Saturday 9 August, 2008

आधुनिक भारतीय नाटकों में इतिहास-मिथक

तुगलक आजादी के बाद के सपनों के पराभव और मोहभंग का रूपक है। इसमें अपने समय और समाज के द्वंद्व और चिंता को इतिहास में विन्यस्त किया गया है। इतिहास और मिथ के रूपक में अपने समय, समाज और व्यक्ति के द्वंद्व और चिंता को व्यक्त करने वाली नाट्य रचनाएं आधुनिक भारतीय भाषाओं कई हुई हैं। धर्मवीर भारती ने अपने गीति नाट्य अंधा युग (1954 ई.) में मिथक के माध्यम से अपने समय चिंताओं का उजागर किया है। इसमें महाभारत के अंतिम अठारहवें दिन की घटना की पुनर्रचना है। इसके माध्यम से युद्धोत्रर निराशा और पराजय से पैदा हुए माहौल में मानव मूल्यों के ध्वंस को रेखांकित किया गया है। इस नाटक में मिथक महत्वपूर्ण नहीं है- इसमें महत्वपूर्ण हमारे समय और समाज का युग बोध है। मोहन राकेश का नाटक आषाढ़ का एक दिन (1954 ई.) भी इतिहास-मिथक मूलक नाट्य कृति है। इसमें मोहन राकेश ने संस्कृत कवि और नाटककार के कालिदास के जीवन को आधार बनाया है। इस नाटक में राज्याश्रय और रचनाकर्म के आधुनिक संबंध की जटिलता को उजागर किया गया है। यह कालिदास के चरित्र पर एकाग्र नाटक है, लेकिन यहां कालिदास प्रतीक है। स्वयं लेखक के शब्दों में ``आषाढ़ का एक दिन में कालिदास का जैसा भी चित्र है, वह उसकी रचनाओं में समाहित उसके व्यक्तित्व से बहुत हटकर नहीं है। हां, आधुनिक प्रतीक के निर्वाह की दृष्टि से उसमें थोड़ा परिवर्तन अवश्य किया गया है। यह इसलिए कि कालिदास मेरे लिए एक व्यक्ति नहीं, हमारी सृजनात्मक शक्तियों का प्रतीक है। नाटक में यह प्रतीक अंतर्द्वद्व को संकेतिक करने के लिए है, जो किसी भी काल में सृजनशील प्रतिभा आंदोलित करता है। मोहन राकेश का दूसरा नाटक लहरों का राजहंस भी इतिहास पर आधारित है। भगवान बुद्ध के छोटे भाई नंद के जीवन से संबंधित इस नाटक को उन्होंने अष्वघोष के काव्य सौंदरनंद के आधार पर गढ़ा है। इस नाटक में जीवन के प्रति राग-विराग के शाश्वत द्वंद्व को इतिहास के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। मोहन राकेश के अपने स्वयं के शब्दों में ``यहां नंद और सुंदरी की कथा एक आश्रय मात्र है, क्योंकि मुझे लगा कि इसे समय में प्रक्षेपित किया जा सकता है। नाटक का मूल द्वंद्व उस अर्थ में यहां भी आधुनिक है जिस अर्थ में आषाढ़ का एक दिन।´´ जगदीशचंद माथुर का कोणार्क (1951 ई.) यों तो प्रसाद परंपरा का नाटक हैं, लेकिन यह उससे हट कर भी है। इसमें केवल भारतीय अतीत की भव्य और शौर्यमूलक प्रस्तुति नहीं है, जो प्रसाद नाटकों की मुख्य विषेशता है। जगदीशचंद माथुर इस नाटक में कोणार्क निर्माता उत्कल नरेश नरसिंह देव और उनके समय की घटनाओं के माध्यम से सामान्य जनता के अधिकारों की बात उठाते हैं। आजादी के बाद नयी पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी में, जो अवधारणात्मक अलगाव आ गया है, उसकी कुछ अनुगूंज भी इस नाटक में सुनाई पड़ती है। सुरेंद्र वर्मा का नाटक आठवां सर्ग (1976 ई.) भी इसी तरह का है। इसमें कालिदास के महाकाव्य कुमार संभव के उद्दाम शृगार युक्त आठवें सर्ग को आधार बनाया गया है। नाटककार इस रचना में इतिहास-मिथक के बहाने श्लीलता-अश्लीलता और सेंसरशिप और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे सार्वभौमिक सवालों से रूबरू होता है। नंदकिशोर आचार्य के एकाधिक नाटकों में इतिहास-मिथक का प्रयोग हुआ है। देहांतर (1987) उनका इस लिहाज से चर्चित नाटक है। इसमें प्रयुक्त मिथ का उपयोग गिरीष कारनाड ने भी अपने ययाति नामक नाटक में किया है। नंदकिशोर आचार्य ययाति, शर्मिष्ठा और पुरु जैसे पात्रों के माध्यम से इस नाटक में हमारे समय के मनुष्य की जटिल मानसिकता और कुंठा पर रोशनी डालते हैं। गुलाम बादशाह (1992 ई.) नंदकिशोर आचार्य का इतिहास केंद्रित नाटक है। इस नाटक में भी तुगलक की ही तरह दिल्ली सल्तनत के समय और समाज को आधार बनाया गया है। यह मुस्लिम शासक बलवन के आखिरी दिनों की घटनाओं पर आधारित है। यह नाटक विख्यात रंगकर्मी फैजल अल्काजी के शब्दों में ``जितना बलबन के अंतर्द्वद्व और उसके आखिरी दिनों का नाटक है, उतना ही आज के राजनीतिक परिदृश्य का भी। राजनीति पर कुछ परिवारों की कुंडली लपेट, चुनिंदा गुट, शासक और शासित के बीच गहरा अंतराल, भूला दिए गए पूर्व नायक और राजनीति की जरूरत बन चुके गंदे हाथ, ये सब अतीत के ही नहीं, आज की राजनीति के भी केंद्रीय प्रकरण हैं।´´

1 comment:

vipinkizindagi said...

rajniti ke sath .........

achcha lekh...