कन्नड़ साहित्य भारतीय साहित्य का अभिन्न अंग है। इसका विकास क्षेत्रीय जरूरतों के तहत अलग ढंग से हुआ है, लेकिन संपूर्ण आधुनिक भारतीय साहित्य से बहुत अलग नहीं है। इसके सरोकार, चिंताएं और आग्रह कमोबेश वही हैं, जो दूसरी भारतीय भाषाओं के साहित्य के हैं। कन्नड़ का प्राचीन साहित्य अपने पृथक् वैशिष्ट्य के बावजूद अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य की तरह संस्कृत से प्रभावित है। कन्नड़ में आधुनिक साहित्य की शुरुआत औपनिवेषिक शासन के दौरान हुई। संचार के साधनों के विकास और उसमें भी खास तौर पर छापाखाने के आगमन और अनुवादों में बढ़ोतरी के कारण भिन्न भाषाओं के साहित्यों के बीच आदान-प्रदान और संवाद बढ़ा। अंग्रेजी संपर्क के कारण भारतीय भाषाओं के साहित्य के आधुनिकीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई। इस सबसे कन्नड़ में अिस्मता की चेतना आई और यह सबसे पहले शब्द कोष और व्याकरण ग्रंथों की रचना में व्यक्त हुई। इसी दौरान कन्नड़ में संस्कृत और अंग्रेजी ग्रंथों के अनुवाद भी हुए। कन्नड़ की आरंभिक आधुनिक साहित्यकारों में मुदन्ना, पुटन्ना और गुलवादी वेंकट राव प्रमुख हैं। मंगेष राय ने कन्नड़ में पहली कहानी लिखी और लिखी, जबकि वेंकटराव ने इंदिरा नामक पहला सामाजिक उपन्यास लिखा। 1890 में कर्नाटक विद्यावर्द्धक संघ और 1915 में कन्नड़ साहित्य परिषद की स्थापनाएं हुईं, जिससे कन्नड़ में आधुनिक साहित्यिक चेतना का प्रसार हुआ।
हिंदी सहित सभी आधुनिक भारतीय भाशाओं के साहित्य में पुनरुत्थान, समाज सुधार, वैज्ञानिक चेतना और ज्ञानोदय के रूप में जो नवजागरण शुरू हुआ, उसने कन्नड़ में नवोदय के रूप लिया। मास्ति वेंकटेष आय्यंगर ने इस दौरान कथा साहित्य में, जबकि डी.आर. बेंद्रे ने कविता में नवजीवन का संचार किया। ये दोनों साहित्यकार कन्नड़ साहित्य में आधुनिक चेतना का प्रसार करने वाले सिद्ध हुए। मास्ति वेंकटेश की रचनाओं में पुनरुत्थान की चेतना सघन रूप व्यक्त हुई, तो बेंद्र की कविता में राश्ट्रीयता, परंपरानुराग, रहस्य, वैयिक्कता आदि नवोदय के सभी लक्षण प्रकट हुए। इनके अलावा नवोदय युग के साहित्यकारों में बी.एम. श्रीकांतैय्या और के. वी. पुट्टपा भी खास तौर पर उल्लेखनीय हैं। दरअसल नवोदय आंदोलन की शुरुआत ही श्रीकांतैय्या के अनुवादों से हुई। इसके बाद नवोदय आंदोलन में शिवराम कारंथ, यू.आर. अनंतमूर्ति, लंकेश, भैरप्पा जैसे कई अग्रणी साहित्यकार जुड़ गए। गिरीश कारनाड और खंबार जैसे नाटककारों ने अपने निरंतर नवाचार और प्रयोगधर्मिता से इस आंदोलन को आगे बढ़ाया। शिवराम कारंथ नवोदय आंदोलन के सर्वाधिक प्रभावी रचनाकार थे। उन्होंने कन्नड़ संस्कृति और साहित्य को दूर तक प्रभावित किया। कारंथ ने यथार्थवादी लेखन की कन्नड़ में जो परंपरा डाली, वो अभी तक जारी है। उनके लेखन से कन्नड़ के कई साहित्यकार प्रभावित हुए। कन्नड़ के विख्यात कथाकार यू.आर. अनंतमूर्ति ने एक जगह लिखा है कि ``इसी समय मैंने अपने महान् उपन्यासकारों में एक कारंथ का चोमना डुडी पढ़ा। यह अपनी जमीन को वापस चाहने वाले अछूत की त्रासद दास्तान है। अब तब मैं जिन रूमानी कहानियों का दीवाना था, वे मुझे बकवास लगने लगीं। मैंने जाना कि अगर अपने आसपास दिखने वाले यथार्थ को इतनी सुंदर कहानी में ढाला जा सकता है, तो फिर मुझे सिर्फ उन चीजों को बारीकी से देखने-परखने की जरूरत है। मेरे अग्रज, जो कारंथ की क्रांतिकारी विचारधारा से नफरत करते थे, वे भी उनकी लेखकीय कला की तारीफ किए बिना नहीं रह पाते थे और उनके बारे में मुग्ध मन से बातें करते थे।´´
गत सदी के चौथे दशक में आधुनिक भारतीय भाषाओं के साहित्य पर मार्क्र्सवाद का गहरा प्रभाव हुआ। कन्नड़ साहित्य में भी प्रगतिवादी लेखन की नयी धारा शुरू हुई। इस धारा का नेतृत्व कन्नड़ में ए.एन. कृश्णराव ने किया। इसमें शामिल अन्य साहित्यकारों में टी.आर. सुब्बाराव, कटि्टमणि, निरंजन आदि प्रमुख हैं। प्रगतिवादी आंदोलन से ही आगे चलकर कन्नड़ में दो धाराएं-बंद्या और दलित साहित्य विकसित हुईं। दलित साहित्य में वंचित-दमित जातियों के कन्नड़भाशी साहित्यकारों ने हिस्सेदारी की। इस धारा के साहित्यकारों पर मराठी का विशेष प्रभाव था, क्योंकि मराठी में दलित साहित्य की समृद्ध परंपरा पहले से थी। यू.आर. अनंतमूर्ति और उनके वामपंथी तेवर वाले साहित्यकारों ने बंद्या साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन लेखकों ने राजनीतिक समझ के साथ अपने समय और समाज के यथार्थ को चित्रित किया। अनंतमूर्ति के घटश्राद्ध, संस्कार और भारतीपुर जैस उपन्यासों ने यथार्थ के कई नए आयाम उद्घाटित किए। आगे चलकर चंद्रषेखर पाटिल ने बंद्या और सिद्धलिंगैया ने दलित साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया। स्पष्ट है कि आधुनिक कन्नड़ साहित्य के सरोकार, चेतना, वस्तु आदि भी कमाबेश वहीं हैं, जो सभी आधुनिक भाषाओं के हैं। यह अवश्य़ है कि कन्नड़ की अपनी परंपरा और क्षेत्रीय जरूरतों के अनुसार इनका विकास अलग तरह से हुआ है।
Friday, 29 August 2008
Friday, 15 August 2008
गिरीश कारनाड के नाटक तुगलक का वैशिष्ट्य
आजादी के बाद के सपनों के पराभव और मोहभंग की कन्नड़ में रचित नाट्यकृति तुगलक का आधुनिक भारतीय नाटक साहित्य में खास महत्व है। यह कृति उस समय लिखी गई जब आधुनिक भारतीय नाटक साहित्य में ऐतिहासिक-सांस्कृतिक विषयों पर पुनरुत्थान मूलक नाटक लेखन का जोर था। हिंदी में जयशंकर प्रसाद, सेठ गोविंददास, हरिकृष्ण प्रेमी आदि नाटककार इतिहास और मिथों का नाट्य रूपांतरण कर रहे थे। उनका उद्देश्य भारतीय अतीत की भव्य और महान छवि गढ़ने का था। गिरीश कारनाड ने ऐसे समय में इतिहास में अपने समय और समाज के द्वंद्व और चिंता को विन्यस्त किया। यह बाद में हिंदी सहित कई आधुनिक भारतीय भाशाओं में भी लोकप्रिय हुई।
तुगलक में इतिहास या मिथक के रूपक में अपने समय और समाज की विन्यस्त करने का गिरीश कारनाड की पद्धति भी इस तरह के और आधुनिक भारतीय नाटकों की तुलना में खास तरह की है। इस नाटक की खास बात यह है कि इसमें हमारा समय और समाज है, लेकिन यह इतिहास को कहीं भी विकृत नहीं करता। पहला राजा भी इसी तरह का नाटक है, लेकिन उसमें आरोपण इतना वर्चस्वकारी है कि मिथक विकृत हो जाता है। गिरीश कारनाड इतिहास पर अपने समय और समाज के द्वंद्व और चिंता का आरोपण इतने सूक्ष्म ढंग से करते हैं कि इससे मुहम्मद बिन तुगलक का ऐतिहासिक चरित्र और समय, दोनों ही अप्रभावित रहते हैं। कल्पना का पुट इस नाटक में है, लेकिन यह इतिहास के ज्ञात तथ्यों पर भारी नहीं पड़ती।
अपनी रंग योजना के लिहाज से भी तुगलक एक विशिष्ट रचना है। अपनी अन्य समकालीन आधुनिक भारतीय नाट्य रचनाओं से अलग इसमें मंच, संगीत, प्रकाश आदि को निर्देशकीय सूझबूझ और कल्पना पर छोड़ा गया है। इस नाटक में रंग निर्देश बहुत कम हैं। निर्देशक को पूरी छूट दी गई है कि वह इस नाटक का मंचन प्रयोगधर्मी ढंग से कर सके। इब्राहिम अलकाजी ने अपनी कल्पना और सूझबूझ से राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के मुक्ताकाशी मंच पर इसका मंचन किया था। उन्होंने इसमें यथार्थवादी और प्रयोगवादी, दोनों प्रकार की शैलियां प्रयुक्त कीं। उन्होंने इसके लिए मुगलकालीन स्थापत्य विशेषज्ञों और ग्रंथों का भी सहयोग लिया।
आधुनिक भारतीय नाटकों में तुगलक इस अर्थ में भी खास है कि इसमें भव्य और महान कथानक है। इस महानता और भव्यता को सम्मूर्त करने के लिए नाटककार ने सभी कोशिशं की हैं। उसने मंच स्थापत्य इस तरह का रखा है कि यह भव्यता उससे व्यक्त होती है। नाटककार ने कथानक की भव्यता और महानता बरकरार रखने के लिए खास प्रकार की अभिजात उर्दू का प्रयोग किया है। इस नाटक की भाषा में मुगल दरबारों की रवायतों और अदब-कायदों का इस्तेमाल हुआ है। नाटककार और इसके निर्देशक ने इस संबंध में पर्याप्त शोध कार्य किया है।
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि आधुनिक भारतीय नाटक साहित्य में अपनी कतिपय खास विशेषताओं के कारण तुगलक का अलग और महत्वपूर्ण स्थान है।
तुगलक में इतिहास या मिथक के रूपक में अपने समय और समाज की विन्यस्त करने का गिरीश कारनाड की पद्धति भी इस तरह के और आधुनिक भारतीय नाटकों की तुलना में खास तरह की है। इस नाटक की खास बात यह है कि इसमें हमारा समय और समाज है, लेकिन यह इतिहास को कहीं भी विकृत नहीं करता। पहला राजा भी इसी तरह का नाटक है, लेकिन उसमें आरोपण इतना वर्चस्वकारी है कि मिथक विकृत हो जाता है। गिरीश कारनाड इतिहास पर अपने समय और समाज के द्वंद्व और चिंता का आरोपण इतने सूक्ष्म ढंग से करते हैं कि इससे मुहम्मद बिन तुगलक का ऐतिहासिक चरित्र और समय, दोनों ही अप्रभावित रहते हैं। कल्पना का पुट इस नाटक में है, लेकिन यह इतिहास के ज्ञात तथ्यों पर भारी नहीं पड़ती।
अपनी रंग योजना के लिहाज से भी तुगलक एक विशिष्ट रचना है। अपनी अन्य समकालीन आधुनिक भारतीय नाट्य रचनाओं से अलग इसमें मंच, संगीत, प्रकाश आदि को निर्देशकीय सूझबूझ और कल्पना पर छोड़ा गया है। इस नाटक में रंग निर्देश बहुत कम हैं। निर्देशक को पूरी छूट दी गई है कि वह इस नाटक का मंचन प्रयोगधर्मी ढंग से कर सके। इब्राहिम अलकाजी ने अपनी कल्पना और सूझबूझ से राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के मुक्ताकाशी मंच पर इसका मंचन किया था। उन्होंने इसमें यथार्थवादी और प्रयोगवादी, दोनों प्रकार की शैलियां प्रयुक्त कीं। उन्होंने इसके लिए मुगलकालीन स्थापत्य विशेषज्ञों और ग्रंथों का भी सहयोग लिया।
आधुनिक भारतीय नाटकों में तुगलक इस अर्थ में भी खास है कि इसमें भव्य और महान कथानक है। इस महानता और भव्यता को सम्मूर्त करने के लिए नाटककार ने सभी कोशिशं की हैं। उसने मंच स्थापत्य इस तरह का रखा है कि यह भव्यता उससे व्यक्त होती है। नाटककार ने कथानक की भव्यता और महानता बरकरार रखने के लिए खास प्रकार की अभिजात उर्दू का प्रयोग किया है। इस नाटक की भाषा में मुगल दरबारों की रवायतों और अदब-कायदों का इस्तेमाल हुआ है। नाटककार और इसके निर्देशक ने इस संबंध में पर्याप्त शोध कार्य किया है।
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि आधुनिक भारतीय नाटक साहित्य में अपनी कतिपय खास विशेषताओं के कारण तुगलक का अलग और महत्वपूर्ण स्थान है।
Saturday, 9 August 2008
आधुनिक भारतीय नाटकों में इतिहास-मिथक
तुगलक आजादी के बाद के सपनों के पराभव और मोहभंग का रूपक है। इसमें अपने समय और समाज के द्वंद्व और चिंता को इतिहास में विन्यस्त किया गया है। इतिहास और मिथ के रूपक में अपने समय, समाज और व्यक्ति के द्वंद्व और चिंता को व्यक्त करने वाली नाट्य रचनाएं आधुनिक भारतीय भाषाओं कई हुई हैं। धर्मवीर भारती ने अपने गीति नाट्य अंधा युग (1954 ई.) में मिथक के माध्यम से अपने समय चिंताओं का उजागर किया है। इसमें महाभारत के अंतिम अठारहवें दिन की घटना की पुनर्रचना है। इसके माध्यम से युद्धोत्रर निराशा और पराजय से पैदा हुए माहौल में मानव मूल्यों के ध्वंस को रेखांकित किया गया है। इस नाटक में मिथक महत्वपूर्ण नहीं है- इसमें महत्वपूर्ण हमारे समय और समाज का युग बोध है। मोहन राकेश का नाटक आषाढ़ का एक दिन (1954 ई.) भी इतिहास-मिथक मूलक नाट्य कृति है। इसमें मोहन राकेश ने संस्कृत कवि और नाटककार के कालिदास के जीवन को आधार बनाया है। इस नाटक में राज्याश्रय और रचनाकर्म के आधुनिक संबंध की जटिलता को उजागर किया गया है। यह कालिदास के चरित्र पर एकाग्र नाटक है, लेकिन यहां कालिदास प्रतीक है। स्वयं लेखक के शब्दों में ``आषाढ़ का एक दिन में कालिदास का जैसा भी चित्र है, वह उसकी रचनाओं में समाहित उसके व्यक्तित्व से बहुत हटकर नहीं है। हां, आधुनिक प्रतीक के निर्वाह की दृष्टि से उसमें थोड़ा परिवर्तन अवश्य किया गया है। यह इसलिए कि कालिदास मेरे लिए एक व्यक्ति नहीं, हमारी सृजनात्मक शक्तियों का प्रतीक है। नाटक में यह प्रतीक अंतर्द्वद्व को संकेतिक करने के लिए है, जो किसी भी काल में सृजनशील प्रतिभा आंदोलित करता है। मोहन राकेश का दूसरा नाटक लहरों का राजहंस भी इतिहास पर आधारित है। भगवान बुद्ध के छोटे भाई नंद के जीवन से संबंधित इस नाटक को उन्होंने अष्वघोष के काव्य सौंदरनंद के आधार पर गढ़ा है। इस नाटक में जीवन के प्रति राग-विराग के शाश्वत द्वंद्व को इतिहास के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। मोहन राकेश के अपने स्वयं के शब्दों में ``यहां नंद और सुंदरी की कथा एक आश्रय मात्र है, क्योंकि मुझे लगा कि इसे समय में प्रक्षेपित किया जा सकता है। नाटक का मूल द्वंद्व उस अर्थ में यहां भी आधुनिक है जिस अर्थ में आषाढ़ का एक दिन।´´ जगदीशचंद माथुर का कोणार्क (1951 ई.) यों तो प्रसाद परंपरा का नाटक हैं, लेकिन यह उससे हट कर भी है। इसमें केवल भारतीय अतीत की भव्य और शौर्यमूलक प्रस्तुति नहीं है, जो प्रसाद नाटकों की मुख्य विषेशता है। जगदीशचंद माथुर इस नाटक में कोणार्क निर्माता उत्कल नरेश नरसिंह देव और उनके समय की घटनाओं के माध्यम से सामान्य जनता के अधिकारों की बात उठाते हैं। आजादी के बाद नयी पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी में, जो अवधारणात्मक अलगाव आ गया है, उसकी कुछ अनुगूंज भी इस नाटक में सुनाई पड़ती है। सुरेंद्र वर्मा का नाटक आठवां सर्ग (1976 ई.) भी इसी तरह का है। इसमें कालिदास के महाकाव्य कुमार संभव के उद्दाम शृगार युक्त आठवें सर्ग को आधार बनाया गया है। नाटककार इस रचना में इतिहास-मिथक के बहाने श्लीलता-अश्लीलता और सेंसरशिप और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे सार्वभौमिक सवालों से रूबरू होता है। नंदकिशोर आचार्य के एकाधिक नाटकों में इतिहास-मिथक का प्रयोग हुआ है। देहांतर (1987) उनका इस लिहाज से चर्चित नाटक है। इसमें प्रयुक्त मिथ का उपयोग गिरीष कारनाड ने भी अपने ययाति नामक नाटक में किया है। नंदकिशोर आचार्य ययाति, शर्मिष्ठा और पुरु जैसे पात्रों के माध्यम से इस नाटक में हमारे समय के मनुष्य की जटिल मानसिकता और कुंठा पर रोशनी डालते हैं। गुलाम बादशाह (1992 ई.) नंदकिशोर आचार्य का इतिहास केंद्रित नाटक है। इस नाटक में भी तुगलक की ही तरह दिल्ली सल्तनत के समय और समाज को आधार बनाया गया है। यह मुस्लिम शासक बलवन के आखिरी दिनों की घटनाओं पर आधारित है। यह नाटक विख्यात रंगकर्मी फैजल अल्काजी के शब्दों में ``जितना बलबन के अंतर्द्वद्व और उसके आखिरी दिनों का नाटक है, उतना ही आज के राजनीतिक परिदृश्य का भी। राजनीति पर कुछ परिवारों की कुंडली लपेट, चुनिंदा गुट, शासक और शासित के बीच गहरा अंतराल, भूला दिए गए पूर्व नायक और राजनीति की जरूरत बन चुके गंदे हाथ, ये सब अतीत के ही नहीं, आज की राजनीति के भी केंद्रीय प्रकरण हैं।´´
Sunday, 3 August 2008
तुगलक का हिंदी नाटक पहला राजा से साम्य-वैषम्य
भाषायी भिन्नता के बावजूद आधुनिक भारतीय साहित्यकारों की चिंताए, सरोकार और द्वंद्व कमोबेश एक जैसे हैं। नेहरूयुगीन मोहभंग के यथार्थ को 1964 में तुगलक में कन्नड़ रंगकर्मी और नाटककार गिरीश कारनाड ने मध्यकालीन मुस्लिम शासक मुहम्मद बिन तुगलक के रूपक प्रस्तुत किया, तो 1969 में इसी विषय पर, इसी पद्धति से हिंदी नाटककार जगदीशचंद्र माथुर ने पहला राजा नाटक लिखा। खास बात यह है कि दोनों नाटकों में नेहरूयुगीन द्वंद्व और चिंता केन्द्र में है। कारनाड ने इसे मुहम्मद बिन तुगलक के ऐतिहासिक चरित्र के रूपक में प्रस्तुत किया है, जबकि माथुर ने इसे महाभारत के राजधर्मानुशासन पर्व में वर्णित पृथु के मिथक व्यक्तित्व में रूपांतरित किया है। नाटकों के साम्य-वैषम्य पर विचार करने से पहले हमें नाटक पहला राजा से परिचित हो लेना चाहिए।
पहला राजा माथुर का अंतिम नाटक है। यह अपनी प्रयोगधर्मिता तथा युगीन समस्याओं के विन्यास के लिए प्रसिद्ध है। पहला राजा में नेहरूयुगीन लोकतंत्र की समस्याओं को लिया गया है, जो आज और अधिक जटिल हो गई हैं। बच्चनसिंह के अनुसार इस नाटक में ``जवाहरलाल नेहरू लक्षणावृत्ति से स्वतंत्र भारत के पहले राजा कहे जा सकते हैं। पृथु की अनेक विषेशताएं नेहरू से मिलती-जुलती हैं। अत: पृथु का कथानक नेहरूयुगीन समस्याओं को उठाने के लिए वस्तुनिष्ठ समीकरण बन जाता है। पहला राजा के केन्द्रीय पात्र पृथु की कथा महाभारत के राजधर्मानुशासन पर्व से ली गई है। इसके कथानक का ताना-बाना बुनने के लिए वेद, भागवत पुराण, हड़प्पा मोहन जोदड़ो की सभ्यता से अपेक्षित सूत्रों को भी लिया गया है। पृथु का मिथक, जिसमें पृथ्वी के दुहे जाने की कथा है, से सिद्ध होता है कि वह नियमों में बंधा हुआ प्रथम प्रजा वत्सल राजा था। इंद्रनाथ मदान के अनुसार इसके ``माध्यम से नेहरू युग की आधुनिकता का पहला दौर उजागर होने लगता है। योजनाओं का प्रारंभ, भारत, चीन-युद्ध, मंत्रियों के शडयंत्र, घाटे का बजट, पिछड़ी जातियों की समस्याएं, संविधान, पूंजीवाद, जनता का शोषण और अन्य नेहरू युगीन समस्याओं की अनुगूंजें नाटक में आरंभ से अंत तक मिलती है।´´ यह कहा गया है कि पृथु की कथा पर आधुनिकता का प्रक्षेपण इतना गहरा है कि पृथु अतीत का पृथु नहीं मालूम पड़ता। पहले ही कहा गया है कि पृथु-कथा माथुर के भीतर उमड़ती हुई समस्याओं के लिए वस्तुनिश्ठ समीकरण है। पृथु कुलूत देश से चलकर ब्रह्मावर्त पहुंचता है। उसके साथ अनार्य मित्र कवश भी है। ऋषियों-मुनियों ने बेन के शरीर मंथन का नाटक कर पृथु को भुजा पुत्र ठहराया और कवश को जंघापुत्र अथाZत एक को क्षत्रिय और दूसरे को शूद्र। पृथु के पूर्ववर्ती राजा का वध ऋिशयों ने ही किया था। इससे पता चलता है कि ब्राह्मण उस समय अत्यधिक ‘ाक्तिषाली थे। ऋषियों ने संविधान बनाया और पृथु उससे प्रतिबद्ध था। वह ऋिश-मुनियों के यज्ञ की रक्षा करता था। माथुर ऋिशयों की पवित्रता और सदाचार का मिथक तोड़ते हैं। नाटककार पृथु के महिमामंडित व्यक्तित्व की जगह पृथ्वी को समतल करने तथा उत्पादन बढ़ाने वाले व्यक्तित्व पर अधिक बल देता है। कृषि और सिंचाई व्यवस्था पर नेहरू ने भी जोर दिया था। आरंभ में नाटककार ने लिखा भी है-``लेकिन नाटक में पृथु कुछ और भी है। वह विभिन्न दुविधाओं को खिंचावों का बिंदु है। हिमालय का पुत्र, जो प्रकृति की निष्छल क्रोड़ में खो जाना चाहता है, आर्य युवक जो पुरुशार्थ और शौर्य का पुंज है, निशाद किन्नर एवं अन्य आर्येतर जातियों का बंधु, जो एक समीकृत संस्कृति का स्वप्न देखता है, दारिद्र्य का शत्रु और निर्माण का नियोजक, जिसे चकवर्ती और अवतार बनने के लिए मजबूर किया जाता है--- और संकेत नहीं दूंगा कि वह कौन है?´´ आशय स्पष्ट है कि नेहरू ने एक मिली-जुली संस्कृति के निर्माण का सपना देखा था, गरीबी दूर करने का संकल्प किया था, नदियों से नहरें निकाली थीं, बांध बनवाए थे। लेकिन पृथु का अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व भी है। उसकी महत्वाकांक्षा कवश और उर्वी को अलग कर देती है।
भिन्न भाषाओं में होने के बावजूद तुगलक और पहला राजा में कुछ समानताएं हैं, जो इस प्रकार हैं :
1. दोनों नाटक आजादी के बाद के नेहरूयुगीन मोहभंग के यथार्थ और द्वंद्व पर एकाग्र हैं।
2. दोनों नाटक अपने समय और समाज के यथार्थ से सीधे मुठभेड़ के बजाय रूपक का सहारा लेते हैं।
3. दोनों नाटक चरित्रप्रधान हैं। गिराष कारनाड के तुगलक में केन्द्रीय चरित्र मध्यकालीन चर्चित और विवादास्पद मुस्लिम शासक मुहम्मद बिना तुगलक है, जबकि पहला राजा में केन्द्रीय चरित्र महाभारत के राजधर्मानुशासन पर्व में वर्णित प्रथम प्रजावत्सल शासक पृथु को बनाया गया है।
4. दोनों नाटक प्रयोगधर्मी हैं- दोनों की रंग योजना यथार्थवादी की जगह प्रयोगधर्मी है। दोनों में मंच परिकल्पना, प्रकाश आदि संबंधी रंग निर्देष निर्देशकीय कल्पना और सूझबूझ पर आधारित हैं।
उक्त वर्णित समानताओं के बावजूद दोनों नाटकों में पर्याप्त अंतर है। इनकी असमानताएं निम्नानुसार है:
1. गिरीश कारनाड अपने नाटक में अपने समय और समाज के यथार्थ से मुठभेड़ के लिए इतिहास के रूपक का सहारा लेते हैं, जबकि पहला राजा में जगदीशचंद्र माथुर ने इसके लिए मिथक का प्रयोग किया है।
2. गिरीष कारनाड का केन्द्रीय चरित्र मुहम्मद बिन तुगलक एक ऐतिहासिक चरित्र है। कारनाड उसमें अपने समय और समाज का प्रक्षेपण तो करते हैं, लेकिन वे उसके व्यक्तित्व की ऐतिहासिकता से बहुत छेड़छाड़ नहीं करते। कारनाड ने इसके लिए पर्याप्त शोध की है। पहला राजा का पृथु मिथकीय चरित्र है, लेकिन उस पर प्रक्षेपण इतना सघन और व्यापक है कि वह पृथु नहीं रहता।
3. तुगलक भव्य और महान कथानक पर आधारित है। इसके अनुसार इसकी रंग योजना-मंच स्थापत्य, संगीत आदि भी भव्य रखे गए हैं। मिथकीय आधार के बावजूद पहला राजा में यह भव्यता और महानता नहीं है।
4. तुगलक को नेहरूयुगीन यथार्थ का रूपक कहा गया है। इसका विवेचन-विश्लेशण भी इसी तरह हुआ है, जबकि पहला राजा स्वयं जगदीषचंद्र माथुर के अनुसार रूपक नहीं, अन्योक्ति है।
5.तुगलक का केन्द्रीय चरित्र मुहम्मद बिन तुगलक एक विख्यात और चर्चित ऐतिहासिक चरित्र है। दर्शको-पाठकों को इसे समझने में कोई मुश्किल नहीं होती। इसके विपरित पृथु को समझने में दर्शक -पाठक असुविधा अनुभव करता है। यह एक अल्पज्ञात मिथकीय चरित्र है।
6. तुगलक एक सफल और लोकप्रिय नाटक है, जबकि पहला राजा को वैसी सफलता और लोकप्रियता नहीं मिली। तुगलक की सफलता का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि इसके कई भाषाओं में अनुवाद और मंचन हुए हैं। पहला राजा का दायरा अपेक्षाकृत छोटा, हिंदी तक सीमित है।
7. तुगलक के नाटककार गिरीश कारनाड को रंगकर्म और अभिनय का लंबा अनुभव है। यह अनुभव तुगलक की रंग योजना में झलकता है, जबकि पहला राजा की रंग योजना एक रंगकर्मी के बजाय नाटककार की रंग योजना है।
8. तुगलक की सबसे बड़ी और सम्मोहक खासियत उसकी भाशा है। मुस्लिम दरबारी अदब-कायदों की बारीकियों से सज्जित यह भाषा दर्शकों को बांधती है। इसके विपरित पहला राजा की भाषा संस्कृतनिष्ठ ठोस-ठस हिंदी है। इसमें प्रवाह नहीं है। इसको आत्मसात करने में मुश्किल होती है।
पहला राजा माथुर का अंतिम नाटक है। यह अपनी प्रयोगधर्मिता तथा युगीन समस्याओं के विन्यास के लिए प्रसिद्ध है। पहला राजा में नेहरूयुगीन लोकतंत्र की समस्याओं को लिया गया है, जो आज और अधिक जटिल हो गई हैं। बच्चनसिंह के अनुसार इस नाटक में ``जवाहरलाल नेहरू लक्षणावृत्ति से स्वतंत्र भारत के पहले राजा कहे जा सकते हैं। पृथु की अनेक विषेशताएं नेहरू से मिलती-जुलती हैं। अत: पृथु का कथानक नेहरूयुगीन समस्याओं को उठाने के लिए वस्तुनिष्ठ समीकरण बन जाता है। पहला राजा के केन्द्रीय पात्र पृथु की कथा महाभारत के राजधर्मानुशासन पर्व से ली गई है। इसके कथानक का ताना-बाना बुनने के लिए वेद, भागवत पुराण, हड़प्पा मोहन जोदड़ो की सभ्यता से अपेक्षित सूत्रों को भी लिया गया है। पृथु का मिथक, जिसमें पृथ्वी के दुहे जाने की कथा है, से सिद्ध होता है कि वह नियमों में बंधा हुआ प्रथम प्रजा वत्सल राजा था। इंद्रनाथ मदान के अनुसार इसके ``माध्यम से नेहरू युग की आधुनिकता का पहला दौर उजागर होने लगता है। योजनाओं का प्रारंभ, भारत, चीन-युद्ध, मंत्रियों के शडयंत्र, घाटे का बजट, पिछड़ी जातियों की समस्याएं, संविधान, पूंजीवाद, जनता का शोषण और अन्य नेहरू युगीन समस्याओं की अनुगूंजें नाटक में आरंभ से अंत तक मिलती है।´´ यह कहा गया है कि पृथु की कथा पर आधुनिकता का प्रक्षेपण इतना गहरा है कि पृथु अतीत का पृथु नहीं मालूम पड़ता। पहले ही कहा गया है कि पृथु-कथा माथुर के भीतर उमड़ती हुई समस्याओं के लिए वस्तुनिश्ठ समीकरण है। पृथु कुलूत देश से चलकर ब्रह्मावर्त पहुंचता है। उसके साथ अनार्य मित्र कवश भी है। ऋषियों-मुनियों ने बेन के शरीर मंथन का नाटक कर पृथु को भुजा पुत्र ठहराया और कवश को जंघापुत्र अथाZत एक को क्षत्रिय और दूसरे को शूद्र। पृथु के पूर्ववर्ती राजा का वध ऋिशयों ने ही किया था। इससे पता चलता है कि ब्राह्मण उस समय अत्यधिक ‘ाक्तिषाली थे। ऋषियों ने संविधान बनाया और पृथु उससे प्रतिबद्ध था। वह ऋिश-मुनियों के यज्ञ की रक्षा करता था। माथुर ऋिशयों की पवित्रता और सदाचार का मिथक तोड़ते हैं। नाटककार पृथु के महिमामंडित व्यक्तित्व की जगह पृथ्वी को समतल करने तथा उत्पादन बढ़ाने वाले व्यक्तित्व पर अधिक बल देता है। कृषि और सिंचाई व्यवस्था पर नेहरू ने भी जोर दिया था। आरंभ में नाटककार ने लिखा भी है-``लेकिन नाटक में पृथु कुछ और भी है। वह विभिन्न दुविधाओं को खिंचावों का बिंदु है। हिमालय का पुत्र, जो प्रकृति की निष्छल क्रोड़ में खो जाना चाहता है, आर्य युवक जो पुरुशार्थ और शौर्य का पुंज है, निशाद किन्नर एवं अन्य आर्येतर जातियों का बंधु, जो एक समीकृत संस्कृति का स्वप्न देखता है, दारिद्र्य का शत्रु और निर्माण का नियोजक, जिसे चकवर्ती और अवतार बनने के लिए मजबूर किया जाता है--- और संकेत नहीं दूंगा कि वह कौन है?´´ आशय स्पष्ट है कि नेहरू ने एक मिली-जुली संस्कृति के निर्माण का सपना देखा था, गरीबी दूर करने का संकल्प किया था, नदियों से नहरें निकाली थीं, बांध बनवाए थे। लेकिन पृथु का अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व भी है। उसकी महत्वाकांक्षा कवश और उर्वी को अलग कर देती है।
भिन्न भाषाओं में होने के बावजूद तुगलक और पहला राजा में कुछ समानताएं हैं, जो इस प्रकार हैं :
1. दोनों नाटक आजादी के बाद के नेहरूयुगीन मोहभंग के यथार्थ और द्वंद्व पर एकाग्र हैं।
2. दोनों नाटक अपने समय और समाज के यथार्थ से सीधे मुठभेड़ के बजाय रूपक का सहारा लेते हैं।
3. दोनों नाटक चरित्रप्रधान हैं। गिराष कारनाड के तुगलक में केन्द्रीय चरित्र मध्यकालीन चर्चित और विवादास्पद मुस्लिम शासक मुहम्मद बिना तुगलक है, जबकि पहला राजा में केन्द्रीय चरित्र महाभारत के राजधर्मानुशासन पर्व में वर्णित प्रथम प्रजावत्सल शासक पृथु को बनाया गया है।
4. दोनों नाटक प्रयोगधर्मी हैं- दोनों की रंग योजना यथार्थवादी की जगह प्रयोगधर्मी है। दोनों में मंच परिकल्पना, प्रकाश आदि संबंधी रंग निर्देष निर्देशकीय कल्पना और सूझबूझ पर आधारित हैं।
उक्त वर्णित समानताओं के बावजूद दोनों नाटकों में पर्याप्त अंतर है। इनकी असमानताएं निम्नानुसार है:
1. गिरीश कारनाड अपने नाटक में अपने समय और समाज के यथार्थ से मुठभेड़ के लिए इतिहास के रूपक का सहारा लेते हैं, जबकि पहला राजा में जगदीशचंद्र माथुर ने इसके लिए मिथक का प्रयोग किया है।
2. गिरीष कारनाड का केन्द्रीय चरित्र मुहम्मद बिन तुगलक एक ऐतिहासिक चरित्र है। कारनाड उसमें अपने समय और समाज का प्रक्षेपण तो करते हैं, लेकिन वे उसके व्यक्तित्व की ऐतिहासिकता से बहुत छेड़छाड़ नहीं करते। कारनाड ने इसके लिए पर्याप्त शोध की है। पहला राजा का पृथु मिथकीय चरित्र है, लेकिन उस पर प्रक्षेपण इतना सघन और व्यापक है कि वह पृथु नहीं रहता।
3. तुगलक भव्य और महान कथानक पर आधारित है। इसके अनुसार इसकी रंग योजना-मंच स्थापत्य, संगीत आदि भी भव्य रखे गए हैं। मिथकीय आधार के बावजूद पहला राजा में यह भव्यता और महानता नहीं है।
4. तुगलक को नेहरूयुगीन यथार्थ का रूपक कहा गया है। इसका विवेचन-विश्लेशण भी इसी तरह हुआ है, जबकि पहला राजा स्वयं जगदीषचंद्र माथुर के अनुसार रूपक नहीं, अन्योक्ति है।
5.तुगलक का केन्द्रीय चरित्र मुहम्मद बिन तुगलक एक विख्यात और चर्चित ऐतिहासिक चरित्र है। दर्शको-पाठकों को इसे समझने में कोई मुश्किल नहीं होती। इसके विपरित पृथु को समझने में दर्शक -पाठक असुविधा अनुभव करता है। यह एक अल्पज्ञात मिथकीय चरित्र है।
6. तुगलक एक सफल और लोकप्रिय नाटक है, जबकि पहला राजा को वैसी सफलता और लोकप्रियता नहीं मिली। तुगलक की सफलता का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि इसके कई भाषाओं में अनुवाद और मंचन हुए हैं। पहला राजा का दायरा अपेक्षाकृत छोटा, हिंदी तक सीमित है।
7. तुगलक के नाटककार गिरीश कारनाड को रंगकर्म और अभिनय का लंबा अनुभव है। यह अनुभव तुगलक की रंग योजना में झलकता है, जबकि पहला राजा की रंग योजना एक रंगकर्मी के बजाय नाटककार की रंग योजना है।
8. तुगलक की सबसे बड़ी और सम्मोहक खासियत उसकी भाशा है। मुस्लिम दरबारी अदब-कायदों की बारीकियों से सज्जित यह भाषा दर्शकों को बांधती है। इसके विपरित पहला राजा की भाषा संस्कृतनिष्ठ ठोस-ठस हिंदी है। इसमें प्रवाह नहीं है। इसको आत्मसात करने में मुश्किल होती है।
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