्वपूर्ण भूमिका थी। ये दोनों ठाकुर सिरोही नरेश से निजी कारणों से नाराज थे। भटाना का बागी ठाकुर नाथूसिंह सिरोही जेल से भागकर पहाड़ों में छिपा हुआ था और रोहुआ के ठाकुर उम्मेदसिंह के बागी तेवर के विरुद्ध ही अनादरा में जोधपुर लीजन की कंपनी नियुक्त की गई थी। ये दोनों ठाकुर सिरोही नरेश के साथ अंग्रेजों से भी खफा थे, क्योंकि उनकी सरपरस्ती में सिरोही नरेश उनके पारंपरिक विशेषाधिकारों में कटौती कर रहा था। कहते हैं कि ये दोनों ठाकुर माउंटआबू पर नियुक्त जोधपुर लीजन की सुरक्षा टुकड़ी के संपर्क में थे और उनके सुझाव पर ही गोजनसिंह नीचे आया था। दरअसल ये दोनों ठाकुर और विद्रोही माउंटआबू में ब्रिटिश सैनिकों की वास्तविक उपस्थिति के बारे में जानना चाहते थे।29 जोधपुर के पुराने अभिलेखों में भटाना ठाकुर नाथुसिंह देवडा के संबंध में एक लोकगीत मिला है, जिसमें उसके द्वारा छावनी लूटने और गोरों की हत्या करने का उल्लेख मिलता है, लेकिन तत्कालीन ब्रिटिश साक्ष्यों से इसकी पुष्टि नहीं होती ।30
21 अगस्त को सुबह लगभग 3 बजे अनादरा स्थित जोधपुर लीजन की कंपनी ने विद्रोह कर दिया। कंपनी के 40 या 50 सैनिक अनादरा से माउंटआबू पर चढ़ गए।30 सुबह कोहरा इतना घना था कि किसी को उनकी भनक तक नहीं लगी।31 उन्होंने अंग्रेज सैनिकों की बैरकों पर गोलियां चलाना शुरू कर दिया। बीमार और अयोग्य अंग्रेज सैनिकों ने भी उत्तर में गोलीबारी की।32 कोई भी अंग्रेज सैनिक हताहत नहीं हुआ। एक सार्जेंट के साथ 14 सैनिकों एक टुकड़ी ने पास ही स्थित स्कूल की ओर प्रस्थान किया। मेहरबानसिंह के नेतृत्व विद्रोही सैनिकों ने केिप्टन हॉल के आवास पर भी आक्रमण किया, लेकिन उसने सपरिवार पिछले दरवाजे से निकल कर स्कूल में शरण ले ली।33 केिप्टन हॉल के आवास पर गोलीबारी की आवाज सुनकर एजीजी का पुत्र एण् लॉरेंस बाहर निकला और विद्रोहियों की गोलीबारी में घायल हो गया। सभी अंग्रेज परिवारों को स्कूल में सुरक्षित पहुंचाकर केिप्टन हॉल और डाक्टर यंग हिज मेजेस्टीज रेजिमेंट के आठ अंग्रेजी सैनिकों के साथ जोधपुर लीजन की सुरक्षा टुकड़ी के िशविर की ओर गए। कुछ देर गोलीबारी के बाद केप्टिन हॉल ने विद्रोहियों को पहाड़ी के नीचे, अनादरा की तरफ खदेड़ दिया।34 अनादरा में एकत्रित होकर विद्रोहियों ने सिरोही की ओर प्रस्थान किया। मार्ग में चौकियों पर नियुक्त सुरक्षा प्रहरी भी विद्रोहियों के साथ हो गए।35 यह पता लगने पर कि सिरोही नरेश ने नगर के द्वार पर दो तोपें तैनात कर दी हैं तो विद्रोही मार्ग बदलकर ऐरिनपुरा पहुंच गए।36
ऐरिनपुरा छावनी में अनादरा के विद्रोही सैनिकों के पहुंचने से पहले ही विद्रोह हो गया था। माउंटआबू में हुए विद्रोह की सूचना लेफ्टिनेंट कोनोली को अपने अर्दली मखदूम बख्श से प्राप्त हुई। दरअसल मखदूम बख्श को आबू से एक विद्रोही सैनिक ने पत्र लिखा था जिसमें आबू में हुए विद्रोह का अतिरंजित विवरण देते हुए ऐरिनपुरा छावनी के सैनिकों से आग्रह किया गया था कि वे छावनी की तोपें छीनकर दिल्ली की ओर प्रस्थान कर दें। यह पत्र मखदमू बख्श ने कोनोली के सौंप दिया। कोनोली ने विद्रोह सूचना के साथ एक गोपनीय संदेश तत्काल सैनिक सहायता के लिए जोधपुर के पॉलिटिकल एजेंट मॉक मेसन भेज दिया।37 छावनी में इस समय लेिफ्टनेंट कोनोली सहित तीन अंग्रेज अधिकारी और उनके परिवार, जिनमें दो महिलाएं और पांच बच्चे थे, निवास कर रहे थे। 22 अगस्त को दिन निकलने के बाद कोनोली घोड़े पर सवार होकर परेड ग्राउंड पर गया तो माहौल में उत्तेजना थी। तोपों की तरफ दौड़ रहे सैनिकों को उसने उनसे दूर रहने का आदेश दिया, लेकिन इसका कोई असर नहीं हुआ। इसी समय घुड़सवार सेना भी बागी हो गई। वह मेजर वूडी के साथ तोपखाने की तरफ गया, लेकिन सैनिकों ने तोपों का मुंह उसकी तरफ घुमाकर उसको मारने की धमकी दी। कोनोली ने दूसरी दिशा से तोपों की ओर पहुंचने का प्रयत्न किया, लेकिन सैनिकों ने उसकी तरफ बंदूकें तान कर यह प्रयास विफल कर दिया। भील सैनिक निष्ठावान बन रहे, लेकिन विद्रोही इतने अधिक उत्तेजित थे कि उन्होंने उनके विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की। कुछ निष्ठावान सैनिक, जिनमें रिसालदार अब्बास अली, इलाही बख्श और नसीरूद्दीन प्रमुख थे, कोनोली की रक्षा के लिए आगे आए। विद्रोहियों में मतभेद और झगड़ा हो गया। कुछ सैनिक कोनोली सहित सभी अंग्रेजों को उनके भाग्य पर छोड़ देने के पक्ष में थे, जबकि कुछ उन्हें मार डालना चाहते थे। अब्बास अली बेग ने अपनी पगड़ी विद्रोहियों के पैरों में रखते हुए ऐलान कर दिया यदि कोई सैनिक कोनोली की तरफ बढ़ेगा तो उसे पहले उसकी लाश पर से गुजरना होगा।38 विद्रोहियों ने सभी अंग्रेज अधिकारियों और उनके परिवारों को परेड ग्राउंड के बीच एक टेंट में रात गुजारने की अनुमति दी, जहां वे पूरी रात सो नहीं पाए।39 23 अगस्त की सुबह माउंट और अनादरा के विद्रोही सैनिक ऐरिनपुरा पहुंच गए, जहां उनका भव्य स्वागत हुआ। निष्ठावान सैनिकों ने इन विद्रोही सैनिकों को अंग्रेजों को नुकसान पहुंचाने से रोक दिया। विद्रोहियों ने अपने नेता मेहरबानसिंह को जनरल के पद पर पदोन्नत कर दिया। उन्होंने कोनोली के अतिरिक्त सभी अंग्रेज अधिकारियों, महिलाओं और बच्चों को जाने की अनुमति दे दी और इन सभी को िशवगंज के कामदार को सौंप दिया गया, जिसने उन्हें सुरक्षित सिरोही पहुंचा दिया।40 विद्रोहियों ने अपने नेता मेहरबानसिंह के आदेश पर 24 अगस्त को पाली के मार्ग से दिल्ली की ओर कूच किया। उन्होंने लेफ्टिनेंट कोनोली को भी उसके निष्ठावान सैनिकों सहित घोड़े पर बिठाकर अपने साथ ले लिया। अंतत: ढोला के पास पहुंचकर विद्रोहियों ने कोनोली को उसके निष्ठावान देशी सैनिकों के साथ मुक्त कर दिया।41 सिरोही राज्य के मुंशी नियामत अली की भेंट दो दिन तक निरंतर विद्रोहियों का पीछा करने के बाद कोनोली से हुई। नियामत अली कोनोली और उसके रक्षक सैनिकों को सुरक्षित सिरोही ले आया।42 विद्रोही पाली की ओर बढ़ रहे थे, लेकिन जोधपुर के किलेदार अनाड़सिंह के सेना सहित पाली में होने की सूचना मिलने पर उन्होंने अपना मार्ग बदल लिया। वे खेरवा होते हुए आऊवा के निकट एक गांव में पहुंचे, जहां आऊवा के ठाकुर ने उनके सामने जोधपुर राज्य के विरुद्ध उसका साथ देने का प्रस्ताव रखा। विद्रोही तत्काल दिल्ली पहुंचना चाहते थे, इसलिए वे दो भागों में बंट गए।43 इनमें से कुछ ने दिल्ली की ओर कूच किया, जबकि शेष ने आऊवा के संग्राम में वहां के ठाकुर की मदद की। आऊवा में जोधपुर और ब्रिटिश सेना की दो बार परास्त करने के बाद जोधपुर लीजन के इन शेष सैनिकों ने भी प्रमुख जागीरदार ठाकुरों के साथ 10 अक्टूबर, 1857 को दिल्ली की ओर प्रस्थान कर दिया
सिरोही राज्य के माउंटआबू और ऐरिनपुरा में हुआ जोधपुर लीजन का विद्रोह केवल सैनिक विद्रोह था। बंगाल, बिहार, अवध आदि राज्यों में जनसाधारण और उसमें भी खास तौर पर किसानों ने विद्रोह में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, लेकिन सिरोही में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। यहां के जनसाधारण ने न तो विद्रोह में भाग लिया और न ही उसका समर्थन किया। विद्रोह के दौरान सिरोही का सामान्य जन जीवन भी अप्रभावित रहा। हमेशा की तरह यहां खेती और व्यापार होते रहे, राजस्व वसूली हुई और सभी प्रकार का लेन देन और दैनंदिन कामकाज निबाZध हुआ।44 दरअसल पूर्वी और केन्द्रीय प्रांतों को ब्रिटिश मौजूदगी और शासन का लंबा अनुभव था, जबकि सिरोही के जनसाधारण को यह अनुभव फिलहाल नहीं के बराबर था। सिरोही राज्य ने 1823 में ही ब्रिटिश सरकार से संधि की थी और जनसाधारण के मन में फिलहाल ब्रिटिश मौजूदगी से कोई नाराजगी और असंतोष नहीं था। उल्टे जोधपुर के आक्रमणों और भील-मीणों की लूटपाट से त्रस्त जन साधारण के लिए ब्रिटिश मौजूदगी राहत और सुकून पहुंचाने वाली सिद्ध हुई। सिरोही के ब्रिटिश संरक्षण में जाने का सर्वाधिक नुकसान जागीरदार ठाकुरों को हुआ। सही मायने में सिरोही नरेश ने ब्रिटिश सरकार से संधि ही इन ठाकुरों के दमन के लिए की थी और कुछ हद तक ब्रिटिश सहयोग से वह इनके स्वेच्छाचार पर लगाम लगाने में भी सफल हुआ। बावजूद इसके सिरोही राज्य के जागीरदार ठाकुरों में अंग्रेजों के प्रति कोई असंतोष और नाराजगी नहीं पनप पाई। जोधपुर लीजन के सैनिक विद्रोह में सहभागिता तो दूर, इन्होंने इसका समर्थन भी नहीं किया, जबकि मारवाड़ के आसोप, आलनियावास, गूलर, लांबिया, बांता, निंबालिया, बाजानास आदि के ठाकुरों ने आऊवा के विद्रोह और संग्राम सक्रिय सहभागिता की थी। भटाना और रोहुआ के बागी जागीरदार ठाकुरों ने जोधपुर लीजन के सैनिकों को विद्रोह के लिए उकसाने का काम तो किया, लेकिन वे खुलकर विद्रोहियों के साथ नहीं हुए।
स्पष्ट है कि सिरोही राज्य में 1857 का विद्रोह तो हुआ, लेकिन खास प्रकार की परिस्थितियां होने के कारण यह केवल सैनिक विद्रोह तक सीमित रहा गया। जन साधारण की इसमें कोई सहभागिता नहीं थी, इसलिए आज यहां के लोगों की स्मृति और संस्कार में इसका कोई अवशेष मौजूद नहीं है।
<अक्सर,अक्टू.-दिस.2007 में प्रकाशित
ब्रिटिश सरकार और सिरोही
राजपुताना के दक्षिण-पिश्चम में गुजरात की सीमा से लगा हुआ सिरोही राज्य मराठों-पिंडारियों की लूटपाट और आतंक से तो अछूता रहा, लेकिन इसके बावजूद उन्नीसवीं सदी के आरंभिक दशकों में यहां के हालात बहुत खराब और चिंताजनक थे। पड़ोसी राज्य जोधपुर के निरंतर आक्रमण, जागीरदारों के स्वेच्छाचार और भील-मीणों की लूटपाट से यहां पूरी तरह अव्यवस्था हो गई थी। उदयभाण 1807 में सत्तारूढ हुआ लेकिन राज्य में प्रशासन कायम करने के बजाय उसकी दिलचस्पी रागरंग में थी।1 जोधपुर नरेश मानसिंह की मंशा सिरोही को अपने राज्य में मिलाने की थी इसलिए वह निरंतर आक्रमण और लूटपाट से इसको कमजोर करने में लगा हुआ था। उसने 1812 में सेना भेजकर आक्रमण किया और लूटपाट की। उसने तीर्थ यात्रा से लौटते हुए उदयभाण को पाली में गिरफ्तार करवाकर जोधपुर में तीन माह तक नजरबंद रखा। इस दौरान उसने उदयभाण से सिरोही के जोधपुर के अधीन होने की तहरीर भी लिखवा ली।2 जोधपुर नरेश ने 1816 में फिर सेना भेजकर सिरोही के भीतरोट परगने को तबाह कर दिया। 1817 में उसकी सेना ने फिर भीषण आक्रमण किया और इस बार लूटपाट निरंतर दस दिन तक जारी रही। यह सेना सिरोही से लगभग ढाई लाख का माल-असबाब लेकर जोधपुर लौटी। सिरोही नरेश को इस दौरान पहाड़ों में शरण लेनी पड़ी।3 निरंतर आक्रमणों से हालत इतनी खराब हो गई थी कि राज्य में आबाद गांव गिनती के ही रह गए थे।4 अंतत: सिरोही के जागीरदार एकमत होकर उदयभाण के छोटे भाई नादिया के जागीरदार ठाकुर िशवसिंह के पास गए और उससे राज्य का प्रबंध अपने हाथ में लेने का आग्रह किया। 1817 में शिवसिंह ने उदयभाण का नजर कैद कर राज्य का प्रबंध अपने हाथ में ले लिया।5 राज्य में इस समय माहौल अराजकता का था और इसका राजस्व केवल 60 हजार रुपए वार्षिक रह गया था। गौरीशंकर हीराचंद ओझा के अनुसार देश उजड़-सा गया था और राज्य की इतनी ताकत न थी कि प्रजा के जान-माल की रक्षा कर सके।6 चोरी-डकैती राज्य के भील-मीणों की आजीविका के मुख्य स्त्रोत थे। ये सिरोही सहित पड़ोसी जोधपुर और पालनपुर राज्यों में लूटपाट करते थे। जोधपुर के पॉलिटिकल एजेंट पीण्वाईण् वाघ ने अपने समाचार लेखकों के साक्ष्य से सिरोही राज्य के बिगड़ते हालातों के संबंध में एकाधिक बार दिल्ली और मालवा के रेजिडेंट डेविड ऑक्टरलोनी को लिखा। वाघ ने स्पष्ट किया कि भील-मीणों की लूटपाट रोकने की क्षमता और साधन सिरोही नरेश के पास नहीं है।7 उसने कुख्यात भील-मीणों-भरथ, हुरजीरा, राणोमा, रूपला, बिड्डा, कायरा, बेडिया, पीठा और जोधा के नामोल्लेख करते हुए ऑक्टरलोनी को यह भी लिखा कि इनको मोचाल, रेवाडा, अरठवाड़ा आदि के ठाकुरों का संरक्षण प्राप्त है।8 जागीरदार ठाकरों का स्वेच्छाचार भी इस समय बहुत बढ़ गया था। वे राज्य की अवज्ञा करते थे और संतान नहीं होने की स्थिति में राज्य अनुमति के बिना ही किसी को गोद ले लेते थे। निंबज का जागीरदार ठाकुर सिरोही नरेश का मुख्य शत्रु था, जिसको जोधपुर नरेश का संरक्षण प्राप्त था। सिरोही नरेश का अधिकांश समय इस बागी ठाकुर की छलकपटपूर्ण चालों का मुकाबला करने में बीतता था।9
उन्नीसवीं सदी दूसरे दशक तक आपसी प्रतिद्वंद्विता और द्वेष तथा मराठों और पिंडारियों की लूटपाट से कमजोर हो गई राजस्थान की अधिकांश रियासतों ने संधियों द्वारा ब्रिटिश सरकार का संरक्षण प्राप्त कर लिया था। जोधपुर के आक्रमणों और आतंरिक अव्यवस्था से परेशान सिरोही नरेश िशवसिंह ने भी सत्तारूढ होते ही 1817 में कंपनी सरकार के संरक्षण में जाने की इच्छा व्यक्त की। उसने इस निमित्त बड़ोदा के रेजिडेंट कप्तान करनिक को पत्र लिखा।10 सिरोही राजपुताना में होने के कारण दिल्ली रेजिडेंट के अधीन था, इसलिए करनिक ने सिरोही नरेश को इस संबंध में वहां से पत्राचार करने के निर्देश दिए।11 सिरोही नरेश की पहल पर पिश्चमी राजपुताना के पॉलिटिकल एजेंट कर्नल जेम्स टॉड के माध्यम से पत्राचार आरंभ हुआ, लेकिन इसमें जोधपुर के नरेश मानसिंह ने बाधा डाल दी। उसके अनुसार सिरोही जोधपुर राज्य के अधीन उसका एक अंग है और जोधपुर राज्य से 1818 में संधि हो चुकी है, इसलिए सिरोही से पृथक् से संधि गलत है।12 जोधपुर के इस दावे की पड़ताल का काम कर्नल टॉड को सौंपा गया, जिसने बहुत निष्पक्ष रहकर दोनों पक्षों के वकीलों की दलीलें सुनीं और दस्तावेज देखे। उसने जोधपुर के दावे को खारिज करते हुए सिरोही के स्वतंत्र राज्य होने की पुिष्ट कर दी।13 इसके बाद दिल्ली और मालवा के रेजिडेंट डेविड ऑक्टरलोनी ने कोषागार खाली होने, यात्रा असुरक्षित होने तथा कानून की अवज्ञा करने वाले तत्वों के निरंतर बढ़ने का उल्लेख करते हुए आपराधिक तत्वों के दमन और व्यापार को सुरक्षा प्रदान करने के लिए सिरोही राज्य को ब्रिटिश संरक्षण लेने की सिफारिश कर दी।14 कप्तान स्पीयर्स को सिरोही राज्य के साथ संधि करने का दायित्व दिया, जिसने विचार-विमशZ कर संधि का प्रारूप तैयार किया, जो स्वीकार कर लिया गया और अंतत: 11 सितंबर, 1823 को संधि हो गई और सिरोही राज्य ब्रिटिश संरक्षण और सुरक्षा में आ गया।15
ब्रिटिश संरक्षण में जनसाधारण और जागीरदार
सिरोही के ब्रिटिश संरक्षण में आ जाने के अच्छे परिणाम निकले। इससे यहां नरेश की सत्ता फिर कायम हुई। जनसाधारण ने राहत की सांस ली, भील-मीणों का आतंक कम हुआ और जागीरदारों के स्वेच्छाचार में भी कमी आई। जोधपुर के आक्रमणों के दौरान होने वाली लूटपाट और भील-मीणों के आतंक से यहां के जनसाधारण को कुछ हद तक मुक्ति मिली। गौरीशंकर हीराचंद ओझा के अनुसार सरकार अंग्रेजी की सहायता लोगों के वास्ते ऐसी फायदेमंद हुई, जैसी कि सूखती हुई खेती के लिए बारिश होती है।16 9 जून, 1822 को जब कर्नल टॉड इंग्लैंड जाने से पूर्व यात्रा करता हुआ यहां से गुजरा तो हालात सामान्य होने लगे थे। उसने लिखा कि ष् शहर जो पहले बिलकुल उजड़-सा गया था अब बसने लग गया है, जो व्यापारी तीन या चार साल पहले यह समझते थे कि सिरोही में घुसना चोरों की मांद में घुसना है और यह बात अक्षरश: सत्य भी थी, वे अब फिर दुकानें खोलने लगे हैं।17 यहां भील-मीणों की लूटपाट और आतंक में कमी आई। आधिपत्य में आते ही ब्रिटिश सरकार ने बंबई रेजिडेंसी की एक सैनिक टुकड़ी को सिरोही में नियुक्त कर दिया, जिसने बहुत अच्छा काम किया। ब्रिटिश सेना की मौजूदगी का यहां की लूटपाट ओर चोरी-चकारी करने वाली जनजातियों पर जादुई असर हुआ। जीण् स्वीन्टोन ने डेविड ऑक्टरलोनी को 11 जून, 1824 को एक पत्र में लिखा कि ष्जंगली जातियां सोचती हैं कि अंग्रेज जादूगर हैं, जो अपनी अपनी जेब में सेना छिपाकर ले जा सकते हैं और वे लड़ाई के समय कागज के सिपाहियों से काम लेते हैं।ष्18 अंग्रेजों के परामशZ पर राज्य में भील-मीणों की लूटपाट के विरुद्ध कई उपाय किए। टॉड ने अपने यात्रा विवरण में लिखा है कि ष्मीणा जाति की पूरी तरह रोक दिया गया हैं, मजबूत चौकियां कायम कर दी गई हैं और व्यापारियों, कारीगरों व किसानों को लूट के विरुद्ध सुरक्षा एवं प्रोत्साहन देने के पट्टे दिए जाते है।19
ब्रिटिश संरक्षण में यहां के स्वेच्छाचारी जागीरदार ठाकुरों के विरुद्ध भी कार्यवाही शुरू की गई। निंबज का ठाकुर जोधपुर नरेश की शह पर सिरोही नरेश की मुखालपत करता था। 1840 में उसने अपने पुत्र को गिरवर में गोद रखकर वहां का पट्टा अपने अधीन कर लिया। गिरवर पर सेना भेजी गई, जिसने ठाकुर के पुत्र को गिरफ्तार कर लिया। पॉलिटिकल एजेंट ने हस्तक्षेप कर निबंज ठाकुर को अपना दावा छोड़ने के लिए विवश किया, जिससे सिरोही नरेश ने गिरवर को खालसा घोषित कर सीधे अपने अधीन कर लिया।20 यहां के कुछ जागीरदार ठाकुर भील-मीणों को लूटपाट के लिए प्रोत्साहन और संरक्षण देकर उनसे हिस्सा लिया करते थे, इसलिए उन पर भी ब्रिटिश सेना के सहयोग से सख्ती की गई। जोगापुरा के ठाकुर को इसके लिए दंडित किया गया।21 भटाणा के जमीरदार ठाकुर के दो गांव सीमा निर्धारण के दौरान पालनपुर में चले गए थे, इसलिए उसने विद्रोह कर दिया। पहाड़ों में शरण लेकर उसने लूटपाट आरंभ कर दी। अंग्रेजी सेना के सहयोग से वह पकड़ा गया, लेकिन 1858 में वह जेल से भाग गया। उसको पकड़ने के सभी प्रयत्न व्यर्थ गए। अंत में उसने सिरोही नरेश से समझौता कर लिया।22 रोहुआ के बागी ठाकुर के विरुद्ध भी अंग्रेजी सेना के सहयोग से कार्यवाही की गई। इसी तरह धानता, वेलांगरी, सणवाड़ा, सिरोड़ी, पीथापुरा आदि ठिकानों के जागीरदारों के विद्रोह और झगड़ों को दबाने में भी अंग्रेजों ने नरेश की भरपूर मदद की।23
जोधपुर लीजन और सैनिक विद्रोह
1818 में संपन्न संधि के अनुसार जोधपुर राज्य को यथावश्यकता ब्रिटिश सरकार को 1500 घुड़सवार सैनिक उपलब्ध करवाने थे। 1832 में ब्रिटिश सरकार के आदेश पर भेजे गए ये सैनिक अनुशासनहीन और अयोग्य पाए गए। 1835 में इस संबंध में फिर संधि हुई और यह प्रावधान किया गया कि 1500 घुड़सवारों के बदले जोधपुर राज्य 1,15,000 रुपए वार्षिक देगा, जिससे ब्रिटिश सरकार एक सेना तैयार करेगी।24 इस रािश से ब्रिटिश सरकार ने 1836 में अजमेर में केिप्टन डाउनिंग के नेतृत्व जोधपुर लीजन नामक सेना का गठन किया। 1842 में इस सेना का मुख्यालय अजमेर से हटाकर जोधपुर की सीमा के निकट स्थित सिरोही राज्य के ऐरिनपुरा में कर दिया गया। विद्रोह के समय केिप्टन हॉल के नेतृत्व में जोधपुर लीजन के पैदल, तोपखाना और घुड़सवार, तीन अंग थे। इसकी पैदल सेना में आठ कंपनियां पूरबिया और शेष तीन भील सैनिकों की थीं।25 माउंटआबू राजपुताना में अरावली शृंखला का सबसे ऊंचा और ठंडा स्थान था, इसलिए 1845 में सिरोही के साथ संधि26 कर ब्रिटिश सरकार ने यहां एक सेनिटोरियम बनाया, जहां राजपुताना और उसके पास स्थित अन्य राज्यों के ब्रिटिश सैनिक स्वास्थ्य लाभ और विश्राम के लिए रहते थे। यह ब्रिटिश अधिकारियों और उनके परिवारों का ग्रीष्मकालीन आवास भी था। विद्रोह के समय यहां जोधपुर लीजन के 60 देशी सैनिकों की एक सुरक्षा टुकड़ी के अतिरिक्त हिजमेजेस्टीज रेजिमेंट के 30 या 35 बीमार ब्रिटिश सैनिक भी विश्राम कर रहे थे। 18 अगस्त, 1857 को जोधपुर लीजन की एक कंपनी रोहुआ के बागी जागीरदार ठाकुर के विद्रोह को दबाने के लिए माउंट आबू के नीचे अनादरा पहुंची। कोटिन हॉल, जो इस समय माउंटआबू में था, 19 अगस्त, 1857 की नीचे आया और उसने सैनिकों को जरूरी दिशा-निर्देश दिए और वह माउंट आबू लौट गया। मार्ग में उसकी भेंट माउंटआबू में नियुक्त जोधपुर लीजन की सुरक्षा टुकड़ी के हवलदार गोजनसिंह से हुई। गोजनसिंह ने उसके पूछने पर बताया कि वह अनादरा में नियुक्त अपने साथियों से मिलने जा रहा है। बाद में हुई जांच-पड़ताल में पता लगा कि अनादरा में जोधपुर लीजन की कंपनी के विद्रोह में इस गोजनसिंह ने निर्णायक भूमिका निभाई।28 अनादरा के निकट स्थित भटाना और रोहुआ के जागीरदार ठाकुरों की भी इस विद्रोह में महत्वपूर्ण भूमिका थी। ये दोनों ठाकुर सिरोही नरेश से निजी कारणों से नाराज थे। भटाना का बागी ठाकुर नाथूसिंह सिरोही जेल से भागकर पहाड़ों में छिपा हुआ था और रोहुआ के ठाकुर उम्मेदसिंह के बागी तेवर के विरुद्ध ही अनादरा में जोधपुर लीजन की कंपनी नियुक्त की गई थी। ये दोनों ठाकुर सिरोही नरेश के साथ अंग्रेजों से भी खफा थे, क्योंकि उनकी सरपरस्ती में सिरोही नरेश उनके पारंपरिक विशेषाधिकारों में कटौती कर रहा था। कहते हैं कि ये दोनों ठाकुर माउंटआबू पर नियुक्त जोधपुर लीजन की सुरक्षा टुकड़ी के संपर्क में थे और उनके सुझाव पर ही गोजनसिंह नीचे आया था। दरअसल ये दोनों ठाकुर और विद्रोही माउंटआबू में ब्रिटिश सैनिकों की वास्तविक उपस्थिति के बारे में जानना चाहते थे।29 जोधपुर के पुराने अभिलेखों में भटाना ठाकुर नाथुसिंह देवडा के संबंध में एक लोकगीत मिला है, जिसमें उसके द्वारा छावनी लूटने और गोरों की हत्या करने का उल्लेख मिलता है, लेकिन तत्कालीन ब्रिटिश साक्ष्यों से इसकी पुष्टि नहीं होती ।30
21 अगस्त को सुबह लगभग 3 बजे अनादरा स्थित जोधपुर लीजन की कंपनी ने विद्रोह कर दिया। कंपनी के 40 या 50 सैनिक अनादरा से माउंटआबू पर चढ़ गए।30 सुबह कोहरा इतना घना था कि किसी को उनकी भनक तक नहीं लगी।31 उन्होंने अंग्रेज सैनिकों की बैरकों पर गोलियां चलाना शुरू कर दिया। बीमार और अयोग्य अंग्रेज सैनिकों ने भी उत्तर में गोलीबारी की।32 कोई भी अंग्रेज सैनिक हताहत नहीं हुआ। एक सार्जेंट के साथ 14 सैनिकों एक टुकड़ी ने पास ही स्थित स्कूल की ओर प्रस्थान किया। मेहरबानसिंह के नेतृत्व विद्रोही सैनिकों ने केिप्टन हॉल के आवास पर भी आक्रमण किया, लेकिन उसने सपरिवार पिछले दरवाजे से निकल कर स्कूल में शरण ले ली।33 केिप्टन हॉल के आवास पर गोलीबारी की आवाज सुनकर एजीजी का पुत्र एण् लॉरेंस बाहर निकला और विद्रोहियों की गोलीबारी में घायल हो गया। सभी अंग्रेज परिवारों को स्कूल में सुरक्षित पहुंचाकर केिप्टन हॉल और डाक्टर यंग हिज मेजेस्टीज रेजिमेंट के आठ अंग्रेजी सैनिकों के साथ जोधपुर लीजन की सुरक्षा टुकड़ी के िशविर की ओर गए। कुछ देर गोलीबारी के बाद केप्टिन हॉल ने विद्रोहियों को पहाड़ी के नीचे, अनादरा की तरफ खदेड़ दिया।34 अनादरा में एकत्रित होकर विद्रोहियों ने सिरोही की ओर प्रस्थान किया। मार्ग में चौकियों पर नियुक्त सुरक्षा प्रहरी भी विद्रोहियों के साथ हो गए।35 यह पता लगने पर कि सिरोही नरेश ने नगर के द्वार पर दो तोपें तैनात कर दी हैं तो विद्रोही मार्ग बदलकर ऐरिनपुरा पहुंच गए।36
ऐरिनपुरा छावनी में अनादरा के विद्रोही सैनिकों के पहुंचने से पहले ही विद्रोह हो गया था। माउंटआबू में हुए विद्रोह की सूचना लेफ्टिनेंट कोनोली को अपने अर्दली मखदूम बख्श से प्राप्त हुई। दरअसल मखदूम बख्श को आबू से एक विद्रोही सैनिक ने पत्र लिखा था जिसमें आबू में हुए विद्रोह का अतिरंजित विवरण देते हुए ऐरिनपुरा छावनी के सैनिकों से आग्रह किया गया था कि वे छावनी की तोपें छीनकर दिल्ली की ओर प्रस्थान कर दें। यह पत्र मखदमू बख्श ने कोनोली के सौंप दिया। कोनोली ने विद्रोह सूचना के साथ एक गोपनीय संदेश तत्काल सैनिक सहायता के लिए जोधपुर के पॉलिटिकल एजेंट मॉक मेसन भेज दिया।37 छावनी में इस समय लेिफ्टनेंट कोनोली सहित तीन अंग्रेज अधिकारी और उनके परिवार, जिनमें दो महिलाएं और पांच बच्चे थे, निवास कर रहे थे। 22 अगस्त को दिन निकलने के बाद कोनोली घोड़े पर सवार होकर परेड ग्राउंड पर गया तो माहौल में उत्तेजना थी। तोपों की तरफ दौड़ रहे सैनिकों को उसने उनसे दूर रहने का आदेश दिया, लेकिन इसका कोई असर नहीं हुआ। इसी समय घुड़सवार सेना भी बागी हो गई। वह मेजर वूडी के साथ तोपखाने की तरफ गया, लेकिन सैनिकों ने तोपों का मुंह उसकी तरफ घुमाकर उसको मारने की धमकी दी। कोनोली ने दूसरी दिशा से तोपों की ओर पहुंचने का प्रयत्न किया, लेकिन सैनिकों ने उसकी तरफ बंदूकें तान कर यह प्रयास विफल कर दिया। भील सैनिक निष्ठावान बन रहे, लेकिन विद्रोही इतने अधिक उत्तेजित थे कि उन्होंने उनके विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की। कुछ निष्ठावान सैनिक, जिनमें रिसालदार अब्बास अली, इलाही बख्श और नसीरूद्दीन प्रमुख थे, कोनोली की रक्षा के लिए आगे आए। विद्रोहियों में मतभेद और झगड़ा हो गया। कुछ सैनिक कोनोली सहित सभी अंग्रेजों को उनके भाग्य पर छोड़ देने के पक्ष में थे, जबकि कुछ उन्हें मार डालना चाहते थे। अब्बास अली बेग ने अपनी पगड़ी विद्रोहियों के पैरों में रखते हुए ऐलान कर दिया यदि कोई सैनिक कोनोली की तरफ बढ़ेगा तो उसे पहले उसकी लाश पर से गुजरना होगा।38 विद्रोहियों ने सभी अंग्रेज अधिकारियों और उनके परिवारों को परेड ग्राउंड के बीच एक टेंट में रात गुजारने की अनुमति दी, जहां वे पूरी रात सो नहीं पाए।39 23 अगस्त की सुबह माउंट और अनादरा के विद्रोही सैनिक ऐरिनपुरा पहुंच गए, जहां उनका भव्य स्वागत हुआ। निष्ठावान सैनिकों ने इन विद्रोही सैनिकों को अंग्रेजों को नुकसान पहुंचाने से रोक दिया। विद्रोहियों ने अपने नेता मेहरबानसिंह को जनरल के पद पर पदोन्नत कर दिया। उन्होंने कोनोली के अतिरिक्त सभी अंग्रेज अधिकारियों, महिलाओं और बच्चों को जाने की अनुमति दे दी और इन सभी को िशवगंज के कामदार को सौंप दिया गया, जिसने उन्हें सुरक्षित सिरोही पहुंचा दिया।40 विद्रोहियों ने अपने नेता मेहरबानसिंह के आदेश पर 24 अगस्त को पाली के मार्ग से दिल्ली की ओर कूच किया। उन्होंने लेफ्टिनेंट कोनोली को भी उसके निष्ठावान सैनिकों सहित घोड़े पर बिठाकर अपने साथ ले लिया। अंतत: ढोला के पास पहुंचकर विद्रोहियों ने कोनोली को उसके निष्ठावान देशी सैनिकों के साथ मुक्त कर दिया।41 सिरोही राज्य के मुंशी नियामत अली की भेंट दो दिन तक निरंतर विद्रोहियों का पीछा करने के बाद कोनोली से हुई। नियामत अली कोनोली और उसके रक्षक सैनिकों को सुरक्षित सिरोही ले आया।42 विद्रोही पाली की ओर बढ़ रहे थे, लेकिन जोधपुर के किलेदार अनाड़सिंह के सेना सहित पाली में होने की सूचना मिलने पर उन्होंने अपना मार्ग बदल लिया। वे खेरवा होते हुए आऊवा के निकट एक गांव में पहुंचे, जहां आऊवा के ठाकुर ने उनके सामने जोधपुर राज्य के विरुद्ध उसका साथ देने का प्रस्ताव रखा। विद्रोही तत्काल दिल्ली पहुंचना चाहते थे, इसलिए वे दो भागों में बंट गए।43 इनमें से कुछ ने दिल्ली की ओर कूच किया, जबकि शेष ने आऊवा के संग्राम में वहां के ठाकुर की मदद की। आऊवा में जोधपुर और ब्रिटिश सेना की दो बार परास्त करने के बाद जोधपुर लीजन के इन शेष सैनिकों ने भी प्रमुख जागीरदार ठाकुरों के साथ 10 अक्टूबर, 1857 को दिल्ली की ओर प्रस्थान कर दिया
सिरोही राज्य के माउंटआबू और ऐरिनपुरा में हुआ जोधपुर लीजन का विद्रोह केवल सैनिक विद्रोह था। बंगाल, बिहार, अवध आदि राज्यों में जनसाधारण और उसमें भी खास तौर पर किसानों ने विद्रोह में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, लेकिन सिरोही में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। यहां के जनसाधारण ने न तो विद्रोह में भाग लिया और न ही उसका समर्थन किया। विद्रोह के दौरान सिरोही का सामान्य जन जीवन भी अप्रभावित रहा। हमेशा की तरह यहां खेती और व्यापार होते रहे, राजस्व वसूली हुई और सभी प्रकार का लेन देन और दैनंदिन कामकाज निबाZध हुआ।44 दरअसल पूर्वी और केन्द्रीय प्रांतों को ब्रिटिश मौजूदगी और शासन का लंबा अनुभव था, जबकि सिरोही के जनसाधारण को यह अनुभव फिलहाल नहीं के बराबर था। सिरोही राज्य ने 1823 में ही ब्रिटिश सरकार से संधि की थी और जनसाधारण के मन में फिलहाल ब्रिटिश मौजूदगी से कोई नाराजगी और असंतोष नहीं था। उल्टे जोधपुर के आक्रमणों और भील-मीणों की लूटपाट से त्रस्त जन साधारण के लिए ब्रिटिश मौजूदगी राहत और सुकून पहुंचाने वाली सिद्ध हुई। सिरोही के ब्रिटिश संरक्षण में जाने का सर्वाधिक नुकसान जागीरदार ठाकुरों को हुआ। सही मायने में सिरोही नरेश ने ब्रिटिश सरकार से संधि ही इन ठाकुरों के दमन के लिए की थी और कुछ हद तक ब्रिटिश सहयोग से वह इनके स्वेच्छाचार पर लगाम लगाने में भी सफल हुआ। बावजूद इसके सिरोही राज्य के जागीरदार ठाकुरों में अंग्रेजों के प्रति कोई असंतोष और नाराजगी नहीं पनप पाई। जोधपुर लीजन के सैनिक विद्रोह में सहभागिता तो दूर, इन्होंने इसका समर्थन भी नहीं किया, जबकि मारवाड़ के आसोप, आलनियावास, गूलर, लांबिया, बांता, निंबालिया, बाजानास आदि के ठाकुरों ने आऊवा के विद्रोह और संग्राम सक्रिय सहभागिता की थी। भटाना और रोहुआ के बागी जागीरदार ठाकुरों ने जोधपुर लीजन के सैनिकों को विद्रोह के लिए उकसाने का काम तो किया, लेकिन वे खुलकर विद्रोहियों के साथ नहीं हुए।
स्पष्ट है कि सिरोही राज्य में 1857 का विद्रोह तो हुआ, लेकिन खास प्रकार की परिस्थितियां होने के कारण यह केवल सैनिक विद्रोह तक सीमित रहा गया। जन साधारण की इसमें कोई सहभागिता नहीं थी, इसलिए आज यहां के लोगों की स्मृति और संस्कार में इसका कोई अवशेष मौजूद नहीं है।
<अक्सर,अक्टू.-दिस.2007 में प्रकाशित
Saturday, 19 April 2008
राजस्थान में 1857 का विद्रोह
1857 का देशव्यापी विप्लव राजस्थान में भी फैला, लेकिन बंगाल, बिहार, उत्तरप्रदेश, दिल्ली आदि प्रांतों की तुलना में यहां के हालात अलग किस्म के थे। ब्रिटिश शासित अजमेर-मेरवाड़ा को छोड़कर राजस्थान की सभी रियासतों का आतंरिक शासन सामंत शासकों के हाथों में था। ये सभी रियासतें अलग-अलग सांधियों के द्वारा अंग्रेज सरकार के नियंत्रण में थीं। इन रियासतों के सामंत अपनी बेहद कमजोर स्थिति के कारण अपने अस्तित्व के लिए पूरी तरह अंग्रेजों पर निर्भर थे, इसलिए विद्रोह के दौरान उन्होंने अंग्रेजों की भरपूर मदद की। उन्होंने इस दौरान विद्रोह को कुचलने और अंग्रेजों की सुरक्षा के काम में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। राजस्थान के जनसाधारण में अंग्रेजों के प्रति नफरत और गुस्सा था, जो इस दौरान कई दूसरे रूपों में व्यक्त हुआ, लेकिन कोटा और आऊवा को छोड़कर यह कहीं भी व्यापक जन प्रतिरोध का रूप नहीं ले पाया। दरअसल सदियों से अलग-थलग पड़ी राजस्थान की छोटी-छोटी रियासतों के वंचित-पीिड़त जनसाधारण में कुछ हद तक देश प्रेम तो था, लेकिन अभी उसमें राजनीतिक चेतना नहीं के बराबर थी। अंग्रेजों की मौजूदगी से जागीरदार सामंतों को सर्वाधिक नुकसान हुआ। शासकों के तरफदार अंग्रेज उन्हें परंपरा से प्राप्त विशेषाधिकारों से वंचित कर सामंत से करदाता में बदलने के लिए आमादा थे,1 इसलिए वे विद्रोही सैनिकों के साथ हो गए और उन्होंने उनकी खूब मदद भी की।
मध्यकाल के अंतिम चरण में केन्द्रीय मुगल सत्ता के कमजोर हो जाने के बाद राजस्थान की रियासतों में माहौल लगभग अराजकता का था। मराठों और पिंडारियों के निरंतर आक्रमण और लूटमार से यहां का जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया और अर्थ व्यवस्था चौपट हो गई। उच्छृंखल जागीरदारों और सामंतों की आपसी प्रतिद्वंद्विता और द्वेष से हालात इनते बिगड़ गए थे कि यहां शासन जैसी कोई चीज नहीं रही और स्वेच्छाचार बढ़ गया।2 इन हालातों से तंग आकर 1823 तक आते-आते सभी रियासतों ने सुरक्षा और संरक्षण के वचन पर कंपनी सरकार से संधियां कर लीं। इन रियासतों में कंपनी सरकार ने अपने पॉलिटिकल एजेंट नियुक्त कर दिए, जिन्होंने धीरे-धीरे रियासतों की बागडोर अपने हाथों में ले ली। 1857 के विप्लव से पहले तक राजपुताना रेजिडेंसी की सभी रियासतों का नियंत्रण एजेंट टू गर्वनर जनरल (एजीजी) के हाथ में था, जिसका मुख्यालय अजमेर में था। राजपुताना में इस समय छह ब्रिटिश छावनियां नसीराबाद, देवली, नीमच, ऐरनपुरा, खेरवाड़ा और ब्यावर में थीं, जिनमें सभी सैनिक भारतीय थे। मेरठ में हुए विद्रोह की सूचना एजीजी पैट्रिक लॉरेंस की 19 मई को माउंट आबू में मिली। लॉरेंस ने तत्काल एक पत्र तैयार कर राजस्थान की सभी रियासतों के शासकों को भिजवाया, जिसमें उसने रियासतों को कंपनी सरकार के प्रति निष्ठावान रहने, विद्रोहियों को कुचलने और यथावश्यकता अपनी सेवाएं कंपनी सरकार को प्रस्तुत करने के निर्देश दिए।3 लॉरेंस तत्काल माउंट आबू से अजमेर गया और उसने अपनी तमाम ताकत अजमेर, जो राजपुताना के केन्द्र में था और जहां कंपनी सरकार का खजाना और शास्त्रागार थे, झोंक दी।4 राजपुताना की ब्रिटिश छावनियों के सैनिक भारतीय थे, इसलिए उसने डीसा से यूरोपियन सैनिकों को अजमेर पहुंचने के निर्देश दिए। जोधपुर के नरेश तख्तसिंह ने भी अपनी सेना उसके निर्देश पर अजमेर की सुरक्षा के लिए भेजी।5
नसीराबाद और नीमच छावनी में सैनिक विद्रोह
राजस्थान में विद्रोह की शुरुआत नसीराबाद छावनी से हुई। दरअसल नसीराबाद छावनी में मेरठ, जहां विद्रोह हो चुका था, से आए नैटिव इन्फेंट्री के सैनिकों के कारण माहौल में उत्तेजना थी। अंग्रेज अधिकारियों ने इसी समय कुछ ऐसे निर्णय लिए, जिनसे इन सैनिकों में यह विश्वास दृढ़ हो गया कि उन्हें कुचला जाएगा। इन अधिकारियों ने छावनी में गश्त का काम बम्बई लॉन्सर्स को सौंप दिया और तोपों में गोला बारूद भर दिया। उन्होंने अजमेर से नैटिव इन्फेंट्री के सैनिकों को हटाकर उनके स्थान पर मेर रेजिमेंट के सैनिकों को लगा दिया गया। इसके अतिरिक्त छद्म वेश में विद्रोही समर्थक छावनी में यह प्रचार कर रहे थे कि कारतूसों में चबीZ लगी हुई है। नतीजतन 28 मई, 1857 को नसीराबाद छावनी के सैनिकों ने बगावत कर दी। उन्होंने छावनी को तहस-नहस का लूट लिया और वे दिल्ली की ओर प्रस्थान कर गए।6 जयपुर और जोधपुर रियासतों की सेनाओं ने इनका पीछा किया, लेकिन सहानुभूति के कारण वे इनसे नहीं लड़ीं। नसीराबाद के विद्रोह की सूचना नीमच छावनी में पहुंचते ही वहां भी माहौल उत्तेजनापूर्ण हो गया। छावनी के कमांडर कर्नल एबॉट के सभी प्रयत्नों के बावजूद 3 जून, 1857 को रात्रि 11 बजे नीमच छावनी में भी विद्रोह हो गया। विद्रोहियों ने छावनी में आग लगा दी। कुछ अंग्रेज सैनिक अधिकारी मारे गए और शेष इधर-उधर भटकते रहे, जिनको बाद में मेवाड़ रियासत के पॉलिटिकल एजेंट के नेतृत्व आई मेवाड़ी सेना ने सुरक्षित उदयपुर पहुंचा दिया, जहां उनके आतिथ्य के सभी इंतजाम किए गए। विद्रोही दिल्ली की ओर कूच करने से पहले शाहपुरा और फिर निम्बाहेड़ा गए, जहां जागारीदारों और जनसाधारण ने उनका स्वागत किया।7 नीमच के विद्रोही सैनिकों ने देवली की छावनी का भी लूटा। वहां की सैनिक टुकड़ी उनके साथ मिल गई। यहां से विद्रोही टोंक पहुंचे, जहां उनका भव्य स्वागत हुआ। टोंक के नवाब की सेना के कई सैनिक भी विद्रोहियों में शामिल हो गए। विद्रोही इसके बाद दिल्ली की ओर कूच कर गए। मेवाड़ रियासत ने संकट की इस घड़ी में अंग्रेजों की भरपूर मदद की। 6 जून, 1857 को मेवाड़, कोटा, बूंदी और झालावाड़ रियासतों की सेनाओं की सहायता से केप्टिन लॉयड ने नीमच पर फिर आधिपत्य कायम कर लिया। नीमच की स्थिति सुदृढ़ करने के लिए एजीजी लॉरेंस ने वहां से रियासती सेनाओं को हटाकर यूरोपीय सैनिकों की एक टुकड़ी तैनात कर दी। नीमच छावनी में 12 अगस्त, 1857 को फिर विद्रोह हुआ, जिसमें एक अंग्रेज अधिकारी मारा गया, लेकिन मेवाड़ की सेना के सहयोग से यहां शांति कायम कर दी गई और संदिग्ध भारतीय सैनिकों को तोप से उड़ा दिया गया।8 इन्हीं दिनों फिरोज नामक एक व्यक्ति ने अपने को मुगल बादशाह का वंशज घोषित कर मंदसौर पर अधिकार कर लिया। उसकी योजना निम्बाहेड़ा पर अधिकार करने के थी, जो नीमच छावनी के निकट था इसलिए अंग्रेज सैनिक अधिकारियों ने मेवाड़ की सेना के सहयाग से 19 सितंबर, 1857 को निम्बाहेड़ा पर अधिकार कर लिया। निम्बाहेड़ा के बागी हाकिम ने 8 नवंबर को नीमच पर चढ़ाई कर छावनी को आग लगा दी। अंतत: मध्य भारत का पॉलिटिकल एजेंट कर्नल डयरेंड मऊ से एक बड़ी सेना लेकर पहले मंदसौर आया और फिर नीमच आया, जिससे बागी भाग गए और नीमच पर फिर ब्रिटिश आधिपत्य कायम हो गया।9
आऊवा में संग्राम
अंग्रेजों और जोधपुर रियासत के विरुद्ध आऊवा का विद्रोह कुछ हद तक सुनियोजित और दीघZकालीन था। इस विद्रोह को अंजाम देने में जोधपुर रियासत के आऊवा और अन्य ठिकानों के बागी जागीरदारों की महत्वपूर्ण भूमिका थी। इसमें सहयोग ऐरनपुरा छावनी के बागी सैनिकों ने दिया। खास बात यह है कि इस विप्लव में आऊवा क्षेत्र के जनसाधारण ने भी विद्रोहियों का साथ दिया।10 जोधपुर रियासत और अंग्रेजों के विरुद्ध मारवाड़ क्षेत्र में जो असंतोष था वो इस विद्रोह के रूप में प्रकट हुआ। 1857 की शुरुआत में मारवाड़ की स्थिति बहुत खराब थी। जोधपुर नरेश के विरुद्ध जागीरदारों में असंतोष इस समय चरम पर था। असंतुष्ट और नाराज जागीरदार आऊवा के ठाकुर कुशालसिंह के नेतृत्व में जोधपुर रियासत के विरुद्ध संगठित हो चुके थे।11 अगस्त, 1857 में ऐरनपुरा (िशवगंज) छावनी की एक टुकड़ी सैन्य अभ्यास के लिए माउंट आबू गई हुई थी। इस टुकड़ी को सिरोही रियासत के रोहुआ ठिकाने के बागी जागीरदार के विरुद्ध अनादरा में तैनात किया गया। इस सैनिक टुकड़ी ने अन्य छावनियों में हुए विद्रोह की सूचना मिलने पर 21 अगस्त, 1857 को विद्रोह कर दिया। टुकड़ी के सैनिकों ने माउंट आबू पर चढ़कर गोलीबारी शुरू कर दी, जिसमें एजीजी का पुत्र एण्लॉरेंस घायल हो गया।12 उत्तर में माउंट आबू पर मौजूद यूरोपियन अधिकारियों और सैनिकों ने भी गोलीबारी की। धुंध के कारण विद्रोही पीछे हट गए और माउंट आबू से उतर कर ऐरनपुरा छावनी आ गए, जहां पहले ही विद्रोह हो चुका था। विद्रोहियों ने छावनी और रेलवे स्टेशन को लूट लिया और पाली के रास्ते से दिल्ली की ओर प्रस्थान कर गए। सिरोही रियासत के मुंशी नियामत अली खां ने सेना के साथ विद्रोहियों का पीछा किया और अंग्रेज अधिकारियों को छुड़ा कर सकुशल सिरोही ले आया, जहां उनकी सुरक्षा और आतिथ्य के व्यापक प्रबंध किए गए।13 विद्रोही दिल्ली को ओर बढ़ रहे थे, लेकिन जोधपुर के किलेदार अनाड़सिंह के सेना सहित पाली में होने की सूचना पर वे आऊवा के निकट स्थित एक गांव में पहुंच गए, जहां से कुछ सैनिक दिल्ली चले गए और शेष को आऊवा का बागी ठाकुर अपनी सेवा में ले आया। जोधपुर रियासत से नाराज आसोप, गूलर, आलनियावास, लांबिया, बांता, भिंवालिया, बाजावास आदि ठिकानों के जागीरदार भी सैनिकों सहित आऊवा पहुंच गए। अनाड़सिंह ने जोधपुर की सेना के साथ आऊवा के निकट स्थित बिठोडा गांव में डेरा डाला। एजीजी लॉरेंस के निर्देश पर लेिफ्टनेंट हेथकोट युद्ध रणनीति तय करने के लिए अनाड़सिंह के साथ आया। 8 सितंबर को भीषण लड़ाई हुई, जिसमें जोधपुर रियासत और अंग्रेजों की सेना की शर्मनाक पराजय हुई। अनाड़सिंह मारा गया और हेथकोट को मैदान छोड़ना पड़ा।14 एजीजी लॉरेंस इस पराजय से आहत था क्योंकि यह कंपनी सरकार की प्रतिष्ठा पर धब्बा थी। एजीजी लॉरेंस लॉरेंस ने अजमेर में सेना एकत्र की और 18 सितंबर, 1857 को आऊवा पहुंच कर उसने विद्रोहियों पर आक्रमण का दिया। जोधपुर का पॉलिटिकल एजेंट मॉक मेसन भी सेना सहित आऊवा पहुंच गया और गलती से विद्रोहियों के हाथ पड़ कर मारा गया। उसके शव को विद्रोहियों ने आऊवा के किले के बाहर स्थित वृक्ष पर लटका दिया।15 एजीजी लॉरेंस इस लड़ाई में परास्त हुआ और उसे निराश होकर मैदान छोड़ना पड़ा। यह पराजय अंग्रेजों के लिए अपमानजनक थी, क्योंकि लॉरेंस राजपुताना में कंपनी सरकार का सर्वोच्च सैनिक कमांडर था।16 मेसन का वध और उसके शव को वृक्ष पर टांगने की कार्यवाही इस बात का सबूत थी कि जनसाधारण में अंग्रेजों के प्रति नफरत की भावना बहुत ज्यादा थी। आऊवा के विद्रोही दिल्ली के संपर्क में भी थे। वहां से संदेश मिलने पर 10 अक्टूबर, 1857 को जोधपुर लीजन के बागी सैनिकों ने आसोप, गूलर और आलनियावास के ठाकुरों और उनके सैनिकों के साथ दिल्ली की ओर कूच किया।17 जोधपुर नरेश के आदेश पर कुचामन ठाकुर केसरीसिंह ने सेनापति कुशलराज के साथ विद्रोहियों का नारनौल तक पीछा किया। 16 नवंबर की नारनौल में ब्रिगेडियर गराड़ के नेतृत्व में अंग्रेज सेना और विद्रोहियों के बीच घमासान युद्ध हुआ, जिसमें गराड़ की मृत्यु हो गई, लेकिन जीत ब्रिटिश सेना की हुई। विद्रोही बिखर गए और मारवाड़ के बागी ठाकुरों को यहां-वहां शरण लेनी पड़ी। उनकी जागीरें जब्त कर ली गईं।18 दिल्ली पर फिर कंपनी का आधिपत्य कायम हो जाने से जोधपुर नरेश और अंग्रेजों का मनोबल ऊंचा और स्थिति सुदृढ़ हो गई थी। 20 जनवरी, 1858 को ब्रिगेडियर होम्स ने एक बड़े सैनिक लवाजमे और तोपखाने के साथ आऊवा का घेर लिया। जोधपुर रियासत की सेना भी इस अभियान में होम्स के साथ थी। भीषण लड़ाई हुई, जिसमें ग्रामवासियों ने भी भाग लिया। आऊवा का ठाकुर मेवाड़ के सामंतों से मदद प्राप्त करने के लिए रात्रि में किला छोड़कर बाहर पलायन कर गया।19 अंग्रेजों ने आऊवा के किलेदार को रिश्वत देकर अपनी ओर मिला लिया, जिससे उसने किले का दरवाजा खोल दिया। ब्रिटिश सेना ने किले को ध्वस्त कर दिया और गांव में जम कर लूटमार की। उसने जनसाधारण पर भी निर्मम अत्याचार किए।20 जनसाधारण की निगाह में आऊवा का संघषZ कालों और गोरों की लड़ाई थी। इस संबंध में कई लोकगीत आऊवा क्षेत्र में अभी भी प्रचलित हैं।
कोटा में विप्लव
आऊवा के बाद राजस्थान में 1857 कि विप्लव का सबसे अधिक असर कोटा में हुआ। कोटा का विप्लव यों तो हाड़ौती के पॉजिटिकल एजेंट मेजर बर्टन की कोटा नरेश को दी गई गोपनीय सलाह से भड़का, लेकिन जिस तरह से सेना, सरकारी तंत्र और जनसाधारण ने विद्रोहियों का साथ दिया, उससे लगता है कि वहां ब्रिटिश विरोधी भावनाएं और असंतोष पहले से ही चरम पर थे।21 कोटा नरेश रामसिंह ब्रिटिश समर्थक था और विद्रोह के बाद नीमच पर पुन: आधिपत्य के लिए किए गए सैन्य अभियान में उसकी सेनाएं भी शामिल थीं। कोटा रियासत की राजकीय सेना और कोटा कंटिन्जेंट के सैनिकों में विद्रोहियों द्वारा प्रचारित चबीZ वाले कारतूसों और आटे में सूअर और गाय की हडि्डयों का चूरा होने की खबर से उत्तेजना व्याप्त थी। कोटा एजेंसी से नरेश के सेवा मुक्त वकील जयदलाल और राजकीय सेना के रिसालदार मेहराब खां द्वारा इस आशय का पर्चा बांटने से स्थिति और भी विस्फोट हो गई।22 इसी बीच 12 अक्टूबर, 1857 को मेजर बर्टन नीमच से कोटा लौटा और 14 अक्टूबर को उसने कोटा नरेश से भेंट कर कुछ ब्रिटिश विरोधी सैनिक अधिकारियों को राजकीय सेना से हटाने और दंडित करने का परामशZ दिया। यह बात संबंधित अधिकारियों तक पहुंच गई।23
15 अक्टूबर, 1857 को कोटा की राजकीय सेना ने विद्रोह कर दिया। कोटा कंटिन्जेंट के सैनिक भी इसमें शामिल हो गए। विद्रोही सैनिकों ने रेजिडेंसी को घेर लिया। उन्होंने मेजर बर्टन और उसके दोनों बेटों की हत्या कर दी। उन्होंने रेजिडेंसी के डाक्टर सेल्डर तथा कोटा डिसपेंसरी के डाक्टर सेविल कांटम को भी मारा डाला। विद्रोहियों ने मेजर बर्टन के सिर को नगर में घुमाया और फिर तोप से उड़ा दिया।24 विद्रोहियों के नेता जयदलाल और मेहराब खां ने इसके बाद प्रशासन अपने हाथ में ले लिया। कोटा नरेश की स्थिति बहुत दयनीय थी। उसने वस्तुस्थिति स्पष्ट कर सहायता की याचना करते हुए एजीजी को पत्र लिखा, जिसकी जानकारी विद्रोहियों को मिल गई। उन्होंने कोटा नरेश के महल पर आक्रमण कर दिया। विवश होकर उसे विद्रोहियों से समझौता करना पड़ा, जिसके अनुसार नरेश ने जयदयाल और मेहराब खां को अपना मुख्य प्रशासक नियुक्त कर दिया। 6 महीने तक कोटा विद्रोहियों के कब्जे में रहा और इस दौरान विद्रोहियों का साथ नहीं देने वाले कई प्रमुख व्यक्ति मौत के घाट उतार दिए गए। कोटा नरेश ने इस दौरान बूंदी, झालावाड़ आदि रियासतों के शासकों से सहायता मांगी, लेकिन उसे निराशा हाथ लगी। करौली की सेना के आ जाने के बाद हालात बदलने लगे। हाड़ौती के राजपूत सामंतों ने भी नरेश का साथ दिया। नतीजा यह हुआ कि विद्रोही कमजोर पड़ कर पीछे हट गए पर नगर का अधिकांश भाग अभी भी उनके कब्जे में था।25 मार्च, 1858 में मेजर जनरल रॉबर्ट्स के नेतृत्व में 5,500 सैनिकों की फौज ने आक्रमण कर विद्रोहियों को खदेड़ दिया। मेहराब खां और जयदयाल भागने में सफल हो गए, लेकिन बाद में उनको गिरफ्तार कर फांसी की सजा दे दी गई।26 कोटा पर आधिपत्य कायम हो जाने के बाद अंग्रेजों ने बदले की भावना से जनसाधारण पर निर्मम अत्याचार किए। कवि सूर्यमल्ल मिश्रण ने केडाणा ठाकुर को लिखे एक पत्र में इनका वर्णन करते हुए लिखा कि अंग्रेजों ने कोटा नगर को लूटा, स्त्रियों का सतीत्व नष्ट किया, बहुत से आदमियों को फांसी के फंदे पर लटकाया तथा बहुतों को गोली से उड़ा दिया गया।ष्27
भरतपुर-धौलपुर में विद्रोह
ब्रिटिश शासित आगरा आदि क्षेत्रों 1857 का जो विप्लव हुआ, उसका गहरा असर राजस्थान की सीमावर्ती भरतपुर और धौलपुर रियासतों में हुआ। मथुरा में भड़के विद्रोह के तत्काल बाद हुडल में तैनात भरतपुर रियासत की एक सैनिक टुकडी ने भी विद्रोह कर दिया। भरतपुर के कुख्यात पॉलिटिकल एजेंट मेजर मारीशन से भरतपुर नरेश ने माहौल प्रतिकूल होने के कारण भरतपुर छोड़ने का आग्रह किया, लेकिन वह वहीं कार्यरत रहा। अंतत: शाबगंज के निकट जब ब्रिटिश सेना विद्रोहियों से पराजित हो गई, तो उसे उच्चाधिकारियों ने तत्काल भरतपुर छोड़ देने के निर्देश दिए। भरतपुर का जनसाधारण आश्वस्त था कि ब्रिटिश शासन का अंत निकट है, इसलिए उसने विद्रोहियों का साथ दिया और उनकी मदद की।28 धौलपुर रियासत में विद्रोहियों का दबदबा भरतपुर से भी ज्यादा रहा। यहां गुर्जर नेता देवा ने अपनी जाति के 3000 लोगों के साथ इरादत नगर की तहसील और खजाने से दो लाख रुपए लूट लिए। इंदौर और ग्वालियर के विद्रोही मिल कर धौलपुर में प्रविष्ट हुए और उन्होंने दबाव डालकर वहां की सत्ता अपने हाथ में ले ली। राव रामचंद्र और हीरालाल के नेतृत्व में विद्रोहियों के एक समूह ने धौलपुर से तोपें आदि लेकर आगरा पर आक्रमण किया। अंतत: पटियाला नरेश ने 2000 सिक्ख सैनिक और तोपखाना भेज कर धौलपुर नरेश को बागियों से मुक्त कराया।29 टोंक रियासत का नवाब अंग्रेजों का समर्थक था, लेकिन वहां के सैनिकों और जनसाधारण में ब्रिटिश विरोधी भावनाएं बहुत प्रबल थीं। नीमच के विद्रोही सैनिक जब टोंक पहुंचे, तो वहां के सैनिकों और जनसाधारण ने उनका स्वागत किया। टोंक से छह सौ मुजाहिद विद्रोहियों के साथ आगरा गए। टोंक के नवाब का मामा मीर आलम खां कंपनी सरकार की खुली मुखालपत करता था इसलिए उसके विरुद्ध सेना भेजी गई। मीर आलम खां इस अभियान में लड़ते हुए मारा गया।
मेवाड़-जयपुर में असंतोष
1857 के विप्लव के दौरान राजस्थान की दो बड़ी रियासतों, उदयपुर और जयपुर में विद्रोही निरंतर सक्रिय तो रहे, लेकिन यहां कोई बड़ी घटना नहीं हुई। दोनों रियासतों के शासक अंग्रेजों से उपकृत थे, इसलिए उन्होंने विद्रोहियों को कुचलने के लिए अंग्रेजों की सेवा में अपनी सेनाएं भेजीं। मेवाड़ में नरेश और उसके सामंतों के बीच परंपरागत विशेषाधिकारों को लेकर भीषण संघषZ चल रहा था। विद्रोह की सूचना मिलते ही एजीजी जार्ज लॉरैंस ने पॉलिटिकल एजेंट केिप्टन शॉवर्स का उदयपुर भेजा और एक निजी पत्र लिखकर नरेश को मेवाड़ में शांति बनाए रखने निर्देश दिए।30 मेवाड़ के जनसाधारण में इस समय ब्रिटिश विरोधी भावनाएं जोर पर थीं। शावर्स जब उदयपुर पहुंच कर नगर के मार्ग से होकर नरेश से मिलने महल गया तो लोगों ने उसे गालियां निकालीं और उसका अपमान किया। नरेश ने विद्रोह को कुचलने के लिए अंग्रेजों की सभी संभव मदद की। मेवाड़ के जागीरदार सामंतों ने नरेश से अपने मतभेदों के कारण विद्रोहियों का साथ दिया। सलूंबर के सामंत केसरीसिंह, कोठारिया के सामंत जोधसिंह आदि अंग्रेजों के विरुद्ध गतिविधियों में निरंतर सक्रिय रहे। इन्होंने विद्रोहियों को शरण दी और उनकी मदद भी की। बिठुर से भाग कर नाना साहब जब कोठारिया पहुंचा, तो जोधसिंह ने उसको अपने यहां शरण दी।31 केसरीसिंह और जोधसिंह की वीरता और साहस पर चारणों ने गीत लिखे। विप्लव की समाप्ति के बाद तांत्या टोपे एकाधिक बार राजस्थान आया और सरकारी सेना से पराजित होकर मेवाड़ की तरफ गया, तो ब्रिटिश विरोधी सामंतों ने उसकी रसद आदि देकर मदद की।32 राजस्थान की जयपुर रियासत के नरेश ने 1857 के विप्लव के दौरान कंपनी सरकार के प्रति अपनी निष्ठा बनाए रखी, लेकिन यहां के कुछ प्रमुख व्यक्ति ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों में निरंतर सक्रिय रहे। फौजदार सादुल्ला खां, नवाब विलायत अली, मियां उस्मान खंा आदि दिल्ली के निरंतर संपर्क में थे और इन्होंने जयपुर में ब्रिटिश विरोधी माहौल बनाने की कोिशश की। जयपुर के पॉलिटिकल एजेंट को जब इस संबंध में पता लगा तो उसने जयपुर नरेश को इसकी सूचना दी और नरेश ने इन व्यक्तियों को दंडित किया।33
1857 के विप्लव की नसीराबाद में भड़की चिनगारी ने जल्दी ही आग में बदल कर तमाम राजस्थान को अपनी चपेट में ले लिया। राजस्थान में हुए इस विद्रोह में अंग्रेजी सरकार से असंतुष्ट सैनिकों और सामंत शासकों से नाराज जागीरदारों की अहम् भूमिका थी। राजस्थान के जनसाधारण में इस दौरान ब्रिटिश विरोधी भावनाएं अपने चरम पर थीं और ये कई तरह से व्यक्त भी हुईं, लेकिन आऊवा और कोटा को छोड़कर अन्य स्थानों पर ये व्यापक जन प्रतिरोध को जन्म नहीं दे पाईं। अंग्रेजों ने सामंतों के सहयोग से विद्रोह को बहुत जल्दी कुचल दिया। यदि विद्रोह लंबा चलता, तो राजस्थान में भी धीरे-धीरे इसमें जनसाधारण की भागीदारी बढ़ जाने की संभावना थी। इसके कुछ लक्षण भी विद्रोह के अंतिम चरण में दिखाई पड़ने लगे थे। नसीराबाद सैनिक छावनी के अधिकारी आईण्टीण् प्रिचार्ड ने लिखा भी है कि ष्विद्रोह का आरंभ सैनिक गदर के रूप में हुआ, लेकिन बाद में इसके स्वरूप में परिवर्तन आ गया था।34
राजस्थान की रियासतों के सामंत शासक 1857 के विद्रोह की सफलता में सबसे बड़ी बाधा सिद्ध हुए। पारस्परिक द्वेष और प्रतिद्वंद्विता तथा मराठों और पिंडारियों की लूटपाट से उनकी हालत इतनी कमजोर हो गई थी कि अपने अस्तित्व के लिए अंग्रेजों की मौजूदगी उनको अपरिहार्य लगती थी। सामंतों के इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा के शब्दों में सरकार अंग्रेजी की सहायता लोगों के वास्ते ऐसी फायदेमंद हुई, जैसी कि सूखती हुई खेती के लिए बारिश होती है।ष्35 सामंत शासकों ने विप्लव के दौरान विद्रोह को कुचलने के लिए अंग्रेजों की सभी संभव मदद की। सामंत शासकों को यह अंग्रेजों के प्रति अपनी निष्ठा प्रदर्शित करने का स्वर्णिम अवसर जैसा लगा और वे बढ़-चढ़ कर विद्रोह के दमन और अंग्रेजों की सुरक्षा के काम में जुट गए। नाथूराम खड़्गावत के अनुसार उन्होंने विप्लव रूपी बाढ़ को रोकने में बांध की भूमिका निभाई।36इसके बदले में अंग्रेजों ने सामंत शासकों को पुरस्कृत किया। विद्रोह की असफलता से सामंतों के लिए मुिश्कलें पैदा करने वाले जागीरदारों का प्रतिरोध कमजोर पड़ गया। वंचित-पीिड़त जनसाधारण की ओर से कोई खास प्रतिरोध पहले ही नहीं था। अंग्रेजों की सरपरस्ती में सामंत अब पूरी तरह निश्चिंत हो गए।
1857 का विद्रोह सफल हो गया होता तो राजस्थान में शायद सामंतवाद के विरुद्ध भी प्रतिरोध के बीज पड़ जाते। विद्रोह की असफलता से यहां सामंतवाद की जड़ें और भी मजबूत और गहरी हो गईं। अंग्रेजों ने इनमें इतना खाद-पानी दिया कि लगभग एक सदी तक सामंतवाद यहां खूब फला-फूला और इसके विरुद्ध प्रतिरोध की धार हमेशा कमजोर रही।
संदर्भ और टिप्पणियां
1.आई.टी. प्रिचार्ड : म्यूटिनीज इन राजपुताना, पृ.21,
2.आर.पी.व्यास: आधुनिक राजस्थान का वृहत् इतिहास, खंड-2, पृ.63
3.टी,आर.होम्स : हिस्ट्री ऑफ द इंडियन म्यूटिनी, पृ.148ण्
4.जी.एच ट्रेवोर : चैप्टर ऑफ द इंडियन म्यूटिनी, पृ.150
5.जबरसिंह : द ईस्ट इंडिया कंपनी एंड मारवाड़, पृ.11
6.नाथूराम खड़्गावत : राजस्थान्स रोल इन द स्ट्रगल ऑफ 1857, पृ.18
7.सी,एल.शॉवर्स : ए मिसिंग चेप्टर ऑफ द इंडियन म्यूटिनी, पृ.28
8.गौराशंकर हीराचंद ओझा : उदयपुर राज्य का इतिहास, पृ.772
9.वहीं, पृ.774
10.नाथूराम खड़्गावत : राजस्थान्स रोल इन द स्ट्रगल ऑफ 1857, पृ.27
11.आर.पी व्यास : आधुनिक राजस्थान का वृहत् इतिहास, खंड-2, पृ.67
12.केप्टिन हॉल की रिपोर्ट ( 28 अगस्त, 1857)
(विजयकुमार त्रिवेदी द्वारा उद्धृत, हिस्ट्री ऑफ सिरोही स्टेट, पृ.83)
13.गौरीशंकर हीराचंद ओझा : सिरोही राज्य का इतिहास,पृ. 311
14.हकीकत बही (जोधपुर) नंण् 18, पृ. 384
(आर.पी.व्यास द्वारा उद्धृत, आधुनिक राजस्थान का वृहत् इतिहास खंड 2, पृण् 90)
15.जी.एच.ट्रेवोर : चेप्टर ऑफ इंडियन म्यूटिनी, पृ.1
नाथूराम खड़्गावत के अनुसार मेसन युद्ध क्षेत्र में लड़ता हुआ मारा गया था।
- राजस्थान्स रोल इन द स्ट्रगल ऑफ 1857, पृ.34
16.सी.एल.शॉवर्स : ए मिसिंग चेप्टर ऑफ द इंडियन म्यूटिनी, पृ.108
17.नाथूराम खड़्गावत : राजस्थान्स रोल इन द स्ट्रगल ऑफ 1857, पृ.159
18.हकीकत बही (जोधपुर) नंण् 18 पृ.403
(नाथूराम खड़्गावत द्वारा उद्धृत, वही, पृ.44)
19.हकीकत बही (जोधपुर) नंण् 18, पृ. 403
(नाथूराम खडगावत द्वारा उदघृत, वहीं, पृ. 45)
20.हकीकत बही (जोधपुर) नंण् 18, पृ.409
(आर व्यास द्वारा उद्धृत, आधुनिक राजस्थान का वहत् इतिहास खंड 2, पृण्)
21.सी. एल शॉवर्स : ए मिसिंग चेप्टर ऑफ इंडियन म्यूटिनी, पृ.85
22.फो. पो. कंसलटेशन (31 सितंबर 1858) नंण्1-2
(एच,एस. शर्मा द्वारा उद्धृत, राजस्थान हिस्ट्री कांग्रेस प्रोसीडिंग्ज, वाल्यूम 13, पृ.205)
23.सूर्यमल्ल मिश्रण द्वारा नामली ठाकुर को लिखे पत्र में यह उल्लेख मिलता है।
- वीर सतसई (सं. कन्हैयालाल सहल),पृ. 72
24.नाथूराम खड़्गावत : राजस्थान्स रोल इनपृ. द स्ट्रगल ऑफ 1857, पृ.59
25.वही, पृण्63
26.एच,एस. शर्मा : हिस्ट्री कांग्रेस प्रोसिडिंग्ज, वाल्यूम 11, पृ.205-211
27.सूर्यमल्ल मिश्रण द्वारा कडाणा ठाकुर को लिखा गया पत्र।
- वीर सतसई (संण् कन्हैयालाल सहल), पृ.78
28.नाथूराम खड़्गावत : राजस्थान्स रोल इन द स्ट्रगल ऑफ 1857, पृ.72
29.वहीं, पृ.74
30.वहीं, पृ.258-61पृ.
31.वहीं,पृ .78
32.सी.एल. शॉवर्स का जार्ज लॉरेंस को लिखा गया पत्र (9 सितंबर, 1858)
(नाथूराम खड़्गावत द्वारा उद्धृत, वहीं, पृ 82)
33.एम.एल. शर्मा : हिस्ट्री ऑफ जयपुर स्टेट, पृ. 258
34.म्यूटिनीज इन राजपुताना, पृ. 277
35.सिरोही राज्य का इतिहास, पृ.291
36.राजस्थान्स रोल इन द स्ट्रगल ऑफ 1857, पृ.72
वसुधा,जन.-मार्च,2008 में प्रकशित
मध्यकाल के अंतिम चरण में केन्द्रीय मुगल सत्ता के कमजोर हो जाने के बाद राजस्थान की रियासतों में माहौल लगभग अराजकता का था। मराठों और पिंडारियों के निरंतर आक्रमण और लूटमार से यहां का जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया और अर्थ व्यवस्था चौपट हो गई। उच्छृंखल जागीरदारों और सामंतों की आपसी प्रतिद्वंद्विता और द्वेष से हालात इनते बिगड़ गए थे कि यहां शासन जैसी कोई चीज नहीं रही और स्वेच्छाचार बढ़ गया।2 इन हालातों से तंग आकर 1823 तक आते-आते सभी रियासतों ने सुरक्षा और संरक्षण के वचन पर कंपनी सरकार से संधियां कर लीं। इन रियासतों में कंपनी सरकार ने अपने पॉलिटिकल एजेंट नियुक्त कर दिए, जिन्होंने धीरे-धीरे रियासतों की बागडोर अपने हाथों में ले ली। 1857 के विप्लव से पहले तक राजपुताना रेजिडेंसी की सभी रियासतों का नियंत्रण एजेंट टू गर्वनर जनरल (एजीजी) के हाथ में था, जिसका मुख्यालय अजमेर में था। राजपुताना में इस समय छह ब्रिटिश छावनियां नसीराबाद, देवली, नीमच, ऐरनपुरा, खेरवाड़ा और ब्यावर में थीं, जिनमें सभी सैनिक भारतीय थे। मेरठ में हुए विद्रोह की सूचना एजीजी पैट्रिक लॉरेंस की 19 मई को माउंट आबू में मिली। लॉरेंस ने तत्काल एक पत्र तैयार कर राजस्थान की सभी रियासतों के शासकों को भिजवाया, जिसमें उसने रियासतों को कंपनी सरकार के प्रति निष्ठावान रहने, विद्रोहियों को कुचलने और यथावश्यकता अपनी सेवाएं कंपनी सरकार को प्रस्तुत करने के निर्देश दिए।3 लॉरेंस तत्काल माउंट आबू से अजमेर गया और उसने अपनी तमाम ताकत अजमेर, जो राजपुताना के केन्द्र में था और जहां कंपनी सरकार का खजाना और शास्त्रागार थे, झोंक दी।4 राजपुताना की ब्रिटिश छावनियों के सैनिक भारतीय थे, इसलिए उसने डीसा से यूरोपियन सैनिकों को अजमेर पहुंचने के निर्देश दिए। जोधपुर के नरेश तख्तसिंह ने भी अपनी सेना उसके निर्देश पर अजमेर की सुरक्षा के लिए भेजी।5
नसीराबाद और नीमच छावनी में सैनिक विद्रोह
राजस्थान में विद्रोह की शुरुआत नसीराबाद छावनी से हुई। दरअसल नसीराबाद छावनी में मेरठ, जहां विद्रोह हो चुका था, से आए नैटिव इन्फेंट्री के सैनिकों के कारण माहौल में उत्तेजना थी। अंग्रेज अधिकारियों ने इसी समय कुछ ऐसे निर्णय लिए, जिनसे इन सैनिकों में यह विश्वास दृढ़ हो गया कि उन्हें कुचला जाएगा। इन अधिकारियों ने छावनी में गश्त का काम बम्बई लॉन्सर्स को सौंप दिया और तोपों में गोला बारूद भर दिया। उन्होंने अजमेर से नैटिव इन्फेंट्री के सैनिकों को हटाकर उनके स्थान पर मेर रेजिमेंट के सैनिकों को लगा दिया गया। इसके अतिरिक्त छद्म वेश में विद्रोही समर्थक छावनी में यह प्रचार कर रहे थे कि कारतूसों में चबीZ लगी हुई है। नतीजतन 28 मई, 1857 को नसीराबाद छावनी के सैनिकों ने बगावत कर दी। उन्होंने छावनी को तहस-नहस का लूट लिया और वे दिल्ली की ओर प्रस्थान कर गए।6 जयपुर और जोधपुर रियासतों की सेनाओं ने इनका पीछा किया, लेकिन सहानुभूति के कारण वे इनसे नहीं लड़ीं। नसीराबाद के विद्रोह की सूचना नीमच छावनी में पहुंचते ही वहां भी माहौल उत्तेजनापूर्ण हो गया। छावनी के कमांडर कर्नल एबॉट के सभी प्रयत्नों के बावजूद 3 जून, 1857 को रात्रि 11 बजे नीमच छावनी में भी विद्रोह हो गया। विद्रोहियों ने छावनी में आग लगा दी। कुछ अंग्रेज सैनिक अधिकारी मारे गए और शेष इधर-उधर भटकते रहे, जिनको बाद में मेवाड़ रियासत के पॉलिटिकल एजेंट के नेतृत्व आई मेवाड़ी सेना ने सुरक्षित उदयपुर पहुंचा दिया, जहां उनके आतिथ्य के सभी इंतजाम किए गए। विद्रोही दिल्ली की ओर कूच करने से पहले शाहपुरा और फिर निम्बाहेड़ा गए, जहां जागारीदारों और जनसाधारण ने उनका स्वागत किया।7 नीमच के विद्रोही सैनिकों ने देवली की छावनी का भी लूटा। वहां की सैनिक टुकड़ी उनके साथ मिल गई। यहां से विद्रोही टोंक पहुंचे, जहां उनका भव्य स्वागत हुआ। टोंक के नवाब की सेना के कई सैनिक भी विद्रोहियों में शामिल हो गए। विद्रोही इसके बाद दिल्ली की ओर कूच कर गए। मेवाड़ रियासत ने संकट की इस घड़ी में अंग्रेजों की भरपूर मदद की। 6 जून, 1857 को मेवाड़, कोटा, बूंदी और झालावाड़ रियासतों की सेनाओं की सहायता से केप्टिन लॉयड ने नीमच पर फिर आधिपत्य कायम कर लिया। नीमच की स्थिति सुदृढ़ करने के लिए एजीजी लॉरेंस ने वहां से रियासती सेनाओं को हटाकर यूरोपीय सैनिकों की एक टुकड़ी तैनात कर दी। नीमच छावनी में 12 अगस्त, 1857 को फिर विद्रोह हुआ, जिसमें एक अंग्रेज अधिकारी मारा गया, लेकिन मेवाड़ की सेना के सहयोग से यहां शांति कायम कर दी गई और संदिग्ध भारतीय सैनिकों को तोप से उड़ा दिया गया।8 इन्हीं दिनों फिरोज नामक एक व्यक्ति ने अपने को मुगल बादशाह का वंशज घोषित कर मंदसौर पर अधिकार कर लिया। उसकी योजना निम्बाहेड़ा पर अधिकार करने के थी, जो नीमच छावनी के निकट था इसलिए अंग्रेज सैनिक अधिकारियों ने मेवाड़ की सेना के सहयाग से 19 सितंबर, 1857 को निम्बाहेड़ा पर अधिकार कर लिया। निम्बाहेड़ा के बागी हाकिम ने 8 नवंबर को नीमच पर चढ़ाई कर छावनी को आग लगा दी। अंतत: मध्य भारत का पॉलिटिकल एजेंट कर्नल डयरेंड मऊ से एक बड़ी सेना लेकर पहले मंदसौर आया और फिर नीमच आया, जिससे बागी भाग गए और नीमच पर फिर ब्रिटिश आधिपत्य कायम हो गया।9
आऊवा में संग्राम
अंग्रेजों और जोधपुर रियासत के विरुद्ध आऊवा का विद्रोह कुछ हद तक सुनियोजित और दीघZकालीन था। इस विद्रोह को अंजाम देने में जोधपुर रियासत के आऊवा और अन्य ठिकानों के बागी जागीरदारों की महत्वपूर्ण भूमिका थी। इसमें सहयोग ऐरनपुरा छावनी के बागी सैनिकों ने दिया। खास बात यह है कि इस विप्लव में आऊवा क्षेत्र के जनसाधारण ने भी विद्रोहियों का साथ दिया।10 जोधपुर रियासत और अंग्रेजों के विरुद्ध मारवाड़ क्षेत्र में जो असंतोष था वो इस विद्रोह के रूप में प्रकट हुआ। 1857 की शुरुआत में मारवाड़ की स्थिति बहुत खराब थी। जोधपुर नरेश के विरुद्ध जागीरदारों में असंतोष इस समय चरम पर था। असंतुष्ट और नाराज जागीरदार आऊवा के ठाकुर कुशालसिंह के नेतृत्व में जोधपुर रियासत के विरुद्ध संगठित हो चुके थे।11 अगस्त, 1857 में ऐरनपुरा (िशवगंज) छावनी की एक टुकड़ी सैन्य अभ्यास के लिए माउंट आबू गई हुई थी। इस टुकड़ी को सिरोही रियासत के रोहुआ ठिकाने के बागी जागीरदार के विरुद्ध अनादरा में तैनात किया गया। इस सैनिक टुकड़ी ने अन्य छावनियों में हुए विद्रोह की सूचना मिलने पर 21 अगस्त, 1857 को विद्रोह कर दिया। टुकड़ी के सैनिकों ने माउंट आबू पर चढ़कर गोलीबारी शुरू कर दी, जिसमें एजीजी का पुत्र एण्लॉरेंस घायल हो गया।12 उत्तर में माउंट आबू पर मौजूद यूरोपियन अधिकारियों और सैनिकों ने भी गोलीबारी की। धुंध के कारण विद्रोही पीछे हट गए और माउंट आबू से उतर कर ऐरनपुरा छावनी आ गए, जहां पहले ही विद्रोह हो चुका था। विद्रोहियों ने छावनी और रेलवे स्टेशन को लूट लिया और पाली के रास्ते से दिल्ली की ओर प्रस्थान कर गए। सिरोही रियासत के मुंशी नियामत अली खां ने सेना के साथ विद्रोहियों का पीछा किया और अंग्रेज अधिकारियों को छुड़ा कर सकुशल सिरोही ले आया, जहां उनकी सुरक्षा और आतिथ्य के व्यापक प्रबंध किए गए।13 विद्रोही दिल्ली को ओर बढ़ रहे थे, लेकिन जोधपुर के किलेदार अनाड़सिंह के सेना सहित पाली में होने की सूचना पर वे आऊवा के निकट स्थित एक गांव में पहुंच गए, जहां से कुछ सैनिक दिल्ली चले गए और शेष को आऊवा का बागी ठाकुर अपनी सेवा में ले आया। जोधपुर रियासत से नाराज आसोप, गूलर, आलनियावास, लांबिया, बांता, भिंवालिया, बाजावास आदि ठिकानों के जागीरदार भी सैनिकों सहित आऊवा पहुंच गए। अनाड़सिंह ने जोधपुर की सेना के साथ आऊवा के निकट स्थित बिठोडा गांव में डेरा डाला। एजीजी लॉरेंस के निर्देश पर लेिफ्टनेंट हेथकोट युद्ध रणनीति तय करने के लिए अनाड़सिंह के साथ आया। 8 सितंबर को भीषण लड़ाई हुई, जिसमें जोधपुर रियासत और अंग्रेजों की सेना की शर्मनाक पराजय हुई। अनाड़सिंह मारा गया और हेथकोट को मैदान छोड़ना पड़ा।14 एजीजी लॉरेंस इस पराजय से आहत था क्योंकि यह कंपनी सरकार की प्रतिष्ठा पर धब्बा थी। एजीजी लॉरेंस लॉरेंस ने अजमेर में सेना एकत्र की और 18 सितंबर, 1857 को आऊवा पहुंच कर उसने विद्रोहियों पर आक्रमण का दिया। जोधपुर का पॉलिटिकल एजेंट मॉक मेसन भी सेना सहित आऊवा पहुंच गया और गलती से विद्रोहियों के हाथ पड़ कर मारा गया। उसके शव को विद्रोहियों ने आऊवा के किले के बाहर स्थित वृक्ष पर लटका दिया।15 एजीजी लॉरेंस इस लड़ाई में परास्त हुआ और उसे निराश होकर मैदान छोड़ना पड़ा। यह पराजय अंग्रेजों के लिए अपमानजनक थी, क्योंकि लॉरेंस राजपुताना में कंपनी सरकार का सर्वोच्च सैनिक कमांडर था।16 मेसन का वध और उसके शव को वृक्ष पर टांगने की कार्यवाही इस बात का सबूत थी कि जनसाधारण में अंग्रेजों के प्रति नफरत की भावना बहुत ज्यादा थी। आऊवा के विद्रोही दिल्ली के संपर्क में भी थे। वहां से संदेश मिलने पर 10 अक्टूबर, 1857 को जोधपुर लीजन के बागी सैनिकों ने आसोप, गूलर और आलनियावास के ठाकुरों और उनके सैनिकों के साथ दिल्ली की ओर कूच किया।17 जोधपुर नरेश के आदेश पर कुचामन ठाकुर केसरीसिंह ने सेनापति कुशलराज के साथ विद्रोहियों का नारनौल तक पीछा किया। 16 नवंबर की नारनौल में ब्रिगेडियर गराड़ के नेतृत्व में अंग्रेज सेना और विद्रोहियों के बीच घमासान युद्ध हुआ, जिसमें गराड़ की मृत्यु हो गई, लेकिन जीत ब्रिटिश सेना की हुई। विद्रोही बिखर गए और मारवाड़ के बागी ठाकुरों को यहां-वहां शरण लेनी पड़ी। उनकी जागीरें जब्त कर ली गईं।18 दिल्ली पर फिर कंपनी का आधिपत्य कायम हो जाने से जोधपुर नरेश और अंग्रेजों का मनोबल ऊंचा और स्थिति सुदृढ़ हो गई थी। 20 जनवरी, 1858 को ब्रिगेडियर होम्स ने एक बड़े सैनिक लवाजमे और तोपखाने के साथ आऊवा का घेर लिया। जोधपुर रियासत की सेना भी इस अभियान में होम्स के साथ थी। भीषण लड़ाई हुई, जिसमें ग्रामवासियों ने भी भाग लिया। आऊवा का ठाकुर मेवाड़ के सामंतों से मदद प्राप्त करने के लिए रात्रि में किला छोड़कर बाहर पलायन कर गया।19 अंग्रेजों ने आऊवा के किलेदार को रिश्वत देकर अपनी ओर मिला लिया, जिससे उसने किले का दरवाजा खोल दिया। ब्रिटिश सेना ने किले को ध्वस्त कर दिया और गांव में जम कर लूटमार की। उसने जनसाधारण पर भी निर्मम अत्याचार किए।20 जनसाधारण की निगाह में आऊवा का संघषZ कालों और गोरों की लड़ाई थी। इस संबंध में कई लोकगीत आऊवा क्षेत्र में अभी भी प्रचलित हैं।
कोटा में विप्लव
आऊवा के बाद राजस्थान में 1857 कि विप्लव का सबसे अधिक असर कोटा में हुआ। कोटा का विप्लव यों तो हाड़ौती के पॉजिटिकल एजेंट मेजर बर्टन की कोटा नरेश को दी गई गोपनीय सलाह से भड़का, लेकिन जिस तरह से सेना, सरकारी तंत्र और जनसाधारण ने विद्रोहियों का साथ दिया, उससे लगता है कि वहां ब्रिटिश विरोधी भावनाएं और असंतोष पहले से ही चरम पर थे।21 कोटा नरेश रामसिंह ब्रिटिश समर्थक था और विद्रोह के बाद नीमच पर पुन: आधिपत्य के लिए किए गए सैन्य अभियान में उसकी सेनाएं भी शामिल थीं। कोटा रियासत की राजकीय सेना और कोटा कंटिन्जेंट के सैनिकों में विद्रोहियों द्वारा प्रचारित चबीZ वाले कारतूसों और आटे में सूअर और गाय की हडि्डयों का चूरा होने की खबर से उत्तेजना व्याप्त थी। कोटा एजेंसी से नरेश के सेवा मुक्त वकील जयदलाल और राजकीय सेना के रिसालदार मेहराब खां द्वारा इस आशय का पर्चा बांटने से स्थिति और भी विस्फोट हो गई।22 इसी बीच 12 अक्टूबर, 1857 को मेजर बर्टन नीमच से कोटा लौटा और 14 अक्टूबर को उसने कोटा नरेश से भेंट कर कुछ ब्रिटिश विरोधी सैनिक अधिकारियों को राजकीय सेना से हटाने और दंडित करने का परामशZ दिया। यह बात संबंधित अधिकारियों तक पहुंच गई।23
15 अक्टूबर, 1857 को कोटा की राजकीय सेना ने विद्रोह कर दिया। कोटा कंटिन्जेंट के सैनिक भी इसमें शामिल हो गए। विद्रोही सैनिकों ने रेजिडेंसी को घेर लिया। उन्होंने मेजर बर्टन और उसके दोनों बेटों की हत्या कर दी। उन्होंने रेजिडेंसी के डाक्टर सेल्डर तथा कोटा डिसपेंसरी के डाक्टर सेविल कांटम को भी मारा डाला। विद्रोहियों ने मेजर बर्टन के सिर को नगर में घुमाया और फिर तोप से उड़ा दिया।24 विद्रोहियों के नेता जयदलाल और मेहराब खां ने इसके बाद प्रशासन अपने हाथ में ले लिया। कोटा नरेश की स्थिति बहुत दयनीय थी। उसने वस्तुस्थिति स्पष्ट कर सहायता की याचना करते हुए एजीजी को पत्र लिखा, जिसकी जानकारी विद्रोहियों को मिल गई। उन्होंने कोटा नरेश के महल पर आक्रमण कर दिया। विवश होकर उसे विद्रोहियों से समझौता करना पड़ा, जिसके अनुसार नरेश ने जयदयाल और मेहराब खां को अपना मुख्य प्रशासक नियुक्त कर दिया। 6 महीने तक कोटा विद्रोहियों के कब्जे में रहा और इस दौरान विद्रोहियों का साथ नहीं देने वाले कई प्रमुख व्यक्ति मौत के घाट उतार दिए गए। कोटा नरेश ने इस दौरान बूंदी, झालावाड़ आदि रियासतों के शासकों से सहायता मांगी, लेकिन उसे निराशा हाथ लगी। करौली की सेना के आ जाने के बाद हालात बदलने लगे। हाड़ौती के राजपूत सामंतों ने भी नरेश का साथ दिया। नतीजा यह हुआ कि विद्रोही कमजोर पड़ कर पीछे हट गए पर नगर का अधिकांश भाग अभी भी उनके कब्जे में था।25 मार्च, 1858 में मेजर जनरल रॉबर्ट्स के नेतृत्व में 5,500 सैनिकों की फौज ने आक्रमण कर विद्रोहियों को खदेड़ दिया। मेहराब खां और जयदयाल भागने में सफल हो गए, लेकिन बाद में उनको गिरफ्तार कर फांसी की सजा दे दी गई।26 कोटा पर आधिपत्य कायम हो जाने के बाद अंग्रेजों ने बदले की भावना से जनसाधारण पर निर्मम अत्याचार किए। कवि सूर्यमल्ल मिश्रण ने केडाणा ठाकुर को लिखे एक पत्र में इनका वर्णन करते हुए लिखा कि अंग्रेजों ने कोटा नगर को लूटा, स्त्रियों का सतीत्व नष्ट किया, बहुत से आदमियों को फांसी के फंदे पर लटकाया तथा बहुतों को गोली से उड़ा दिया गया।ष्27
भरतपुर-धौलपुर में विद्रोह
ब्रिटिश शासित आगरा आदि क्षेत्रों 1857 का जो विप्लव हुआ, उसका गहरा असर राजस्थान की सीमावर्ती भरतपुर और धौलपुर रियासतों में हुआ। मथुरा में भड़के विद्रोह के तत्काल बाद हुडल में तैनात भरतपुर रियासत की एक सैनिक टुकडी ने भी विद्रोह कर दिया। भरतपुर के कुख्यात पॉलिटिकल एजेंट मेजर मारीशन से भरतपुर नरेश ने माहौल प्रतिकूल होने के कारण भरतपुर छोड़ने का आग्रह किया, लेकिन वह वहीं कार्यरत रहा। अंतत: शाबगंज के निकट जब ब्रिटिश सेना विद्रोहियों से पराजित हो गई, तो उसे उच्चाधिकारियों ने तत्काल भरतपुर छोड़ देने के निर्देश दिए। भरतपुर का जनसाधारण आश्वस्त था कि ब्रिटिश शासन का अंत निकट है, इसलिए उसने विद्रोहियों का साथ दिया और उनकी मदद की।28 धौलपुर रियासत में विद्रोहियों का दबदबा भरतपुर से भी ज्यादा रहा। यहां गुर्जर नेता देवा ने अपनी जाति के 3000 लोगों के साथ इरादत नगर की तहसील और खजाने से दो लाख रुपए लूट लिए। इंदौर और ग्वालियर के विद्रोही मिल कर धौलपुर में प्रविष्ट हुए और उन्होंने दबाव डालकर वहां की सत्ता अपने हाथ में ले ली। राव रामचंद्र और हीरालाल के नेतृत्व में विद्रोहियों के एक समूह ने धौलपुर से तोपें आदि लेकर आगरा पर आक्रमण किया। अंतत: पटियाला नरेश ने 2000 सिक्ख सैनिक और तोपखाना भेज कर धौलपुर नरेश को बागियों से मुक्त कराया।29 टोंक रियासत का नवाब अंग्रेजों का समर्थक था, लेकिन वहां के सैनिकों और जनसाधारण में ब्रिटिश विरोधी भावनाएं बहुत प्रबल थीं। नीमच के विद्रोही सैनिक जब टोंक पहुंचे, तो वहां के सैनिकों और जनसाधारण ने उनका स्वागत किया। टोंक से छह सौ मुजाहिद विद्रोहियों के साथ आगरा गए। टोंक के नवाब का मामा मीर आलम खां कंपनी सरकार की खुली मुखालपत करता था इसलिए उसके विरुद्ध सेना भेजी गई। मीर आलम खां इस अभियान में लड़ते हुए मारा गया।
मेवाड़-जयपुर में असंतोष
1857 के विप्लव के दौरान राजस्थान की दो बड़ी रियासतों, उदयपुर और जयपुर में विद्रोही निरंतर सक्रिय तो रहे, लेकिन यहां कोई बड़ी घटना नहीं हुई। दोनों रियासतों के शासक अंग्रेजों से उपकृत थे, इसलिए उन्होंने विद्रोहियों को कुचलने के लिए अंग्रेजों की सेवा में अपनी सेनाएं भेजीं। मेवाड़ में नरेश और उसके सामंतों के बीच परंपरागत विशेषाधिकारों को लेकर भीषण संघषZ चल रहा था। विद्रोह की सूचना मिलते ही एजीजी जार्ज लॉरैंस ने पॉलिटिकल एजेंट केिप्टन शॉवर्स का उदयपुर भेजा और एक निजी पत्र लिखकर नरेश को मेवाड़ में शांति बनाए रखने निर्देश दिए।30 मेवाड़ के जनसाधारण में इस समय ब्रिटिश विरोधी भावनाएं जोर पर थीं। शावर्स जब उदयपुर पहुंच कर नगर के मार्ग से होकर नरेश से मिलने महल गया तो लोगों ने उसे गालियां निकालीं और उसका अपमान किया। नरेश ने विद्रोह को कुचलने के लिए अंग्रेजों की सभी संभव मदद की। मेवाड़ के जागीरदार सामंतों ने नरेश से अपने मतभेदों के कारण विद्रोहियों का साथ दिया। सलूंबर के सामंत केसरीसिंह, कोठारिया के सामंत जोधसिंह आदि अंग्रेजों के विरुद्ध गतिविधियों में निरंतर सक्रिय रहे। इन्होंने विद्रोहियों को शरण दी और उनकी मदद भी की। बिठुर से भाग कर नाना साहब जब कोठारिया पहुंचा, तो जोधसिंह ने उसको अपने यहां शरण दी।31 केसरीसिंह और जोधसिंह की वीरता और साहस पर चारणों ने गीत लिखे। विप्लव की समाप्ति के बाद तांत्या टोपे एकाधिक बार राजस्थान आया और सरकारी सेना से पराजित होकर मेवाड़ की तरफ गया, तो ब्रिटिश विरोधी सामंतों ने उसकी रसद आदि देकर मदद की।32 राजस्थान की जयपुर रियासत के नरेश ने 1857 के विप्लव के दौरान कंपनी सरकार के प्रति अपनी निष्ठा बनाए रखी, लेकिन यहां के कुछ प्रमुख व्यक्ति ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों में निरंतर सक्रिय रहे। फौजदार सादुल्ला खां, नवाब विलायत अली, मियां उस्मान खंा आदि दिल्ली के निरंतर संपर्क में थे और इन्होंने जयपुर में ब्रिटिश विरोधी माहौल बनाने की कोिशश की। जयपुर के पॉलिटिकल एजेंट को जब इस संबंध में पता लगा तो उसने जयपुर नरेश को इसकी सूचना दी और नरेश ने इन व्यक्तियों को दंडित किया।33
1857 के विप्लव की नसीराबाद में भड़की चिनगारी ने जल्दी ही आग में बदल कर तमाम राजस्थान को अपनी चपेट में ले लिया। राजस्थान में हुए इस विद्रोह में अंग्रेजी सरकार से असंतुष्ट सैनिकों और सामंत शासकों से नाराज जागीरदारों की अहम् भूमिका थी। राजस्थान के जनसाधारण में इस दौरान ब्रिटिश विरोधी भावनाएं अपने चरम पर थीं और ये कई तरह से व्यक्त भी हुईं, लेकिन आऊवा और कोटा को छोड़कर अन्य स्थानों पर ये व्यापक जन प्रतिरोध को जन्म नहीं दे पाईं। अंग्रेजों ने सामंतों के सहयोग से विद्रोह को बहुत जल्दी कुचल दिया। यदि विद्रोह लंबा चलता, तो राजस्थान में भी धीरे-धीरे इसमें जनसाधारण की भागीदारी बढ़ जाने की संभावना थी। इसके कुछ लक्षण भी विद्रोह के अंतिम चरण में दिखाई पड़ने लगे थे। नसीराबाद सैनिक छावनी के अधिकारी आईण्टीण् प्रिचार्ड ने लिखा भी है कि ष्विद्रोह का आरंभ सैनिक गदर के रूप में हुआ, लेकिन बाद में इसके स्वरूप में परिवर्तन आ गया था।34
राजस्थान की रियासतों के सामंत शासक 1857 के विद्रोह की सफलता में सबसे बड़ी बाधा सिद्ध हुए। पारस्परिक द्वेष और प्रतिद्वंद्विता तथा मराठों और पिंडारियों की लूटपाट से उनकी हालत इतनी कमजोर हो गई थी कि अपने अस्तित्व के लिए अंग्रेजों की मौजूदगी उनको अपरिहार्य लगती थी। सामंतों के इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा के शब्दों में सरकार अंग्रेजी की सहायता लोगों के वास्ते ऐसी फायदेमंद हुई, जैसी कि सूखती हुई खेती के लिए बारिश होती है।ष्35 सामंत शासकों ने विप्लव के दौरान विद्रोह को कुचलने के लिए अंग्रेजों की सभी संभव मदद की। सामंत शासकों को यह अंग्रेजों के प्रति अपनी निष्ठा प्रदर्शित करने का स्वर्णिम अवसर जैसा लगा और वे बढ़-चढ़ कर विद्रोह के दमन और अंग्रेजों की सुरक्षा के काम में जुट गए। नाथूराम खड़्गावत के अनुसार उन्होंने विप्लव रूपी बाढ़ को रोकने में बांध की भूमिका निभाई।36इसके बदले में अंग्रेजों ने सामंत शासकों को पुरस्कृत किया। विद्रोह की असफलता से सामंतों के लिए मुिश्कलें पैदा करने वाले जागीरदारों का प्रतिरोध कमजोर पड़ गया। वंचित-पीिड़त जनसाधारण की ओर से कोई खास प्रतिरोध पहले ही नहीं था। अंग्रेजों की सरपरस्ती में सामंत अब पूरी तरह निश्चिंत हो गए।
1857 का विद्रोह सफल हो गया होता तो राजस्थान में शायद सामंतवाद के विरुद्ध भी प्रतिरोध के बीज पड़ जाते। विद्रोह की असफलता से यहां सामंतवाद की जड़ें और भी मजबूत और गहरी हो गईं। अंग्रेजों ने इनमें इतना खाद-पानी दिया कि लगभग एक सदी तक सामंतवाद यहां खूब फला-फूला और इसके विरुद्ध प्रतिरोध की धार हमेशा कमजोर रही।
संदर्भ और टिप्पणियां
1.आई.टी. प्रिचार्ड : म्यूटिनीज इन राजपुताना, पृ.21,
2.आर.पी.व्यास: आधुनिक राजस्थान का वृहत् इतिहास, खंड-2, पृ.63
3.टी,आर.होम्स : हिस्ट्री ऑफ द इंडियन म्यूटिनी, पृ.148ण्
4.जी.एच ट्रेवोर : चैप्टर ऑफ द इंडियन म्यूटिनी, पृ.150
5.जबरसिंह : द ईस्ट इंडिया कंपनी एंड मारवाड़, पृ.11
6.नाथूराम खड़्गावत : राजस्थान्स रोल इन द स्ट्रगल ऑफ 1857, पृ.18
7.सी,एल.शॉवर्स : ए मिसिंग चेप्टर ऑफ द इंडियन म्यूटिनी, पृ.28
8.गौराशंकर हीराचंद ओझा : उदयपुर राज्य का इतिहास, पृ.772
9.वहीं, पृ.774
10.नाथूराम खड़्गावत : राजस्थान्स रोल इन द स्ट्रगल ऑफ 1857, पृ.27
11.आर.पी व्यास : आधुनिक राजस्थान का वृहत् इतिहास, खंड-2, पृ.67
12.केप्टिन हॉल की रिपोर्ट ( 28 अगस्त, 1857)
(विजयकुमार त्रिवेदी द्वारा उद्धृत, हिस्ट्री ऑफ सिरोही स्टेट, पृ.83)
13.गौरीशंकर हीराचंद ओझा : सिरोही राज्य का इतिहास,पृ. 311
14.हकीकत बही (जोधपुर) नंण् 18, पृ. 384
(आर.पी.व्यास द्वारा उद्धृत, आधुनिक राजस्थान का वृहत् इतिहास खंड 2, पृण् 90)
15.जी.एच.ट्रेवोर : चेप्टर ऑफ इंडियन म्यूटिनी, पृ.1
नाथूराम खड़्गावत के अनुसार मेसन युद्ध क्षेत्र में लड़ता हुआ मारा गया था।
- राजस्थान्स रोल इन द स्ट्रगल ऑफ 1857, पृ.34
16.सी.एल.शॉवर्स : ए मिसिंग चेप्टर ऑफ द इंडियन म्यूटिनी, पृ.108
17.नाथूराम खड़्गावत : राजस्थान्स रोल इन द स्ट्रगल ऑफ 1857, पृ.159
18.हकीकत बही (जोधपुर) नंण् 18 पृ.403
(नाथूराम खड़्गावत द्वारा उद्धृत, वही, पृ.44)
19.हकीकत बही (जोधपुर) नंण् 18, पृ. 403
(नाथूराम खडगावत द्वारा उदघृत, वहीं, पृ. 45)
20.हकीकत बही (जोधपुर) नंण् 18, पृ.409
(आर व्यास द्वारा उद्धृत, आधुनिक राजस्थान का वहत् इतिहास खंड 2, पृण्)
21.सी. एल शॉवर्स : ए मिसिंग चेप्टर ऑफ इंडियन म्यूटिनी, पृ.85
22.फो. पो. कंसलटेशन (31 सितंबर 1858) नंण्1-2
(एच,एस. शर्मा द्वारा उद्धृत, राजस्थान हिस्ट्री कांग्रेस प्रोसीडिंग्ज, वाल्यूम 13, पृ.205)
23.सूर्यमल्ल मिश्रण द्वारा नामली ठाकुर को लिखे पत्र में यह उल्लेख मिलता है।
- वीर सतसई (सं. कन्हैयालाल सहल),पृ. 72
24.नाथूराम खड़्गावत : राजस्थान्स रोल इनपृ. द स्ट्रगल ऑफ 1857, पृ.59
25.वही, पृण्63
26.एच,एस. शर्मा : हिस्ट्री कांग्रेस प्रोसिडिंग्ज, वाल्यूम 11, पृ.205-211
27.सूर्यमल्ल मिश्रण द्वारा कडाणा ठाकुर को लिखा गया पत्र।
- वीर सतसई (संण् कन्हैयालाल सहल), पृ.78
28.नाथूराम खड़्गावत : राजस्थान्स रोल इन द स्ट्रगल ऑफ 1857, पृ.72
29.वहीं, पृ.74
30.वहीं, पृ.258-61पृ.
31.वहीं,पृ .78
32.सी.एल. शॉवर्स का जार्ज लॉरेंस को लिखा गया पत्र (9 सितंबर, 1858)
(नाथूराम खड़्गावत द्वारा उद्धृत, वहीं, पृ 82)
33.एम.एल. शर्मा : हिस्ट्री ऑफ जयपुर स्टेट, पृ. 258
34.म्यूटिनीज इन राजपुताना, पृ. 277
35.सिरोही राज्य का इतिहास, पृ.291
36.राजस्थान्स रोल इन द स्ट्रगल ऑफ 1857, पृ.72
वसुधा,जन.-मार्च,2008 में प्रकशित
Thursday, 17 April 2008
जीवन के खाद पानी से फूटी कविताएं
गोविंद माथुर हिंदी के उन कुछ कवियों में से एक हैं, जिन्होंने निरंतर आत्मान्वेषण और अभ्यास द्वारा खास अपनी तरह की अलग कविता संभव की है। ऐसे समय में जब कविता की सामाजिक स्वीकार्यता निरंतर कम हो रही हो और खुद कविता अपनी ताकत को लेकर बहुत आश्वस्त नहीं हो, गोविंद माथुर की यह खास शैली और मुहावरा कविता के भविष्य के संबंध में नयी आशा जगाते हैं गोविंद माथुर बहुत अनौपचारिक ढंग से अपने निजी और पास-पड़ोस के दैनंदिन मध्यवर्गीय सरोकारों और स्मृतियों के बीच अनायास जीवन की बड़ी सच्चाइयों से रूबरू होते हैं और सामान्य बातचीत की लय और मुहावरे में ही उसे व्यक्त भी करते हैं। उनकी बहुत सरल और सहज संप्रेषणीय कविताएं पाठकों के मन-मस्तिष्क में अपनी कविताओं की तरह अनायास खुलती चली जाती हैं। इन कविताओं की सबसे बड़ी और ध्यानाकर्षक खूबी यह है कि इनमें से झांकता जीवन और मुहावरा, दोनों बहुत अकृत्रिम और अनौपचारिक हैं।
आत्मान्वेषण का अमूर्तन से गहरा रिश्ता है, लेकिन गोविंद माथुर की कविताएं अमूर्तन से अछूती रहकर भी एक नए अर्थ और संदर्भ में खास तरह की अलग आत्मान्वेषण की कविताएं हैं। यह आत्मान्वेषण पारंपरिक किस्म के आत्मान्वेषण से बहुत अलग है। यहां कवि अपने को टटोल रहा है, वह उलट-पलट कर अपनी जांच-परख और क्या पाया-क्या खोया जैसे लेखे-जोखे में लगा हुआ है। यह खोज-परख कवि के अपने घर- परिवार, पास-पड़ोस, माता पिता, पत्नी, बच्चे, दोस्त, दफ्तर आदि की जीवंत और ऐंद्रिक उठापटक के बीच है। अपने को पाने और पहचानने की पूरी जद्दोजहद और बेचैनी इन कविताओं में है, लेकिन यह सब कवि अपने यथार्थ से भाग कर नहीं, उसमें डूबकर कर रहा है। इन कविताओं में जीवन की कई बड़ी सच्चाइयां कवि के अपने मध्यवर्गीय सरोकारों के बीच से फूट रही हैं। गोविंद माथुर की ऐसी ही एक कविता है, एक दिन कुछ नहीं होगा। यह कविता बिना किसी बड़ी मुद्रा के मृत्यु से रूबरू करवाती है :
बचपन में दौड़ते हुए
एक घाटी से लुढ़का
छिल गए हाथ पैर
लेकिन बच गया मैं
उन्हीं दिनों तांगे के
पहिए के नीचे आ गया पैर
लंगड़ा कर चलता रहा कई दिन
लेकिन बच गया मैं
कितनी दुघZटनाओं में
कितनी बार बचा
और बचूंगा कितनी बार
एक दिन कुछ नहीं होगा
पर यह नहीं कह सकूंगा
बच गया मैं
हिंदी कविता की सामाजिक स्वीकार्यता में जो गिरावट आई है उसका एक बड़ा कारण सामान्य दैनंदिन जीवन से उसकी बढ़ती दूरी है। अधिकांश हिंदी कविता में व्यक्त जीवन इतना ऊंचा और असाधारण है कि यह पाठकों का अपना नहीं लगता। गोविंद माथुर की कविताओं के संबंध में खास उल्लेखनीय बात यह है कि इनकी निर्भरता पूरी तरह सामान्य और दैनंदिन मध्यवर्गीय जीवन पर हैं। इन कविताओं में सब तरफ रोजमर्रा मध्यवर्गीय उठापटक और सुख दु:ख का फैलाव दिखाई पड़ता है। यहां कपड़े सिलती मां, कैंची की तरह जबान चलातीं बहनें, कढ़ाई -बुनाई करती और घर-गृहस्थी में खटती पत्नी, उघाड़े बदन बच्चे और खटिया पर बैठे बुजुर्ग हैं। अपने आसपास की ऐंद्रिक दुनिया के खाद-पानी से फूटी इन कविताओं का यथार्थ बहुत आसानी से पाठकों का अपना यथार्थ हो जाता है। गोविंद माथुर की दो ऐसी अभिभूत करने वाली मर्मस्पशीZ कविता पत्नी के साथ जीवन का यहां उल्लेख जरूरी है। यह कविता पत्नी के साथ एक मध्यवर्गीय पति के संबंधों के यथार्थ को हमारे सामने उघाड़कर रख देती है:
दस बार कहने पर
एक बार गए होंगे पत्नी के साथ बाजार
सौ बार कहने पर एक बार गए होंगे सिनेमा
कभी चले भी गए तो
दस कदम आगे रहे पत्नी से
मुड़-मुड़ कर देखते रहे कितनी दूर है
कंधे से कंधा मिलाकर नहीं चले कभी
अपनी पत्नी से कभी नहीं कहा सुंदर हो तुम
नीला आसमानी रंग कितना अच्छा लगता है
तुम्हारे उजले बदन पर जैसे आकाश न ढक लिया हो धरती को
कभी सराहा नहीं खाना खाते समय
कितनी स्वादिष्ट है उड़द की दाल
और दही की पकौिड़यां
प्रशंसा के दो शब्द नहीं कहे कभी
जली-कटी जरूर कहते रहे
कढ़ाई-बुनाई को करते रहे नजर अंदाज
कभी नाम लेकर नहीं पुकारा
चुपचाप सुनते रहे गुनगुना
नॉस्टेल्जिया इधर की गत दो-तीन दशकों की हिंदी कविता में बहुतायत से है और कुछ हद यह उसका केंद्रीय स्वर जैसा हो गया है। गोविंद माथुर की इन कविताओं में इसकी सघन मौजूदगी चौंकाने वाली हद तक है। इन अधिकांश कविताओं की बुनावट में इसीलिए स्मृति कच्चे माल की तरह इस्तेमाल हुई है। कवि के मन में जो बीत गया है उसके लिए गहरा रागात्मक लगाव है और यह इन कविताओं में बार-बार आता है। कायस्थ पाठशाला, राजकीय वाचनालय, मानप्रकाश टॉकीज, गुड़ की चाय, चमड़े की सीट वाली काली सायकिल, हवाई चप्पल, शहर की एक गली आदि कुछ कविताएं तो संपूर्ण ही ऐसी हैं। अतीत से कवि का यह लगाव अकारण नहीं है। दरअसल कवि निरंतर विकट और निष्करण होते जाते समय में है, जहां प्रेम और आत्मीयता का अकाल हो गया है। कवि इसी प्रेम और आत्मीयता के लिए बार-बार अपने अतीत में लौटता है और उसके बरक्स अपने वर्तमान को रखकर आहत महसूस करता है। वह चीजों के बदल जाने से दु:खी नहीं है, वह उनमें कम होते प्रेम और आत्मीयता से दु:खी और चिंतित है। वह मोनप्रकाश टाकिज कविता अंत में कहता है:
क्या कहीं नहीं बचेगा कोई स्मृति चिन्ह
जिन इमारतों में टहलते हुए
बैठे हुए, हंसते हुए, गाते हुए
बातें करते हुए, प्रेम करते हुए
स्वप्न बुनते हुए
स्मय बिताया था
क्या उन सभी
स्कूलों, वाचनालयों
चाय घरों, सिनेमा घरों को
ढहा दिया जाएगा
क्या प्रेम, आत्मीयता
मित्रता और स्मृतियां
शेष रह जाएंगी सिर्फ कविताओं में
सघन मौजूदगी के बावजूद नॉस्टेल्जिया गोविंद माथुर की कविताओं में आत्म रति में नहीं बदलता। कवि नॉस्टेल्जिया का सहरा लेकर अपने समय और समाज के यथार्थ से भागता नहीं है। वह स्मृति में इसलिए होता है कि उसके बरक्स रखकर अपने समय और समाज के कुरूप चेहरे को बेनकाब कर सके। यह गोविंद माथुर की कविताओं में बार-बार होता है। उनका एक कविता उपनगर में घर का एक उदाहरण यहां दृष्टव्य है:
पता नहीं कहां घोंसला
बनाती होंगी इस नगर की चििड़यां
न घरों में रोशनदान है न ही
टंगी हैं बुजुगोZं की तस्वीरें
किसी कोने में सहमा हुआ कबूतर नजर नहीं आता
न ही किसी बच्चे को फिक्र करने की जरूरत है।
आखिर यह चििड़या उड़ क्यों नहीं रही
नॉस्टेल्जिया की बहुतायत के बावजूद गोविंद माथुर अपने समय और समाज के यथार्थ से मुंह नहीं चुराते। वे बिना बड़बोला हुए अपने समय के यथार्थ की चुनौती से भी रूबरू होते हैं। गुजरात, कैट वाक, इधर उधर के लोग जैसी उनकी कविताएं इसका प्रमाण है। उनकी कविता वे आतंकवादी नहीं है बाजार के बढ़ते वर्चस्व और उसकी नयी व्यूह रचना का अच्छा खुलासा करती है:
वे नहीं चाहते
मैं पैदल जाऊं या फिर
धक्के खाता फिरूं सिटी बस में
वे मुझे बड़े आग्रह से स्कूटर दे देते हैं
मैं उनकी घेरेबंदी से
घबरा कर स्कूटर ले लेता हूं
वे कभी भी आ जाते हैं
दे जाते हैं कुछ भी
मैं धीरे-धीरे उनका
कर्जदार होता जा रहा हूं
मेरे पोते चुकाएंगे मेरा कर्ज
सरलता गोविंद माथुर की कविताओं का स्वभाव है और यही एक बात उन्हें अधिकांश मुशिकल, जटिल और बड़बोली समकालीन हिंदी कविता में अलग पहचान देती है। गोविंद माथुर ईमानदारी के साथ, अपने पांवों पर, अपनी जमीन के बीच खड़े हैं, इसलिए उन्हें कविता के लिए अलग से भाषा और मुहावरा गढने रचने की जरूरत नहीं पड़ती। यह सब तो उनके पास है। अपनी दैनंदिन भाषा, उसके पेच-खम और उसका मुहावरा ही उनकी कविता को कविता की हैसियत और दर्जे तक पहुंचा देते हैं। जड़े अपनी जमीन में गहरी हों, तो कविता अनायास फूटती है। गोविंद माथुर की कविताएं इसका प्रमाण है।
बची हुई हंसी : रचना प्रकाशन, 57, नाटाणी भवन, मिश्रराजाजी का रास्ता, चांदपोल बाजार, जयपुर-302001,2006, मूल्य:100 रुपए
आत्मान्वेषण का अमूर्तन से गहरा रिश्ता है, लेकिन गोविंद माथुर की कविताएं अमूर्तन से अछूती रहकर भी एक नए अर्थ और संदर्भ में खास तरह की अलग आत्मान्वेषण की कविताएं हैं। यह आत्मान्वेषण पारंपरिक किस्म के आत्मान्वेषण से बहुत अलग है। यहां कवि अपने को टटोल रहा है, वह उलट-पलट कर अपनी जांच-परख और क्या पाया-क्या खोया जैसे लेखे-जोखे में लगा हुआ है। यह खोज-परख कवि के अपने घर- परिवार, पास-पड़ोस, माता पिता, पत्नी, बच्चे, दोस्त, दफ्तर आदि की जीवंत और ऐंद्रिक उठापटक के बीच है। अपने को पाने और पहचानने की पूरी जद्दोजहद और बेचैनी इन कविताओं में है, लेकिन यह सब कवि अपने यथार्थ से भाग कर नहीं, उसमें डूबकर कर रहा है। इन कविताओं में जीवन की कई बड़ी सच्चाइयां कवि के अपने मध्यवर्गीय सरोकारों के बीच से फूट रही हैं। गोविंद माथुर की ऐसी ही एक कविता है, एक दिन कुछ नहीं होगा। यह कविता बिना किसी बड़ी मुद्रा के मृत्यु से रूबरू करवाती है :
बचपन में दौड़ते हुए
एक घाटी से लुढ़का
छिल गए हाथ पैर
लेकिन बच गया मैं
उन्हीं दिनों तांगे के
पहिए के नीचे आ गया पैर
लंगड़ा कर चलता रहा कई दिन
लेकिन बच गया मैं
कितनी दुघZटनाओं में
कितनी बार बचा
और बचूंगा कितनी बार
एक दिन कुछ नहीं होगा
पर यह नहीं कह सकूंगा
बच गया मैं
हिंदी कविता की सामाजिक स्वीकार्यता में जो गिरावट आई है उसका एक बड़ा कारण सामान्य दैनंदिन जीवन से उसकी बढ़ती दूरी है। अधिकांश हिंदी कविता में व्यक्त जीवन इतना ऊंचा और असाधारण है कि यह पाठकों का अपना नहीं लगता। गोविंद माथुर की कविताओं के संबंध में खास उल्लेखनीय बात यह है कि इनकी निर्भरता पूरी तरह सामान्य और दैनंदिन मध्यवर्गीय जीवन पर हैं। इन कविताओं में सब तरफ रोजमर्रा मध्यवर्गीय उठापटक और सुख दु:ख का फैलाव दिखाई पड़ता है। यहां कपड़े सिलती मां, कैंची की तरह जबान चलातीं बहनें, कढ़ाई -बुनाई करती और घर-गृहस्थी में खटती पत्नी, उघाड़े बदन बच्चे और खटिया पर बैठे बुजुर्ग हैं। अपने आसपास की ऐंद्रिक दुनिया के खाद-पानी से फूटी इन कविताओं का यथार्थ बहुत आसानी से पाठकों का अपना यथार्थ हो जाता है। गोविंद माथुर की दो ऐसी अभिभूत करने वाली मर्मस्पशीZ कविता पत्नी के साथ जीवन का यहां उल्लेख जरूरी है। यह कविता पत्नी के साथ एक मध्यवर्गीय पति के संबंधों के यथार्थ को हमारे सामने उघाड़कर रख देती है:
दस बार कहने पर
एक बार गए होंगे पत्नी के साथ बाजार
सौ बार कहने पर एक बार गए होंगे सिनेमा
कभी चले भी गए तो
दस कदम आगे रहे पत्नी से
मुड़-मुड़ कर देखते रहे कितनी दूर है
कंधे से कंधा मिलाकर नहीं चले कभी
अपनी पत्नी से कभी नहीं कहा सुंदर हो तुम
नीला आसमानी रंग कितना अच्छा लगता है
तुम्हारे उजले बदन पर जैसे आकाश न ढक लिया हो धरती को
कभी सराहा नहीं खाना खाते समय
कितनी स्वादिष्ट है उड़द की दाल
और दही की पकौिड़यां
प्रशंसा के दो शब्द नहीं कहे कभी
जली-कटी जरूर कहते रहे
कढ़ाई-बुनाई को करते रहे नजर अंदाज
कभी नाम लेकर नहीं पुकारा
चुपचाप सुनते रहे गुनगुना
नॉस्टेल्जिया इधर की गत दो-तीन दशकों की हिंदी कविता में बहुतायत से है और कुछ हद यह उसका केंद्रीय स्वर जैसा हो गया है। गोविंद माथुर की इन कविताओं में इसकी सघन मौजूदगी चौंकाने वाली हद तक है। इन अधिकांश कविताओं की बुनावट में इसीलिए स्मृति कच्चे माल की तरह इस्तेमाल हुई है। कवि के मन में जो बीत गया है उसके लिए गहरा रागात्मक लगाव है और यह इन कविताओं में बार-बार आता है। कायस्थ पाठशाला, राजकीय वाचनालय, मानप्रकाश टॉकीज, गुड़ की चाय, चमड़े की सीट वाली काली सायकिल, हवाई चप्पल, शहर की एक गली आदि कुछ कविताएं तो संपूर्ण ही ऐसी हैं। अतीत से कवि का यह लगाव अकारण नहीं है। दरअसल कवि निरंतर विकट और निष्करण होते जाते समय में है, जहां प्रेम और आत्मीयता का अकाल हो गया है। कवि इसी प्रेम और आत्मीयता के लिए बार-बार अपने अतीत में लौटता है और उसके बरक्स अपने वर्तमान को रखकर आहत महसूस करता है। वह चीजों के बदल जाने से दु:खी नहीं है, वह उनमें कम होते प्रेम और आत्मीयता से दु:खी और चिंतित है। वह मोनप्रकाश टाकिज कविता अंत में कहता है:
क्या कहीं नहीं बचेगा कोई स्मृति चिन्ह
जिन इमारतों में टहलते हुए
बैठे हुए, हंसते हुए, गाते हुए
बातें करते हुए, प्रेम करते हुए
स्वप्न बुनते हुए
स्मय बिताया था
क्या उन सभी
स्कूलों, वाचनालयों
चाय घरों, सिनेमा घरों को
ढहा दिया जाएगा
क्या प्रेम, आत्मीयता
मित्रता और स्मृतियां
शेष रह जाएंगी सिर्फ कविताओं में
सघन मौजूदगी के बावजूद नॉस्टेल्जिया गोविंद माथुर की कविताओं में आत्म रति में नहीं बदलता। कवि नॉस्टेल्जिया का सहरा लेकर अपने समय और समाज के यथार्थ से भागता नहीं है। वह स्मृति में इसलिए होता है कि उसके बरक्स रखकर अपने समय और समाज के कुरूप चेहरे को बेनकाब कर सके। यह गोविंद माथुर की कविताओं में बार-बार होता है। उनका एक कविता उपनगर में घर का एक उदाहरण यहां दृष्टव्य है:
पता नहीं कहां घोंसला
बनाती होंगी इस नगर की चििड़यां
न घरों में रोशनदान है न ही
टंगी हैं बुजुगोZं की तस्वीरें
किसी कोने में सहमा हुआ कबूतर नजर नहीं आता
न ही किसी बच्चे को फिक्र करने की जरूरत है।
आखिर यह चििड़या उड़ क्यों नहीं रही
नॉस्टेल्जिया की बहुतायत के बावजूद गोविंद माथुर अपने समय और समाज के यथार्थ से मुंह नहीं चुराते। वे बिना बड़बोला हुए अपने समय के यथार्थ की चुनौती से भी रूबरू होते हैं। गुजरात, कैट वाक, इधर उधर के लोग जैसी उनकी कविताएं इसका प्रमाण है। उनकी कविता वे आतंकवादी नहीं है बाजार के बढ़ते वर्चस्व और उसकी नयी व्यूह रचना का अच्छा खुलासा करती है:
वे नहीं चाहते
मैं पैदल जाऊं या फिर
धक्के खाता फिरूं सिटी बस में
वे मुझे बड़े आग्रह से स्कूटर दे देते हैं
मैं उनकी घेरेबंदी से
घबरा कर स्कूटर ले लेता हूं
वे कभी भी आ जाते हैं
दे जाते हैं कुछ भी
मैं धीरे-धीरे उनका
कर्जदार होता जा रहा हूं
मेरे पोते चुकाएंगे मेरा कर्ज
सरलता गोविंद माथुर की कविताओं का स्वभाव है और यही एक बात उन्हें अधिकांश मुशिकल, जटिल और बड़बोली समकालीन हिंदी कविता में अलग पहचान देती है। गोविंद माथुर ईमानदारी के साथ, अपने पांवों पर, अपनी जमीन के बीच खड़े हैं, इसलिए उन्हें कविता के लिए अलग से भाषा और मुहावरा गढने रचने की जरूरत नहीं पड़ती। यह सब तो उनके पास है। अपनी दैनंदिन भाषा, उसके पेच-खम और उसका मुहावरा ही उनकी कविता को कविता की हैसियत और दर्जे तक पहुंचा देते हैं। जड़े अपनी जमीन में गहरी हों, तो कविता अनायास फूटती है। गोविंद माथुर की कविताएं इसका प्रमाण है।
बची हुई हंसी : रचना प्रकाशन, 57, नाटाणी भवन, मिश्रराजाजी का रास्ता, चांदपोल बाजार, जयपुर-302001,2006, मूल्य:100 रुपए
Monday, 31 March 2008
हिंदी दैनिक पत्रों के क्षेत्रीय परिशिष्ट
गत सदी के अंतिम दशकों में संचार क्रांति और आर्थिक सुधारों के कारण हिंदी दैनिक पत्रों की रीति-नीति बदल गई। विकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया के तहत दैनिक पत्रों ने महानगरों से निकलकर पहले छोटे शहरों और फिर गांव-कस्बों की राह पकड़ी। यहां अपनी पहुंच और प्रभाव का दायरा बढ़ाने के लिए इन्होंने जिलेवार क्षेत्रीय परिशिष्टों का प्रकाषन शुरू किया। एक जिले की भौगोलिक सीमाओं में होने वाली राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आपराधिक गतिविधियों को कवर करने वाले इन परिषिश्टों की हैसियत अपने क्षेत्रों में अब स्वतंत्र समाचार पत्रों की हो गई है। इनकी लोकप्रियता का आलम यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों में निकलने वाले छोटे क्षेत्रीय दैनिक इनसे प्रतिस्पर्धा में पिछड़कर दम तोड़ रहे हैं। इन परिशिष्टों के व्यापक प्रसार और लोकप्रियता से हिंदी पत्रकारिता का पहले से थोड़ा अलग, नया रूप उभरकर सामने आ रहा है।
क्षेत्रीय परिशिष्टों में प्रकाशित सामग्री पर विचार करने से पहले प्रबंधन द्वारा इनके प्रकाशन के लिए उपलब्ध करवाए गए संसाधनों और सुविधाओं का जायजा लेना ठीक रहेगा। खास बात यह है कि इस संबंध में शुरूआत से ही प्रबंधन का जोर समाचार लेखन-संपादन की गुणवत्ता के बजाय मुद्रण और मार्केटिंग पर है। क्षेत्रीय परिशिष्टों का मुद्रण नवीनतम तकनीक से हो रहा है। समाचार प्रेषण के लिए भी इनमें आधुनिक सुविधाएं प्रयुक्त हो रही हैं और इनमें देर रात्रि तक के ताजा सचित्र समाचार प्रकाषित हो रहे हैं। इनके प्रसार के लिए आक्रामक मार्केटिंग हो रही है। प्रबंधंन द्वारा इसके लिए कई योजनाएं चलाई जा रही हैं, पाठको को लुभाने के लिए क्षेत्र में लोकप्रिय कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं और पाठकों की प्रतिक्रिया और अभिरुचि जानने के लिए घर-घर जाकर सर्वेक्षण किए जा रहे हैं। इनमें उपेक्षा ‘शुरूआत से ही समाचार लेखन और संपादन कर्म की हुई है। क्षेत्रीय प परिशिष्टों के लिए समाचार लेखन का काम गांव-कस्बों में अधिकांशत: अल्पशिक्षित वितरण एजेंटों को दे दिया गया हैं। इनके लिए समाचार लेखन और संपादन का काम करने वाले जिला स्तरीय ब्यूरो केन्द्रों के अधिकांश कार्मिक अप्रशिक्षित हैं और इनका पारिश्रमिक बहुत कम और कार्य समय बहुत ज्यादा है ।
विज्ञप्ति, ज्ञापन और प्रायोजित समाचार
क्षेत्रीय आधार पर निकलने वाले इन परिशिष्टों का लगभग 60 प्रतिशत विज्ञप्तियों और ज्ञापनों पर आधारित समाचारों से भरा रहता है। परिशिष्ट के चार पृश्ठों में से प्राय: तीन पृष्ठ क्षेत्र विषेश के समाचारों और शेष एक पृष्ठ आसपास के समाचारों के लिए तय रहते हैं। विज्ञापनों के कारण प्रतिदिन औसतन दो पृश्ठों की सामग्री क्षेत्र विषेश से संबंधित होती है। इन पृश्ठों में से एक डेढ़-पृष्ठ प्रतिदिन विज्ञप्तियों और ज्ञापनों से भर जाता है। विज्ञप्तियां मुख्यतया जिला मुख्यालय स्थित सरकारी जनसंपर्क कार्यालय द्वारा जारी होती है। क्षेत्रीय परिशिष्टों की लोकप्रियता ने शहरी ग्रामीण मध्यवर्ग में भी समाचारों में बने रहने के लिए प्रेस नोट जारी करने का नया शौौक पैदा कर दिया है। शहरी और ग्रामीण निकायों के पदाधिकारी, स्वैच्छिक संगठन, सरकारी और गैर सरकारी स्कूलों के प्रबंधक या अध्यापक, धार्मिक संगठनों के पदाधिकारी, गली-मोहल्लों के संगठनों के नेता, क्षेत्रीय राजनेता आदि अपनी गतिविधियों से संबंधित प्रेस नोट जारी करते हैं। ब्यूरो स्तर पर इन विज्ञप्तियों में मामूली काट-छांट होती है और फिर इन्हें प्रकाशनार्थ भेज दिया जाता है। शहर-कस्बों में होने वाले आयोजनों के समाचारों के लिए उनकों कवर करने की जहमत अब कोई नहीं उठाता। आयोजक प्रेस नोट के साथ अपने व्यय पर फोटो भी उपलब्ध करवा देते है। ज्ञापनों के लिए भी इन परिशिष्टों में पर्याप्त जगह रहती है। लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के विस्तार से जनसाधारण में षिकायत करने, मांग करने, चेतावनी देने आदि की प्रवृत्ति बढ़ी है। ब्यूरो कार्यालय में ऐसे ज्ञापनों को आंषिक संपादन के बाद समाचार की शक्ल दे जाती है। ऐसे ज्ञापन अक्सर स्थानीय सरकारी अधिकारियों के विरुद्ध शिकायतों के होते हैं। इनमें से ज्यादातर ज्ञापन प्रशासनिक और थाना-कोतवाली स्तर के अधिकारियों के विरुद्ध अन्याय आदि से संबंधित होते हैं।
अब समाचार पत्र पर सबसे पहले व्यवसाय हैं और उसके बाद कुछ और। जाहिर है, अब सारा ध्यान विज्ञापनों पर हो गया है। क्षेत्रीय परिशिष्टों में एक नयी प्रकार की विज्ञापन संस्कृति अस्तित्व में आ रही है। ब्यूरो स्तर पर संपादन और विज्ञापन विभाग तालमेल रखकर काम करते हैं। प्रतिष्ठा महोत्सव हो , किसी अतिथि का आगमन हो, कोई उद्घाटन-समापन हो , कोई भजन या सांस्कृतिक संध्या हो, विज्ञापन और समाचार दोनों एक साथ बनाकर दे दीजिए। विज्ञापन के आकार और प्रकार के आधार पर समाचार का रूप भी तय हो जाएगा। स्थानीय निकायों के चुनावों में सभी समाचार पत्रों के क्षेत्रीय परिशिष्ट जमकर विज्ञापन व्यवसाय करते हैं। प्रत्याशी, पार्षद, पंच, सरपंच, सदस्य, प्रधान सब विज्ञापन देते है और साथ में इस हाथ दे और उस हाथ ले वाली शैली में इनके महिमा मंडन के समाचार भी बनाए और लगाए जाते हैं। विज्ञापनदाता प्रत्याषियों की चुनावी सभाओं को विषेश रूप से कवर किया जाता है।
धरना-प्रदर्शन और क्षेत्रीय नेताओं के कार्यक्रम
शहरी और ग्रामीण निकायों की लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं ने शहर कस्बों में धरना-प्रदर्शन की नयी संस्कृति विकसित की है। खास तौर पर जिला और तहसील मुख्यालयों पर धरना- प्रदर्शन या रैली होना अब आम बात हो गई है। जिला मुख्यालय पर कलेक्टर कार्यालय के बाहर हमेषा ही कोई धरना-प्रदषZन होता रहता है। राजनीतिक दल केन्द्रीय निर्देषों की अनुपालना में अक्सर जिला या तहसील मुख्यालयों पर धरना-प्रदर्शन करते हैं। आजकल एक नया चलन और ‘ाुरू हुआ है। दूर-दराज के ग्रामीण कोई भी समस्या होने पर ट्रैक्टर-ट्रोली पर सवार होकर जिला या तहसील मुख्यालय पर ज्ञापन देने पहुंच जाते हैं। पुलिस के अन्याय या अत्याचार के विरुद्ध भी अब ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों में जागरूकता आई है। अक्सर लोग जिला और तहसील मुख्यालयों पर इसके लिए धरने देते है। क्षेत्रीय नेता इन धरनों में सहानुभूति प्रदर्षित करने पहुंचते हैं और वहां भाशण आदि भी हो जाता है। ये धरने-प्रदषZन भी इन परिषिश्टों का राषन-पानी हैं। अक्सर इन धरनों-प्रदषZनों के नेता कार्यकर्ता ही प्रेस नोट बनाकर ब्यूरो कार्यालय में पहुंचा देते हैं।
क्षेत्रीय सांसद, विधायक, जिला प्रमुख, प्रधान आदि अपने क्षेत्रों के दौरे पर निकलते है तो इस दौरान होने वाले कार्यक्रमों के समाचार परिषिश्टों में प्रमुखता से प्रकाषित किए जाते हैं। क्षेत्रीय नेताओं के साथ यात्रा पर जाने वाले राजनीतिक कार्यकर्ता ही इस तरह के कार्यक्रमों के प्रेस नोट बनाते हैं। क्षेत्रीय परिषिश्टों में इस तरह के प्रेस नोट पर आधारित को समाचारों को प्रमुखता नेता की हैसियत के अनुसार दी जाती है। सांसद, विधायक और जिला प्रमुख से संबंधित समाचार परिषिश्टों में आम तौर पर आमुख कथाओं के रूप में प्रकाषित किए जाते हैं। प्रधान, पालिकाध्यक्ष आदि को भी कभी मुखपृष्ठ तो कभी मध्यवर्ती पृष्टों पर जगह मिल जाती है।
अपराध और दुर्घटनाएं
क्षेत्रीय परिशिष्टों का लगभग 20 से 30 प्रतिशत हिस्सा हमेशा आपराधिक और दुर्घटना विषयक समाचारों से भरा रहता है। आपराधिक समचारों में चोरी, डकैती, धोखाधड़ी, मारपीट और झगडों आदि से संबंधित समाचार होते हैं। दुर्घटनाओं में सर्वाधिक समाचार वाहन दुर्घटनाओं के होते हैं। इसके अतिरिक्त चोरी-चकारी और मारपीट के समाचारों के लिए भी पर्याप्त जगह रहती है। इस तरह के समाचार अक्सर पुलिस स्रोतों से प्राप्त सूचनाओं से बनाए जाते है। शाम सात और आठ बजे के बीच क्षेत्र की सभी थाना-कोतवालियों से फोन पर उस दिन दर्ज मुकदमों की जानकारी ली जाती है और फिर इन्हें समाचारों के रूप देकर प्रकाशित कर दिया जाता है। इन समाचारों में बाकायदा समाचार स्रोत के रूप पुलिस के छोटे से बड़े अधिकारियों के नामोल्लेख रहते हैं। स्थान भरने के लिए मामूली मारपीट और झगड़ों को भी समाचार की शक्ल दी जाती है। इन आपराधिक समाचारों को न तो और स्रोतों से पुश्ट किया जाता है और न ही इन्हें पुलिस से भिन्न से स्रोतों से प्राप्त सूचनाओं से विस्तृत किया जाता है। आपराधिक समाचारों में कभी कभार हुए बलात्कार, छेड़छाड़ और भागने-भगाने के मामलों को खास तरजीह दी जाती है।
पर्व-त्योहार और धार्मिक प्रवचन
त्योहारों और धार्मिक पर्वों से संबंधित गतिविधियों को क्षेत्रीय परिशिष्टों में प्रमुखता और विस्तार से कवर किया जाता है। होली, दिवाली, ईद, रक्षाबंधन, षिवरात्रि, नवरात्रि, हनुमान जयंती आदि पर्व-तिथियों पर विस्तृत समाचार कथाएं प्रकाषित होती हैं। पर्व-त्योहार के एक दिन पहले होने वाले आयोजनों का विवरण दिया जाता है और पर्व त्योहार के दिन संपन्न कार्यक्रमों पर आमुख कथाएं होती हैं। इस तरह की आमुख कथाएं मुख्यालय की तिथि रेखा से समेकित इंट्रो के साथ एकाधिक स्थानों के समाचारों को जोड़कर तैयार होती हैं। इस तरह की समाचार कथाओं के तय रूप है। श्रद्धा और परंपरागत ढंग से मना होली का त्योहार, ईद अकीदत से मनाई, मंदिरों में हुआ शंखनाद, बहनों ने भाइयों की कलाई पर बांधीं राखियां आदि इस तरह के समाचारों के लोकप्रिय शीर्षक हैं। ऐसी समाचार कथाओं के साथ मंदिरों की साज-सज्जा, मूर्तियों के श्रंृगार, गली-मोहल्लों में निकले जुलूसों और शोभा यात्राओं के ताजा चित्र प्रकाषित किए जाते हैं। इस तरह की कथाओं में कोई खास नवीनता नहीं होती। कथा यदि किसी धार्मिक पर्व से संबंधित है तो क्षेत्र के मंदिरों के नाम हर बार वहीं रहेंगे। श्रद्धालु उमड़े, जयघोश और शंखनाद हुआ, आरती हुई, प्रसाद और फूल-पत्र चढ़ाए गए आदि पंक्तियां थोडे़ बदले हुए रूप में सभी धार्मिक पर्वों की समाचार कथाओं में मिल जाएंगी। धार्मिक पर्व-तिथियों पर क्षेत्रीय ज्योतिषियों या पंडितों के अभिमत आधारित समाचारों कथाओं का प्रकाशन भी इन परिशिष्टों में प्राय: होता है। आसाराम, मोरारी बापू, कृपाराम आदि बडे़ प्रवचनकारों के साथ-साथ क्षेत्र में प्रवचन-व्याख्यान देने वाले छोटे संत-महात्माओं के समाचार भी इनमें सचित्र प्रकाषित किए जाते हैं। कभी-कभी इनमें संत-महात्माओं के साक्षात्कार भी प्रकाषित किए जाते है। संत-महात्माओं के इन व्याख्यानों के कवरेज की जरूरत अमूमन नहीं पड़ती। संत-महात्माओं के सहयोगी या कार्मिक प्रेस नोट बनाकर ब्यूरो कार्यालय में भेज देते हैं। धार्मिक प्रवचन-व्याख्यान से संबंधित इन समाचारों में महिमा मंडन खूब होता है। इनकी शब्दावली दुरुह और वाक्य-रचनाएं जटिल होती हैं। इनमें विषिश्ट रूढ़ धार्मिक शब्दावली का बहुतायत से प्रयोग होता है। खास तौर पर जैन मुनियों के व्याख्यानों के समाचारों में इस तरह की रूढ़ शब्दावली जमकर प्रयुक्त होती है।
मिथ, इतिहास और यथार्थ
पर्याप्त शिक्षा और समझ के अभाव मे क्षेत्रीय परिशिष्टों में मिथ, इतिहास और यथार्थ आपस धुलमिल रहें है। परिशिष्टों में पर्व-त्योहारों, मंदिरों, लोक देवताओं आदि पर पर्याप्त सामग्री रहती है। इनमें किंवदंतियों या जन श्रुतियों को इतिहास और यथार्थ की तरह पेष किया जाता है। अक्सर गांव-कस्बों के पाठकों को से जोड़ने के लिए नीति के तहत इन में लोक देवताओं और धर्म स्थलों पर विषेश कथाएं करवाई जाती हैं। ये विषेश कथाएं अति मानवीय चमत्कारों और अंध-विष्वासों से बुनी जाती हैं। जाति-समाजों की परंपरओं के वर्णन में भी मिथों और अति मानवीय तत्वों का सहारा लिया जाता है। लोक देवताओं और धर्म स्थलों से जुड़े चामत्कारिक प्रसंगों का हकीकत की तरह वर्णन किया जाता है। अक्सर ऐसी कथाएं ग्रामीण पृश्ठभूमि के संवाददाता ठेठ गांव से आधी-अधूरी जानकारी के साथ बनाकर भेजते हैं। इनकों ब्यूरो और डेस्क स्तर पर आंषिक संपादन के बाद यथावत प्रकाषित कर दिया जाता है। विषेशज्ञों का सहयोग लेने का चलन क्षेत्रीय परिषिश्टों में लगभग नहीं है। ब्यूरों या डेस्क स्तर पर इन जानकारियों में इतिहास, मिथ और यथार्थ को अलग करने की जहमत कोई नहीं उठाता। क्षेत्र में घटी कुछ असाधारण घटनाओं को चामत्कारिक रूप दने का नया चलन भी इन परिषिश्टों में शुरू हुआ है। ग्रीश्मकाल के दौरान किसी नदी में गीली रेत में पानी देखकर किसी ने गड्ढ़ा खोदा, तो थोड़ा-बहुत पानी सतह पर आ गया। हो गई गंगा प्रकट। बिना किसी वैज्ञानिक जांच-पड़ताल या अभिमत के यह दूसरे दिन आमुख समाचार के रूप में सभी समाचार पत्रों के में प्रकाशित हो जाता है।
भाषा की अराजकता और अतिरंजना
परिनिश्ठितऔर शुद्ध भाशा इन क्षेत्रीय परिशिष्टों की प्राथमिकताओं में नहीं है। इस मामले में इनमें पूरी स्वच्छंदता और अराजकता है। यह पाठकों के सरोकारों में शामिल नहीं है, इसलिए संपादन और प्रबंधन भी इस संबंध में चिंतित नहीं है। अपर्याप्त शैक्षिक स्तर के अप्रशिक्षित संवाददाताओं की लिखी हुईं रिपोर्ट्स फैक्स या मोडेम तकनीक से ब्यूरो कार्यालयों में पहुंचाती है। ब्यूरो कार्यालयों में अप्रशिक्षित लोग इनमें यथास्थान काट-छांट कर इनको तत्काल डीटीपी ऑपरेटर को थमा देते हैं। समय के दबाव में डेस्क काम करती है और कॉपी जैसी है, उससे थोड़ी बेहतर होकर सुबह तकनीक कमाल से प्रभावी ढंग से मुद्रित होकर पाठकों को मिल जाती है। सरकारी जनसंपर्क विभाग से जारी होने वाली विज्ञप्तियों में सरकारी भाशायी `जार्गन´ प्रमुख रहता है। कई बार तो यह डेस्क के संपादनकर्मियों के भी पल्ले नहीं पड़ता। शेष अधिकांश विज्ञप्तियां स्कूली हिन्दी अध्यापक लिखते ह,ैं जिनकी वाक्य रचनाएं बहुत जटिल होती हैं। कभी-कभी तो इनके वाक्य 20 या 22 पंक्ति लंबे हो जाते हैं। इन वाक्यों का अर्थ अक्सर जलेबी हो जाता है। आपराधिक समाचारों की भाशा इन परिशिष्टों में बहुत यांत्रीक हो गई है। अक्सर एफआईआर में दर्ज भािशक रूप ही समाचारों में भी प्रयुक्त किए जाते है। परिशिष्टों में व्याकरण, भाषा अभिव्यक्ति आदि की बारीकियों पर किसी का ध्यान नहीं जाता। सबकी प्राथमिकता यह है कि जैसा है वह हर हालत में 8 या 9 बजे पहले डेस्क पर और फिर सुबह चार या पांच बजे तक मुद्रित होता लोगों तक पहुंच जाए। अतिरंजना क्षेत्रीय परिशिष्टों में प्रकाशित समाचारों का खास लक्षण है। इनमें मान लिया गया है कि वस्तुस्थिति को जब तक अतिरंजित रूप न हीं दिया जाए, यह समाचार नहीं है। होली पर होने वाली सामान्य मारपीट के लिए शीर्षक दिया जाएगा होली का त्योहार रंगों के बजाए खून से। क्षेत्र में पेयजल संकट है तो लिखा जाएगा कि पानी के लिए कभी भी सड़कों पर गृहयुद्ध छिड़ सकता है। किसी छोटी-मोटी हलचल को भी हडकंप का रूप देकर प्रस्तुत किया जाएगा। क्षेत्र में दो तीन पीलिया या एड्स के रोगी मिल जाए तो बिना किसी आधार के तमाम क्षेत्र को रोगग्रस्त घोषित कर दिया जाएगा। क्षेत्र के गली मोहल्लों में हाने वाले सांस्कृतिक और धार्मिक कार्यक्रमों के वर्णन में अतिशयोक्ति भी इन परिशिष्टों में आम है।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि क्षेत्रीय परिशिष्टों के कारण छोटे शहरों और गांव-कस्बों में धीरे-धीरे हिन्दी पत्रकारिता का थोड़ा अलग चेहरा अस्तित्व में आ रहा है। क्षेत्रीय परिषिश्ट हिंदी पत्रकारिता और पाठकीय सरोकारों में कुछ आधारभूत तब्दीलियां कर रहे हैं। फिलहाल हालात उठापटक और संक्रमण की है। कुछ बन रहा है, तो कुछ बिगड़ भी रहा है। क्षेत्रीय परिशिष्टों के कारण हिंदी पत्रकारिता के चरित्र और पाठकीय सरोकारों में हो रहे कुछ सकारात्मक परिवर्तन इस प्रकार हैं :-
1. हिंदी दैनिक पत्रों की पहुंच और प्रभाव का दायरा बढ़कर ठेठ दूरदराज के ग्रामीण इलाकों तक हो गया है।
2. दूरदराज के ग्रामीण इलाकों में होने वाली गतिविधियों और घटनाओं को क्षेत्रीय परिषिश्टों से नयी पहचान मिली है।
3 .ये लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं मजबूत करने में कारगर सिद्ध हो रहे हैं। अन्याय, उत्पीड़न, भ्रश्टाचार आदि के विरुद्ध स्वर मुखर करनाण आसान हो गया है।
4. बहत्तर मुद्रण तकनीक और संसाधनों के कारण क्षेत्रीय परिशिष्टों मे सामग्री की प्रस्तुति और मुद्रण की गुणवत्ता बढ़ गई है।
5. क्षेत्रीय परिशिष्टों के कारण भाषा का लोकतंत्रीकरण संभव हुआ है। इनमें ऐसी भाषा काम में ली जा रही है जो दूरदराज के गांव कस्बों में आम-तौर पर बोली और समझी जाती है।
क्षेत्रीय परिशिष्टों की लोकप्रियता के कारण हिंदी दैनिक पत्रों की प्रसार संख्या में अभूतपूर्व वृिद्ध हुई है, लेकिन इनकी नई रीति-नीति से क्षेत्रीय हिंदी पत्रकारिता में कुछ ध्यानाकर्षक नकारात्मक परिवर्तन भी हुए हैं, जो इस प्रकार हैं:
1 .क्षेत्रीय परिशिष्टों के कारण पाठकों के सरोकार बहुत सीमित हो गए हैं। गांव-कस्बों के पाठक अपने से संबंधित क्षेत्रीय समाचारों के अलावा कुछ नहीं पढ़ते। यहां तक कि वे अपने क्षेत्र से सटे हुए इलाकों के समाचार भी नहीं पढ़ते।
2. विज्ञप्तियों और ज्ञापनों पर निर्भरता के कारण क्षेत्रीय परिशिष्ट वस्तुस्थिति की सही तस्वीर पेष करने मे पिछड रहे हैं। इनमें अनावश्यक महिमा-मंडन या सराहना को बढ़ावा मिल रहा है। ज्ञापनों में होने वाले आरोप-प्रत्यारोप के कारण कस्बाई और ग्रामीण सौहार्द और सद्भावनाएं समाप्त हो रही हैं। इनसे अनावश्यक मनमुटाव और झगड़ों को बढ़ावा मिल रहा है।
3. अपुष्ट और अभिमतविहीन समाचारों के कारण क्षेत्रीय परिशिष्टों में यथार्थ का विकृत रूप सामने आ रहा है। इनमें अतिरंजना यथार्थ और उसकी व्यंजक भाषा को भ्रष्ट कर रही है।
4.क्षेत्रीय परिशिष्टों में यथार्थ, इतिहास और मिथ का अंतर समाप्त हो रहा है। वैज्ञानिक चेतना और समझ के विकास में जो भूमिका दैनिकों की होनी चाहिए, वह इस कारण अवरुद्ध है।
5.व्यावसायिक दबाव के कारण क्षेत्रीय परिशिष्ट अधिकतम विज्ञापन प्राप्त करने के साधन हो गए हैं। इससे समाचारों की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है।
6. क्षेत्रीय परिशिष्टों में विज्ञप्तियों, ज्ञापनों और प्रायोजित समाचारों में निरंतर बढ़ोतरी के कारण संवाददाता, संपादन आदि की पारंपरिक भूमिका सिमट रही है।
7. क्षेत्रीय परिशिष्टों में भाषा के परिनिष्ठित या मानक होने की अवधारणा समाप्त हो रही है और `पाठक के समझ में आना चाहिए´ वाला आग्रह सर्वोपरि हो गया है।
क्षेत्रीय परिशिष्टों में प्रकाशित सामग्री पर विचार करने से पहले प्रबंधन द्वारा इनके प्रकाशन के लिए उपलब्ध करवाए गए संसाधनों और सुविधाओं का जायजा लेना ठीक रहेगा। खास बात यह है कि इस संबंध में शुरूआत से ही प्रबंधन का जोर समाचार लेखन-संपादन की गुणवत्ता के बजाय मुद्रण और मार्केटिंग पर है। क्षेत्रीय परिशिष्टों का मुद्रण नवीनतम तकनीक से हो रहा है। समाचार प्रेषण के लिए भी इनमें आधुनिक सुविधाएं प्रयुक्त हो रही हैं और इनमें देर रात्रि तक के ताजा सचित्र समाचार प्रकाषित हो रहे हैं। इनके प्रसार के लिए आक्रामक मार्केटिंग हो रही है। प्रबंधंन द्वारा इसके लिए कई योजनाएं चलाई जा रही हैं, पाठको को लुभाने के लिए क्षेत्र में लोकप्रिय कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं और पाठकों की प्रतिक्रिया और अभिरुचि जानने के लिए घर-घर जाकर सर्वेक्षण किए जा रहे हैं। इनमें उपेक्षा ‘शुरूआत से ही समाचार लेखन और संपादन कर्म की हुई है। क्षेत्रीय प परिशिष्टों के लिए समाचार लेखन का काम गांव-कस्बों में अधिकांशत: अल्पशिक्षित वितरण एजेंटों को दे दिया गया हैं। इनके लिए समाचार लेखन और संपादन का काम करने वाले जिला स्तरीय ब्यूरो केन्द्रों के अधिकांश कार्मिक अप्रशिक्षित हैं और इनका पारिश्रमिक बहुत कम और कार्य समय बहुत ज्यादा है ।
विज्ञप्ति, ज्ञापन और प्रायोजित समाचार
क्षेत्रीय आधार पर निकलने वाले इन परिशिष्टों का लगभग 60 प्रतिशत विज्ञप्तियों और ज्ञापनों पर आधारित समाचारों से भरा रहता है। परिशिष्ट के चार पृश्ठों में से प्राय: तीन पृष्ठ क्षेत्र विषेश के समाचारों और शेष एक पृष्ठ आसपास के समाचारों के लिए तय रहते हैं। विज्ञापनों के कारण प्रतिदिन औसतन दो पृश्ठों की सामग्री क्षेत्र विषेश से संबंधित होती है। इन पृश्ठों में से एक डेढ़-पृष्ठ प्रतिदिन विज्ञप्तियों और ज्ञापनों से भर जाता है। विज्ञप्तियां मुख्यतया जिला मुख्यालय स्थित सरकारी जनसंपर्क कार्यालय द्वारा जारी होती है। क्षेत्रीय परिशिष्टों की लोकप्रियता ने शहरी ग्रामीण मध्यवर्ग में भी समाचारों में बने रहने के लिए प्रेस नोट जारी करने का नया शौौक पैदा कर दिया है। शहरी और ग्रामीण निकायों के पदाधिकारी, स्वैच्छिक संगठन, सरकारी और गैर सरकारी स्कूलों के प्रबंधक या अध्यापक, धार्मिक संगठनों के पदाधिकारी, गली-मोहल्लों के संगठनों के नेता, क्षेत्रीय राजनेता आदि अपनी गतिविधियों से संबंधित प्रेस नोट जारी करते हैं। ब्यूरो स्तर पर इन विज्ञप्तियों में मामूली काट-छांट होती है और फिर इन्हें प्रकाशनार्थ भेज दिया जाता है। शहर-कस्बों में होने वाले आयोजनों के समाचारों के लिए उनकों कवर करने की जहमत अब कोई नहीं उठाता। आयोजक प्रेस नोट के साथ अपने व्यय पर फोटो भी उपलब्ध करवा देते है। ज्ञापनों के लिए भी इन परिशिष्टों में पर्याप्त जगह रहती है। लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के विस्तार से जनसाधारण में षिकायत करने, मांग करने, चेतावनी देने आदि की प्रवृत्ति बढ़ी है। ब्यूरो कार्यालय में ऐसे ज्ञापनों को आंषिक संपादन के बाद समाचार की शक्ल दे जाती है। ऐसे ज्ञापन अक्सर स्थानीय सरकारी अधिकारियों के विरुद्ध शिकायतों के होते हैं। इनमें से ज्यादातर ज्ञापन प्रशासनिक और थाना-कोतवाली स्तर के अधिकारियों के विरुद्ध अन्याय आदि से संबंधित होते हैं।
अब समाचार पत्र पर सबसे पहले व्यवसाय हैं और उसके बाद कुछ और। जाहिर है, अब सारा ध्यान विज्ञापनों पर हो गया है। क्षेत्रीय परिशिष्टों में एक नयी प्रकार की विज्ञापन संस्कृति अस्तित्व में आ रही है। ब्यूरो स्तर पर संपादन और विज्ञापन विभाग तालमेल रखकर काम करते हैं। प्रतिष्ठा महोत्सव हो , किसी अतिथि का आगमन हो, कोई उद्घाटन-समापन हो , कोई भजन या सांस्कृतिक संध्या हो, विज्ञापन और समाचार दोनों एक साथ बनाकर दे दीजिए। विज्ञापन के आकार और प्रकार के आधार पर समाचार का रूप भी तय हो जाएगा। स्थानीय निकायों के चुनावों में सभी समाचार पत्रों के क्षेत्रीय परिशिष्ट जमकर विज्ञापन व्यवसाय करते हैं। प्रत्याशी, पार्षद, पंच, सरपंच, सदस्य, प्रधान सब विज्ञापन देते है और साथ में इस हाथ दे और उस हाथ ले वाली शैली में इनके महिमा मंडन के समाचार भी बनाए और लगाए जाते हैं। विज्ञापनदाता प्रत्याषियों की चुनावी सभाओं को विषेश रूप से कवर किया जाता है।
धरना-प्रदर्शन और क्षेत्रीय नेताओं के कार्यक्रम
शहरी और ग्रामीण निकायों की लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं ने शहर कस्बों में धरना-प्रदर्शन की नयी संस्कृति विकसित की है। खास तौर पर जिला और तहसील मुख्यालयों पर धरना- प्रदर्शन या रैली होना अब आम बात हो गई है। जिला मुख्यालय पर कलेक्टर कार्यालय के बाहर हमेषा ही कोई धरना-प्रदषZन होता रहता है। राजनीतिक दल केन्द्रीय निर्देषों की अनुपालना में अक्सर जिला या तहसील मुख्यालयों पर धरना-प्रदर्शन करते हैं। आजकल एक नया चलन और ‘ाुरू हुआ है। दूर-दराज के ग्रामीण कोई भी समस्या होने पर ट्रैक्टर-ट्रोली पर सवार होकर जिला या तहसील मुख्यालय पर ज्ञापन देने पहुंच जाते हैं। पुलिस के अन्याय या अत्याचार के विरुद्ध भी अब ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों में जागरूकता आई है। अक्सर लोग जिला और तहसील मुख्यालयों पर इसके लिए धरने देते है। क्षेत्रीय नेता इन धरनों में सहानुभूति प्रदर्षित करने पहुंचते हैं और वहां भाशण आदि भी हो जाता है। ये धरने-प्रदषZन भी इन परिषिश्टों का राषन-पानी हैं। अक्सर इन धरनों-प्रदषZनों के नेता कार्यकर्ता ही प्रेस नोट बनाकर ब्यूरो कार्यालय में पहुंचा देते हैं।
क्षेत्रीय सांसद, विधायक, जिला प्रमुख, प्रधान आदि अपने क्षेत्रों के दौरे पर निकलते है तो इस दौरान होने वाले कार्यक्रमों के समाचार परिषिश्टों में प्रमुखता से प्रकाषित किए जाते हैं। क्षेत्रीय नेताओं के साथ यात्रा पर जाने वाले राजनीतिक कार्यकर्ता ही इस तरह के कार्यक्रमों के प्रेस नोट बनाते हैं। क्षेत्रीय परिषिश्टों में इस तरह के प्रेस नोट पर आधारित को समाचारों को प्रमुखता नेता की हैसियत के अनुसार दी जाती है। सांसद, विधायक और जिला प्रमुख से संबंधित समाचार परिषिश्टों में आम तौर पर आमुख कथाओं के रूप में प्रकाषित किए जाते हैं। प्रधान, पालिकाध्यक्ष आदि को भी कभी मुखपृष्ठ तो कभी मध्यवर्ती पृष्टों पर जगह मिल जाती है।
अपराध और दुर्घटनाएं
क्षेत्रीय परिशिष्टों का लगभग 20 से 30 प्रतिशत हिस्सा हमेशा आपराधिक और दुर्घटना विषयक समाचारों से भरा रहता है। आपराधिक समचारों में चोरी, डकैती, धोखाधड़ी, मारपीट और झगडों आदि से संबंधित समाचार होते हैं। दुर्घटनाओं में सर्वाधिक समाचार वाहन दुर्घटनाओं के होते हैं। इसके अतिरिक्त चोरी-चकारी और मारपीट के समाचारों के लिए भी पर्याप्त जगह रहती है। इस तरह के समाचार अक्सर पुलिस स्रोतों से प्राप्त सूचनाओं से बनाए जाते है। शाम सात और आठ बजे के बीच क्षेत्र की सभी थाना-कोतवालियों से फोन पर उस दिन दर्ज मुकदमों की जानकारी ली जाती है और फिर इन्हें समाचारों के रूप देकर प्रकाशित कर दिया जाता है। इन समाचारों में बाकायदा समाचार स्रोत के रूप पुलिस के छोटे से बड़े अधिकारियों के नामोल्लेख रहते हैं। स्थान भरने के लिए मामूली मारपीट और झगड़ों को भी समाचार की शक्ल दी जाती है। इन आपराधिक समाचारों को न तो और स्रोतों से पुश्ट किया जाता है और न ही इन्हें पुलिस से भिन्न से स्रोतों से प्राप्त सूचनाओं से विस्तृत किया जाता है। आपराधिक समाचारों में कभी कभार हुए बलात्कार, छेड़छाड़ और भागने-भगाने के मामलों को खास तरजीह दी जाती है।
पर्व-त्योहार और धार्मिक प्रवचन
त्योहारों और धार्मिक पर्वों से संबंधित गतिविधियों को क्षेत्रीय परिशिष्टों में प्रमुखता और विस्तार से कवर किया जाता है। होली, दिवाली, ईद, रक्षाबंधन, षिवरात्रि, नवरात्रि, हनुमान जयंती आदि पर्व-तिथियों पर विस्तृत समाचार कथाएं प्रकाषित होती हैं। पर्व-त्योहार के एक दिन पहले होने वाले आयोजनों का विवरण दिया जाता है और पर्व त्योहार के दिन संपन्न कार्यक्रमों पर आमुख कथाएं होती हैं। इस तरह की आमुख कथाएं मुख्यालय की तिथि रेखा से समेकित इंट्रो के साथ एकाधिक स्थानों के समाचारों को जोड़कर तैयार होती हैं। इस तरह की समाचार कथाओं के तय रूप है। श्रद्धा और परंपरागत ढंग से मना होली का त्योहार, ईद अकीदत से मनाई, मंदिरों में हुआ शंखनाद, बहनों ने भाइयों की कलाई पर बांधीं राखियां आदि इस तरह के समाचारों के लोकप्रिय शीर्षक हैं। ऐसी समाचार कथाओं के साथ मंदिरों की साज-सज्जा, मूर्तियों के श्रंृगार, गली-मोहल्लों में निकले जुलूसों और शोभा यात्राओं के ताजा चित्र प्रकाषित किए जाते हैं। इस तरह की कथाओं में कोई खास नवीनता नहीं होती। कथा यदि किसी धार्मिक पर्व से संबंधित है तो क्षेत्र के मंदिरों के नाम हर बार वहीं रहेंगे। श्रद्धालु उमड़े, जयघोश और शंखनाद हुआ, आरती हुई, प्रसाद और फूल-पत्र चढ़ाए गए आदि पंक्तियां थोडे़ बदले हुए रूप में सभी धार्मिक पर्वों की समाचार कथाओं में मिल जाएंगी। धार्मिक पर्व-तिथियों पर क्षेत्रीय ज्योतिषियों या पंडितों के अभिमत आधारित समाचारों कथाओं का प्रकाशन भी इन परिशिष्टों में प्राय: होता है। आसाराम, मोरारी बापू, कृपाराम आदि बडे़ प्रवचनकारों के साथ-साथ क्षेत्र में प्रवचन-व्याख्यान देने वाले छोटे संत-महात्माओं के समाचार भी इनमें सचित्र प्रकाषित किए जाते हैं। कभी-कभी इनमें संत-महात्माओं के साक्षात्कार भी प्रकाषित किए जाते है। संत-महात्माओं के इन व्याख्यानों के कवरेज की जरूरत अमूमन नहीं पड़ती। संत-महात्माओं के सहयोगी या कार्मिक प्रेस नोट बनाकर ब्यूरो कार्यालय में भेज देते हैं। धार्मिक प्रवचन-व्याख्यान से संबंधित इन समाचारों में महिमा मंडन खूब होता है। इनकी शब्दावली दुरुह और वाक्य-रचनाएं जटिल होती हैं। इनमें विषिश्ट रूढ़ धार्मिक शब्दावली का बहुतायत से प्रयोग होता है। खास तौर पर जैन मुनियों के व्याख्यानों के समाचारों में इस तरह की रूढ़ शब्दावली जमकर प्रयुक्त होती है।
मिथ, इतिहास और यथार्थ
पर्याप्त शिक्षा और समझ के अभाव मे क्षेत्रीय परिशिष्टों में मिथ, इतिहास और यथार्थ आपस धुलमिल रहें है। परिशिष्टों में पर्व-त्योहारों, मंदिरों, लोक देवताओं आदि पर पर्याप्त सामग्री रहती है। इनमें किंवदंतियों या जन श्रुतियों को इतिहास और यथार्थ की तरह पेष किया जाता है। अक्सर गांव-कस्बों के पाठकों को से जोड़ने के लिए नीति के तहत इन में लोक देवताओं और धर्म स्थलों पर विषेश कथाएं करवाई जाती हैं। ये विषेश कथाएं अति मानवीय चमत्कारों और अंध-विष्वासों से बुनी जाती हैं। जाति-समाजों की परंपरओं के वर्णन में भी मिथों और अति मानवीय तत्वों का सहारा लिया जाता है। लोक देवताओं और धर्म स्थलों से जुड़े चामत्कारिक प्रसंगों का हकीकत की तरह वर्णन किया जाता है। अक्सर ऐसी कथाएं ग्रामीण पृश्ठभूमि के संवाददाता ठेठ गांव से आधी-अधूरी जानकारी के साथ बनाकर भेजते हैं। इनकों ब्यूरो और डेस्क स्तर पर आंषिक संपादन के बाद यथावत प्रकाषित कर दिया जाता है। विषेशज्ञों का सहयोग लेने का चलन क्षेत्रीय परिषिश्टों में लगभग नहीं है। ब्यूरों या डेस्क स्तर पर इन जानकारियों में इतिहास, मिथ और यथार्थ को अलग करने की जहमत कोई नहीं उठाता। क्षेत्र में घटी कुछ असाधारण घटनाओं को चामत्कारिक रूप दने का नया चलन भी इन परिषिश्टों में शुरू हुआ है। ग्रीश्मकाल के दौरान किसी नदी में गीली रेत में पानी देखकर किसी ने गड्ढ़ा खोदा, तो थोड़ा-बहुत पानी सतह पर आ गया। हो गई गंगा प्रकट। बिना किसी वैज्ञानिक जांच-पड़ताल या अभिमत के यह दूसरे दिन आमुख समाचार के रूप में सभी समाचार पत्रों के में प्रकाशित हो जाता है।
भाषा की अराजकता और अतिरंजना
परिनिश्ठितऔर शुद्ध भाशा इन क्षेत्रीय परिशिष्टों की प्राथमिकताओं में नहीं है। इस मामले में इनमें पूरी स्वच्छंदता और अराजकता है। यह पाठकों के सरोकारों में शामिल नहीं है, इसलिए संपादन और प्रबंधन भी इस संबंध में चिंतित नहीं है। अपर्याप्त शैक्षिक स्तर के अप्रशिक्षित संवाददाताओं की लिखी हुईं रिपोर्ट्स फैक्स या मोडेम तकनीक से ब्यूरो कार्यालयों में पहुंचाती है। ब्यूरो कार्यालयों में अप्रशिक्षित लोग इनमें यथास्थान काट-छांट कर इनको तत्काल डीटीपी ऑपरेटर को थमा देते हैं। समय के दबाव में डेस्क काम करती है और कॉपी जैसी है, उससे थोड़ी बेहतर होकर सुबह तकनीक कमाल से प्रभावी ढंग से मुद्रित होकर पाठकों को मिल जाती है। सरकारी जनसंपर्क विभाग से जारी होने वाली विज्ञप्तियों में सरकारी भाशायी `जार्गन´ प्रमुख रहता है। कई बार तो यह डेस्क के संपादनकर्मियों के भी पल्ले नहीं पड़ता। शेष अधिकांश विज्ञप्तियां स्कूली हिन्दी अध्यापक लिखते ह,ैं जिनकी वाक्य रचनाएं बहुत जटिल होती हैं। कभी-कभी तो इनके वाक्य 20 या 22 पंक्ति लंबे हो जाते हैं। इन वाक्यों का अर्थ अक्सर जलेबी हो जाता है। आपराधिक समाचारों की भाशा इन परिशिष्टों में बहुत यांत्रीक हो गई है। अक्सर एफआईआर में दर्ज भािशक रूप ही समाचारों में भी प्रयुक्त किए जाते है। परिशिष्टों में व्याकरण, भाषा अभिव्यक्ति आदि की बारीकियों पर किसी का ध्यान नहीं जाता। सबकी प्राथमिकता यह है कि जैसा है वह हर हालत में 8 या 9 बजे पहले डेस्क पर और फिर सुबह चार या पांच बजे तक मुद्रित होता लोगों तक पहुंच जाए। अतिरंजना क्षेत्रीय परिशिष्टों में प्रकाशित समाचारों का खास लक्षण है। इनमें मान लिया गया है कि वस्तुस्थिति को जब तक अतिरंजित रूप न हीं दिया जाए, यह समाचार नहीं है। होली पर होने वाली सामान्य मारपीट के लिए शीर्षक दिया जाएगा होली का त्योहार रंगों के बजाए खून से। क्षेत्र में पेयजल संकट है तो लिखा जाएगा कि पानी के लिए कभी भी सड़कों पर गृहयुद्ध छिड़ सकता है। किसी छोटी-मोटी हलचल को भी हडकंप का रूप देकर प्रस्तुत किया जाएगा। क्षेत्र में दो तीन पीलिया या एड्स के रोगी मिल जाए तो बिना किसी आधार के तमाम क्षेत्र को रोगग्रस्त घोषित कर दिया जाएगा। क्षेत्र के गली मोहल्लों में हाने वाले सांस्कृतिक और धार्मिक कार्यक्रमों के वर्णन में अतिशयोक्ति भी इन परिशिष्टों में आम है।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि क्षेत्रीय परिशिष्टों के कारण छोटे शहरों और गांव-कस्बों में धीरे-धीरे हिन्दी पत्रकारिता का थोड़ा अलग चेहरा अस्तित्व में आ रहा है। क्षेत्रीय परिषिश्ट हिंदी पत्रकारिता और पाठकीय सरोकारों में कुछ आधारभूत तब्दीलियां कर रहे हैं। फिलहाल हालात उठापटक और संक्रमण की है। कुछ बन रहा है, तो कुछ बिगड़ भी रहा है। क्षेत्रीय परिशिष्टों के कारण हिंदी पत्रकारिता के चरित्र और पाठकीय सरोकारों में हो रहे कुछ सकारात्मक परिवर्तन इस प्रकार हैं :-
1. हिंदी दैनिक पत्रों की पहुंच और प्रभाव का दायरा बढ़कर ठेठ दूरदराज के ग्रामीण इलाकों तक हो गया है।
2. दूरदराज के ग्रामीण इलाकों में होने वाली गतिविधियों और घटनाओं को क्षेत्रीय परिषिश्टों से नयी पहचान मिली है।
3 .ये लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं मजबूत करने में कारगर सिद्ध हो रहे हैं। अन्याय, उत्पीड़न, भ्रश्टाचार आदि के विरुद्ध स्वर मुखर करनाण आसान हो गया है।
4. बहत्तर मुद्रण तकनीक और संसाधनों के कारण क्षेत्रीय परिशिष्टों मे सामग्री की प्रस्तुति और मुद्रण की गुणवत्ता बढ़ गई है।
5. क्षेत्रीय परिशिष्टों के कारण भाषा का लोकतंत्रीकरण संभव हुआ है। इनमें ऐसी भाषा काम में ली जा रही है जो दूरदराज के गांव कस्बों में आम-तौर पर बोली और समझी जाती है।
क्षेत्रीय परिशिष्टों की लोकप्रियता के कारण हिंदी दैनिक पत्रों की प्रसार संख्या में अभूतपूर्व वृिद्ध हुई है, लेकिन इनकी नई रीति-नीति से क्षेत्रीय हिंदी पत्रकारिता में कुछ ध्यानाकर्षक नकारात्मक परिवर्तन भी हुए हैं, जो इस प्रकार हैं:
1 .क्षेत्रीय परिशिष्टों के कारण पाठकों के सरोकार बहुत सीमित हो गए हैं। गांव-कस्बों के पाठक अपने से संबंधित क्षेत्रीय समाचारों के अलावा कुछ नहीं पढ़ते। यहां तक कि वे अपने क्षेत्र से सटे हुए इलाकों के समाचार भी नहीं पढ़ते।
2. विज्ञप्तियों और ज्ञापनों पर निर्भरता के कारण क्षेत्रीय परिशिष्ट वस्तुस्थिति की सही तस्वीर पेष करने मे पिछड रहे हैं। इनमें अनावश्यक महिमा-मंडन या सराहना को बढ़ावा मिल रहा है। ज्ञापनों में होने वाले आरोप-प्रत्यारोप के कारण कस्बाई और ग्रामीण सौहार्द और सद्भावनाएं समाप्त हो रही हैं। इनसे अनावश्यक मनमुटाव और झगड़ों को बढ़ावा मिल रहा है।
3. अपुष्ट और अभिमतविहीन समाचारों के कारण क्षेत्रीय परिशिष्टों में यथार्थ का विकृत रूप सामने आ रहा है। इनमें अतिरंजना यथार्थ और उसकी व्यंजक भाषा को भ्रष्ट कर रही है।
4.क्षेत्रीय परिशिष्टों में यथार्थ, इतिहास और मिथ का अंतर समाप्त हो रहा है। वैज्ञानिक चेतना और समझ के विकास में जो भूमिका दैनिकों की होनी चाहिए, वह इस कारण अवरुद्ध है।
5.व्यावसायिक दबाव के कारण क्षेत्रीय परिशिष्ट अधिकतम विज्ञापन प्राप्त करने के साधन हो गए हैं। इससे समाचारों की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है।
6. क्षेत्रीय परिशिष्टों में विज्ञप्तियों, ज्ञापनों और प्रायोजित समाचारों में निरंतर बढ़ोतरी के कारण संवाददाता, संपादन आदि की पारंपरिक भूमिका सिमट रही है।
7. क्षेत्रीय परिशिष्टों में भाषा के परिनिष्ठित या मानक होने की अवधारणा समाप्त हो रही है और `पाठक के समझ में आना चाहिए´ वाला आग्रह सर्वोपरि हो गया है।
Wednesday, 19 March 2008
भूमंडलीकरण, सांस्कृतिक संक्रमण और समकालीन कविता
संस्कृति एक मानसिक अवधारणा है, जो किसी समाज के जीवन-चर्या संबंधी विश्वासों के समूह से बनती है। समाज इन विश्वासों-आस्थाओं को धीरे-धीरे अभ्यास और अनुभव से अर्जित करता है। इनके संस्कार-परिष्कार की प्रक्रिया भी समाज में नामालूम ढंग से निरंतर चलती रहती है। समाज की वर्गीय संरचना भी अक्सर संस्कृति को प्रभावित करती है। उच्चवर्गीय समाजों की संस्कृति के बरक्स निम्नवर्गीय किसान-मजदूर समाजों की अपनी पृथक् संस्कृति का भी विकास होता है। अलबत्ता वर्चस्व की स्थिति में होने के कारण उच्च वर्गीय समाज अपनी संस्कृति को ही तमाम समाज की संस्कृति की तरह ही प्रचारित करते हैं। संस्कृति स्थिर और एकरूप कभी नहीं रहती- इसमें परिवर्तन और संवर्धन की प्रक्रियाएं हमेशा जारी रहती है। एक समाज जब दूसरे समाज के संपर्क में आता है तो दोनों की ही संस्कृतियों में बहुत कुछ जुड़ता-घटता है। किसी समाज के अपने भीतर होने वाले नवाचार भी संस्कृति को निरंतर गतिशील और जीवन बनाए रखते हैं। कविता स्वयं एक सांस्कृतिक प्रक्रिया हैं, अत: किसी समाज के सांस्कृतिक संक्रमण से उसका गहरा संबंध होना लाजमी है। कविता इस सांस्कृतिक संक्रमण को स्वयं जीती और धारण करती है। यह आत्मसचेत रहकर इस संक्रमण को समझती-परखती है और इसके आत्मसातीकरण और प्रतिरोध का स्टैंड लेती है। सांस्कृतिक संक्रमण कविता के लिए खाद-पानी का काम करते है। यह इनसे पुनर्नवा होती है। हमारे यहां भक्ति आंदोलन के कवियों की अदभुत और असरदार कविता इस सांस्कृतिक संक्रमण से होने वाले आत्मसंघर्ष् की ही पैदाइश हैं।
गत सदी के अंतिम दो दशकों में हुई संचार क्रांति से पहले हालात दूसरी तरह के थे। विकसित संचार माध्यमों के अभाव में पहले सांस्कृतिक संक्रमण से होने वाले प्रतिरोध और आत्मसातीकरण में अक्सर समाज के सभी तबके शामिल नहीं होते थे। अक्सर समाज के कुछ तबकों में परिवर्तन हो जाते, धीरे-धीरे उन्हें स्वीकृति भी मिल जाती और मामूली प्रतिरोध के बाद उन्हें संस्कृति का हिस्सा भी मान लिया जाता था। मंद गति से होने वाले इस सांस्कृतिक संक्रमण से संस्कृतियों की पहचान को भी कोई खास नुकसान नहीं होता था। छोटे-मोटे झटके यदा-कदा लगते, लेकिन अक्सर संस्कृतियां उन्हें झेल जाती थीं। उसी पहचान के भीतर प्रतिरोध और आत्मसातीकरण धीमी गति और नामालूम ढंग से चलता रहता था। इस तरह का संक्रमण कविता की प्रकृति के अनुरूप था। दरअसल कविता का बुनियादी आवयविक संगठन बहुत प्राचीन है इसलिए इसे परिवर्तनों के आत्मसात करने में समय लगता है। अक्सर यह सामाजिक-सांस्कृतिक गतिशीलता के अनुरूप अपने को बदलने-ढालने में पिछड़ जाती है। अब तक सांस्कृतिक संक्रमण धीमी गति से होता था, इसलिए कविता भी धीरे-धीरे अपने को तदनुरूप ढाल लेती थी। लेकिन अब हालात पहले जैसे नहीं रहे। संचार क्रांति के विस्फोटक वस्तार से यह संतुलन बिगड़ गया है।
महायुद्धों से पूर्व की वैज्ञानिक उपलब्धियों से जैसे औद्योगिक क्रांति संभव हुई, वैसे ही, युद्धोत्तर काल के तकनीकी विकास ने संचार क्रांति का मार्ग प्रशस्त किया। विकसित संचार प्रौद्योगिकी के बल पर दुनिया के विकसित देश व्यापार, वित्त, निवेश आदि का भूमंडलीकरण कर अपने उत्पादों को बचने के लिए एक सकल विश्व बाजार बनाने की मुहिम में जुट गए। तकनीक के विकास से संचार की धीमी गति अचानक तीव्र हो गई। संचार आसान और सर्वसुलभ हो गया। इस सबने भिन्न पहचान वाले संस्कृति समूहों में संपर्क और संवाद को अचानक तीव्र और सघन करने में मदद की। संचार प्रौद्योगिकी पर विकसित देशों का एकाधिकार और वर्चस्व था, इसलिए इन देशों की संस्कृति विकासशील और अविकसित देशों में पहुंच गई। फिलहाल यह संक्रमण इतना अचानक, तीव्र और प्रभावी है कि इससे संस्कृतियों की पृथक् पहचानों के एकरूपीकरण का डर लगने लगा है। विश्व बैंक के अध्यक्ष ने कुछ वषोZं पहले बर्लिन में साफ कहा कि हमें भूमंडलीकृत विश्व में संस्कृति की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। हम संस्कृति के एकरूपीकरण के जिस भय के संबंध में पढ़ते-सुनते हैं, वह भय वास्तविक है। हमारे यहां भी गत सदी के अंतिम दशक के आरंभ में आर्थिक सुधारों की घोषणा के तत्काल बाद हुई संचार क्रांति ने सांस्कृतिक संक्रमण की प्रक्रिया को एकाएक तेज कर दिया है। इस तीव्र आक्रमण और सांस्कृतिक संक्रमण के साथ तालमेल बिठाने में कविता गड़बड़ा गई लगती है। सांस्कृतिक संक्रमण में अधिक उजली और धारदार होकर निकलने वाली कविता इस बार असमंजस से घिरी हुई हतप्रभ लग रही है। अधिक प्रभावी और चकाचौंध वाले नए संचार माध्यम इसकी जगह काबिज हो गए हैं। इसके प्रभाव और पहुंच का दायरा सिमटकर कुछ गिने-चुने लोगों तक सीमित रह गया है। तालमेल बिगडने से यह नए यथार्थ को उस तरह चरितार्थ नहीं कर पा रही, जिस तरह इसे करना चाहिए। संक्रमण के प्रतिरोध की इसकी रणनीति भी ज्यादातर पलायन की है।
आत्म सजगता कवि कर्म की बुनियादी शर्त है। खास तौर पर सांस्कृतिक संक्रंमण के दौरान कवि के लिए आत्मसचेत रहकर परिवर्तनों की थाह लेना जरूरी है। परिवर्तनों की यह समझ ही उसे प्रतिरोध या आत्मसातीकरण का स्टैंड लेने की समझ भी देती है। सांस्कृतिक प्रक्रियाएं अक्सर इतने नामालूम ढंग से समाज में होती है, कि उनके भीतर होकर, उनके प्रति आत्मसचेत रहना बहुत मुिश्कल काम होता है। नए सांस्कृतिक संक्रमण की खासियत यह है कि यह आकिस्मक और तीव्र होने के साथ साथ नयी संचार प्रौद्योगिकी के पंखों पर सवार होकर सम्मोहक प्रभाव के साथ होता है। यह प्रभाव इतना निर्णायक और सघन होता है कि इसमें आत्मविस्मरण स्वाभाविक है। समकालीन कविता का कवि भी इस सम्मोहन का िशकार है। नयी संस्कृति के बाजारवाद और उपभोक्तावाद ने उसके रहन-सहन, खान-पान और जीवन मूल्यों को बहुत हद तक बदल दिया है। वह उन लक्षित 70 करोड़ मध्यवर्गीय भारतीयों में शामिल है जिन्हें लुभाने-रिझाने के लिए विश्व की सभी बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां एड़ी-चोटी का जोर लगा रही है। उसके लिए इस सबसे अपने को अलग-थलग और अछूता रखना अब संभव नहीं रह गया। वह भी आम मध्यवर्गीय उपभोक्ता की तरह येन-केन प्रकारेण जल्दी से कुछ पाने की अंतहीन और अंधी दौड़ में शामिल हो गया है। यह दौड़ ऐसी है, जिसमें अपने आत्म को सचेत रखना संभव नहीं है। यही कारण है कि समकालीन कविता में आत्ममुखरता कम हो गई है। उसमें उपभोक्तावाद, बाजारवाद और नए साम्राज्यवाद के ब्यौरे तो बहुत आने लगे हैं, लेकिन ये ब्यौरे कवि के अपने आत्मसंघर्स की पैदाइश नहीं लगते। कवि को साफ-साफ दो अलग-अलग भूमिकाओं में देखा जा सकता है। एक में वह कवि है जहां वह संक्रमण के प्रतिरोध का स्टैंड ले रहा है और दूसरी में वह बहुराष्ट्रीय कंपनियों का टारगेट उपभोक्ता है जो जल्दी से कुछ पाने की हड़बड़ी में है।
कविता सांस्कृतिक संक्रमण के दौरान हमेशा प्रतिरोध या आत्मसातीकरण का स्टैंड लेती है। मध्यकाल में इस्लाम संबंधी सांस्कृतिक संक्रमण के दौरान कबीर और उनके समानधर्मा कवियों ने आत्मसातीकरण और प्रतिरोध का मिलाजुला स्टेंड लिया था। यूरोपीय संस्कृति की प्रतिक्रिया में भी कविता ने स्टेंड लिया था, लेकिन तत्काल स्टेंड लेने वाली इस कविता की ऐतिहासिक समझ बाद में ठीक नहीं पायी गई। नये सांस्कृतिक संक्रमण को लेकर आम तौर पर समकालीन कविता का स्टेंड प्रतिरोध का है। लेकिन प्रतिरोध के लिए उसकी रणनीति ज्यादातर पलायन की है। भूमंडलीकरण, बाजार, उपभोक्तावाद आदि की अपसंस्कृति से त्रस्त होकर अक्सर कवि अपने घर गांव और बचपन की स्मृतियों में लौट कर राहत की सांस लेता है। चला जाउंगा वापस, भूख और प्यास की दुनिया में, गले में गमछा डाले, जहां धूलभरे रास्तों पर, घूम सकता हूं बेरोक-टोक, इधर लिखी जाने वाली हर तीसरी-चौथी कविता का स्वर कुछ ऐसा ही है। आश्चर्य यह है कि इस अभूतपूर्व सांस्कृतिक संकट के समय ज्यादातर कविता का केंद्रीय सरोकार स्मृति है। भूमंडलीकरण से पीछे नहीं लौटा जा सकता इसलिए बाजार का वर्चस्व अब हकीकत है। इसकी मौजूदगी को स्वीकार करके ही इसके प्रतिरोध की कोई कारगर और व्यावहारिक रणनीति बन सकती है। डंकल, गेट, रेफ्रीजिरेटर और आइसक्रीम का प्रतिरोध लो मटके की रणनीति से नहीं हो सकता। यह साफ साफ पलायन है। बाजार की संरचना बेहद जटिल है इसका सम्मोहन और प्रभाव भी बहुत निर्णायक है। इसका प्रतिरोध पलायन, अवसाद और नॉस्टेलेजिया से नहीं, व्यावहारिक और कारगर रणनीति से संभव है। यह रणनीति आत्मसचेत कवि के अंतसंघ से निकलती है, जो फिलहाल कविता में दिखाई नहीं पड़ रही।
सांस्कृतिक संक्रमण के दौरान कविता प्रतिरोध का हथियार है, लेकिन साथ-साथ यह आत्मसातीकरण की प्रक्रिया भी है। नये सांस्कृतिक संक्रमण में बहुत कुछ ऐसा भी है जो हमारे काम का हो सकता है। आखिर आज हमारे पास जो कुछ भी प्रगतिशील और मूल्यवान है वो पिश्चम की ही देन है। बाजार में बहुत सारी बुराइयां है, लेकिन एक धूमिल संभावना यह भी है कि शायद कभी यहीं हमारी जाति आधारित समाज संरचना और रूिढवादी जीवन मूल्यों के ध्वंस का कारगर हथियार साबित हो। लेकिन दुभाZग्य से इस तरह के संकेत भी समकालीन कविता में नहीं दिखते।
कविता स्वयं भी एक सांस्कृतिक प्रक्रिया है, इसलिए सांस्कृतिक संक्रमण के दौरान संस्कृति के दूसरे रूपों की तरह यह भी पुनर्नवा होती है, यह नए यथार्थ को धारण करने के लिए अपने पुराने औजारों को छोड़कर, नये औजारों का आविष्कार करती है या पुराने औजारों को ही नयी धार देती है। पहले यथार्थ के बदलने की प्रक्रिया इतनी तेज नहीं थी, इसलिए छोटे-मोटे रद्दोबदल से ही काम चल जाता था लेकिन भूमंडलीकरण और त्वरित संचार प्रौद्योगिकी ने जो स्थितियां पैदा की हैं वे एकदम नयी और अभूतपूर्व हैं। अब केवल पुराने औजारों को धार देने से काम नहीं चलेगा। इनकी समझ और परख के लिए एकदम नए औजारों की जरूरत पड़ेगी। समकालीन कविता में इस संबंध में कोई अंतर्संघषZ व्यापक रूप से चल रहा हो, ऐसा नहीं लगता। कविता उन्हीं घिसी-पिटी मुद्राओं और मुहावरों से हो रही है। भूमंडलीकरण, बाजार, उपभोक्तावाद, अपसंस्कृति आदि के ब्यौरे तो इसमें है, लेकिन मुहावरा ज्यादातर आठवें-नवें दशक का घर-गांव, पेड़, चिडिया और अबूतर- कबूतरवाला ही है।
यह सब बातें ऐसी हैं, जो समकालीन कविता की नकारात्मक तस्वीर पेश करती है। रिवाज यह है कि बहुत सी नकारात्मक चीजों के साथ कुछ थोड़ी सकारात्मक चीजें रखकर बात समाप्त की जाए। ऐसा भी किया जा सकता है, लेकिन इससे क्या होगा। बहुत सारी खराब चीजों के साथ जुड़ी हुई थोडी-सी अच्छी चीजों का भी कोई खास मूल्य नहीं होता। अलबत्ता उनसे हम अपने मन को तसल्ली भर दे सकते हैं। फिलहाल वक्त तसल्ली देने का नहीं, गहरे आत्मान्वेषण का है।
गत सदी के अंतिम दो दशकों में हुई संचार क्रांति से पहले हालात दूसरी तरह के थे। विकसित संचार माध्यमों के अभाव में पहले सांस्कृतिक संक्रमण से होने वाले प्रतिरोध और आत्मसातीकरण में अक्सर समाज के सभी तबके शामिल नहीं होते थे। अक्सर समाज के कुछ तबकों में परिवर्तन हो जाते, धीरे-धीरे उन्हें स्वीकृति भी मिल जाती और मामूली प्रतिरोध के बाद उन्हें संस्कृति का हिस्सा भी मान लिया जाता था। मंद गति से होने वाले इस सांस्कृतिक संक्रमण से संस्कृतियों की पहचान को भी कोई खास नुकसान नहीं होता था। छोटे-मोटे झटके यदा-कदा लगते, लेकिन अक्सर संस्कृतियां उन्हें झेल जाती थीं। उसी पहचान के भीतर प्रतिरोध और आत्मसातीकरण धीमी गति और नामालूम ढंग से चलता रहता था। इस तरह का संक्रमण कविता की प्रकृति के अनुरूप था। दरअसल कविता का बुनियादी आवयविक संगठन बहुत प्राचीन है इसलिए इसे परिवर्तनों के आत्मसात करने में समय लगता है। अक्सर यह सामाजिक-सांस्कृतिक गतिशीलता के अनुरूप अपने को बदलने-ढालने में पिछड़ जाती है। अब तक सांस्कृतिक संक्रमण धीमी गति से होता था, इसलिए कविता भी धीरे-धीरे अपने को तदनुरूप ढाल लेती थी। लेकिन अब हालात पहले जैसे नहीं रहे। संचार क्रांति के विस्फोटक वस्तार से यह संतुलन बिगड़ गया है।
महायुद्धों से पूर्व की वैज्ञानिक उपलब्धियों से जैसे औद्योगिक क्रांति संभव हुई, वैसे ही, युद्धोत्तर काल के तकनीकी विकास ने संचार क्रांति का मार्ग प्रशस्त किया। विकसित संचार प्रौद्योगिकी के बल पर दुनिया के विकसित देश व्यापार, वित्त, निवेश आदि का भूमंडलीकरण कर अपने उत्पादों को बचने के लिए एक सकल विश्व बाजार बनाने की मुहिम में जुट गए। तकनीक के विकास से संचार की धीमी गति अचानक तीव्र हो गई। संचार आसान और सर्वसुलभ हो गया। इस सबने भिन्न पहचान वाले संस्कृति समूहों में संपर्क और संवाद को अचानक तीव्र और सघन करने में मदद की। संचार प्रौद्योगिकी पर विकसित देशों का एकाधिकार और वर्चस्व था, इसलिए इन देशों की संस्कृति विकासशील और अविकसित देशों में पहुंच गई। फिलहाल यह संक्रमण इतना अचानक, तीव्र और प्रभावी है कि इससे संस्कृतियों की पृथक् पहचानों के एकरूपीकरण का डर लगने लगा है। विश्व बैंक के अध्यक्ष ने कुछ वषोZं पहले बर्लिन में साफ कहा कि हमें भूमंडलीकृत विश्व में संस्कृति की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। हम संस्कृति के एकरूपीकरण के जिस भय के संबंध में पढ़ते-सुनते हैं, वह भय वास्तविक है। हमारे यहां भी गत सदी के अंतिम दशक के आरंभ में आर्थिक सुधारों की घोषणा के तत्काल बाद हुई संचार क्रांति ने सांस्कृतिक संक्रमण की प्रक्रिया को एकाएक तेज कर दिया है। इस तीव्र आक्रमण और सांस्कृतिक संक्रमण के साथ तालमेल बिठाने में कविता गड़बड़ा गई लगती है। सांस्कृतिक संक्रमण में अधिक उजली और धारदार होकर निकलने वाली कविता इस बार असमंजस से घिरी हुई हतप्रभ लग रही है। अधिक प्रभावी और चकाचौंध वाले नए संचार माध्यम इसकी जगह काबिज हो गए हैं। इसके प्रभाव और पहुंच का दायरा सिमटकर कुछ गिने-चुने लोगों तक सीमित रह गया है। तालमेल बिगडने से यह नए यथार्थ को उस तरह चरितार्थ नहीं कर पा रही, जिस तरह इसे करना चाहिए। संक्रमण के प्रतिरोध की इसकी रणनीति भी ज्यादातर पलायन की है।
आत्म सजगता कवि कर्म की बुनियादी शर्त है। खास तौर पर सांस्कृतिक संक्रंमण के दौरान कवि के लिए आत्मसचेत रहकर परिवर्तनों की थाह लेना जरूरी है। परिवर्तनों की यह समझ ही उसे प्रतिरोध या आत्मसातीकरण का स्टैंड लेने की समझ भी देती है। सांस्कृतिक प्रक्रियाएं अक्सर इतने नामालूम ढंग से समाज में होती है, कि उनके भीतर होकर, उनके प्रति आत्मसचेत रहना बहुत मुिश्कल काम होता है। नए सांस्कृतिक संक्रमण की खासियत यह है कि यह आकिस्मक और तीव्र होने के साथ साथ नयी संचार प्रौद्योगिकी के पंखों पर सवार होकर सम्मोहक प्रभाव के साथ होता है। यह प्रभाव इतना निर्णायक और सघन होता है कि इसमें आत्मविस्मरण स्वाभाविक है। समकालीन कविता का कवि भी इस सम्मोहन का िशकार है। नयी संस्कृति के बाजारवाद और उपभोक्तावाद ने उसके रहन-सहन, खान-पान और जीवन मूल्यों को बहुत हद तक बदल दिया है। वह उन लक्षित 70 करोड़ मध्यवर्गीय भारतीयों में शामिल है जिन्हें लुभाने-रिझाने के लिए विश्व की सभी बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां एड़ी-चोटी का जोर लगा रही है। उसके लिए इस सबसे अपने को अलग-थलग और अछूता रखना अब संभव नहीं रह गया। वह भी आम मध्यवर्गीय उपभोक्ता की तरह येन-केन प्रकारेण जल्दी से कुछ पाने की अंतहीन और अंधी दौड़ में शामिल हो गया है। यह दौड़ ऐसी है, जिसमें अपने आत्म को सचेत रखना संभव नहीं है। यही कारण है कि समकालीन कविता में आत्ममुखरता कम हो गई है। उसमें उपभोक्तावाद, बाजारवाद और नए साम्राज्यवाद के ब्यौरे तो बहुत आने लगे हैं, लेकिन ये ब्यौरे कवि के अपने आत्मसंघर्स की पैदाइश नहीं लगते। कवि को साफ-साफ दो अलग-अलग भूमिकाओं में देखा जा सकता है। एक में वह कवि है जहां वह संक्रमण के प्रतिरोध का स्टैंड ले रहा है और दूसरी में वह बहुराष्ट्रीय कंपनियों का टारगेट उपभोक्ता है जो जल्दी से कुछ पाने की हड़बड़ी में है।
कविता सांस्कृतिक संक्रमण के दौरान हमेशा प्रतिरोध या आत्मसातीकरण का स्टैंड लेती है। मध्यकाल में इस्लाम संबंधी सांस्कृतिक संक्रमण के दौरान कबीर और उनके समानधर्मा कवियों ने आत्मसातीकरण और प्रतिरोध का मिलाजुला स्टेंड लिया था। यूरोपीय संस्कृति की प्रतिक्रिया में भी कविता ने स्टेंड लिया था, लेकिन तत्काल स्टेंड लेने वाली इस कविता की ऐतिहासिक समझ बाद में ठीक नहीं पायी गई। नये सांस्कृतिक संक्रमण को लेकर आम तौर पर समकालीन कविता का स्टेंड प्रतिरोध का है। लेकिन प्रतिरोध के लिए उसकी रणनीति ज्यादातर पलायन की है। भूमंडलीकरण, बाजार, उपभोक्तावाद आदि की अपसंस्कृति से त्रस्त होकर अक्सर कवि अपने घर गांव और बचपन की स्मृतियों में लौट कर राहत की सांस लेता है। चला जाउंगा वापस, भूख और प्यास की दुनिया में, गले में गमछा डाले, जहां धूलभरे रास्तों पर, घूम सकता हूं बेरोक-टोक, इधर लिखी जाने वाली हर तीसरी-चौथी कविता का स्वर कुछ ऐसा ही है। आश्चर्य यह है कि इस अभूतपूर्व सांस्कृतिक संकट के समय ज्यादातर कविता का केंद्रीय सरोकार स्मृति है। भूमंडलीकरण से पीछे नहीं लौटा जा सकता इसलिए बाजार का वर्चस्व अब हकीकत है। इसकी मौजूदगी को स्वीकार करके ही इसके प्रतिरोध की कोई कारगर और व्यावहारिक रणनीति बन सकती है। डंकल, गेट, रेफ्रीजिरेटर और आइसक्रीम का प्रतिरोध लो मटके की रणनीति से नहीं हो सकता। यह साफ साफ पलायन है। बाजार की संरचना बेहद जटिल है इसका सम्मोहन और प्रभाव भी बहुत निर्णायक है। इसका प्रतिरोध पलायन, अवसाद और नॉस्टेलेजिया से नहीं, व्यावहारिक और कारगर रणनीति से संभव है। यह रणनीति आत्मसचेत कवि के अंतसंघ से निकलती है, जो फिलहाल कविता में दिखाई नहीं पड़ रही।
सांस्कृतिक संक्रमण के दौरान कविता प्रतिरोध का हथियार है, लेकिन साथ-साथ यह आत्मसातीकरण की प्रक्रिया भी है। नये सांस्कृतिक संक्रमण में बहुत कुछ ऐसा भी है जो हमारे काम का हो सकता है। आखिर आज हमारे पास जो कुछ भी प्रगतिशील और मूल्यवान है वो पिश्चम की ही देन है। बाजार में बहुत सारी बुराइयां है, लेकिन एक धूमिल संभावना यह भी है कि शायद कभी यहीं हमारी जाति आधारित समाज संरचना और रूिढवादी जीवन मूल्यों के ध्वंस का कारगर हथियार साबित हो। लेकिन दुभाZग्य से इस तरह के संकेत भी समकालीन कविता में नहीं दिखते।
कविता स्वयं भी एक सांस्कृतिक प्रक्रिया है, इसलिए सांस्कृतिक संक्रमण के दौरान संस्कृति के दूसरे रूपों की तरह यह भी पुनर्नवा होती है, यह नए यथार्थ को धारण करने के लिए अपने पुराने औजारों को छोड़कर, नये औजारों का आविष्कार करती है या पुराने औजारों को ही नयी धार देती है। पहले यथार्थ के बदलने की प्रक्रिया इतनी तेज नहीं थी, इसलिए छोटे-मोटे रद्दोबदल से ही काम चल जाता था लेकिन भूमंडलीकरण और त्वरित संचार प्रौद्योगिकी ने जो स्थितियां पैदा की हैं वे एकदम नयी और अभूतपूर्व हैं। अब केवल पुराने औजारों को धार देने से काम नहीं चलेगा। इनकी समझ और परख के लिए एकदम नए औजारों की जरूरत पड़ेगी। समकालीन कविता में इस संबंध में कोई अंतर्संघषZ व्यापक रूप से चल रहा हो, ऐसा नहीं लगता। कविता उन्हीं घिसी-पिटी मुद्राओं और मुहावरों से हो रही है। भूमंडलीकरण, बाजार, उपभोक्तावाद, अपसंस्कृति आदि के ब्यौरे तो इसमें है, लेकिन मुहावरा ज्यादातर आठवें-नवें दशक का घर-गांव, पेड़, चिडिया और अबूतर- कबूतरवाला ही है।
यह सब बातें ऐसी हैं, जो समकालीन कविता की नकारात्मक तस्वीर पेश करती है। रिवाज यह है कि बहुत सी नकारात्मक चीजों के साथ कुछ थोड़ी सकारात्मक चीजें रखकर बात समाप्त की जाए। ऐसा भी किया जा सकता है, लेकिन इससे क्या होगा। बहुत सारी खराब चीजों के साथ जुड़ी हुई थोडी-सी अच्छी चीजों का भी कोई खास मूल्य नहीं होता। अलबत्ता उनसे हम अपने मन को तसल्ली भर दे सकते हैं। फिलहाल वक्त तसल्ली देने का नहीं, गहरे आत्मान्वेषण का है।
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