Sunday 22 June, 2008

गिरीश कारनाड के नाटक तुगलक की भाषा और संवाद

सल्तनतकालीन शासक वर्ग से संबंधित होने के कारण तुगलक की भाषा और संवाद अभिजातवर्गीय हैं। इनमें दरबारी अदब-कायदों की बारीकियों को समाविश्ट किया गया है। इसके एक-दो चरित्रों को छोड़कर शेष सभी चरित्र मुसलमान हैं, इसलिए वे नफीस और अदब-कायदों वाली उर्दू बोलते दिखाए गए हैं। यह अवश्य है कि सामाजिक हैसियत के अनुसार इनकी भाषा का चरित्र कुछ हद तक बदल जाता है- सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक की भाषा एक अभिजात शासक और बुद्धिजीवी की प्रांजल भाषा है, जबकि अजीज और आजम की भाषा में चोर-उच्चकों वाली उठापटक है। महान चरित्र पर एकाग्र होने के कारण इसके संवाद लंबे और कहीं-कहीं भाषणों जैसे हैं।

मुहम्मद बिन तुगलक उलाउद्दीन खिलजी के बाद सबसे अधिक प्रतापी शासक था। यही नहीं, वह अपने समय का सबसे बड़ा बुिद्धजीवी और स्वप्नदृष्टा भी था। यह नाटक इस महान शासक और बुद्धिजीवी पर एकाग्र है, इसलिए तदनुसार उसकी भाशा और संवाद अभिजात और प्रांजल उर्दू में हैं। नाटक के आरंभिक दृश्यों में उसकी भाशा उसके आदर्शवाद और सपनों के अनुरूप गंभीर और गहरी है। उसके संवाद उसके गहरे विचार मंथन से निकले हुए हैं। इनमें गरिमा और अभिजात्य है। नाटक के दूसरे दृश्य का एक संवाद उदाहरण के लिए यहां प्रस्तुत है, जिसमें वह अपनी सौतेली मां से कहता है ´´अल्लाह से दरख्वास्त करता रहता हूं कि या खुदा, मुझे नींद न आये! दिन तो यों ही दुनियावी शोरो-गुल में निकल जाता है। मगर ज्यों ही दिन का उजाला रुखसत हो जाता है, रात की तारीकी को चीर कर मैं आसमान के पार पहुंच जाता हूं, और आसमान के सितारों के इर्दगिर्द मंडराया करता हूं। फिर इब्न-अल-मोतज, दुर्रुम्मान जैसे बावकार शायरों का कलाम गुन-गुनाया करता हूं। तब एकाएक दिल में यह ख्वाहिष जागती है कि मैं अभी और इल्म हासिल करूं, अभी और तरक्की करूं, और ऊपर उठूं, मेरे तसुव्वर में मेरी रिआया का साया उभरने लगता है, और मेरा जी फिर बेकरार होने लगता है। जी होता है कि किसी उंचे दरख्त पर चढ़ जाउं, और वहां से अपनी रियाआ को आवाज दूं, चीख-चीख कर उन्हें पुकारा करूं- ऐ मेरी अजीज-तरीन रिआया, उठो, उठो, मैं तुम्हें आवाज दे रहा हूं, तुम्हारी राह देख रहा हूंण्ण्ण्आओ, अपनी तमाम परेषानियां मुझे बताओ, मैं अपनी तमाम ख्वाहिषें तुम्हें सुना दूं, फिर हम सब एक साथ परवरदिगार की इबादत करें!`` लेकिन जैसे-जैसे हताषा बढ़ती है, तुगलक के मन में अंतर्संघर्ष बढ़ता जाता है। नाटक के अंतिम दृश्यों की भाषा और संवादों में यह उतार-चढ़ाव साफ दिखाई पड़ता है। दौलताबाद किले के उपरी हिस्से पर अपना मूल्यांकन करते हुए तुगलक के ऐसे एक लंबे संवाद का उदाहरण यहां देना ठीक रहेगा। यहां वह बरनी से कहता है- ´´अंदर ही अंदर एक ख्वाहिशउभरती है कि इस कशमकश को तोड़कर हज पर रवाना हो जाऊं। ´रुआब` के सामने अपनी जिंदगी बिछा दूं और रूहानी सुकून हासिल कर लूं। मगर हकीकते हाल निहायत संगीन है, बरनी! ला इलाज बीमार शख्स को मैदानों में खुले फेंक देने का मतलब है, नयी बीमारियों को दावत देना। (आवाज को ऊंचा करते हुए) बरनी, हजारों खूंख्वार गिद्ध सर पर मंडरा रहे हैं जिनकी खूनी नजरें मुझ पर जमी हुई हैं।

नाटक के दूसरे चरित्रों की भाषा उनकी सामाजिक हैसियत के अनुसार है। वजीरे-आजम नजीब की भाशा उसके चरित्र के अनुसार दो-टूक और बेलाग भाशा है। उसमें उठापटक और द्वंद्व कम है। शेख इमामुद्दीन की भाषा में उसकी ऊंची धार्मिक हैसियत की खनक साफ सुनाई पड़ती है। तुगलक और उसके बीच हुए संवादों में एक-दूसरे को पछाड़ने की जद्दोजहद है। सौतेली मां की भाशा में ऊपरी वात्सल्य के भीतर वर्चस्व की चाहत से पैदा हुई चतुराई साफ दिखाई पड़ती है। उसके संवाद अपेक्षाकृत छोटे हैं और उनमें जानकारियां पा लेने की जल्दबाजी झलकती है। आजम और अजीज की भाषा में चोर-उच्चकों वाली उठापटक, लेकिन साफगोई है। इस नाटक की भाषा और संवादों की खास बात यह है कि ये पात्रों की सामाजिक हैसियत के अनुसार बदलती है, लेकिन उसका स्तर कभी भी निम्न नहीं होता।