Wednesday 21 January, 2009

दास्तान-ए-यायावरी

आधुनिक कथेतर गद्य विधाओं में यात्रा वृत्तांत भी प्राचीन साहित्यिक विधा है। समय के साथ इसके स्वरूप और चरित्र में बदलाव होते रहे हैं। इतिहास, आत्म चरित्र आदि के प्रति अनास्था और उदासीनता के कारण भारत में यात्रा वृत्तांतों की समृद्ध और निरंतर परंपरा नहीं मिलती। विश्व के अन्य देशों में स्थिति इससे भिन्न है। वहां यात्रा और उसके अनुभवों को लिपिबद्ध करने का उत्साह है। फाहियान, ह्वेत्सांग, इब्न बतूता, अल बरूनी, मार्केपोलो बर्नियर आदि कई साहसी यात्री हुए हैं, जिन्होंने दूरस्थ देशों और स्थानों की अपनी यात्राओं के रोमांचक वृत्तांत लिखे। आज ये वृत्तांत धरोहर की तरह हैं, जिनसे हमें अपने अतीत समझने में मदद मिलती है। यों तो हमारे देश में रामायण, हर्ष चरित्र, कादंबरी आदि में यात्रा वृत्तांत के लक्षण मिल जाएंगे, लेकिन हिंदी में सही मायने में यात्रा वृत्तांत की शुरुआत उपनिवेशकाल में हुई। अंग्रेजी साहित्य के संपर्क-संसर्ग से हिंदी में साहित्यिक यात्रा वृत्तांत लिखे जाने लगे और धीरे-धीरे इनका विधायी ढांचा भी अस्तित्व में आया।

यात्रा वृत्तांत क्या है, इसे लेकर कई धारणाएं मौजूद हैं। कुछ लोगों के लिए यह आख्यान है, कुछ लोग इसे वृत्तांत कहते हैं, जबकि कुछ अन्य के अनुसार यह भी एक किस्म का संस्मरण है। यात्रा मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। अज्ञात के प्रति मनुष्य मन में स्वाभाविक जिज्ञासा है, जो उसे नए और दूरस्थ स्थानों की यात्रा के लिए प्रेरित करती है। मनुश्य यात्राएं करता है और यात्रा के अपने अनुभवों को लिपिबद्ध भी करता है, जो यात्रा वृत्तांत या यात्रा आख्यान कहे जाते हैं। लेखक अपने विश्वास और धारणाओं के साथ यात्रा पर निकलता है और नयी जगहों और लोगों के बीच जाता है। इस तरह यात्रा धारणाओं और विश्वासों में उथल-पुथल और अंतर्क्रिया का कारण बनती है। यात्री इस उथल-पुथल और अंतर्क्रिया की पहचान कर दर्ज करता है। यात्रा वृत्तांत की परिभाषा करते हुए कथाकार अरुणप्र्रकाश लिखते हैं कि ´´यात्रा आख्यान यात्रा के क्रम में हुई घटनाओं, दृश्यों और यात्री के इन अनुभवों के प्रति निजी भावनाओं का वर्णन है।´´ डॉ. रघुवंश एक साहित्यिक विधा के रूप में यात्रा वृत्तांत का संबंध उसके लेखक की सौंदर्य दृष्टि से जोड़ते हैं। उनके अनुसार सौंदर्य बोध की दृष्टि से उल्लास की भावना से प्रेरित होकर यात्रा करने वाले यायाकर एक प्रकार से साहित्यिक मनोवृत्ति के माने जा सकते हैं और उनकी मुक्त अभिव्यक्ति को यात्रा वृत्तांत कहा जाता है। इस तरह यात्रा वृत्तांत उसके लेखक का अंतरंग और बहिरंग, दोनों होता है। यात्री वृत्तांत में अपने बहिरंग को अपने अंतरंग के साथ हमारे सामने रखता है। कहा जा सकता है कि ´´यात्रा वृत्तांत नई, खुलती हुई दुनिया, अनजान लोगों-समाजों-सभ्यताओं-संस्कृतियों-जीवन शैलियों को स्वयं में समेटता है पर लेखक के निजी विकास का भी आईना होता है।´´

वस्तुपरकता यात्रा वृत्तांत की जान है। यात्रा वृत्तांत में लेखक जो देखता-खोजता है, उसका यथातथ्य वर्णन करता है। यात्रा वृत्तांत भी यात्रा के बाद स्मृति के आधार पर लिखे जाते हैं, इसलिए यात्री यात्रा के दौरान तथ्यों को डायरी, नोट बुक आदि में दर्ज कर लेता है। संस्मरण में जो आत्मपरकता होती है या जो कल्पना का पुट होता है, यात्रा वृत्तांत में नहीं होता। इसमें लेखक को अपने स्मृति को वस्तुपरक बनाए रखना पड़ता है। वह सजग रहकर अपने आत्म को स्मृति पर हावी होने से रोकता है। वस्तुपरक होने के कारण यात्रा वृत्तांत में कल्पना के लिए कोई जगह नहीं है। कल्पना कई बार यात्रा वृत्तांत में इस्तेमाल होती है, लेकिन उसकी भूमिका इसमें आटे में नमक की तरह ही है। यात्रा वृत्तांत में कल्पना यथार्थ को विस्थापित नहीं करती। कुछ लोग यात्रा वृत्तांत को उसकी तथ्य निर्भरता और वस्तुपरकता के कारण साहित्य नहीं मानते। विख्यात लेखक मेरी किंग्सले ने एक जगह लिखा भी है कि "यात्रा आख्यान की पुस्तक से कोई साहित्य की अपेक्षा नहीं करता।"

यात्रा वृत्तांत के लेखक का जीवन प्रति नजरिया अक्सर बहुत मस्ती का और फक्कडना होता है। एक ही प्रकार के रोजमर्रा जीवन से उसे ऊब होती है और स्थिर प्रकार का जीवन उसे बांधता है। यह बात कमोबेश सभी घुमक्कड़ यात्रा वृत्तांत लेखकों ने स्वीकार की है। विख्यात घुम्मकड़ लेखक राहुल सांस्कृत्यायन के अनुसार ´´ जिसने एक बार घुमक्कड़ धर्म अपना लिया, उसे पेंशन कहां, उसे विश्राम कहां ? आखिर में हडि्डयां कटते ही बिखर जाएंगी। आजीवन यायावर रहे अज्ञेय ने भी यही बात दूसरे शब्दों में कही है। वे लिखते है, ´´यायावर को भटकते हुए चालीस बरस हो गए, किंतु इस बीच न तो वह अपने पैरों तले घास जमने दे सका है, न ठाठ जमा सका है, न क्षितिज को कुछ निकट ला सका है... उसके तारे छूने की तो बात ही क्या।...यायावर न समझा है कि देवता भी जहां मंदिर में रूके कि शिला हो गए, और प्राण संचार की पहली शर्त है कि गति:गति: गति।´´ यात्रा वृत्तांत का रूपबंध निबंध के रूप बंध जैसा होता है, लेकिन कथात्मक गद्य विधाओं के रूप बंध के कुछ तत्त्व भी इसमें इस्तेमाल किए जाते हैं। यात्रा वृत्तांत का रूपबंध वस्तुपरक और तथ्यात्मक होता है और कभी-कभी इसमें विवरण आत्मपरक भी होते हैं, लेकिन तथ्य विमुख प्राय: नहीं होते। सही मायने में यात्रा वृत्तांत एक तरह का आईना है। ´´यात्रा के सुख-दुख, उसकी विश्वसनीयता के उपकरण और सादा बयानी उसका हुनर है।´´ यात्रा वृत्तांत के रूपबंध में कथात्मक गद्य विधाओं की नाटकीयता, कुतूहल आदि तत्त्व भी प्रयुक्त होते हैं, लेकिन यह आवश्यक है कि इनके इस्तेमाल से यथार्थ में विकृति नहीं आए। यात्रा वृत्तांत का रूपबंध जब कथात्मक होने लग जाए, तो समझना चाहिए कि लेखक भटक गया है। आधुनिककाल में नहीं, पर पहले कथात्मक विधाओं वाले रूपबंध में भी यात्रा वृत्तांत लिखे गए हैं, लेकिन इनको बाद में वृत्तांत की जगह कथात्मक आख्यान ही माना गया है। यात्रा वृत्तांत एकाधिक शैलियों और रूपों में लिखे गए हैं। कुछ यात्रा वृत्तांत ऐसे हैं, जिनको यात्रोपयोगी साहित्य की श्रेणी में रखा जा सकता है। इनमें स्थानों और देशों के संबंध विस्तृत और उपयोगी जानकारियां दी गइ हैं। राहुल सांस्कृत्यायन की हिमालय परिचय और मेरी यूरोप यात्रा ऐसी ही रचनाएं हैं। इनसे अलग अज्ञेय की अरे यायावर रहेगा याद और निर्मल वर्मा की चीड़ों पर चांदनी जैसी रचनाओं में महज जानकारियों से आगे इनके लेखकों की अंतर्यात्रा भी दिखाई पड़ती है।

हिंदी में यात्रा वृत्तांत लेखन की जड़ें बहुत मजबूत और गहरी नहीं हैं। ´कुछ गिनती के लेखक और थोड़ी सी किताबे´ ही इस संबंध में मौजूद हैं। हिंदी में इस दिशा में पहल भारतेंदु हरिश्चंद्र 1877 में दिल्ली दरबार दर्पण लिखकर की। बाद में बाबू शिपप्रसाद गुप्त, मौलवी महेश प्रसाद, रामनारायण मिश्र और सत्यव्रत परिव्राजक ने भी यात्रा वृत्तांत से मिलती-जुलती कुछ रचनाएं लिखीं। इस दिशा सर्वाधिक उल्लेखनीय काम राहुल सांस्कृत्यायन ने किया। उन्होंने खूब देशाटन किया और तत्सम्बंधी अपने-अपने अनुभवों और विवरणों को घुमक्कड़ शास्त्र और वोल्गा से गंगा नामक रचनाओं में लिखा। अज्ञेय भी घुमक्कड़ थे-एक बूंद सहसा उछली और अरे यायावर रहेगा याद उनके यात्रावृत्तों के प्रसिद्ध संकलन हैं। एक आधुनिक भारतीय मन की चिंता और आत्मान्वेषण इन रचनाओं की खासियत है। रघुवंश के यात्रावृत्त संकलन हरी घाटी की भी पांचवें-छठे दशक में सराहना हुई। आजादी के बाद इस क्षेत्र में उल्लेखनीय काम निर्मल वर्मा ने किया। चीड़ों पर चांदनी और धुंध से उठती धुन उनके यात्रावृत्तों के प्रसिद्ध संकलन हैं। धुंध से उठती धुन में ऐसे यात्रावृत्त हैं, जिनमें भारतीय सभ्यता और संस्कृति को आधुनिक निगाह से समझने की कोशिश की गई है। हिमालय भारतीय रचनाकारों को अक्सर अपनी ओर आकृष्ट करता रहा है। हिमालय की धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत से रूबरू करवाने वाले यात्रावृत्तों की श्रृंखला स्फीति में बारिश, किन्नर >धर्मलोक और लद्दाख राग-विराग नाम से हिंदी में कृष्णनाथ ने लिखी।

3 comments:

Unknown said...

acchi jaankaari....

संगीता पुरी said...

यात्रा वृत्तांत के भी कई रूप हो सकते हैं....यह लेखक के उपर निर्भर करता है कि वह पाठकों को क्‍या परोसना चाहता है....जैसी सामग्री होगी , वैसे ही पाठक खुद उस यात्रा वृतांत की ओर आकर्षित हो जाएंगे।

pallav said...

iske sath hi abhi-abhi aaya SAMKALEEN SRIJAN(KOLKATA)par bhi charcha ho jati to kya bat thi.
pallav