Thursday 7 February, 2008

नगरीय परिशिष्टों की हिंग्रेज़ी

हिंदी विकासशील भाषा है और उसका स्वभाव आरंभ से ही समावेशी रहा है इसलिए इसने अपने संसर्ग में आने वाली दूसरी भाषाओं से बहुत कुछ ग्रहण किया है। भूमंडलीकरण और संचार क्रांति से जो नयी ग्लोबल शब्दावली सामने आई है, उसके लिए भी हिंदी ने अपने दरवाजे पूरी तरह खोल दिए हैं। विज्ञान, तकनीक, संचार, कंप्यूटर, मनोरंजन, फैशन, फूड, लाइफ स्टाइल आदि से संबंधित कई नए शब्दों को धीरे-धीरे हिंदी ने अपना बना लिया है। हिंदी के दैनिक समाचार पत्र इसी खुली, उदार और समावेशी चरित्र वाली हिंदी के साथ बड़े हुए हैं और उसे यह रूप देने में भी इनकी निर्णायक भूमिका रही है। कोई भाषा अपने पांवों पर खड़ी होकर दूसरी भाषा का बोझ उठाए, यहां तक तो ठीक है, लेकिन इधर हिंदी दैनिकों के नगरीय परिशिष्टों में अंग्रेजी हिंदी की पीठ पर सवार है। उसके बोझ से हिंदी का अपना बुनियादी ढांचा चरमरा रहा है। गत दो तीन दशकों में साक्षरता में हुई वृिद्ध और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के विस्तार से हिंदी दैनिकों की प्रसार संख्या को तो पंख लग गए हैं, लेकिन विज्ञापनों से होने वाली आय में उनकी हिस्सेदारी अंग्रेजी दैनिकों की तुलना में अब भी कम है। भारतीय शहरी मध्यवर्ग, जिसकी क्रय और उपभोग क्षमता उदारीकरण के दौर में तेजी से बढ़ी है, इन अधिकांश विज्ञापनों का लक्ष्य है। यह वर्ग अंग्रेजी अच्छी तरह बोलता, लिखता और समझता नहीं है, लेकिन अंग्रेजी इसकी वर्गीय उध्र्व गतिशीलता को सहलाती है। इस वर्ग में अपनी पहुंच और प्रभाव का दायरा बढ़ाकर विज्ञापनों की आय में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए हिंदी दैनिकों ने नगरीय परििशष्ट शुरू किए हैं और नीति के तहत इनकी भाषा अंग्रेजी मिश्रित हिंदी यानी हिंग्रेजी रखी गई है। सिटी भास्कर, मेट्रो वन फोर वन, मेट्रो टू नाइन फोर, सिटी जागरण, डेट लाइन आदि नामों से निकलने वाले इन परििशष्टों या पन्नों में मनोरंजन, फैशन, फूड, लाइफ स्टाइल, सेलीब्रिटीज आदि से संबंधित सामग्री ऐसी भाषा में परोसी जा रही है जिसमें हिंदी के वाक्य गठन में अधिकांश शब्द अंग्रेजी के हैं।
हिंग्रेजी की शुरुआत केबल सैटेलाइट टेलीविजन के विस्फोटक प्रसारवाले दौर में जी टीवी पर हुई और फिर यह डीडी मेट्रो से होती हुई कमोबेश सभी चैनलों पर फैल गई। आरंभ में इन चैनलों की पहुंच का दायरा मुख्यतया शहरी उच्च और मध्य वर्ग तक सीमित था, जिसको अंग्रेजी अच्छी लगती थी, इसलिए इन चैनलों की दशZकता और विज्ञापनों से होने वाली आय का ग्राफ तेजी से ऊंचा चढ़ता गया। इन चैनलों का आग्रह आम लोगों को समझ में आने योग्य आम बातचीत में प्रयोग वाली भाषा पर था, इसलिए इन्होंने जल्दबाजी में अदबदा कर हिंग्रेजी के रूप में ऐसा प्लािस्टक का मुहावरा बना लिया, जिसकी जडें हमारे समाज और संस्कृति में नहीं थीं। अब हिंदी दैनिक भी इन चैनलों की सफलता से उत्साहित होकर शहरी उच्च और मध्यवर्ग में अपनी पैठ बनाने के लिए यही रास्ता अिख्तयार कर रहे हैं।
हिंदी की वाक्य रचना और अंग्रेजी के शब्द
संक्रमण के दौर में जब कोई भाषा दूसरी भाषा से रूबरू होती है, तो वह कुछ शब्द लेती है और साथ ही अपने कुछ शब्दों को नया अर्थ और पहचान देकर काम चलाती है। कोई भाषा नवागत शब्दों के लिए अपने शब्द भंडार को पूरी तरह कभी विस्थापित नहीं करती। नगरीय परििशष्टों में हिंदी का हिंग्रेजी में कायांतरण इस लिहाज से सहज नहीं लगता। यह हिंग्रेजी इस तरह की है कि इसमें हिंदी की वाक्य रचना में अधिकांश शब्द अंग्रेेजी के ठूंस दिए गए हैं। ईद से संबंधित एक समाचार कथा का शीषZक दिया गया ईद सेलिबे्रशन इन डिफरेंट स्टाइल और इसका पहला वाक्य है,- ईद का चांद तो एक होता है, पर सेलीबे्रट करने का स्टाइल हर जगह चेंज हो जाता है। डिफरेंट कंट्रीज में ईद मनाने के अलग-अलग तरीके हैं। भैया दूज और ईद से संबंधित एक और समाचार कथा का शीषZक है, थीम बेस्ड ग्रीटिंग्ज और गिफ्ट से सेलिब्रेट होंगे भैया दूज व ईद और इसके इंट्रो के पहले वाक्य में लिखा गया कि हिंदी कोटेशनवाले ग्रीटिंग इस बार लोगों को ज्यादा अट्रैक्ट कर रहे हैं, वहीं गिफ्ट्स, में क्रिस्टल के डॉिल्फन, स्टूडेंट्स के टेबल लैंप, गणेशा स्टेच्यू, एथनिक लुक की गिट्स भाई बहनों के बीच ज्यादा पॉपुलर हो रहे हैं। एनसीसी की ट्रैनिंग कैंप संबंधी एक समाचार कथा में लिखा गया कि स्कूलिंग और कॉलेज टाइम में यूथ की फेवरेट एक्सट्रा करिकुलर एक्टीविटी एनसीसी ही रहती है। एक और वाक्य में लिखा गया कि शहर के यूथ ने साइंस के फील्ड में एचीवमेंट हासिल की।
प्रचलित शब्दों को देश निकाला
हिंदी का जन्म और विकास ही सांस्कृतिक बहुलता और वैविध्य वाले समाज की अभिव्यक्ति की खास जरूरतों के तहत हुआ है। इसने इन विविध संस्कृतियों और समाजों से शब्द ग्रहण कर अपने को समृद्ध किया है और इन शब्दों को सांस्कृतिक बदलावों के साथ निरंतर नयी पहचान और अर्थवता भी दी है। नगरीय परििशष्टों की नयी हिंग्रेजी में इन अर्थपूर्ण प्रचलित शब्दों को विस्थापित कर इनके स्थान पर अंग्रेजी के शब्द प्रयुक्त किए जा रहे हैं। यह सही है कि विज्ञान तकनीक, संचार, फैशन, फूड, मनोरंजन, लाइफ स्टाइल आदि से संबंधित कुछ शब्दों के प्रचलित रूप हिंदी में नहीं हैं, इसलिए ऐसे शब्दों का हिंदी में प्रयोग अटपटा नहीं लगता, लेकिन जो शब्द हिंदी में प्रचलन में हैं और अभिव्यक्ति में पूरी तरह सक्षम है, उनके स्थान का प्रयुक्त अंग्रेजी शब्द हिंदी की जातीय प्रकृति के साथ तालमेल बिठाने में पिछड़ रहे हैं। यूथ, साइंस, एचीवमेंट, फेवरेट, एक्टीविटी, टूरिज्म, प्राइजेज, इंपेक्ट्स, लेफ्ट, हैंड, एडवांटेज, लिस्ट, फोर्स, सिंचुएशन, ट्रेनिंग, जर्नी, पेशेंट्स, स्टूडेंट्स, फेमस, एक्टर, ट्रीटमेंट, प्लेसेज, रेग्यूलर, कॉरस्पॉन्डेंस, डिमांड, एक्सपीरियेंस, एबनार्मल, सीरियस, रीलिजियस, फ्रेंडिशप, प्रेिशयस, फ्रेंडज, फ्लावर्स, क्यूरिसिटी, प्रोडक्ट्स, एिक्जबिशन, यूटिलिटी, जनरेशन, कॉिन्फडेंस, डिस्कशन, इंपोटेZंट, इंट्रोडक्शन, कॉमिशZयल पॉपुलेशन,, डॉग्स, बेस्ड, सबजेक्ट, रिलेवेंट, रीजनल, बिजनेस, कॉम्पीटीशन, एक्सपर्ट, बेस्ट, पर्चेजिंग, फेिस्टवल, टैलेंट, माकेZट, ट्रेडिशन, फैमिलीज, सिक्योरिटी, रिजल्ट, मैरिज, टेंशन, इमोशन्स, प्रेिक्टस, फ्यूचर, मॉडर्न, प्लानिंग, सबॉर्डिनेट, फाइनेंिशयल, ऑबजेक्शन, डिसीजन, व्हीकल, इंटरेस्ट, पॉपुलरटी, मैसेज, एंजॉयमेंट, कंटीन्यू, हसबैंड, गल्र्स, मैच्योरिटी, रिसपेक्ट, इंटेलिजेंट, सॉल्व, रिलेटिवज, विश, वाइफ, इंट्रेस्ट, वीमेन, डिजीज, प्रिफर, पॉल्यूशन, फॉमेलिटी, इिक्वपमेंट्स रिक्वेस्ट, एक्सपेरिमेंट्स, बिजी आदि सैकड़ों शब्द अंग्रेजी के प्रयुक्त किए जा रहे हैं, जिनके हिंदी रूप प्रचलन में हैं। इससे सर्वथा अटपटी और प्लािस्टक मुहावरे वाली भाषा सामने आ रही है। आगेZनिक फूड से संबंधित एक समाचार कथा में लिखा गया कि कैमिकल मिली वेजिटेबल्स और फ्रूट खाने से डायबिटीज, ब्लड प्रेशर, कैंसर जैसे डिजीज की आशंका से लोग आगेZनिक फू्रड प्रिफर कर रहे हैं। इसी तरह एक जगह लिखा गया कि फेिस्टवल सीजन पर इलेक्ट्रोनिक कंपनियों ने इस बार कस्टमर्स को अट्रैक्ट करने के लिए प्राइस रिबेट को ज्यादा इंपोटेZंस दी। नगरीय परििशष्ट की ही एक समाचार कथा में लिखा गया कि एमबीए के एक सबजेक्ट इंडियन इथोज में पौराणिक ग्रंथों को मॉडर्न से रिलेवेंट करके पढ़ाया जा रहा है। भाषा का यह कृत्रिम रूप इन परििशष्टों के शीषZकों में भी दिखाई पड़ रहा है। सरकार द्वारा िशक्षण संस्थानों में पेप्सी-कोला पर प्रतिबंध लगाने संबंधी एक समाचार कथा का शीषZक दिया गया, सॉफ्ट िड्रंक के हार्ड ट्रुथ ने चेताया। एक जगह उपशीषZक दिया गया, डोमेिस्टक वायलेंस के खिलाफ कानून पर सिटी विमन की ओपिनियन। इसी तरह ईद से संबंधित एक समाचार कथा का शीषZक दिया गया, सुबह ट्रेडिशनल, शाम मॉडर्न। एक और जगह शीर्षक दिया गया, एक्टर नरेटर बन कर किए डिफरेंट करेक्टर।
क्रिया शब्दों का विस्थापन
लय और प्रवाह के लिए भाषा में क्रिया रूप जरूरी होते हैं। जिन भाषाओं में क्रियाएं कम होती हैं अक्सर वे भाषाएं और ठोस और ठस रूप ले लेती हैं। कोई भाषा जब दूसरी भाषा के संपर्क में आती है, तो आदान-प्रदान मुख्यतया संज्ञा शब्दों का होता है। आदान-प्रदान में क्रिया शब्द बहुत कम होते है क्योंकि हर भाषा की क्रियाएं अपनी होती हैं और अक्सर इनका नए आगत संज्ञा शब्दों के साथ तालमेल बैठ जाता है। नगरीय परििशष्टों की हिंग्रेजी इस लिहाज से भी अटपटी और कृत्रिम है कि इसमें अंग्रेजी के कई क्रिया शब्दों ने हिंदी के क्रिया शब्दों को धकिया कर उनकी जगह पर कब्जा कर लिया है। डवलप, एन्जॉय, मैनेज, सेलीब्रेट, पार्टिसिपेट, फोलो, अट्रैक्ट, ट्रीट, प्रोड्यूस, डिस्प्ले जैसे कई क्रिया शब्द इन परििशष्टों की हिंग्रेजी में काम में लिए जा रहे हैं। इन क्रिया रूपों को रहे, है, की आदि सहायक क्रियाओं के साथ प्रयुक्त किया जा रहा है, जिससे भाषा का सहज प्रवाह और लय बिगड़ रहे हैं। इससे नॉयज प्रोडयूस होती है, फोन पर यह न्यूज शेयर की, प्राइज डिस्ट्रीब्यूट किए, चैलेंज एक्सेप्ट किया, जयपुर को रिप्रजेंट कर रहे हैं, ईद और भैया दूज सेलिब्रेट होंगे, कैपेसिटी डवलप होती है, कैजुएल लुक क्रिएट कर सकते हैं जैसी अटपटी और सर्वथा कृत्रिम अभिव्यक्तियां सामने आ रही हैं।
हर भाषा का अपना एक ढांचा, रीढ़ और मुहावरा होता है। इससे ही कोई भाषा अपने पांवों पर खड़ी रहती है और उसमें लय और प्रवाह भी आते हैं। सदियों के सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवहार के दौरान ही भाषा में लाक्षणिकता और व्यंजकता भी पैदा होती है। सांस्कृतिक संक्रमण और अंतक्रिZया के दौरान शब्द आते-जाते हैं, लेकिन इससे भाषा के बुनियादी ढांचे में तब्दीलियां कम आती हैं। नगरीय परििशष्टों में हिंदी के प्रचलित शब्दों और उनमें भी खास तौर पर क्रिया शब्दों की जगह जिस तरह से अंग्रेजी शब्दों का चलन बढ़ रहा है उससे हिंदी का यही बुनियादी ढांचा टूट और बिखर रहा है। भाषा का मुहावरा समाज के खाद-पानी से जीवित रहता है, यह उसी से फलता-फूलता भी है, लेकिन हिंग्रेजी की जड़ें हमारे समाज के खाद-पानी में नहीं है। यह कृत्रिम प्लािस्टक मुहावरा है, जिसकी चमक ज्यादा दिनों तक कायम नहीं रहेगी।

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