Tuesday 9 December, 2008

हिंदी में गद्य विधाओं का विकास

प्लासी की निर्णायक विजय के बाद अंग्रेजों की रीति-नीति में बदलाव हुए। उन्होंने यहां रेल, भाप के जहाज और तार की आधुनिक संचार-व्यवस्था का विस्तार किया। उन्होंने यहां के धार्मिक-सामाजिक मामलात में अब तक चली आ रही अहस्तक्षेप की नीति को छोड़कर ईसाई धर्म प्रचारकों को कार्य करने की छूट और सुविधाएं दी। उन्होंने शिक्षा के भी अंग्रेजीकरण का निर्णय लिया-इसके लिए संस्थाएं कायम कीं और उनमें साहित्य, इतिहास और विज्ञान के अध्ययन-अध्यापन के प्रबंध किए। यह सब उन्होंने अपने शासन की दृढ़ता और प्रभुत्व के विस्तार के लिए किया। उनका अनुमान यह था कि आधुनिक संचार-व्यवस्था उनके शासन और सैनिकों की दूरस्थ क्षेत्रों में पहुंच को सुगम बनाएगी और उससे यहां की अकूत भौतिक संपदा का दोहन भी आसान होगा। ईसाई मिशनरियों के धर्म प्रचार से उन्हें लगता था कि यहां का जनसाधारण साम्राज्य और शासन के प्रति वफादार और सेवाभावी बनेगा। अंग्रेजी षिक्षा तो उनके लिए अपने प्रभुत्व और वर्चस्व के विस्तार का सबसे अहम् हथियार थी। उनको विष्वास था कि इस षिक्षा से यहां एक ऐसा वर्ग पैदा हो जाएगा, जो रक्त और रंग में भारतीय लेकिन बुद्धि, रुचि और नैतिकता की दृष्टि से पूरी तरह अंग्रेज होगा। ओ. मैले के अनुसार उपनिवेशवादियों को आशा थी कि इस शिक्षा से उत्पन्न ज्ञान, जनता को ब्रिटिश शासन का सम्मान करना सिखलाएगा और उनमें एक हद तक शासन के प्रति अपनत्व की भावना पैदा करेगा। लेकिन हुआ इससे भिन्न। उनका उद्देष्य था विनाष किन्तु हुआ पुनरुज्जीवन। ब्रिटिश शिक्षा के विस्तार से यहां जो नया पढ़ा-लिखा तबका तैयार हुआ, वह आधुनिक यूरोपीय विचारधाराओं, युक्तियुक्तता, उदारतावाद, स्वतंत्रता और जनवाद, मानवतावाद और समानता के संपर्क में आया। इन नए विचारों की रोशनी में उसने अपनी परंपरा, समय और समाज को नए सिरे से समझने-पहचानने की शुरुआत की और इस तरह समाज-सुधार और पुनरुत्थान के आंदोलन जोर पकड़ने लगे।

आधुनिक संचार-व्यवस्था, जो अंग्रेजों ने अपने प्रभुत्व और विस्तार के लिए कायम की थी, इन विचारों को देश भर में फैलाने में मददगार सिद्ध हुई। महादेव गोविंद रानाडे, विवेकानंद, दयानंद सरस्वती, सर सैयद अहमद खान नवजागरण के अग्रदूत बने। इस नवजागरण से राष्ट्रीय चेतना के विस्तार में भी मदद मिली। आगे चलकर धीरे-धीरे उपनिवेषवाद के विरुद्ध संघशZ के लिए जैसे-जैसे राजनीतिक चेतना उग्र और व्यापक होने लगी समाज-सुधार और पुनरुत्थान के स्वर मंद पड़ते गए। इस व्यापक नवाचार की उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं सदी के आरंभ के हिंदी में साहित्य के स्वरूप निर्धारण में निर्णायक भूमिका थी। यह उसकी नींव में पत्थरों की तरह इस्तेमाल हुआ। बीसवीं सदी में बहुत आगे जाकर भी हिंदी साहित्य में इसकी स्मृति और संस्कार बने रहे।

उन्नीसवीं सदी में जब नवजागरण आंदोलन चल रहे थे और आधुनिक आचार-विचार का विस्तार हो रहा था, तो इनकी प्रेरणा और प्रभाव से उत्तर भारत में खड़ी बोली हिंदी को आधुनिक गद्य की भाशा में बदलने की निर्णायक कोषिषें भी चल रही थीं। खड़ी बोली हिंदी को गद्य-भाशा में ढालने-संवारने का काम इस दौरान अंग्रेजों द्वारा भारतीयों की षिक्षा के लिए स्थापित फोर्ट विलियम कॉलेज में हिन्दुस्तानी के अध्यक्ष जॉन गिलक्राइस्ट की देखरेख में लल्लूलाल और सदल मिश्र ने किया। कुछ ऐसी कोशिशें कॉलेज से बाहर के लोगों-सैयद ईशा अल्ला खां और ईसाई धर्म प्रचारकों ने भी की। दयानंद सरस्वती ने भी सत्यार्थ प्रकाश हिंदी में लिखकर इस काम को आगे बढ़ाया। राजा शिवप्रसाद और राजा लक्ष्मणसिंह का भी हिंदी के आरंभिक गद्य का स्वरूप तय करने में महत्वपूर्ण योगदान है। इन्होंने शुरुआत में पाठ्योपयोगी किताबें लिखीं और कुछ अनुवाद किए।

ये तमाम कोषिषें साहिित्यक नहीं थीं- इनका उद्देष्य हिंदी में पठन-पाठन के लिए जरूरी आधार सामग्री सुलभ करवाने या धर्म-प्रचार तक सीमित था। इनसे हिंदी गद्य का रूप कुछ तय हुआ और पठन-पाठन और पत्रकारिता में इसका उपयोग भी होने लगा। नतीजा यह हुआ कि दुविधा और संकोच में उबरकर हिंदी में साहित्य को संभव करने का आत्मविष्वास आ गया। हिंदी में साहित्यकर्म की शुरुआत थोड़ी झिझक के साथ भारतेन्दु हरिष्चन्द्र ने की। अब तक साहित्य की भाशा ब्रज थी इसलिए इसे छोड़कर खड़ी बोली हिंदी में साहित्यकर्म के लिए प्रवृत्त होने में भारतेन्द्र हरिष्चन्द्र को थोड़ी असुविधा हुई। उन्होंने ब्रज में पूर्ववत कविकर्म जारी रखते हुए खड़ी बोली हिंदी साहित्य कर्म शुरू किया।

भारतेन्दु के समकालीन अन्य लोगों में, जिन्होंने ब्रज के साथ खड़ी बोली में साहित्यकर्म की शुरुआत की, बदरीनारायण चौधरी, ठाकुर जगमोहन सिंह, बालकृष्ण भट्ट, अंबिकादत्त व्यास और लाला श्रीनिवासदास प्रमुख हैं। कुल मिलाकर वस्तुस्थिति यह थी कि बीसवीं सदी की शुरूआत में जब हिंदी के विकास और संस्कार परिश्कार के काम की बागडोर महावीर प्रसाद द्विवेदी ने संभाली, तो हिंदी अपने पांवों पर खड़ी हो चुकी थी और इसमें साहित्य की सभी आधुनिक गद्य विधाओं में लिखने की शुरूआत हो चुकी थी। 1903 में द्विवेदी जी सरस्वती के संपादक बने और इस पद पर रहकर उन्होंने हिंदी के साहित्यकारों और उदीयमान पाठकों के एक उदीयमान प्रांतीय समूह को साफ-सुथरी शिष्ट अभिव्यक्ति कला का प्रषिक्षण दिया। उन्होंने सरस्वती के माध्यम से हिंदी में गद्य का स्वीकृत और मानक रूप गढ़ा। गद्य का स्वरूप तय हो जाने के बाद इसमें लेखन की सक्रियता बढ़ी। कहानी, उपन्यास, नाटक, आलोचना आदि के साथ जीवनी संस्मरण और यात्रा वृत्तांत जैसी कथेतर गद्य विधाओं में लेखन शुरू हुआ।

Saturday 8 November, 2008

विविध सरोकारों वाली पैनी व्यंग्य रचनाएं


हिंदी में साहित्यिक सक्रियता इस कदर कथा-कविता एकाग्र रही है कि उसमें कथेतर गद्य विधाओं की कोई खास पहचान नहीं बन पाई। हरिशंकर परसाई, शरद जोशी आदि कुछ रचनाकारों ने अपनी असाधारण प्रतिभा से बीच में व्यंग्य को एक मुक्कमिल साहित्यिक अनुशासन की पहचान दिलवाई, लेकिन यह सिलसिला आगे नहीं बढ़ पाया। लोकप्रिय पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर मौजूदगी के बावजूद व्यंग्य को आज भी कथा-कविता की तुलना में इसलिए कमतर आंका जाता है, क्योंकि इसके पुस्तकाकार प्रकाशन अपेक्षाकृत कम हैं। इस दिशा में महत्वपूर्ण पहल संपादक द्वय दुर्गाप्रसाद अग्रवाल और यश गोयल ने जमाने का दर्द नामक सद्य प्रकाशित संकलन के माध्यम से की है, जिसमें हमारे समय के महत्वपूर्ण छत्तीस व्यंग्यकारों की रचनाएं शामिल हैं।

हमारे जीवन के हर मोड़-पड़ाव पर मौजूद राजनीति सहित, नौकरशाही, उपभोक्तावाद, अपसंस्कृति, धर्म-अध्यात्म, भ्रष्टाचार, आडंबर आदि कई विषय इन रचनाओं में सरोकार के रूप में मौजूद हैं। राजनीति फिलहाल हमारे जीवन की धुरि है, इसलिए यहां शामिल रचनाओं में से सर्वाधिक इसी पर एकाग्र हैं। अतुल कनक, ईशमधु तलवार, फारूक आफरीदी, भगवतीलाल व्यास, मनोज वार्ष्णॆय़ॅ, रमेश खत्री आदि की रचनाएं हमारे समय की राजनीतिक विसंगतियों से बुनी गई हैं। अंग्रेजों से विरासत में मिले हमारे प्रशासनिक ढांचे की गड़बड़ों पर भी इन व्यंग्यकारों की निगाह गई है। अजय अनुरागी, अशोक राही, चंद्रकुमार वरठे, बुलाकी शर्मा, राजेशकुमार व्यास, सुरेन्द्र दुबे और हरदर्शन सहगल की यहां शामिल व्यंग्य हमारे प्रशासन तंत्र की विसंगतियों और अंतर्विरोधों को उभार कर सामने लाते हैं। गत दो-तीन दशकों में भारतीय मध्यवर्ग की धर्म और अध्यात्म में एकाएक दिलचस्पी बहुत बढ़ गई है। धर्म से जुड़े आडंबर और पाखंड पर भी इस संकलन में एकाधिक रचनाएं हैं। अनुराग वाजपेयी, यशवंत व्यास, यश गोयल और हेमेन्द्र चंडालिया के व्यंग्य इसी तरह के हैं। हमारे दैनंदिन सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में फिलहाल भूचाल जैसी स्थिति है। भ्रष्टाचार, अपसंस्कृति, दोहरा आचरण, उपभोक्तावाद जैसी कई बीमारियों ने इसे जकड़ रखा है। आदर्श शर्मा, दुर्गाप्रसाद अग्रवाल, पूरन सरमा, देवेन्द्र इन्द्रेश, भगवान अटलानी, मदन केवलिया, रामविलास जांगिड, लक्ष्मीनारायण नंदवाना, शरद उपाध्याय, शरद केवलिया, देव कोठारी, मनोहर प्रभाकर, संजय कौशिक, बलवीरसिंह भटनागर, प्रभाशंकर उपाध्याय, यशवंत कोठारी और संपत सरल की यहां शामिल रचनाओं में हमारे विसंगतिपूर्ण सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन के कई रंग मौजूद हैं।

यहां संकलित रचनाओं की खास बात यह है कि इनमें हमारे समय और समाज की धड़कन साफ सुनाई पड़ती है। खास हमारे समय और समाज की विसंगतियों और अंतर्विरोध इनमें उभरकर सामने आते हैं। इन रचनाओं में सरोकारों का वैविध्य है, लेकिन खास बात यह है कि अपने आसपास और दैनंदिन जीवन से इनका रिश्ता बहुत गहरा और अटूट है।

व्यंग्य की धार और पैनापन कमोबेश इन सभी रचनाओं में हैं, लेकिन कहीं रचनाकर इनमें सतह पर साफ दिखाई पड़ने वाली विसंगतियों और अंतर्विरोधों पर ठहर गया है, जबकि कहीं वह इनके लिए सतह के नीचे गहरे में उतरा है। यहां संकलित कुछ रचनाएं सतह पर नहीं दिखाई देने वाली हमारे सांस्कृतिक-सामाजिक जीवन की विसंगतियों को उभारने वाली बहुत अर्थपूर्ण रचनाएं हैं, जिनका निहातार्थ पाठक मन में धीरे-धीरे खुलता है और गहरा असर करता है।

यशवंत व्यास की भगवान बड़ा दयालु है, अनुराग वाजपेयी की फिर नया अवतार, ईशमधु तलवार की वे बाघ हो गए, फारूक आफरीदी की बापू, यहां कुशल मंगल है संजय झाला की अपुन का गांधी कॉलेज और बुलाकी शर्मा की प्रकाशक का सुखी सफरनामा आदि रचनाओं में गहराई है। इन व्यंग्यों में रचनाकार कम, रचना ज्यादा है। भगवान बड़ा दयालु है और अपुन का गांधी कॉलेज जैसी व्यंग्य रचनाओं में निहितार्थ भाषा के खेल से उभरता है और इनसे कविता जैसा स्वाद आता है। इन रचनाओं की मम्मा ने परंपरागत अम्मा होने की चिंता को शाम के क्लब प्रोग्राम के पेपरवेट तले तबाया और बिटिया चली गई, फिर जब संस्कृति का चांद उनकी सदाशयता की चलनी से दिखाई देता है तो पतिव्रता होने का आनंद कितने गुना हो जाता होगा?, आदमी साला जड़स्थितप्रज्ञ हो गया है, न सुखेन सुखी, न दुखेन दु:खी जैसी पंक्तियां बहुत अर्थपूर्ण और सांकेतिक हैं।
अतिरंजना भी व्यंग्य का हथियार है। यहां शामिल कुछ रचनाओं में इसका बखूबी इस्तेमाल हुआ है। मनोहर प्रभाकर की घर-घर चैन चुरैया और आदर्श शर्मा की बाई! जीवन में पहले क्यूं न आई में यह साफ देखा जा सकता है। पुस्तक का प्रकान साफ-सुथरा और सुरुचिपूर्ण है।
विवेच्य पुस्तक
जमाने का दर्द (श्रेष्ठ हास्य-व्यंग्य संकलन) : विवेक पब्लिशिंग हाउस, धामाणी मार्केट, चौड़ा रास्ता, जयपुर, प्रथम संस्करण : 2008, मूल्य: 175 रुपए, पृष्ठ संख्या: 130

Sunday 14 September, 2008

गिरीश कारनाड के नाटक का तुगलक का मूल्यांकन

बहुमुखी प्रतिभा के धनी गिरीश कारनाड आधुनिक भारतीय नाटक और रंग जगत की महत्वपूर्ण शख्सियत है। नाटक उनका पहला प्रेम है, लेकिन फिल्मों में लेखन, अभिनय और निर्देशन में भी उन्होंने कीर्तिमान कायम किए हैं। उनके कन्नड नाटकों के कई आधुनिक भारतीय भाषाओं में अनुवाद और मंचन हुए हैं। कन्नड रंग जगत में गिरीश कारनाड ने ऐतिहासिक और मिथकीय कथावस्तु वाले नाटक लिखकर अपनी अलग पहचान बनाई। उनके पहले नाटक ययाति की विषय वस्तु और रंग योजना इतनी नवीन थी कि कन्नड सहित दूसरी भारतीय भाषाओं इसको तत्काल ख्याति मिल गई। तुगलक ख्याति के मामले और भी आगे निकला। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में इब्राहिम अलकाजी के निर्देशन में हुए इसके मंचन से कारनाड आधुनिक रंगकर्मियों की पहली पंक्ति में आ गए। यह नाटक आदर्शवादी, स्पप्नदृश्टा और बुध्दिजीवी, लेकिन पागल के रूप में विख्यात भारतीय इतिहास के मुस्लिम शासक मुहम्मद बिन तुगलक पर एकाग्र है।

कारनाड ने तुगलक के समय और समाज के रूपक में दरअसल आजादी के बाद के दो-तीन दशकों के यथार्थ और द्वंद्व को प्रस्तुत किया है। तुगलक की चरित्र योजना में इतिहास और कल्पना, दोनों का योग है। इसका मुख्य और केन्द्रीय चरित्र अपने ऐतिहासिक चरित्र से काफी मिलता-जुलता है। वह आदसर्शवादी, स्वप्नदृष्टा, बुध्दिवादी और वैज्ञानिक सोच वाला है, लेकिन अपारंपरिक कार्यों के कारण उसे तत्कालीन समाज के किसी भी तबके का सहयोग नहीं मिलता। तुगलक के अन्य चरित्र भी अपने तबकों के प्रतिनिधि पात्र हैं, लेकिन वे रक्त-मांस वाले जीवंत चरित्र है। तुगलक में रंग आयाम अंतनिर्हित है और इसकी खासियत यह है कि इसमें लेखक ने मंच परिकल्पना दृष्यबंध, संगीत आदि को निर्देशकीय कल्पना और सूझबूझ पर छोड़ दिया है। इसके मंचन में तत्कालीन समय और समाज की झलक मिलनी चाहिए। विख्यात रंगकर्मी इब्राहिम अलकाजी ने तत्कालीन उपलब्ध स्रोतों और वास्तु विषेशज्ञों की मदद से तैयार सांकेतिक और वस्तुपरक दृंष्यबंधों के आधार पर इसका मंचन किया है। तुगलक की भाषा और संवाद, अभिजातवर्गीय हैं। तुगलक के बुध्दिजीवी और कल्पनाषील व्यक्तित्व के अनुरूप इस नाटक की भाषा प्रांजल और गंभीर है। यह पात्रों की सामाजिक हैसियत के अनुसार बदलती है, लेकिन निम्न स्तर पर नहीं जाती। अपने समय और समाज के यथार्थ से पलायन और टाइप चरित्र सृष्टि के आरोपों के बावजूद तुगलक आधुनिक भारतीय नाट्य साहित्य की उल्लेखनीय और महत्वपूर्ण रचना है।

तुगलक भारतीय नाट्य और रंग जगत की सर्वाधिक चर्चित कृतियों में से एक है। इसके कई आधुनिक भारतीय भाषाओं में अनुवाद और मंचन हुए हैं। इसके प्रकाशन और मंचन से रंगकर्मी के रूप में गिरीशकारनाड को अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है। साहित्यालोचकों और रंगकर्मियों में तुगलक को लेकर पर्याप्त वाद विवाद हुआ है। कारनाड के आलोचकों का कहना है कि वे अपने अन्य नाटकों की तरह तुगलक में भी अपने समय और समाज के यथार्थ और द्वंद्व को व्यक्त करने के लिए तुगलक के रूपक का सहारा लेते हैं, जिससे यथार्थ विकृत रूप में सामने आता है। इसके विपरीत कारनाड के समर्थकों का कहना है कि इस नाटक में अतीत के दूरस्थ यथार्थ को माध्यम बनाकर कारनाड अधिक निश्पक्ष और निर्भीक ढंग से अपने समय के यथार्थ को समझते-समझाते हैं। विख्यात कन्नड साहित्यकार यू.आर. अनंतमूर्ति के अनुसार ´´कारनाड नाटक के कवि हैं। समसामयिक समस्याओं से निबटने के लिए इतिहास और मिथ का उपयोग उन्हें अपने समय पर टिप्पणी की मनोवैज्ञानिक दूरी प्रदान करता है। तुगलक बहुत सफल हुआ, क्योंकि यह एक यथार्थवादी नाटक नहीं था।``

तुगलक पर एक आरोप यह भी है कि उसके चरित्र रक्त-मांस के जीवंत और यथार्थ चरित्र नहीं हैं, ये अपने समय और समाज के वगीय प्रतिनिधि मात्र हैं। कारनाड के प्रशंसकों ने इस आरोप का भी खंडन किया है। उनके अनुसार तुगलक के चरित्र केवल टाइप चरित्र नहीं है, वे सजीव और खास प्रकार के व्यक्तित्व लिए हुए हैं। तुगलक के हिंदी अनुवाद के राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में मंचन का निर्देशन करने वाले विख्यात रंगकर्मी इब्राहिम अलकाजी के शब्दों में ´´कारनाड की सूझबूझ कमी नहीं डगमगाती, उनके सभी चरित्र मांसमज्जा और प्राणों की उमंग से भरे-पूरे चरित्र हैं और प्रत्येक पात्र विशिष्ट बोली में बात करता है।``

यह सही है कि तुगलक अपने समय और समाज के यथार्थ में सीधे हस्तक्षेप नहीं करता और उसके चरित्र भी कुछ हद अपने समाज के वर्गीय प्रतिनिधि हैं, लेकिन इससे एक रंग नाटक के रूप में तुगलक का महत्व कम नहीं होता। यथार्थवादी रंगमंच की सीमाएं हमारे सामने हैं और यह दर्शकों को उस तरह से प्रभावित करने में सक्षम नहीं है, जिस तरह मिथकीय और ऐतिहासिक रचनाएं करती हैं। कारनाड भव्य और महान चरित्र और घटना वाले इस नाटक के माध्यम से दर्शकों के मन में अपने समय और समाज के यथार्थ को चरितार्थ करने में सफल रहे हैं। यह कृति इस तरह रंगमंच और नाट्य लेखन को यथार्थवादी शैली से मुक्त करने की पहल करती है। इस नाटक के बाद न केवल कन्नड में, बल्कि अन्य आधुनिक भारतीय भाषाओं में कई महत्वपूर्ण मिथकीय और ऐतिहासिक रचनाएं सामने आई हैं।

Friday 29 August, 2008

भारतीय परिप्रेक्ष्य में आधुनिक कन्नड़ साहित्य

कन्नड़ साहित्य भारतीय साहित्य का अभिन्न अंग है। इसका विकास क्षेत्रीय जरूरतों के तहत अलग ढंग से हुआ है, लेकिन संपूर्ण आधुनिक भारतीय साहित्य से बहुत अलग नहीं है। इसके सरोकार, चिंताएं और आग्रह कमोबेश वही हैं, जो दूसरी भारतीय भाषाओं के साहित्य के हैं। कन्नड़ का प्राचीन साहित्य अपने पृथक् वैशिष्ट्य के बावजूद अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य की तरह संस्कृत से प्रभावित है। कन्नड़ में आधुनिक साहित्य की शुरुआत औपनिवेषिक शासन के दौरान हुई। संचार के साधनों के विकास और उसमें भी खास तौर पर छापाखाने के आगमन और अनुवादों में बढ़ोतरी के कारण भिन्न भाषाओं के साहित्यों के बीच आदान-प्रदान और संवाद बढ़ा। अंग्रेजी संपर्क के कारण भारतीय भाषाओं के साहित्य के आधुनिकीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई। इस सबसे कन्नड़ में अिस्मता की चेतना आई और यह सबसे पहले शब्द कोष और व्याकरण ग्रंथों की रचना में व्यक्त हुई। इसी दौरान कन्नड़ में संस्कृत और अंग्रेजी ग्रंथों के अनुवाद भी हुए। कन्नड़ की आरंभिक आधुनिक साहित्यकारों में मुदन्ना, पुटन्ना और गुलवादी वेंकट राव प्रमुख हैं। मंगेष राय ने कन्नड़ में पहली कहानी लिखी और लिखी, जबकि वेंकटराव ने इंदिरा नामक पहला सामाजिक उपन्यास लिखा। 1890 में कर्नाटक विद्यावर्द्धक संघ और 1915 में कन्नड़ साहित्य परिषद की स्थापनाएं हुईं, जिससे कन्नड़ में आधुनिक साहित्यिक चेतना का प्रसार हुआ।

हिंदी सहित सभी आधुनिक भारतीय भाशाओं के साहित्य में पुनरुत्थान, समाज सुधार, वैज्ञानिक चेतना और ज्ञानोदय के रूप में जो नवजागरण शुरू हुआ, उसने कन्नड़ में नवोदय के रूप लिया। मास्ति वेंकटेष आय्यंगर ने इस दौरान कथा साहित्य में, जबकि डी.आर. बेंद्रे ने कविता में नवजीवन का संचार किया। ये दोनों साहित्यकार कन्नड़ साहित्य में आधुनिक चेतना का प्रसार करने वाले सिद्ध हुए। मास्ति वेंकटेश की रचनाओं में पुनरुत्थान की चेतना सघन रूप व्यक्त हुई, तो बेंद्र की कविता में राश्ट्रीयता, परंपरानुराग, रहस्य, वैयिक्कता आदि नवोदय के सभी लक्षण प्रकट हुए। इनके अलावा नवोदय युग के साहित्यकारों में बी.एम. श्रीकांतैय्या और के. वी. पुट्टपा भी खास तौर पर उल्लेखनीय हैं। दरअसल नवोदय आंदोलन की शुरुआत ही श्रीकांतैय्या के अनुवादों से हुई। इसके बाद नवोदय आंदोलन में शिवराम कारंथ, यू.आर. अनंतमूर्ति, लंकेश, भैरप्पा जैसे कई अग्रणी साहित्यकार जुड़ गए। गिरीश कारनाड और खंबार जैसे नाटककारों ने अपने निरंतर नवाचार और प्रयोगधर्मिता से इस आंदोलन को आगे बढ़ाया। शिवराम कारंथ नवोदय आंदोलन के सर्वाधिक प्रभावी रचनाकार थे। उन्होंने कन्नड़ संस्कृति और साहित्य को दूर तक प्रभावित किया। कारंथ ने यथार्थवादी लेखन की कन्नड़ में जो परंपरा डाली, वो अभी तक जारी है। उनके लेखन से कन्नड़ के कई साहित्यकार प्रभावित हुए। कन्नड़ के विख्यात कथाकार यू.आर. अनंतमूर्ति ने एक जगह लिखा है कि ``इसी समय मैंने अपने महान् उपन्यासकारों में एक कारंथ का चोमना डुडी पढ़ा। यह अपनी जमीन को वापस चाहने वाले अछूत की त्रासद दास्तान है। अब तब मैं जिन रूमानी कहानियों का दीवाना था, वे मुझे बकवास लगने लगीं। मैंने जाना कि अगर अपने आसपास दिखने वाले यथार्थ को इतनी सुंदर कहानी में ढाला जा सकता है, तो फिर मुझे सिर्फ उन चीजों को बारीकी से देखने-परखने की जरूरत है। मेरे अग्रज, जो कारंथ की क्रांतिकारी विचारधारा से नफरत करते थे, वे भी उनकी लेखकीय कला की तारीफ किए बिना नहीं रह पाते थे और उनके बारे में मुग्ध मन से बातें करते थे।´´

गत सदी के चौथे दशक में आधुनिक भारतीय भाषाओं के साहित्य पर मार्क्र्सवाद का गहरा प्रभाव हुआ। कन्नड़ साहित्य में भी प्रगतिवादी लेखन की नयी धारा शुरू हुई। इस धारा का नेतृत्व कन्नड़ में ए.एन. कृश्णराव ने किया। इसमें शामिल अन्य साहित्यकारों में टी.आर. सुब्बाराव, कटि्टमणि, निरंजन आदि प्रमुख हैं। प्रगतिवादी आंदोलन से ही आगे चलकर कन्नड़ में दो धाराएं-बंद्या और दलित साहित्य विकसित हुईं। दलित साहित्य में वंचित-दमित जातियों के कन्नड़भाशी साहित्यकारों ने हिस्सेदारी की। इस धारा के साहित्यकारों पर मराठी का विशेष प्रभाव था, क्योंकि मराठी में दलित साहित्य की समृद्ध परंपरा पहले से थी। यू.आर. अनंतमूर्ति और उनके वामपंथी तेवर वाले साहित्यकारों ने बंद्या साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन लेखकों ने राजनीतिक समझ के साथ अपने समय और समाज के यथार्थ को चित्रित किया। अनंतमूर्ति के घटश्राद्ध, संस्कार और भारतीपुर जैस उपन्यासों ने यथार्थ के कई नए आयाम उद्घाटित किए। आगे चलकर चंद्रषेखर पाटिल ने बंद्या और सिद्धलिंगैया ने दलित साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया। स्पष्ट है कि आधुनिक कन्नड़ साहित्य के सरोकार, चेतना, वस्तु आदि भी कमाबेश वहीं हैं, जो सभी आधुनिक भाषाओं के हैं। यह अवश्य़ है कि कन्नड़ की अपनी परंपरा और क्षेत्रीय जरूरतों के अनुसार इनका विकास अलग तरह से हुआ है।

Friday 15 August, 2008

गिरीश कारनाड के नाटक तुगलक का वैशिष्ट्य

आजादी के बाद के सपनों के पराभव और मोहभंग की कन्नड़ में रचित नाट्यकृति तुगलक का आधुनिक भारतीय नाटक साहित्य में खास महत्व है। यह कृति उस समय लिखी गई जब आधुनिक भारतीय नाटक साहित्य में ऐतिहासिक-सांस्कृतिक विषयों पर पुनरुत्थान मूलक नाटक लेखन का जोर था। हिंदी में जयशंकर प्रसाद, सेठ गोविंददास, हरिकृष्ण प्रेमी आदि नाटककार इतिहास और मिथों का नाट्य रूपांतरण कर रहे थे। उनका उद्देश्य भारतीय अतीत की भव्य और महान छवि गढ़ने का था। गिरीश कारनाड ने ऐसे समय में इतिहास में अपने समय और समाज के द्वंद्व और चिंता को विन्यस्त किया। यह बाद में हिंदी सहित कई आधुनिक भारतीय भाशाओं में भी लोकप्रिय हुई।

तुगलक में इतिहास या मिथक के रूपक में अपने समय और समाज की विन्यस्त करने का गिरीश कारनाड की पद्धति भी इस तरह के और आधुनिक भारतीय नाटकों की तुलना में खास तरह की है। इस नाटक की खास बात यह है कि इसमें हमारा समय और समाज है, लेकिन यह इतिहास को कहीं भी विकृत नहीं करता। पहला राजा भी इसी तरह का नाटक है, लेकिन उसमें आरोपण इतना वर्चस्वकारी है कि मिथक विकृत हो जाता है। गिरीश कारनाड इतिहास पर अपने समय और समाज के द्वंद्व और चिंता का आरोपण इतने सूक्ष्म ढंग से करते हैं कि इससे मुहम्मद बिन तुगलक का ऐतिहासिक चरित्र और समय, दोनों ही अप्रभावित रहते हैं। कल्पना का पुट इस नाटक में है, लेकिन यह इतिहास के ज्ञात तथ्यों पर भारी नहीं पड़ती।

अपनी रंग योजना के लिहाज से भी तुगलक एक विशिष्ट रचना है। अपनी अन्य समकालीन आधुनिक भारतीय नाट्य रचनाओं से अलग इसमें मंच, संगीत, प्रकाश आदि को निर्देशकीय सूझबूझ और कल्पना पर छोड़ा गया है। इस नाटक में रंग निर्देश बहुत कम हैं। निर्देशक को पूरी छूट दी गई है कि वह इस नाटक का मंचन प्रयोगधर्मी ढंग से कर सके। इब्राहिम अलकाजी ने अपनी कल्पना और सूझबूझ से राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के मुक्ताकाशी मंच पर इसका मंचन किया था। उन्होंने इसमें यथार्थवादी और प्रयोगवादी, दोनों प्रकार की शैलियां प्रयुक्त कीं। उन्होंने इसके लिए मुगलकालीन स्थापत्य विशेषज्ञों और ग्रंथों का भी सहयोग लिया।

आधुनिक भारतीय नाटकों में तुगलक इस अर्थ में भी खास है कि इसमें भव्य और महान कथानक है। इस महानता और भव्यता को सम्मूर्त करने के लिए नाटककार ने सभी कोशिशं की हैं। उसने मंच स्थापत्य इस तरह का रखा है कि यह भव्यता उससे व्यक्त होती है। नाटककार ने कथानक की भव्यता और महानता बरकरार रखने के लिए खास प्रकार की अभिजात उर्दू का प्रयोग किया है। इस नाटक की भाषा में मुगल दरबारों की रवायतों और अदब-कायदों का इस्तेमाल हुआ है। नाटककार और इसके निर्देशक ने इस संबंध में पर्याप्त शोध कार्य किया है।

निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि आधुनिक भारतीय नाटक साहित्य में अपनी कतिपय खास विशेषताओं के कारण तुगलक का अलग और महत्वपूर्ण स्थान है।

Saturday 9 August, 2008

आधुनिक भारतीय नाटकों में इतिहास-मिथक

तुगलक आजादी के बाद के सपनों के पराभव और मोहभंग का रूपक है। इसमें अपने समय और समाज के द्वंद्व और चिंता को इतिहास में विन्यस्त किया गया है। इतिहास और मिथ के रूपक में अपने समय, समाज और व्यक्ति के द्वंद्व और चिंता को व्यक्त करने वाली नाट्य रचनाएं आधुनिक भारतीय भाषाओं कई हुई हैं। धर्मवीर भारती ने अपने गीति नाट्य अंधा युग (1954 ई.) में मिथक के माध्यम से अपने समय चिंताओं का उजागर किया है। इसमें महाभारत के अंतिम अठारहवें दिन की घटना की पुनर्रचना है। इसके माध्यम से युद्धोत्रर निराशा और पराजय से पैदा हुए माहौल में मानव मूल्यों के ध्वंस को रेखांकित किया गया है। इस नाटक में मिथक महत्वपूर्ण नहीं है- इसमें महत्वपूर्ण हमारे समय और समाज का युग बोध है। मोहन राकेश का नाटक आषाढ़ का एक दिन (1954 ई.) भी इतिहास-मिथक मूलक नाट्य कृति है। इसमें मोहन राकेश ने संस्कृत कवि और नाटककार के कालिदास के जीवन को आधार बनाया है। इस नाटक में राज्याश्रय और रचनाकर्म के आधुनिक संबंध की जटिलता को उजागर किया गया है। यह कालिदास के चरित्र पर एकाग्र नाटक है, लेकिन यहां कालिदास प्रतीक है। स्वयं लेखक के शब्दों में ``आषाढ़ का एक दिन में कालिदास का जैसा भी चित्र है, वह उसकी रचनाओं में समाहित उसके व्यक्तित्व से बहुत हटकर नहीं है। हां, आधुनिक प्रतीक के निर्वाह की दृष्टि से उसमें थोड़ा परिवर्तन अवश्य किया गया है। यह इसलिए कि कालिदास मेरे लिए एक व्यक्ति नहीं, हमारी सृजनात्मक शक्तियों का प्रतीक है। नाटक में यह प्रतीक अंतर्द्वद्व को संकेतिक करने के लिए है, जो किसी भी काल में सृजनशील प्रतिभा आंदोलित करता है। मोहन राकेश का दूसरा नाटक लहरों का राजहंस भी इतिहास पर आधारित है। भगवान बुद्ध के छोटे भाई नंद के जीवन से संबंधित इस नाटक को उन्होंने अष्वघोष के काव्य सौंदरनंद के आधार पर गढ़ा है। इस नाटक में जीवन के प्रति राग-विराग के शाश्वत द्वंद्व को इतिहास के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। मोहन राकेश के अपने स्वयं के शब्दों में ``यहां नंद और सुंदरी की कथा एक आश्रय मात्र है, क्योंकि मुझे लगा कि इसे समय में प्रक्षेपित किया जा सकता है। नाटक का मूल द्वंद्व उस अर्थ में यहां भी आधुनिक है जिस अर्थ में आषाढ़ का एक दिन।´´ जगदीशचंद माथुर का कोणार्क (1951 ई.) यों तो प्रसाद परंपरा का नाटक हैं, लेकिन यह उससे हट कर भी है। इसमें केवल भारतीय अतीत की भव्य और शौर्यमूलक प्रस्तुति नहीं है, जो प्रसाद नाटकों की मुख्य विषेशता है। जगदीशचंद माथुर इस नाटक में कोणार्क निर्माता उत्कल नरेश नरसिंह देव और उनके समय की घटनाओं के माध्यम से सामान्य जनता के अधिकारों की बात उठाते हैं। आजादी के बाद नयी पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी में, जो अवधारणात्मक अलगाव आ गया है, उसकी कुछ अनुगूंज भी इस नाटक में सुनाई पड़ती है। सुरेंद्र वर्मा का नाटक आठवां सर्ग (1976 ई.) भी इसी तरह का है। इसमें कालिदास के महाकाव्य कुमार संभव के उद्दाम शृगार युक्त आठवें सर्ग को आधार बनाया गया है। नाटककार इस रचना में इतिहास-मिथक के बहाने श्लीलता-अश्लीलता और सेंसरशिप और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे सार्वभौमिक सवालों से रूबरू होता है। नंदकिशोर आचार्य के एकाधिक नाटकों में इतिहास-मिथक का प्रयोग हुआ है। देहांतर (1987) उनका इस लिहाज से चर्चित नाटक है। इसमें प्रयुक्त मिथ का उपयोग गिरीष कारनाड ने भी अपने ययाति नामक नाटक में किया है। नंदकिशोर आचार्य ययाति, शर्मिष्ठा और पुरु जैसे पात्रों के माध्यम से इस नाटक में हमारे समय के मनुष्य की जटिल मानसिकता और कुंठा पर रोशनी डालते हैं। गुलाम बादशाह (1992 ई.) नंदकिशोर आचार्य का इतिहास केंद्रित नाटक है। इस नाटक में भी तुगलक की ही तरह दिल्ली सल्तनत के समय और समाज को आधार बनाया गया है। यह मुस्लिम शासक बलवन के आखिरी दिनों की घटनाओं पर आधारित है। यह नाटक विख्यात रंगकर्मी फैजल अल्काजी के शब्दों में ``जितना बलबन के अंतर्द्वद्व और उसके आखिरी दिनों का नाटक है, उतना ही आज के राजनीतिक परिदृश्य का भी। राजनीति पर कुछ परिवारों की कुंडली लपेट, चुनिंदा गुट, शासक और शासित के बीच गहरा अंतराल, भूला दिए गए पूर्व नायक और राजनीति की जरूरत बन चुके गंदे हाथ, ये सब अतीत के ही नहीं, आज की राजनीति के भी केंद्रीय प्रकरण हैं।´´

Sunday 3 August, 2008

तुगलक का हिंदी नाटक पहला राजा से साम्य-वैषम्य

भाषायी भिन्नता के बावजूद आधुनिक भारतीय साहित्यकारों की चिंताए, सरोकार और द्वंद्व कमोबेश एक जैसे हैं। नेहरूयुगीन मोहभंग के यथार्थ को 1964 में तुगलक में कन्नड़ रंगकर्मी और नाटककार गिरीश कारनाड ने मध्यकालीन मुस्लिम शासक मुहम्मद बिन तुगलक के रूपक प्रस्तुत किया, तो 1969 में इसी विषय पर, इसी पद्धति से हिंदी नाटककार जगदीशचंद्र माथुर ने पहला राजा नाटक लिखा। खास बात यह है कि दोनों नाटकों में नेहरूयुगीन द्वंद्व और चिंता केन्द्र में है। कारनाड ने इसे मुहम्मद बिन तुगलक के ऐतिहासिक चरित्र के रूपक में प्रस्तुत किया है, जबकि माथुर ने इसे महाभारत के राजधर्मानुशासन पर्व में वर्णित पृथु के मिथक व्यक्तित्व में रूपांतरित किया है। नाटकों के साम्य-वैषम्य पर विचार करने से पहले हमें नाटक पहला राजा से परिचित हो लेना चाहिए।

पहला राजा माथुर का अंतिम नाटक है। यह अपनी प्रयोगधर्मिता तथा युगीन समस्याओं के विन्यास के लिए प्रसिद्ध है। पहला राजा में नेहरूयुगीन लोकतंत्र की समस्याओं को लिया गया है, जो आज और अधिक जटिल हो गई हैं। बच्चनसिंह के अनुसार इस नाटक में ``जवाहरलाल नेहरू लक्षणावृत्ति से स्वतंत्र भारत के पहले राजा कहे जा सकते हैं। पृथु की अनेक विषेशताएं नेहरू से मिलती-जुलती हैं। अत: पृथु का कथानक नेहरूयुगीन समस्याओं को उठाने के लिए वस्तुनिष्ठ समीकरण बन जाता है। पहला राजा के केन्द्रीय पात्र पृथु की कथा महाभारत के राजधर्मानुशासन पर्व से ली गई है। इसके कथानक का ताना-बाना बुनने के लिए वेद, भागवत पुराण, हड़प्पा मोहन जोदड़ो की सभ्यता से अपेक्षित सूत्रों को भी लिया गया है। पृथु का मिथक, जिसमें पृथ्वी के दुहे जाने की कथा है, से सिद्ध होता है कि वह नियमों में बंधा हुआ प्रथम प्रजा वत्सल राजा था। इंद्रनाथ मदान के अनुसार इसके ``माध्यम से नेहरू युग की आधुनिकता का पहला दौर उजागर होने लगता है। योजनाओं का प्रारंभ, भारत, चीन-युद्ध, मंत्रियों के शडयंत्र, घाटे का बजट, पिछड़ी जातियों की समस्याएं, संविधान, पूंजीवाद, जनता का शोषण और अन्य नेहरू युगीन समस्याओं की अनुगूंजें नाटक में आरंभ से अंत तक मिलती है।´´ यह कहा गया है कि पृथु की कथा पर आधुनिकता का प्रक्षेपण इतना गहरा है कि पृथु अतीत का पृथु नहीं मालूम पड़ता। पहले ही कहा गया है कि पृथु-कथा माथुर के भीतर उमड़ती हुई समस्याओं के लिए वस्तुनिश्ठ समीकरण है। पृथु कुलूत देश से चलकर ब्रह्मावर्त पहुंचता है। उसके साथ अनार्य मित्र कवश भी है। ऋषियों-मुनियों ने बेन के शरीर मंथन का नाटक कर पृथु को भुजा पुत्र ठहराया और कवश को जंघापुत्र अथाZत एक को क्षत्रिय और दूसरे को शूद्र। पृथु के पूर्ववर्ती राजा का वध ऋिशयों ने ही किया था। इससे पता चलता है कि ब्राह्मण उस समय अत्यधिक ‘ाक्तिषाली थे। ऋषियों ने संविधान बनाया और पृथु उससे प्रतिबद्ध था। वह ऋिश-मुनियों के यज्ञ की रक्षा करता था। माथुर ऋिशयों की पवित्रता और सदाचार का मिथक तोड़ते हैं। नाटककार पृथु के महिमामंडित व्यक्तित्व की जगह पृथ्वी को समतल करने तथा उत्पादन बढ़ाने वाले व्यक्तित्व पर अधिक बल देता है। कृषि और सिंचाई व्यवस्था पर नेहरू ने भी जोर दिया था। आरंभ में नाटककार ने लिखा भी है-``लेकिन नाटक में पृथु कुछ और भी है। वह विभिन्न दुविधाओं को खिंचावों का बिंदु है। हिमालय का पुत्र, जो प्रकृति की निष्छल क्रोड़ में खो जाना चाहता है, आर्य युवक जो पुरुशार्थ और शौर्य का पुंज है, निशाद किन्नर एवं अन्य आर्येतर जातियों का बंधु, जो एक समीकृत संस्कृति का स्वप्न देखता है, दारिद्र्य का शत्रु और निर्माण का नियोजक, जिसे चकवर्ती और अवतार बनने के लिए मजबूर किया जाता है--- और संकेत नहीं दूंगा कि वह कौन है?´´ आशय स्पष्ट है कि नेहरू ने एक मिली-जुली संस्कृति के निर्माण का सपना देखा था, गरीबी दूर करने का संकल्प किया था, नदियों से नहरें निकाली थीं, बांध बनवाए थे। लेकिन पृथु का अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व भी है। उसकी महत्वाकांक्षा कवश और उर्वी को अलग कर देती है।

भिन्न भाषाओं में होने के बावजूद तुगलक और पहला राजा में कुछ समानताएं हैं, जो इस प्रकार हैं :
1. दोनों नाटक आजादी के बाद के नेहरूयुगीन मोहभंग के यथार्थ और द्वंद्व पर एकाग्र हैं।
2. दोनों नाटक अपने समय और समाज के यथार्थ से सीधे मुठभेड़ के बजाय रूपक का सहारा लेते हैं।
3. दोनों नाटक चरित्रप्रधान हैं। गिराष कारनाड के तुगलक में केन्द्रीय चरित्र मध्यकालीन चर्चित और विवादास्पद मुस्लिम शासक मुहम्मद बिना तुगलक है, जबकि पहला राजा में केन्द्रीय चरित्र महाभारत के राजधर्मानुशासन पर्व में वर्णित प्रथम प्रजावत्सल शासक पृथु को बनाया गया है।
4. दोनों नाटक प्रयोगधर्मी हैं- दोनों की रंग योजना यथार्थवादी की जगह प्रयोगधर्मी है। दोनों में मंच परिकल्पना, प्रकाश आदि संबंधी रंग निर्देष निर्देशकीय कल्पना और सूझबूझ पर आधारित हैं।

उक्त वर्णित समानताओं के बावजूद दोनों नाटकों में पर्याप्त अंतर है। इनकी असमानताएं निम्नानुसार है:
1. गिरीश कारनाड अपने नाटक में अपने समय और समाज के यथार्थ से मुठभेड़ के लिए इतिहास के रूपक का सहारा लेते हैं, जबकि पहला राजा में जगदीशचंद्र माथुर ने इसके लिए मिथक का प्रयोग किया है।
2. गिरीष कारनाड का केन्द्रीय चरित्र मुहम्मद बिन तुगलक एक ऐतिहासिक चरित्र है। कारनाड उसमें अपने समय और समाज का प्रक्षेपण तो करते हैं, लेकिन वे उसके व्यक्तित्व की ऐतिहासिकता से बहुत छेड़छाड़ नहीं करते। कारनाड ने इसके लिए पर्याप्त शोध की है। पहला राजा का पृथु मिथकीय चरित्र है, लेकिन उस पर प्रक्षेपण इतना सघन और व्यापक है कि वह पृथु नहीं रहता।
3. तुगलक भव्य और महान कथानक पर आधारित है। इसके अनुसार इसकी रंग योजना-मंच स्थापत्य, संगीत आदि भी भव्य रखे गए हैं। मिथकीय आधार के बावजूद पहला राजा में यह भव्यता और महानता नहीं है।
4. तुगलक को नेहरूयुगीन यथार्थ का रूपक कहा गया है। इसका विवेचन-विश्लेशण भी इसी तरह हुआ है, जबकि पहला राजा स्वयं जगदीषचंद्र माथुर के अनुसार रूपक नहीं, अन्योक्ति है।
5.तुगलक का केन्द्रीय चरित्र मुहम्मद बिन तुगलक एक विख्यात और चर्चित ऐतिहासिक चरित्र है। दर्शको-पाठकों को इसे समझने में कोई मुश्किल नहीं होती। इसके विपरित पृथु को समझने में दर्शक -पाठक असुविधा अनुभव करता है। यह एक अल्पज्ञात मिथकीय चरित्र है।
6. तुगलक एक सफल और लोकप्रिय नाटक है, जबकि पहला राजा को वैसी सफलता और लोकप्रियता नहीं मिली। तुगलक की सफलता का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि इसके कई भाषाओं में अनुवाद और मंचन हुए हैं। पहला राजा का दायरा अपेक्षाकृत छोटा, हिंदी तक सीमित है।
7. तुगलक के नाटककार गिरीश कारनाड को रंगकर्म और अभिनय का लंबा अनुभव है। यह अनुभव तुगलक की रंग योजना में झलकता है, जबकि पहला राजा की रंग योजना एक रंगकर्मी के बजाय नाटककार की रंग योजना है।
8. तुगलक की सबसे बड़ी और सम्मोहक खासियत उसकी भाशा है। मुस्लिम दरबारी अदब-कायदों की बारीकियों से सज्जित यह भाषा दर्शकों को बांधती है। इसके विपरित पहला राजा की भाषा संस्कृतनिष्ठ ठोस-ठस हिंदी है। इसमें प्रवाह नहीं है। इसको आत्मसात करने में मुश्किल होती है।

Monday 28 July, 2008

भारतीय परिप्रेक्ष्य में आधुनिक कन्नड़ साहित्य

कन्नड़ साहित्य भारतीय साहित्य का अभिन्न अंग है। इसका विकास क्षेत्रीय जरूरतों के तहत अलग ढंग से हुआ है, लेकिन संपूर्ण आधुनिक भारतीय साहित्य से बहुत अलग नहीं है। इसके सरोकार, चिंताएं और आग्रह कमोबेश वही हैं, जो दूसरी भारतीय भाषाओं के साहित्य के हैं। कन्नड़ का प्राचीन साहित्य अपने पृथक् वैशिष्ट्य के बावजूद अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य की तरह संस्कृत से प्रभावित है। कन्नड़ में आधुनिक साहित्य की शुरुआत औपनिवेषिक शासन के दौरान हुई। संचार के साधनों के विकास और उसमें भी खास तौर पर छापाखाने के आगमन और अनुवादों में बढ़ोतरी के कारण भिन्न भाषाओं के साहित्यों के बीच आदान-प्रदान और संवाद बढ़ा। अंग्रेजी संपर्क के कारण भारतीय भाषाओं के साहित्य के आधुनिकीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई। इस सबसे कन्नड़ में अस्मिता की चेतना आई और यह सबसे पहले शब्द कोश और व्याकरण ग्रंथों की रचना में व्यक्त हुई। इसी दौरान कन्नड़ में संस्कृत और अंग्रेजी ग्रंथों के अनुवाद भी हुए। कन्नड़ की आरंभिक आधुनिक साहित्यकारों में मुदन्ना, पुटन्ना और गुलवादी वेंकट राव प्रमुख हैं। मंगेश राय ने कन्नड़ में पहली कहानी लिखी और लिखी, जबकि वेंकटराव ने इंदिरा नामक पहला सामाजिक उपन्यास लिखा। 1890 में कर्नाटक विद्यावर्द्धक संघ और 1915 में कन्नड़ साहित्य परिषद की स्थापनाएं हुईं, जिससे कन्नड़ में आधुनिक साहित्यिक चेतना का प्रसार हुआ।

हिंदी सहित सभी आधुनिक भारतीय भाषाओं के साहित्य में पुनरुत्थान, समाज सुधार, वैज्ञानिक चेतना और ज्ञानोदय के रूप में जो नवजागरण शुरू हुआ, उसने कन्नड़ में नवोदय के रूप लिया। मास्ति वेंकटेश आय्यंगर ने इस दौरान कथा साहित्य में, जबकि डी.आर. बेंद्रे ने कविता में नवजीवन का संचार किया। ये दोनों साहित्यकार कन्नड़ साहित्य में आधुनिक चेतना का प्रसार करने वाले सिद्ध हुए। मास्ति वेंकटेश की रचनाओं में पुनरुत्थान की चेतना सघन रूप व्यक्त हुई, तो बेंद्र की कविता में राश्ट्रीयता, परंपरानुराग, रहस्य, वैयिक्कता आदि नवोदय के सभी लक्षण प्रकट हुए। इनके अलावा नवोदय युग के साहित्यकारों में बी.म. श्रीकांतैय्या और के.वी. पुट्टपा भी खास तौर पर उल्लेखनीय हैं। दरअसल नवोदय आंदोलन की शुरुआत ही श्रीकांतैय्या के अनुवादों से हुई। इसके बाद नवोदय आंदोलन में शिवराम कारंथ, यू.आर. अनंतमूर्ति, लंकेश, भैरप्पा जैसे कई अग्रणी साहित्यकार जुड़ गए। गिरीश कारनाड और खंबार जैसे नाटककारों ने अपने निरंतर नवाचार और प्रयोगधर्मिता से इस आंदोलन को आगे बढ़ाया। शिवराम कारंथ नवोदय आंदोलन के सर्वाधिक प्रभावी रचनाकार थे। उन्होंने कन्नड़ संस्कृति और साहित्य को दूर तक प्रभावित किया। कारंथ ने यथार्थवादी लेखन की कन्नड़ में जो परंपरा डाली, वो अभी तक जारी है। उनके लेखन से कन्नड़ के कई साहित्यकार प्रभावित हुए। कन्नड़ के विख्यात कथाकार यू.आर. अनंतमूर्ति ने एक जगह लिखा है कि ``इसी समय मैंने अपने महान् उपन्यासकारों में एक कारंथ का चोमना डुडी पढ़ा। यह अपनी जमीन को वापस चाहने वाले अछूत की त्रासद दास्तान है। अब तब मैं जिन रूमानी कहानियों का दीवाना था, वे मुझे बकवास लगने लगीं। मैंने जाना कि अगर अपने आसपास दिखने वाले यथार्थ को इतनी सुंदर कहानी में ढाला जा सकता है, तो फिर मुझे सिर्फ उन चीजों को बारीकी से देखने-परखने की जरूरत है। मेरे अग्रज, जो कारंथ की क्रांतिकारी विचारधारा से नफरत करते थे, वे भी उनकी लेखकीय कला की तारीफ किए बिना नहीं रह पाते थे और उनके बारे में मुग्ध मन से बातें करते थे।´´

गत सदी के चौथे दशक में आधुनिक भारतीय भाशाओं के साहित्य पर मार्क्र्सवाद का गहरा प्रभाव हुआ। कन्नड़ साहित्य में भी प्रगतिवादी लेखन की नयी धारा शुरू हुई। इस धारा का नेतृत्व कन्नड़ में ए.एन. कृश्णराव ने किया। इसमें शामिल अन्य साहित्यकारों में टी.आर. सुब्बाराव, कटि्टमणि, निरंजन आदि प्रमुख हैं। प्रगतिवादी आंदोलन से ही आगे चलकर कन्नड़ में दो धाराएं-बंद्या और दलित साहित्य विकसित हुईं। दलित साहित्य में वंचित-दमित जातियों के कन्नड़भाषी साहित्यकारों ने हिस्सेदारी की। इस धारा के साहित्यकारों पर मराठी का विशेष प्रभाव था, क्योंकि मराठी में दलित साहित्य की समृद्ध परंपरा पहले से थी। यूण्आरण् अनंतमूर्ति और उनके वामपंथी तेवर वाले साहित्यकारों ने बंद्या साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन लेखकों ने राजनीतिक समझ के साथ अपने समय और समाज के यथार्थ को चित्रित किया। अनंतमूर्ति के घटश्राद्ध, संस्कार और भारतीपुर जैस उपन्यासों ने यथार्थ के कई नए आयाम उद्घाटित किए। आगे चलकर चंद्रशेखर पाटिल ने बंद्या और सिद्धलिंगैया ने दलित साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया। स्पष्ट है कि आधुनिक कन्नड़ साहित्य के सरोकार, चेतना, वस्तु आदि भी कमाबेश वहीं हैं, जो सभी आधुनिक भाषाओं के हैं। यह अवश्य है कि कन्नड़ की अपनी परंपरा और क्षेत्रीय जरूरतों के अनुसार इनका विकास अलग तरह से हुआ है।

Monday 21 July, 2008

भारतीय साहित्य की पहचान

भारतीय साहित्य की कोई एकरूप पहचान गढ़ने से पहले इसके वैविध्य को समझ लेना बहुत जरूरी है। सदियों से यहां विभिन्न धर्मों-संप्रदायों, संस्कृतियों और भाषाओं के लोग परस्पर सहभाव के साथ रहते आए हैं। इस सहभाव से जो अंतर्क्रिया और संवाद हुए हैं उससे इस वैविध्य में एकता के कुछ अंतर्सूत्र भी बने हैं। सदियों पुरानी यहां की अलग-अलग भाषाओं के साहित्य अलग-अलग तरह से विकसित हुए, लेकिन परस्पर संवाद और अंतर्क्रिया के कारण उनमें भारतीयता का तत्व सब जगह मौजूद है। आरंभिक काल में संस्कृत के कारण यह एकता बनी रही, तो आधनिक काल में संचार साधनों के विकास और अनुवादों की लोकप्रियता ने इसको बढ़ावा दिया है। डॉ.सर्वपल्ली राधाकृश्णन ने 1954 में कहा था कि भारतीय साहित्य एक है, यद्यपि यह बहुत-सी भाषाओं में लिखा जाता है। सुनीतिकुमार चटर्जी ने अपनी पुस्तक लैंगवेजस एंड लिटरेचर्स ऑफ इंडिया में भारतीय साहित्य के वैविध्य और एकता को अच्छी तरह से समझा है। उनके अनुसार भारतीय साहित्य एकवचन नहीं, बल्कि बहुवचन है। दरअसल अलग-अलग भारतीय भाशाओं में अपनी तरह से अलग-अलग ढंग से विकसित साहित्य ही भारतीय साहित्य है। इसकी समवेत पहचान में अलग-अलग भाषाओं की अपनी पहचानें सुरक्षित हैं।

आरंभिक भारतीय साहित्य संस्कृत, पाली, प्राकृत, तमिल और कन्नड़ में मिलता है। इन भाशाओं के लेखकों ने अपनी-अपनी विशिष्ट सामाजिक-ऐतिहासिक पृश्ठभूमि में रचना कर्म किया। फिर भी, जहां तक विचार और सरोकारों की आवृत्ति का प्रष्न है, तो सबके संदर्भ सूत्र लगभग समान हैं। यह माना जाता है कि वेदों की रचना स्वयं ईष्वर ने की है और इनका मानव आख्याता ईष्वरीय संदेश को संप्रेिशत करने का निमित्त मात्र था। ऋग्वेद इस प्रकार का प्रथम ज्ञात ग्रंथ है, जिसमें ईष वंदना के मंत्र संकलित हैं, जो विभिन्न देवताओं को संबोधित है। ऋग्वेद में और उसके बाद के यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद में मनुश्य के वे प्रारंभिक प्रयास दिखाई देते हैं, जो उसने विराट विष्व में अपनी स्थिति को समझने और किसी अज्ञात के साथ संवाद स्थापित करने की संभावना रचने के लिए किए। ब्राह्मण गंथ 11 हैं, जिनमें वैदिक मंत्रों की व्याख्या है। इनमें केवल धार्मिक चिंतन ही नहीं है, बल्कि दार्शनिक, व्याकरणिक, व्युत्पत्ति विषयक तथा छंद विषयक ज्ञान भी समाहित है। आरण्यक ग्रंथ तीन हैं जिनमें कार्मकांडों या अनुश्ठानों का वर्णन है। ये ग्रंथ वेदों में निहित ज्ञान के अन्वेशण के संक्रमण काल का प्रतिनिधित्व करते हैं। उपनिशद भी महत्वपूर्ण हैं। उपनिशद शब्द का अर्थ है `आदेष प्राप्ति के लिए श्रद्धा के साथ अपने गुरु के निकट बैठना।´ मुख्य उपनिशद 13 हैं और इनकी विशयवस्तु मुख्यत: आध्याित्मक है, जो जीवन, मृत्यु, अमरत्व, सुख, सत्य, ईष्वर और जीवन का उद्गम जैसे चिरंतन प्रष्नों का उत्तर पाने की मनुश्य की लालसा को प्रदर्षित करती हैं। श्रुति ग्रंथ वे हैं, जिनका वाचन और श्रवण किया जाता है यानि जिन्हें बोला और सुना जाता है। स्मृति ग्रंथ स्मरण के लिए हैं। स्मृति पाठों को इस अर्थ में प्राचीन परंपरा से भिन्न माना जाता है कि इनका श्रेय मानवीय सृजन को दिया गया है। इनकी विशय-वस्तु विविध और व्यापक है ये तथा षिक्षा, छंद, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिश, अनुश्ठान तथा कल्प जैसे विशयों पर केिन्द्रत है। स्मृति साहित्य का पाठ छह वेदांगों में निहित है। ये वेदांग वेदों के तुल्य ही माने गए हैं और इनमें रामायण, महाभारत जैसे महाकाव्य तथा पुराण ‘ाामिल हैं। सर्वाधिक लोकप्रिय पुराण भागवत पुराण है, जो कृश्ण की जीवन गाथा पर केिन्द्रत है। उत्तर वैदिक युग की संस्कृत कविता अपनी प्रकृति में नैतिक, शृंगार और संन्यास विशयक है। इन कविताओं की रचना राजाओं के संरक्षण में हुई। आचार्य भरत का नाट्यषास्त्र नाट्य कलाओं पर लिखा गया सैद्धांतिक ग्रंथ है। उस समय लिखे गए अधिकतर नाटकों का कथ्य भावुकतापूर्ण प्रेम या नाटकीय शौर्य था। इनका नायक देवता के समान होता था और ये नाटक विष्व में ‘ाांति और समृिद्ध की कामना के साथ प्रारंभ और समाप्त होते थे। नाटकों के स्रोत मुख्य रूप से वेद, पुराण और इतिहास होेते थे तथा पात्रों का चयन समाज के विभिन्न वर्गों में से किया जाता था। भास और कालिदास जैसे नाटककारों द्वारा लिखे गए प्रेम और शौर्य के नाटकों के अलावा शूद्रक जैसे कुछ नाटककारों ने सामाजिक व्यंग्य-हास्यपरक नाटक भी लिखे, जबकि विषाखदत्त जैसे अन्य नाटककारों ने राजनीतिक शडयंत्रों आर राजदरबारों के जीवन को नाटक का विशय बनाया। इस दौरान प्रचलित अन्य साहित्य रूपों में महाकाव्य, लघु काव्य, अभिलेख, आख्यायिका, चंपू आदि प्रमुख हैं। संस्कृत साहित्य की भाशा थी तो प्राकृत दैनंदिन संवाद और व्यापार की भाशा थी। प्राकृत का प्रयोग बौद्ध जैन और लौकिक साहित्य किया गया था। इस युग में एक अन्य भाशा अपभ्रंष थी, जिसका प्रयोग मुख्यत: जैन साहित्य में हुआ।

तमिल साहित्य का प्राचीन काल संगमयुग के नाम से ख्यात है। इसका प्राचीनतम ज्ञात ग्रंथ है तोल्लकिप्पयम´ जो तमिल व्याकरण पद्धति पर प्रबंध रचना है। प्रेम और युद्ध के संगम काव्य की परिकल्पना लौकिक वातावरण में की गई थी, जहां प्रकृति के साथ मनुश्य की भावनाओं तथा अनुभवों के संबंधों का अन्वेशण किया गया है। प्राचीन तमिल साहित्य का अगला चरण उपदेषात्मक चरण है, जिसमें जैन धर्म और बुद्ध धर्म का प्रभाव पर्याप्त है। इस काल की सर्वाधिक प्रमुख कृति तिरुक्कुरुल है। तमिल का भक्ति साहित्य नायनार कहे जाने वाले शैव संतों और आलवार कहे जाने वाले वैश्णव संतों द्वारा गाए गए भक्ति गीतों के विषाल संयोजन में बना हुआ है। प्राचीन कन्नड़ साहित्य संस्कृत, प्राकृत, वैदिक और जैन गाथाओं तथा रामायण और महाभारत की कथाओं से प्रभावित था। कन्नड़ की प्राचीनतम ज्ञात कृति कविराजमार्गम´ है और तमिल की प्रथम कृति की तरह यह भी अलंकार, व्याकरण, भाशा, छंदषास्त्र की कृति है, जिसमें तत्कालीन समाज, धर्म और संस्कृति के संबंध में भी विचार किया गया हैं। रामायण और महाभारत के प्रभाव में कन्नड़ में बड़े कथा काव्यों की रचना भी हुई। इसमें स्रोत ग्रंथों से चर्चित कथाएं ली गई और फिर उन्हें स्थानीय संदर्भो में रखा गया था। इस युग में सर्वाधिक महत्वपूर्ण कन्नड़ लेखक पम्पा, पोन्ना, और रन्ना थे।

ग्यारहवीं शताब्दी से भारतीय उपमहाद्वीप में व्यापक परिवर्तन शुरू हुए। ये विविध प्रकार के राजनैतिक और सामाजिक परिवर्तन विभिन्न संस्कृतियों, धर्मों और भाशाओं के बीच परस्पर संवाद के युग का सूत्रपात करते हैं। भारतीय साहित्य के इस युग का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलू आधुनिक भारतीय भाशाओं का विकास है। आधुनिक भारतीय भाशाओं के अस्तित्व में आने और विकसित हो जाने के बाद अगली छह-सात शतािब्दयों तक उनमें विषिश्ट प्रकार के साहित्य का विकास हुआ। यह युग विदेषी आक्रमणों, सांस्कृतिक संपर्कों, विस्थापनों और स्थानांतरणों, धर्मांतरणों और सामाजिक-आर्थिक संबंधों में बदलावों का युग था। अधिकांष मध्ययुगीन भारतीय साहित्य में रामायण, महाभारत, पुराण-कथाओं, मिथकों और पुरागाथाओं में अनुवाद, रूपांतरण और पुनर्लेखन हुआ। अपने नए रूपों में ये पाठ अपने भाषायी क्षेत्र की स्थानीय परंपराओं को प्रतिबििम्बत करते थे। तमिल में कम्बन द्वारा रचित रामायण तेलुगु में नन्नइया रचित महाभारत इसके उदाहरण हैं।

सभी भारतीय भाशाओं में लोकतत्व भी हमेषा मौजूद रहा है। मैथिली, मणिपुरी राजस्थानी और नेपाली जैसी भाशाओं में यह साफ तौर पर देखा जा सकता है। नाट्य लेखन और मंचन की परंपरा भी स्थानीय भाशाओं में लगातार फलती-फूलती रही। उदाहरण के लिए गुजरात और राजस्थान को रखा जा सकता है, जहां अभिनय की स्थानीय ‘ौलियों और लोक रंगमंच में भवई और ख्याल जैसे नाट्य रूप विकसित हुए। इन नाट्य प्रस्तुतियों की सहकला के रूप में साहिित्यक पाठों की रचना हुई। उदाहरण के लिए मलयालम में अट्टक्कथाएं हैं, जो कथकली प्रदर्शनों के पूरक के रूप में तैयार हुईं। मनुश्य और ईष्वर के बीच एक नए प्रकार का संवाद बनने से समूचे देष में विभिन्न भाशाओं में कविताओं की रचना हुईं। नए मत के प्रतिपादक आचायोZं और भक्त कवियों ने भगवदगीता और पुराणों पर टीकाएं भी लिखीं। जैसे कि मराठी में संत ज्ञानेष्वर ने भगवदगीता के आधार पर ज्ञानेष्वरी टीका लिखी और असमिया में पद्मपुराण की रचना हुई। इस युग में महिला संत कवियों की रचनाएं भी सामने आईं, जिनमें कष्मीर में लालदेद और हब्बा खातून, तेलुगु में मुद्दुपरानी और कन्नड़ में अक्कमहादेवी और राजस्थानी में मीरा के नाम प्रमुख हैं। संत कवियों द्वारा धार्मिक आस्था को एक नए मुहावरे में अभिव्यक्त किए जाने से ``साहित्य और विचारधारा के बीच एक नया रोचक संबंध स्थापित हुआ। संत कवियों के प्रेम और मानवता के जीवंत संदेष क्षेत्र, भाशा और वर्ग की सीमाओं के पार फैल गए।´´ बुद्ध और जैन धर्मों का प्रभाव बना रहा मगर मुगलों और पुर्तगालियों के आगमन के साथ इसमें इस्लाम और ईसाई मतों का प्रभाव भी जुड़ गया। युद्धों के कारण राजनीतिक क्षेत्रों और सीमाओं में निरंतर बदलाव का युग था इसलिए इस समय जिस एक नयी विधा का विकास शुरू हुआ वह था काव्य में इतिहास लेखन। जैसा कि असम के बुरांजी और राजस्थान में युद्धों पर लिखे गए रासो काव्य में दिखाई देता है। भारतीय उपमहाद्वीप में उर्दू का विकास मुस्लिम सेनाओं, आव्रजनों, सूफियों, व्यापारियों, यात्रियों उपनिवेषियों के आगमन के साथ शुरू हुआ, जो अपने साथ अरबी, फारसी और विषिश्ट साहिित्यक परंपराएं लेकर आए थे। एषिया और यूरोप में आने वाने विभिन्न जातीय, सामाजिक और भाशाई समूहों की संस्कृतियां स्थानीय समुदायों को निकट संपर्क में आईं और इस अंत: संपर्क ने न केवल नई साहिित्यक परंपराओं को जन्म दिया बल्कि संप्रेशण और साहिित्यक अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में एक समान भाशा के विकास को भी बढ़ावा दिया। उर्दू, अरबी, फारसी ने तत्कालीन साहित्य को गजल, मसनवी और कसीदा जैसी नयी विधाएं दीं। इस समय दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों में सामान्य लोगों की संप्रेशण की भाशा खड़ी बोली थी। यही भाशा बाद में एक प्रमुख साहिित्यक भाशा के रूप में विकसित हुई। उन्नीसवीं सदी के आरंभ में इस तरह भारत एक बहुभािशक समाज था और इसकी विभिन्न भाशाओं में लिखित और वाचिक साहिित्यक परंपराएं बन गई थीं। 1800 तक भारत में प्रिंटिंग प्रेस का युग पूरी तरह प्रतििश्ठत हो चुका था। यह संप्रेशण के नये दौर की ‘ाुरुआत थी। प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना ने भारत में कुछ अन्य महत्वपूर्ण बदलावों को भी संभव किया। अभी तक विद्वान लेखकों की अभिव्यक्ति का माध्यम या तो संस्कृत थी या फारसी, या फिर, द्वितीय चुनाव के रूप में उनकी अपनी क्षेत्रीय भाशाएं। प्रिंटिंग प्रेस ने जल्दी ही स्थानीय इलाकों में पहुंच बनानी ‘ाुरू कर दी और जिन भाशाओं का व्यापक पाठक वर्ग था उन्हें महत्व मिलने लगा। विभिन्न भारतीय भाशाओं में बाइबिल के अनुवादों ने गद्य-लेखन को प्रोत्साहित किया। अठारहवीं ‘ाताब्दी के चौथे दषक तक अखबार और पत्रिकाओं का प्रचार-प्रसार होने लगा। इससे पत्रकारिता का विकास हुआ और अब तक अपेक्षित गद्य-विधा चलन में आ गई। मैकाले की षिक्षा नीति के अमल में आने के बाद भारत के राजनीतिक और सामाजिक जीवन में अंग्रेजी भाशा ने अपनी उपस्थिति दर्ज करानी शुरू कर दी। इसका प्रकट उद्देष्य भारतीयों का ऐसा वर्ग पैदा करना था जो रंग और रूप में भारतीय हो, लेकिन जिसके आचार-विचार अंग्रेजों जैसे हों। उन्नीसवीं सदी के अंत तक अंग्रेजी ने पूरी तरह फारसी की जगह ले ली और वह सत्ता तथा षिक्षा की नई भाशा बन गई। धीरे-धीरे तमाम भारतीय भाशाओं की साहिित्यक अभिव्यक्तियों में अंग्रेजी का असर दिखाई देने लगा और कुछ भारतीय अंग्रेजी में साहित्य कर्म भी करने लगे। ऐसे आरंभिक लोगों हेनरी डेरोजियो, माइकेल मधुसूदन दत्त आदि प्रमुख थे।

अंग्रेजों के प्रति भारतीय जनसाधारण के भीतर, जो नफरत और गुस्सा था, वो 1857 में विद्रोह के रूप में फूटा। विद्रोह असफल रहा, लेकिन इससे औपनिवेषक ‘ाासन के प्रति जनसाधारण में असंतोश और असहमति अब मुखर रूप लेने लगी। यह सभी भारतीय भाशाओं के साहित्य में भी व्यक्त हुईं। बकिमचंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास आनंद मठ (1882) में आया देषभक्तिपूर्ण गीत वंदेमातरम् आगामी दिनों में समूचे देष के स्वतंत्रता सेनानियों का राश्ट्रगीत बना। उन्नीसवीं सदी के दौरान ही बहुत से सामाजिक और धार्मिक सुधारवादी आंदोलनों को चलाने वाली संस्थाओं, जैसे ब्रह्म समाज, रामकृश्ण मिषन और आर्य समाज का गठन हुआ। बीसवीं सदी की ‘ाुरुआत तक पिष्चमी और अंग्रेजी साहित्य से जीवंत और निरंतर संपर्क से प्रेरित भारतीय साहित्य ने नए विशयों और मुद्दों को शामिल करना शुरू कर दिया। तमाम भाशाओं में अनुवाद उपलब्ध हो गए। सभी मुख्य भाशाओं की साहिित्यक अभिव्यक्ति बदल गई। अभिव्यक्ति की मुख्य विधा के रूप में कविता की जगह उपन्यास, निबंध और कहानियों ने ले ली। कविता में रोमांस और शौर्य गीतों को लोकप्रियता मिली। इस वक्त अंग्रेजी में भारतीय लेखन को खासा महत्व प्राप्त हुआ और यह ऐसा माध्यम बन गया जिसे कुषलता और दक्षता के साथ-साथ बरता जाना था। भारतीय साहित्य की पहुंच पिष्चम तक हुई। स्वामी विवेकानंद, टैगोर, रवींन्द्रनाथ, श्री अरविंद, गांधी, नेहरु और दूसरे लोगों ने पिष्चमी जगत में औपनिवेषिक सत्ता के विरुद्ध अपने विचार प्रचारित किए और उन्हें समर्थन भी मिला। किसी न किसी रूप में अधिकांष लेखक स्वतंत्रता आंदोलन में ‘ाामिल थे। सभी भारतीय भाशाओं में इस समय का साहित्य लोगों की सुधारवादी चेतना को व्यक्त कर रहा था। साहित्य ने राजनीतिक-सामाजिक दमन के विरुद्ध अपनी आवाज उठाई। राश्ट्रवादी आंदोलन ने बहुत से लेखकों को अपनी भािशक और वैयक्तिक पहचान और अतीत के प्रति जागरूक किया।

यूरोपीय स्वच्छंदतावाद का गहरा और व्यापक प्रभाव इस दौरान भारतीय साहित्य पर भी हुआ। यह हिंदी के छायावाद और कन्नड़ के नवोदय जैसे काव्यांदोलनों देखा जा सकता है। प्रगतिषील लेखक संघ की पहली बैठक 1936 में लखनऊ में हुई। प्रेमचंद इसके अध्यक्ष बनाए गए। इस आंदोलन के समाजवादी और समानतावादी सरोकारों ने बीसवीं शताब्दी के भारतीय साहित्य को प्रभावित किया। समूचे भारतीय उपमहाद्वीप में आर्थिक शोषण और दमन, वर्ग-सरोकार और वंचितों के प्रति लगाव साहित्य के विशय बने। इप्टा इसी गहमागहमी की उपज था। कुछ बुिद्धजीवियों, वैज्ञानिकों और कलाकारों द्वारा बम्बई में ‘ाुरू किया गया यह जन नाट्य आंदोलन थोडे़ ही वक्त में समूचे देष में फैल गया। देष को स्वाधीनता मिली, लेकिन भारत विभाजन ने इसका सुख खंडित कर दिया। इसके साथ ही तेलंगाना आंदोलन 1946 में प्रारंभ हुआ, जो अगले लगभग पांच वशोZं तक चलता रहा। 1947 में स्वाधीनता-प्राप्ति के साथ भारतीय साहित्य में एक नया मोड़ आता है। भारतीय साहित्य के इस नए अध्याय की पृश्ठभूमि में तीन धाराएं मोटे तौर पर मौजूद हैं- राश्ट्रवादी लेखन की धारा, जो सीधे तौर पर स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सेदारी करती थी और साहिित्यकता की ज्यादा परवाह किए बिना राजनीतिक आजादी के लिए तड़प और जोष पैदा करने का काम कर रही थी। दूसरी धारा रोमांटिक लेखन की थी। इसका उद्भव पिष्चम में हुआ था और यह अंग्रेजी साहित्य से हमारे संपर्क के जरिए जहां तक पहुंची थी। तीसरी धारा प्रगतिवादी लेखन की थी जो मुख्यत: स्वच्छंदतावादी लेखन को नकारते हुए उभरी थी। राजनीतिक और सांस्कृतिक स्वाधीनता की बजाए यह धारा आर्थिक शोषण से मुक्ति को प्रमुखता देती थी। इस धारा को सबसे लंबा जीवन मिला और यह अब भी गतिमान है। आजादी मिलने के साथ विभाजन का गहरा घाव भी लगा था। उर्दू, हिंदी और पंजाबी साहित्य में भारत-विभाजन की पीड़ा खास तौर से दर्ज की गई। हिंसा, घृणा, धार्मिक उन्माद और तमाम तरह के शोषणों के विरुद्ध समूचे भारतीय साहित्य ने संघशZ छेड़ा। भारतीय लोकमानस ने आजादी के लिए किए गए बलिदानों को देखते हुए उससे बड़ी उम्मीदें बांध रखी थीं। स्वतंत्र भारत में शुरू की गई पंचवर्षीय योजनाओं ने इन उम्मीदों को और बढ़ाया। जब उम्मीदें पूरी नहीं हुई, आदषZ, त्याग और बलिदानों की नींव पर खड़ी की गई इमारत में स्वार्थपरता, बेईमानी और भ्रश्टाचार का बोलबाला हो गया तो मोहभंग की स्थिति आई। उपन्यासों, कविताओं और नाटकों में मोहभंग का स्वर विषेश रूप से मुखरित हुआ। बीसवीं शताब्दी के आठवें दषक से भारतीय साहित्य में फिर एक नए दौर की शुरुआत होती है। भारतीय साहित्य में अब अिस्मतावादी आवाजें सुनाई पड़ रही हैं। नारीवादी लेखन और दलित लेखन इनमें मुख्य हैं। इनके जरिए साहित्य में बिलकुल अछूते, नए विशयों का प्रवेश होता है। मराठी क्षेत्र में पैदा हुआ दलित आंदोलन शीघ्र ही गुजराती, कन्नड़, तमिल, तेलगु, हिंदी, पंजाबी और उिड़या आदि भाशा क्षेत्रों में फैल गया है। अब दलित साहित्यकार पारंपरिक सौंदर्य शस्त्र की परवाह न करते हुए रोजमर्रा की अपरिश्कृत भाशा में साहित्य रचना कर रहे हैं। स्त्रियां भी अब साहित्य में अपने पहचान के लिए सक्रिय हैं। वे साहित्य की सभी विधाओं में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रही हैं। भूमंडलीकरण और बाजारीकरण के वर्तमान दौर ने भारतीय साहित्य को प्रभावित किया है। नव साम्राज्यवाद और नव उपनिवेशवाद के खतरों को भारतीय साहित्यकार महसूस कर रहे हैं, उनका सशक्त प्रतिरोध भी रच रहे हैं।

Friday 27 June, 2008

गिरीश कारनाड के नाटक तुगलक का हिन्दी अनुवाद और अनुवादक

तुगलक का हिंदी अनुवाद विख्यात रंगकर्मी और सिने शख्सियत बी.वी.कारंत (बाबु कोडि वेंकटरामन कारंत) ने किया है। बी.वी.कारंत का जन्म 1928 में कर्नाटक के दक्षिणा कन्नड जिले के बंटवाल ताल्लुक के मांची गांव में हुआ। रंगमंच से कारंत का पहला साक्षात्कार तब हुआ जब वे तीसरी कक्षा में थे। उन्होंने तब पी.के.नारायण के निर्देशन में नाना गुपाला नामक नाटक में अभिनय किया। कारंत ने बहुत कम उम्र में ही घर से भाग कर कर्नाटक की गुब्बी वीरन्ना नाटक कंपनी में काम करना शुरु कर दिया। गुब्बी वीरन्ना ने बाद में कारंत को स्नातकोत्तर की षिक्षा के लिए बनारस भेजा। यहीं रहकर कारंत ने ओंकारनाथ ठाकुर से हिंदुस्तानी गायन की शिक्षा भी ली। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से कारंत का गहरा रिश्ता रहा है। पहले वे यहां के विद्यार्थी रहे और बाद में इब्राहिम अलकाजी आदि के साथ निर्देशन का कार्य किया। 1977 में कारंत ने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के निदेशक का पद ग्रहण किया। उन्होंने अपनी पत्नी प्रेमा कारंत के साथ बेनका नामक रंग संस्था भी कायम की। मध्य प्रदेष सरकार ने भारत भवन स्थापित करने के बाद वहां रंगमंडल का कार्यभार संभालने के लिए कारंत को निमंत्रित किया। कारंत ने 1981-86 की अवधि के दौरान भारत भवन के रंगमंडल के निदेषक रहे और उन्होंने यहां वाद्य यंत्रों का अद्भुत संग्रहालय कायम किया। 1989 में कर्नाटक सरकार के निमंत्रण पर उन्होंने बैंगलोर में रंगायन संस्था कायम की। कारंत ने अब तक कन्नड सहित हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत, पंजाबी, तेलगु, मलयालम आदि के लगभग सौ नाटकों का निर्देषन किया है, जिसमें मेकबेथ, किंग लियर, घासीराम कोतवाल, मृच्छकटिकम्, मुद्राराक्षस, हयवदन, एवं इंद्रजीत, ईडीपस, चंद्रहास, मालविकाग्निमित्र आदि शामिल हैं। कारंत ने चार फीचर और चार ही डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्देषन और लगभग 26 फिल्मों में संगीत दिया है। कारंत को भारत सरकार के पद्मश्री सहित कई सम्मान और पुरस्कार प्राप्त हुए हैं।

भारत जैसे बहुभाषिक समाज में अनुवाद का बहुत महत्व है। इससे भिन्न भाषाभाषी समाजों के बीच अंतकिZया और संवाद का बढ़ावा मिलता है। नाटक तुगलक मूलत: कन्नड में रचित इसी नाम के नाटक का हिंदी अनुवाद है। खास बात यह है कि यह अनुवाद प्रसिद्ध रंगकर्मी बी.वी. कारंत ने किया है, जिन्हें कन्नड और हिंदी, दोनों भाषाओं में महारत हासिल है और जिन्होंने हिंदी और सहित कई अन्य आधुनिक भाशाओं में रंगकर्म का अनुभव प्राप्त है। अक्सर कहा जाता है कि अनुवाद में रचना की मूल आत्मा सुरक्षित नहीं रहती, लेकिन यह कथन तुगलक के इस हिंदी अनुवाद के संबंध में सही नहीं है। यह अनुवाद इस तरह का है कि इसमें मूल नाटक की आत्मा सुरक्षित रही है, क्योंकि एक तो, अनुवादक कारंत स्वयं मूलत: कन्नड भाशी और कन्नड रंगकर्मी हैं और दूसरे, गिरीश कारनाड और उनके बीच पारस्परिक समझ बहुत अच्छी है। दरअसल हिंदी में अनुवादित होकर यह नाटक अधिक प्रभावशाली और अर्थपूर्ण हो गया है, क्योंकि इसमें प्रयुक्त अधिकांष उर्दू शब्द हिंदी की मूल प्रकृति से कन्नड की तुलना में ज्यादा मेल खाते हैं। इसी तरह इस नाटक की वाक्य रचना और दरबारी अदब-कायदों और रवायतों वाला मुहावरा भी हिंदी के अधिक निकट पड़ता है। अनुवाद की भाषा आद्यंत प्रवाहपूर्ण है। लंबे संवादों के बावजूद इसमें चमत्कार बना रहता है। इसमें लंबे संवाद जरूर है, लेकिन कारंत ने छोटे और अर्थपूर्ण वाक्यों से उनको उबाऊ और नीरस होने से बचा लिया है। मूल कन्नड में रचित तुगलक के बजाय इसके हिंदी अनुवाद को अधिक लोकप्रियता मिली। राश्ट्रीय नाट्य विद्यालय में इब्राहिम अलकाजी द्वारा इसके हिंदी अनुवाद के मंचन के बाद इसके कई दूसरी आधुनिक भारतीय भाशाओं में अनुवाद और मंचन हुए। गिरीष कारनाड को भी इसके हिंदी अनुवाद और मंचन के बाद ही कर्नाटक से बाहर एक भारतीय रंगकर्मी की प्रतिष्ठा और सम्मान मिले।

Wednesday 25 June, 2008

गिरीश कारनाड का नाट्य कर्म

विख्यात नाटककार, कवि, अभिनेता, निर्देशक, आलोचक, अनुवादक और सांस्कृतिक प्रशासक गिरीश कारनाड का जन्म महाराष्ट्र के माथेराम में एक कोंकणीभाषी परिवार में 19 मई, 1938 को हुआ। कारनाड ने 1958 में धारवाड स्थित कर्नाटक विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद वे रोहड्स स्कॉलर के रूप में इग्लैंड गए, जहां उन्होंने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र और दर्शनशास्त्र में स्नातकोत्तर की शिक्षा ग्रहण की। कारनाड शिकागो विविद्यालय के फुलब्राइट महाविद्यालय में विजिटिंग प्रोफेसर भी रहे। कारनाड की मातृभाषा कोंकणी थी, लेकिन वे अंग्रेजी में लिखकर शेक्सपीयर और टी.एस. ईलियट की तरह विख्यात होना चाहते थे। कारनाड विख्यात तो हुए, लेकिन कोंकणी या अंग्रेजी में नहीं, कन्नड़ में हुए। 1961 में कन्नड़ में प्रकाषित उनके पहले नाटक ययाति ने उनको भारतीय साहित्य की महत्वपूर्ण शख्सियत के रूप में स्थापित कर दिया। इस नाटक के कई भारतीय भाषाओं में अनुवाद और मंचन हुए। इसके बाद कारनाड मद्रास स्थित ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस की नौकरी छोड़ कर पूर्णकालिक स्वतंत्र लेखन में जुट गए।

रंगकर्मी के रूप में स्थापित होने के बाद कारनाड की दिलचस्पी फिल्मों में भी हुई। इस नए माध्यम में भी उन्होंने बतौर लेखक, निर्देशक और अभिनेता कई कीर्तिमान कायम किए। उनकी फिल्म संस्कार को आरंभिक विवादों के बाद राश्टपति का स्वर्ण पदक पुरस्कार दिया गया। इसके अतिरिक्त उन्होंने वंशवृक्ष, काडू, अंकुर, निशांत, स्वामी और गोधुलि जैसी फिल्में बनाईं और इनमें अभिनय भी किया। मृच्छकटिकम् पर आधारित विख्यात लोकप्रिय फिल्म उत्सव का लेखन और निर्देषन भी कारनाड ने ही किया। इकबाल जैसी लोकप्रिय फिल्म से भी कारनाड संबंधित रहे हैं। कारनाड को उनके साहित्य में समग्र योगदान के लिए 1990 में भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया। इसके अतिरिक्त पद्मभूषण-पद्मश्री, साहित्य अकादमी और संगीत-नाटक अकादमी सहित कई पुरस्कार-सम्मान उनको प्राप्त हो चुके हैं। निरंतर सृजनषील रहने के बावजूद कारनाड अपनी चिकित्सक पत्नी और दो बच्चों को पर्याप्त समय देते हैं और अपने व्यक्तिगत जीवन की सार्वजनिक चर्चा करने से परहेज करते हैं। फिलहाल सभी तरफ से समेटकर कारनाड ने अपने को नाटकों के लिए समर्पित कर दिया है। उनके अपने शब्दों में ´´अब जो भी समय मेरे पास बचा है, उसे मुझे नाटक लेखन, जो मुझे सबसे अधिक पसंद है, में व्यतीत करना चाहिए।

गिरीश कारनाड मूलत: नाटककार हैं और उनकी प्रतिभा का सर्वोत्तम इस अनुशासन में ही व्यक्त हुआ है। बतौर फिल्म निर्देशक, लेखक और अभिनेता उनकी ख्याति का पर्याप्त विस्तार हुआ, उन्हें इन विभिन्न भूमिकाओं के लिए पुरस्कार-सम्मान भी मिले, लेकिन उनका पहला और आखिरी प्यार नाटक है और उनकी आत्मा इसी में रची-बसी है। उनके अपने शब्दों में ´´मैं अभिनेता जीविकोपार्जन के लिए बना। अगर नाटक लेखन से यह हो गया होता, तो मैं कुछ और नही करता।`` कारनाड ने जिस समय कन्नड में नाट्य कर्म की शुरुआत की, तो वहां पश्चिमी साहिित्यक पुनर्जागरण का गहरा और व्यापक प्रभाव था। कन्नड लेखकों में इस समय नवाचार और प्रयोगशीलता की होड़ लगी हुई थी। ऐसे समय में कारनाड ने पौराणिक और ऐतिहासिक विषय वस्तु और चरित्रों वाले नाटकों के माध्यम से अपने समय और समाज समझने-समझाने की कोशिश की, जो बहुत लोकप्रिय हुई।

कारनाड का महाभारत के मिथकीय चरित्रों पर एकाग्र पहला नाटक ययाति 1961 में प्रकाशित हुआ। यह नाटक चरित्र सृष्टि और रंग योजना के लिहाज से असाधारण था, इसलिए इसको तत्काल पहचान मिली। 1964 में प्रकाशित कारनाड का दूसरा नाटक तुगलक सल्तनतकालीन विख्यात ऐतिहासिक चरित्र मुहम्मद बिन तुगलक पर आधारित था। तुगलक प्रतापी और स्वप्नदृ, लेकिन निरंकुश शासक था, जिसको कारनाड ने इस नाटक में नेहरूयुगीन द्वंद्व और यथार्थ की जटिलता को उजागर करने के लिए चुना। इस नाटक का मंचन विख्यात रंगकर्मी इब्राहिम अलकाजी ने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में किया। कारनाड के नाटक रक्त कल्याण के भी कई भारतीय भाषाओं में अनुवाद और मंचन हुए। 1168 ईण् से पहले के दो दषकों के कर्नाटक के इतिहास पर आधारित इस नाट्य रचना का नायक बसवण्णा नामक कवि और समाज सुधारक है। धर्म, जाति, लिंग आदि की असमानता का विरोध और कर्म का निर्वाह बसवण्णा के आदर्श थे। इन आदर्शों के लिए बसवण्णा द्वारा किए गए संघर्ष को कारनाड इस नाटक के माध्यम से हमारे समय और समाज के लिए प्रासंगिक बनाते हैं। यह नाटक नाटय शिल्प के लिहाज से भी सुगठित है और इसकी रंग योजना इस तरह की है कि इससे आठ सौ वर्ष पूर्व की कन्नड़ संस्कृति जीवंत हो उठती है। 1971 में प्रकाषित नाटक हयवदन भी गिरीश कारनाड के नाट्य कर्म को नई ऊंचाइयों पर ले जाने वाला है। यहां नाटककार स्त्री-पुरुष संबंधों की जटिलता को खोलने के लिए मिथकीय आख्यान का सहारा लेता है। स्त्री-पुरुष संबंधों की संपूर्णता की अंतहीन तलाष की यातना और बुद्धिऔर देह का सनातन संघर्ष इस नाटक में खास तौर पर दिखाया गया है। प्रासंगिक और आकर्षक कथ्य तथा सम्मोहक शिल्प इस नाटक की खासियत है। इन कुछ विभिन्न भारतीय भाशाओं में अनूदित नाटकों के अतिरिक्त अग्नि मटट, माले, ओदेकलु बिंब, अंजुमालिंगे, मा निशाद, टीपूविना, कनासुगल, हित्तिना हुंज, नाग मंडल और बलि भी कारनाड के नाटकों में शामिल हैं।

Sunday 22 June, 2008

गिरीश कारनाड के नाटक तुगलक की भाषा और संवाद

सल्तनतकालीन शासक वर्ग से संबंधित होने के कारण तुगलक की भाषा और संवाद अभिजातवर्गीय हैं। इनमें दरबारी अदब-कायदों की बारीकियों को समाविश्ट किया गया है। इसके एक-दो चरित्रों को छोड़कर शेष सभी चरित्र मुसलमान हैं, इसलिए वे नफीस और अदब-कायदों वाली उर्दू बोलते दिखाए गए हैं। यह अवश्य है कि सामाजिक हैसियत के अनुसार इनकी भाषा का चरित्र कुछ हद तक बदल जाता है- सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक की भाषा एक अभिजात शासक और बुद्धिजीवी की प्रांजल भाषा है, जबकि अजीज और आजम की भाषा में चोर-उच्चकों वाली उठापटक है। महान चरित्र पर एकाग्र होने के कारण इसके संवाद लंबे और कहीं-कहीं भाषणों जैसे हैं।

मुहम्मद बिन तुगलक उलाउद्दीन खिलजी के बाद सबसे अधिक प्रतापी शासक था। यही नहीं, वह अपने समय का सबसे बड़ा बुिद्धजीवी और स्वप्नदृष्टा भी था। यह नाटक इस महान शासक और बुद्धिजीवी पर एकाग्र है, इसलिए तदनुसार उसकी भाशा और संवाद अभिजात और प्रांजल उर्दू में हैं। नाटक के आरंभिक दृश्यों में उसकी भाशा उसके आदर्शवाद और सपनों के अनुरूप गंभीर और गहरी है। उसके संवाद उसके गहरे विचार मंथन से निकले हुए हैं। इनमें गरिमा और अभिजात्य है। नाटक के दूसरे दृश्य का एक संवाद उदाहरण के लिए यहां प्रस्तुत है, जिसमें वह अपनी सौतेली मां से कहता है ´´अल्लाह से दरख्वास्त करता रहता हूं कि या खुदा, मुझे नींद न आये! दिन तो यों ही दुनियावी शोरो-गुल में निकल जाता है। मगर ज्यों ही दिन का उजाला रुखसत हो जाता है, रात की तारीकी को चीर कर मैं आसमान के पार पहुंच जाता हूं, और आसमान के सितारों के इर्दगिर्द मंडराया करता हूं। फिर इब्न-अल-मोतज, दुर्रुम्मान जैसे बावकार शायरों का कलाम गुन-गुनाया करता हूं। तब एकाएक दिल में यह ख्वाहिष जागती है कि मैं अभी और इल्म हासिल करूं, अभी और तरक्की करूं, और ऊपर उठूं, मेरे तसुव्वर में मेरी रिआया का साया उभरने लगता है, और मेरा जी फिर बेकरार होने लगता है। जी होता है कि किसी उंचे दरख्त पर चढ़ जाउं, और वहां से अपनी रियाआ को आवाज दूं, चीख-चीख कर उन्हें पुकारा करूं- ऐ मेरी अजीज-तरीन रिआया, उठो, उठो, मैं तुम्हें आवाज दे रहा हूं, तुम्हारी राह देख रहा हूंण्ण्ण्आओ, अपनी तमाम परेषानियां मुझे बताओ, मैं अपनी तमाम ख्वाहिषें तुम्हें सुना दूं, फिर हम सब एक साथ परवरदिगार की इबादत करें!`` लेकिन जैसे-जैसे हताषा बढ़ती है, तुगलक के मन में अंतर्संघर्ष बढ़ता जाता है। नाटक के अंतिम दृश्यों की भाषा और संवादों में यह उतार-चढ़ाव साफ दिखाई पड़ता है। दौलताबाद किले के उपरी हिस्से पर अपना मूल्यांकन करते हुए तुगलक के ऐसे एक लंबे संवाद का उदाहरण यहां देना ठीक रहेगा। यहां वह बरनी से कहता है- ´´अंदर ही अंदर एक ख्वाहिशउभरती है कि इस कशमकश को तोड़कर हज पर रवाना हो जाऊं। ´रुआब` के सामने अपनी जिंदगी बिछा दूं और रूहानी सुकून हासिल कर लूं। मगर हकीकते हाल निहायत संगीन है, बरनी! ला इलाज बीमार शख्स को मैदानों में खुले फेंक देने का मतलब है, नयी बीमारियों को दावत देना। (आवाज को ऊंचा करते हुए) बरनी, हजारों खूंख्वार गिद्ध सर पर मंडरा रहे हैं जिनकी खूनी नजरें मुझ पर जमी हुई हैं।

नाटक के दूसरे चरित्रों की भाषा उनकी सामाजिक हैसियत के अनुसार है। वजीरे-आजम नजीब की भाशा उसके चरित्र के अनुसार दो-टूक और बेलाग भाशा है। उसमें उठापटक और द्वंद्व कम है। शेख इमामुद्दीन की भाषा में उसकी ऊंची धार्मिक हैसियत की खनक साफ सुनाई पड़ती है। तुगलक और उसके बीच हुए संवादों में एक-दूसरे को पछाड़ने की जद्दोजहद है। सौतेली मां की भाशा में ऊपरी वात्सल्य के भीतर वर्चस्व की चाहत से पैदा हुई चतुराई साफ दिखाई पड़ती है। उसके संवाद अपेक्षाकृत छोटे हैं और उनमें जानकारियां पा लेने की जल्दबाजी झलकती है। आजम और अजीज की भाषा में चोर-उच्चकों वाली उठापटक, लेकिन साफगोई है। इस नाटक की भाषा और संवादों की खास बात यह है कि ये पात्रों की सामाजिक हैसियत के अनुसार बदलती है, लेकिन उसका स्तर कभी भी निम्न नहीं होता।

Thursday 19 June, 2008

गिरीश कारनाड के नाटक तुगलक की रंग योजना

तुगलक विख्यात रंगकर्मी गिरीश कारनाड की मूलत: कन्नड़ में रचित नाट्य कृति है, जिसके हिंदी सहित कई आधुनिक भारतीय भाशाओं में अनुवाद और मंचन हुए हैं। इसके नाटककार गिरीश कारनाड आधुनिक भारतीय साहित्य और रंगमंच की महत्वपूर्ण शख्शियत हैं। यह कृति आदर्शवादी, स्वप्नदृष्टा और बुध्दिजीवी, लेकिन इतिहास में सनकी और पागल के रूप में चर्चित मुस्लिम शासक मुहम्मद बिन तुगलक के चरित्र पर एकाग्र है।

गिरीश कारनाड विख्यात रंगकर्मी हैं और उन्हें रंगकला के सभी अनुषंगों-नाट्य लेखन, निर्देशन, अभिनय आदि का अनुभव है। तुगलक की रग योजना इसीलिए अपार संभावनाओं से युक्त है। खास बात यह है कि यहां नाटककार ने प्रस्तुति के लिए निर्देशक को पूरी छूट दी है। उसने मंच परिकल्पना, साज-सज्जा, प्रकाष व्यवस्था और संगीत के लिए अपनी तरफ से कोई बांधने वाला विधान नाटक में नहीं किया है। नाटक ऐतिहासिक है, इसमें वर्णित घटनाएं और चरित्र महान और भव्य हैं, इसलिए इसके मंचन के लिए व्यापक शोध और कल्पनाशीलता अपेक्षित है। नाटककार पहले दृष्य की शुरूआत में समय, 1327ई.का और दृष्यों के आरंभ में केवल भवनों या स्थानों का नामोल्लेख करता है। वह इस तरह उस समय के भवनों या स्थानों की मंच परिकल्पना निर्देषक पर छोड़ देता है। नाटक की कथावस्तु भव्य और महान है, इसलिए इसमें वृहदाकार दृबंध और भव्य वेषभूशा अपेक्षित है। यह दृष्य बंध और वेषभूशा यथार्थवादी भी हो सकते है और प्रयोगधर्मी भी।

भव्य और महान कथावस्तु के बावजूद गिरीष कारनाड इस नाटक में समय, स्थान और कार्य व्यापार की अिन्वति बनाए रखने में सफल रहे हैं। नाटक 25-30 वर्षों के कालखंड में विस्तृत है। नाटक की शुरूआत तुगलक के सत्तारूढ होने के आरंभिक समय 1327 ई. से होती है और तुगलक के सनकी और पागल हो जाने की अवस्था में नाटक खत्म हो जाता है। रोमिल थापर के अनुसार तुगलक का निधन 1357 ईण् में हो गया था। तेरह अंकों में विभक्त इस नाटक में आठ दृष्य बंध है। मंच सज्जा यदि प्रयोगधर्मी हो, तो दृष्य बंधों की संख्या कम भी की जा सकती है। नाटक की ‘ाुरुआत दिल्ली की मिस्जद के बाहरी हिस्से से होती है, जहां से तुगलक लोगों के मजमे की संबोधित करता है। आगे के अंकों में शाही महल, मिस्जद के सामने का सेहन, अमीर की कायमगाह, दिल्ली से दौलताबाद जाने के रास्ते पर एक खेमा, दौलताबाद किले का ऊपरी हिस्सा, पहाड़ी गुफा और दौलताबाद किले के बंद दरवाजे के दृष्य बंध हैं। कारनाड ने संपूर्ण भवन या स्थान के बजाय उसके बाहरी हिस्से या कोने को ही दृष्य बंध में शामिल किया है। यह अवश्य है कि माहौल को सल्तनतकालीन बनाने के लिए भवनों में तत्कालीन स्थापत्य की झलक बेहद जरूरी है। स्थानों के दिल्ली और दौलताबाद में होने के बावजूद कार्य व्यापार में गति होने के कारण नाटक की अन्विति नहीं टूटती।

ऐतिहासिक होने कारण इस नाटक में वेषभूशा का खास महत्व है। इसी से दृश्यों में भव्यता का माहौल बनता है। वेषभूशा के संबंध में भी नाटककार ने अपनी तरफ से कोई रंग निर्देष नहीं दिए हैं। यह उसने निर्देषक की कल्पना और सूझबूझ पर छोड़ दिए हैं। नाटक के ऐतिहासिक कथानक को देखते हुए सल्तनतकालीन दरबारी औपचारिक वेषभूशा इस नाटक के लिए जरूरी है। युद्ध और शडयंत्रों की निरंतरता के कारण इस नाटक के प्रमुख पात्रों को शस्त्रों से भी लैस होना चाहिए। माहौल की भव्य रूप देने और खास तौर पर तुगलक के अंतर्संघर्ष और द्वंद्व को व्यक्त करने के लिए इस नाटक के मंचन में संगीत का भी महत्व है।

तुगलक के बी.वी.कारंत के हिंदी अनुवाद का मंचन विख्यात रंगकर्मी इब्राहिम अलकाजी ने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली में किया था। उन्होंने इसका मंचन यथार्थवादी दृश्यबंधों के आधार पर तो नहीं किया, लेकिन मंच सज्जा, वेषभूशा, संगीत आदि के निर्धारण में उन्होंने तत्कालीन इतिहास सामग्री और स्थापत्य को आधार बनाया। उन्होंने इसकी प्रस्तुति राष्ट्रीयनाट्य विद्यालय के वृहदाकार खुले रंगमंच पर की। उन्होंने इसको एकाधिक भागों में बांटकर अलग-अलग भागों को कुछ खास पात्रों से संबद्ध किया। मंच के पृष्ठ भाग में तुगलक के अध्ययन कक्ष की मंच सज्जा इस तरह की गई कि जिससे उसकी अध्ययनषील, वैज्ञानिक और अन्वेषणप्रिय रुचि का संकेत मिल सके। उन्होंने मंच के पृष्ठ भाग में ही तुगलक की सौतेली मां के महल के दरवाजे का दृष्य बंध बनाया। इसी प्रकार ऊंची मेहराब वाले चबूतरे के एक दृष्यबंध को अलकाजी ने दो दष्यों के लिए काम लिया- एक बार जब अदालत के बाहर तुगलक भीड़ को संबोधित करता है, और दूसरी बार जब वह खलीफा के प्रतिनिधि गियासुद्दीन का दौलताबाद किले के दरवाजे के बाहर स्वागत करता है। इसी तरह नीचे स्थित चबूतरे से उन्होंने जंगल के खुले स्थान का काम लिया। अन्विति के लिए इन सभी ऊंचे-नीचे और अलग-अलग दृष्यबंधों को उन्होंने सीढ़ियों से जोड़ दिया। दृश्य बंधों की परिकल्पना और निर्माण में अलकाजी ने पर्सी ब्राउन के ग्रंथ इंडियन आर्किटेक्चर (द इस्लामिक पीरियड) और वास्तु विषेशज्ञों का भी सहयोग लिया। पहले और छठे दृश्य में दरबारी शान-शौकत और तड़क-भड़क के लिए अलकाजी ने फर्श पर कालीन बिछाया। तत्कालीन मुस्लिम दरबार का माहौल बनाने के लिए उन्होंने दरबारी अदब-कायदों की बारीकियां तबकात-अल-नासिरी और आईने-अकबरी जैसे ऐतिहासिक ग्रंथों की मदद से जुटाईं। अलकाजी ने इस नाटक के मंचन में पात्रों की वेषभूशा पर खास ध्यान दिया। उन्होंने विभिन्न सामाजिक तबकों के लिए अलग-अलग रंग-जनसाधारण के लिए भूरे, अमीर-उमरा के लिए भूरे और चटख गुलाबी, दरबारी औरतों के लिए फिरोजी, पन्ना और सोने तथा तुगलक के लिए काले और सुनहरी रंगों की पोषाकें रखीं। अलकाजी ने लंबे शोध के बाद पारंपरिक तुर्की और फारसी संगीत के टुकड़ों को मिला कर इस नाटक के लिए संगीत तैयार किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने बीच-बीच में स्थिति के अनुसार कुरान पाक की आयतों के पाठ का भी प्रावधान किया, जिससे तुगलक के निजी अंतर्संघर्ष् को उदात्तता देने में मदद मिली।

Monday 16 June, 2008

गिरीश कारनाड के नाटक तुगलक में हमारा समय और समाज

तुगलक अपने समय और समाज के द्वंद्व और यथार्थ का सम्मोहक रूपक है। कोई समकालीन रचनाकार इतिहास या मिथ को केवल उसकी पुनर्रचना के लिए नहीं उठाता। जब इतिहास या मिथ में कहीं न कहीं वह अपने समय और समाज का साद्श्य पाता है, तभी वह उसे अपनी रचना का विषय बनाता है। अपने समय और समाज से सीधे मुठभेड में अक्सर खतरा रहता है। रचनाकार किसी समय और समाज में रह कर उस पर तटस्थ टिप्पणी या उसका तटस्थ मूल्यांकन नहीं कर पाता। इतिहास या मिथ की पुनर्रचना में पूरी तरह तटस्थ और निर्मम रहा जा सकता है और इस तरह अपने समय और समाज के द्वंद्व और यथार्थ को उसमें विन्यस्त करने में भी आसानी होती है।
आजादी के बाद के दो-ढाई दशकों का आधुनिक भारतीय इतिहास में खास महत्व है। एक तो इस समय का शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व देश निर्माण के उत्साह से लबालब था और दूसरे, इस समय यहां जन साधारण की आकांक्षाएं भी आसमान छू रही थीं। योजनाकारों ने नेतृत्व की पहल पर आदर्शवादी योजनाएं बनाईं, आर्थिक और सामाजिक विशमता समाप्त करने के संकल्प लिए गए और लोगों का जीवन स्तर ऊंचा उठाने की बातें हुईं, लेकिन तमाम शुभेच्छाओं के बावजूद हालात नहीं बदले। योजनाओं का लाभ जनसाधारण तक नहीं पहुंचा और विशमता बढ़ती गई। नौकरशाही की मंथर गति और टालमटोल तथा स्पष्ट नीति के अभाव में नेतृत्व द्वारा की गई पहल और निर्णयों को अमल में नहीं लाया जा सका।
गत सदी के सातवें दषक में नेतृत्व और जनसाधारण के सपनों और आकांक्षाओं का पराभव शुरू हो गया। उदाहरण के लिए आजादी के बाद भूमि सुधार तत्काल अपेक्षित थे,लेकिन प्रशासनिक शिथिलता और प्रबल इच्छा शक्ति के अभाव में इनको लागू नहीं किया जा सका। इसी तरह दूसरी पंचवर्षीय योजना (1957-61) में राष्टीय आय में 25 प्रतिशत वृध्दि का लक्ष्य रखा गया, लेकिन इसका आधा भी नहीं पाया जा सका। दरअसल आजादी के बाद में आरंभिक दो दशकों के आदर्शवाद और उससे मोहभंग का तुगलक के समय से गहरा साम्य है। तुगलक एक आदर्शवादी और स्वप्नदृश्टा शासक था और अपने समय से आगे की सोचता था। उसने सल्तनत के विस्तार और अपनी प्रजा के कल्याण की कई महत्वाकांक्षी, लेकिन अपारंपरिक योजनाएं बनाईं। विडंबना यह है कि उसे इन सपनों को अमली जामा पहनाने में समाज के किसी तबके का सहयोग नहीं मिलता। उसके विष्वस्त और आत्मीय व्यक्ति ही उसे धोखा देते हैं या घटनाक्रम से घबरा कर उसका साथ छोड़ जाते हैं। प्रजा उसकी अपारंपरिक भावनाओं और कार्यो को नहीं समझती, उलेमा अपनी उपेक्षा के कारण उसके विरुद्ध दुष्प्रचार करते हैं, अमीर-उमरा उसके विरुद्ध शडयंत्र करते हैं और अजीज और आजम जैसे लोग उसकी हर एक शुभेच्छामूलक घोशणा का अपने क्षुद्र स्वार्थ में दुरुपयोग करते हैं। उसकी सौतेली मां उसे धोखा देती है और उसका आत्मीय वाकया नवीस बरनी उसका साथ छोड़कर चल जाता है। विफल और सब तरफ से हताश तुगलक अंतत: तलवार की मदद से अपने विरोधियों के दमन का रास्ता अख्तियार करता है। देश में पराभव और मोहभंग का दौर 1962 के आसपास अपने चरम पर था और तुगलक प्रकाशन भी इसी दौरान 1964 में हुआ। जाहिर है, कारनाड ने अपने समय और समाज को बारीकी से देखा और उसको मुहम्मद बिन तुगलक के समय और समाज में रूपायित किया। यहां यथार्थ और द्वंद्व हमारे समय का है और केवल उसका ताना-बाना, मतलब घटनाएं और चरित्र सल्तनतकालीन है।
तुगलक की चरित्र सृष्टि में इतिहास और कल्पना, दोनों का योग है, लेकिन इतिहास पर आधारित होने के कारण कारनाड को चरित्र निर्माण में कल्पना की छूट ज्यादा नहीं मिली है। नाटक के ऐतिहासिक होने के कारण कारनाड ने इसके चरित्रों के वैयक्तिक जीवन, सामाजिक परिवेश और भाषा के संबंध में पर्याप्त शोध की है और उनके संबंध में इतिहास में उपलब्ध तथ्यों की कल्पना का पुट देकर जीवंत बनाया है। तुगलक में मुहम्मद बिन तुगलक नायक और धुरि चरित्र है और शेष सभी चरित्र यहां उसके चरित्र के विकास में पूरक की भूमिका निभाते हैं। नाटक में तुगलक का चरित्र आरंभ में आदर्शवादी और स्वप्नदृश्टा है, लेकिन परिस्थितियां धीरे-धीरे उसे क्रूर और निरंकुश तानाशाह और अंत में एकाकी और उन्मादी व्यक्ति में तब्दील कर देती है। तुगलक बुिद्धमान है,वह सल्तनत और प्रजा के हित में युक्तिसंगत निर्णय लेता है। राजधानी स्थानांतरण, प्रतीक मुद्रा का प्रचलन और खुरासान योजना केवल उसकी सनक के नतीजे नहीं हैं, इनके पीछे वजनदार तर्क है। तुगलक को अपने मनुष्य की ताकत पर पूरा भरोसा है वह खुदएतमादी है और धार्मिक कट्टरपंथियों का अंधानुगमन नहीं करता। सुल्तान के रूप में तुगलक कूटनीतिज्ञ भी है। वह चतुर राजनीतिज्ञ की तरह अपने विरोधियों को रास्ते से हटाता है। धार्मिक नेता शेख इमामुद्दीन और अमीर शहाबुद्दीन सियासी दाव-पेंच के खेल में उससे बुरी तरह पिट जाते हैं। अपने विरुद्ध होने वाले षडयंत्रों को वह चतुराई से नाकाम कर देता है। सब तरफ से जूझता हुआ, अपनी आत्मीय और विश्वस्त सौतेली मां तथा शहाबुद्दीन और अमीरों के षडयंत्रों से आहत तुगलक नाटक के अंतिम दृष्यों में हताश और निराष व्यक्ति के रूप में सामने आता है। इससे धर्म में उसकी आस्था को भी धक्का लगता है और वह अपनी सल्तनत में इबादत पर भी रोक लगा देता है। तुगलक अंत में निपट एकाकी होकर अपने ही हाथों किए गए सर्वनाश से घिरा उन्माद के छोर तक पहुंच जाता है। कारनाड के आलोचकों का कहना है कि वे अपने अन्य नाटकों की तरह तुगलक में भी अपने समय और समाज के यथार्थ और द्वंद्व को व्यक्त करने के लिए तुगलक के रूपक का सहारा लेते हैं, जिससे यथार्थ विकृत रूप में सामने आता है। इसके विपरीत कारनाड के समर्थकों का कहना है कि इस नाटक में अतीत के दूरस्थ यथार्थ को माध्यम बनाकर कारनाड अधिक निष्पक्ष और निर्भीक ढंग से अपने समय के यथार्थ को समझते-समझाते हैं। विख्यात कन्नड साहित्यकार यू.आर.अनंतमूर्ति के अनुसार कारनाड नाटक के कवि हैं। समसामयिक समस्याओं से निबटने के लिए इतिहास और मिथ का उपयोग उन्हें अपने समय पर टिप्पणी की मनोवैज्ञानिक दूरी प्रदान करता है। तुगलक बहुत सफल हुआ, क्योंकि यह एक यथार्थवादी नाटक नहीं था।
यह सही है कि तुगलक अपने समय और समाज के यथार्थ में सीधे हस्तक्षेप नहीं करता और उसके चरित्र भी कुछ हद अपने समाज के वर्गीय प्रतिनिधि हैं, लेकिन इससे एक रंग नाटक के रूप में तुगलक का महत्व कम नहीं होता। कारनाड भव्य और महान चरित्र और घटना वाले इस नाटक के माध्यम से दर्शकों के मन में अपने समय और समाज के यथार्थ को चरितार्थ करने में सफल रहे हैं।

Wednesday 11 June, 2008

गिरीश कारनाड के नाटक तुगलक में इतिहास और कल्पना की जुगलबंदी

तुगलक आधुनिक भारतीय नाटक और रंगमंच के शीर्षस्थानीय रंगकर्मी गिरीश कारनाड की मुस्लिम शासक मुहम्मद बिन तुगलक के जीवन पर आधारित नाट्य रचना है, जिसमें देश की आजादी के बाद के दो-ढाई दषकों के आदर्शवाद और उससे मोहभंग के यथार्थ को सम्मोहक रूपक में प्रस्तुत किया गया है। इतिहासकार तुगलक के चरित्र के संबंध में एक राय नहीं हैं। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि तुगलक अपने समय का सबसे महान और उल्लेखनीय शासक था, जबकि कुछ के अनुसार वह सनकी और पागल था। इतिहासकार एलफिन्स्टन के अनुसार उसमें पागलपन का कुछ अंष जरूर था, वी.एन. स्मिथ उसे आश्चर्यजनक विरोधी तत्वों का सिम्मश्रण मानते हैं, जबकि रोमिला थापर के अनुसार ´´यद्यपि उसकी कुछ नीतियां उसके सनकी दिमाग की तरंग मात्र प्रतीत होती है, तो भी उनके पीछे कुछ तर्क जरूर था।`` कुछ भी हो, जैसा वल्जले हेग ने कहा है कि ´´तुगलक दिल्ली के सिंहासन पर बैठने वाले असाधारण शासकों में से एक था।`` दरअसल तुगलक आदर्शवादी, स्वप्नद्रुष्टा और उदारचित्त बुध्दिजीवी शासक था, जिसे उसके अपारंपरिक कार्यों के कारण तत्कालीन जनसाधारण, अमीर और उलेमा वर्ग का सहयोग नहीं मिला। तुगलक के आदर्शों और सपनों के पराभव की यह कहानी ही इस नाटक की विशयवस्तु है। कारनाड ने आजादी के बाद के सपनों की उड़ान और कुछ समय बाद उनके धराषायी होने के यथार्थ को इस कथा के रूपक में बांधने का प्रयत्न किया है।

नाटक तुगलक विवादास्पद मध्यकालीन शासक मुहम्मद बिन तुगलक के जीवन पर आधारित है। कारनाड ने तुगलक के चरित्र निर्माण में उसके जीवन के संबंध में इतिहास में उपलब्ध सभी तथ्यों का उपयोग किया है। इतिहासकारों के अनुसार तुगलक अपने युग का सबसे उल्लेखनीय शासक था। कुछ इतिहासकार उसके अपरंपरागत कार्यों के कारण उसे पागल कहते हैं। उसके संबंध में सर्वाधिक महत्वपूर्ण उल्लेखनीय तथ्य यह है कि ´´उसकी महत्वाकांक्षाएं उसके साधनों की तुलना में हमेषा अधिक थीं।`` तुगलक ने कई साहसिक प्रयोग किए और उसने कृिश क्षेत्र के विकास में गहरी दिलचस्पी ली। उसने धर्म और दर्शन का गहन अध्ययन किया। वह आलोचनात्मक प्रवृत्ति और उदारचित्त वाला व्यक्ति था। इतिहासकार सतीशचंद्र के अनुसार ´´वह न केवल मुसलमान अध्यात्मवादियों के साथ, बल्कि हिन्दू योगियों और जिनप्रभा सूरी जैसे जैन महात्माओं के साथ तर्क-वितर्क कर सकता था।`` उसके समय के कट्टरपंथी मुसलमान उसे नापसंद करते थे। उनके अनुसार वह बुध्दिवादी था। मतलब यह कि वह धार्मिक मान्यताओं की केवल विष्वास के आधार पर स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था। वह महत्वाकांक्षी था और बड़े-बड़े सपने देखता था, लेकिन तत्कालीन इतिहासकार बरनी के अनुसार वह चिड़चिड़ा और अधीर स्वभाव का भी था। दुभाZग्य से उसके सपने पूरे नहीं हुए और उसकी योजनाएं क्रियान्वयन के दौरान असफल हो गईं।

तुगलक ने अपने सपनों को हकीकत में बदलने के लिए कई योजनाएं बनाईं और उनको सख्ती से अमल में लाने का प्रयास किया। वह एक भारतव्यापी साम्राज्य की स्थापना करना चाहता था इसलिए उसने कई साहसिक प्रयोग किए। वह मध्य एषिया में सैन्य अभियान कर खुरासान पर अधिकार करना चाहता था, इसलिए उसने दोआब के किसानों पर लगान बढ़ा दिया। दुभाZग्य से इसी समय दोआब में अकाल पड़ा और किसानों ने यह बढ़ा हुआ लगान देना अस्वीकार कर विद्रोह कर दिया। तुगलक का सबसे विवादास्पद निर्णय राजधानी का दिल्ली से दौलताबाद स्थानांतरण था। तुगलक दक्षिण भारत पर प्रभावषाली ढंग से शासन करना चाहता और दिल्ली उत्तर में स्थित होने के कारण दक्षिण से बहुत दूर थी, इसलिए उसने अपनी राजधानी दिल्ली से हटा कर सुदूर दक्षिण में स्थित देवागिरी, जिसका नामकरण उसने बाद में दौलताबाद किया, ले जाने का आदेष दिया। निर्णय तर्कसंगत था लेकिन अव्यावहारिक था। एक तो उसने दरबार की जगह समस्त दिल्लीवासियों को दौलताबाद जाने के लिए विवष किया और दूसरे इस निर्णय का क्रियान्वयन ग्रीश्मकाल में हुआ, जिससे कई लोग मार्ग में ही मर गए। इसके अलावा दिल्ली से दौलताबाद पहुंचे लोगों को घर की याद सताने लगी। तुगलक के विरुद्ध इस कारण जन असंतोश बढ़ गया और केवल दो ही साल बाद तुगलक स्वयं दिल्ली आ गया और यह फिर राजधानी हो गई। खुरासान पर अधिकार की अपनी महत्वाकांक्षी योजना के लिए धन अपेक्षित था, इसलिए तुगलक ने चांदी की जगह पीतल और तांबे की प्रतीक मुद्राएं जारी कीं। इस तरह के प्रयोग चीन और फारस में सफल हो चुके थे, लेकिन वह लोगों को नकली सिक्के ढालने से नहीं रोक पाया। नतीजा यह हुआ कि नकली सिक्कों के ढेर लग गए और मुद्रा का अवमूल्यन हो गया। अपनी योजनाओं और प्रयोगों की निरंतर असफलता से तुगलक को निराषा हुई। उसने खुरासान पर अधिकार की अपनी योजना छोड़ दी और हिमाचल में स्थित कांगडा पर आक्रमण कर संतोश कर लिया। तुगलक प्रतापी, महत्वाकांक्षी और स्वप्नदृश्टा शासक था, लेकिन उसकी अधिकांष योजनाएं और प्रयोग अपारंपरिक थे, इसलिए उसे इनके क्रियान्वयन में तत्कालीन अमीरों, उलेमाओं और जनसाधारण का सहयोग नहीं मिला। जनसाधारण में असफल प्रयोगों के कारण उसके लिए गुस्सा था, उलेमा और धार्मिक कट्टपंथी मुसलमान अपनी उपेक्षा के कारण उससे खफा थे और अमीर वर्ग में निहित स्वार्थों की पूर्ति नहीं होने के कारण उसके विरुद्ध नाराजगी थी। इस तरह तमाम शुभेच्छाओं के बावजूद तुगलक को सब जगह असफलताएं हाथ लगीं। इतिहासकार इसीलिए उसे अभागा आदषZवादी कहते हैं। तुगलक का यही महत्वाकांक्षी और स्वप्नदृश्टा, लेकिन सब जगह असफल और निराष व्यक्तित्व गिरीश कारनाड के इस नाटक का आधार है। उसके सपने और उनकी दुर्गति का यथार्थ ही इस नाटक की धुरि है।

इतिहास और साहित्य में बुनियादी अंतर यह है कि इतिहास तथ्य पर आधारित होता है, जबकि साहित्य में तथ्य कल्पना के साथ संयुक्त होकर जीवंत रूप ले लेता है। यह सही है कि तुगलक की रचना के लिए कारनाड के मध्यकालीन भारतीय इतिहास का गहन शोध और अध्ययन किया है, लेकिन उनकी कल्पनाशीलता ही इस नाटक को सही मायने में नाटक का रूप देती है। इतिहास इस नाटक की रीढ है, लेकिन कल्पना इसका जीवन है। इतिहास यहां तथ्य तो उपलब्ध करवाता है, लेकिन इन तथ्यों को जीवंत मानवीय सरोकारों और संबंधों में दरअसल कल्पना ही ढालती है। कारनाड ने इस नाटक में चरित्रों और घटनाओं का ताना-बाना इतिहास से लिया है, लेकिन संबंधों का विस्तार, उनकी प्रकृति आदि का निर्धारण उनकी उर्वर कल्पना ने किया है। तुगलक ऐतिहासिक व्यक्तित्व है, लेकिन उसकी सोच, उसके निरंतर अंतर्संघशZ और संवेदनषीलता को गढने का काम कारनाड के रचनाकार की कल्पना ने किया है। तुगलक इतिहास में सनकी और पागल के रूप में कुख्यात है, लेकिन यह अकारण नहीं है। दरअसल निरंता असफलता और हताशा तुगलक के सकारात्मक चरित्र को नकारात्मक बना देती है। कारनाड का कल्पनाषील रचनाकार तुगलक के सनकी और निरंकुष शासक में तब्दील हो जाने प्रक्रिया के मानवीय पहलू को बहुत खूबी ओर बारीकी के साथ पेष करता है। कारनाड की कल्पनाषीलता तुगलक को एक ऐसे असाधारण मनुश्य का रूप देती है, जो अपनी सोच को अमल में लाने की जद्दोजहद में टूटता जाता है और अंतत: हार जाता है। यह कारनाड की कल्पना का ही चमत्कार है कि नाटक के अंत में तुगलक ऐसे शख्स के रूप में सामने आता है, जिसे परिस्थितियों में सनकी और पागल बना दिया है और दषZकों को उससे सहानुभूति होती है। कारनाड की कल्पना तुगलक के एक साथ परस्पर विरोधी और एक-दूसरे को करते हुए कई रूप गढती है। वह चिंतनषील, संवेदनशील और परदुखकातर है, लेकिन साथ ही वह कूटनीतिज्ञ, नृषंश, क्रूर और निरंकुष भी है। इस तरह का परस्पर विरोधी चारित्रिक विषेशताओं वाला व्यक्तित्व गढना और उसको स्वीकार्य बनाए रखना मुिष्कल काम है, लेकिन कारनाड अपनी कल्पना के सहारे यह कर लेते हैं। तुगलक के संबंधों के बहुत विस्तार और बारीकी में कारनाड नहीं जाते, लेकिन सौतेली मां के चरित्र की कल्पना से उसके व्यक्तित्व को मानवीय जीवंतता का स्पषZ मिलता है। यह संबंध बहुत सांकेतिक है- इसके विस्तार में कारनाड नहीं जाते, लेकिन स्पश्ट हो जाता है कि सौतेली मां तुगलक पर अनुरक्त है और उससे उसकी अपेक्षाएं भी मां की नहीं है।

कारनाड की रचनात्मक कल्पना का इस नाटक में सबसे अच्छा उदाहरण धार्मिक नेता शेख इमामुद्दीन की कूटनीतिक ढंग से हत्या का प्रकरण है। यह प्रकरण कारनाड की कल्पना की असाधारण सूझबूझ का नतीजा है। इस घटना से उन्होंने समाज में धर्म की हैसियत की असलियत को सामने रख दिया है। मुहम्मद तुगलक का यह कथन कि ´´आमो-खास की मजहबी अकीदत की जड़ें किस कदर कमजोर है! अवाम का भोलापन फितरती तौर पर शुबहा और वहम से वाबस्ता होता है`` दरअसल हमारे समय और समाज में भी धर्म की कमजोर बुनियाद की ओर संंकेत है। कारनाड इस घटना की कल्पना से यह सिद्ध करते हैं कि समय कोई भी हो जनसाधारण की जड़ें धर्म में कम, चमत्कार और भ्रम में ज्यादा गहरी होती हैं। दौलताबाद किले के ऊपरी हिस्से पर तुगलक और बरनी के बीच हुआ संवाद भी कारनाड की कल्पनाशीलता का ही नतीजा है। इस प्रकरण की कल्पना से तुगलक का उदात्त और संवेदनषील शासक व्यक्तित्व उभरता है। इन संवादों से कारनाड तुगलक की सोच और उसके कार्यों के औचित्य पर रोषनी डालते हैं। बरनी के इस परामर्श पर कि सबको माफी बख्श दें, तुगलक कहता है-´´ लेकिन उससे पहले मुझे ये यकीनी तौर पर इल्म होना चाहिए कि मेरा मकसद ही गलत था। मेरे इरादे ही नाकिस थे। तब ‘यद तुम्हारा यह इलाज मुफीद साबित हो। लेकिन जब तक वो लम्हा नहीं आयेगा, तब तक इसी पर अमल करूंगा। मैंने जो सीखा है या जाना है, उसी को जारी रखूंगा, उसी से रिआया को रूशनास कराता रहूंगा। मैं यह कभी गवारा नहीं करूंगा कि तवारीख को फिर अंधों की तरह अपने- आपको दुहराने का मौका मिले। ये मजबूरी है कि अपने पास मौजूदा एक ही जिंदगी पड़ी है, इसलिए मैं इसे नाकाम नहीं होने दूंगा। (एक-एक हर्फ पर जोर देकर) लोग जब तक मेरी बातों पर गौर नहीं करेंगे, तब तक यह कत्ले-आम मुसलसल जारी रहेगा। दूसरा कोई चारा नहीं, बरनी।``

नाटक में ढिंढोरची और उसकी घोषणाएं भी कारनाड की कल्पनाषीलता का नमूना हैं। इस कल्पना से नाटक में समय के विस्तार और घटनाओं की भीड़भाड़ कम करने में बहुत मदद मिली है। ढिंढोरची मंच पर आकर अपने ऐलान से घटनाओं का वृत्तांत पेष करता है, जिससे दषZक, जो देख रहे हैं उसको व्यापक परिप्रेक्ष्य में समक्ष लेते हैं। सबसे पहले ढिंढोरची पहले दृष्य के बीच में आता है और उपस्थित जन साधारण को सुल्तान के विरुद्ध ब्राह्मण विष्श्णुप्रसाद की दरख्वास्त पर हाकिमे अदालत का फैंसला बताता है। दृष्य चार से पहले िढंढोरची आईन-उल-मुल्क की दिल्ली पर चढ़ाई, सुल्तान के कन्नोज प्रस्थान, शेख इमामुद्दीन द्वारा सुल्तान को सहयोग देने और सुल्तान की अनुपस्थिति में शहाबुद्दीन के नायब सुल्तान होने की सूचना देता है। दृष्य सात के पूर्व िढंढोरची के दो महत्वपूर्ण ऐलान हैं। एक में वह शाही महल में बगावत और उसमें शहाबुद्दीन शहीद होने की सूचना और दूसरे में वह दिल्ली के जनसाधारण को एक माह में दौलताबाद जाने का शाही फरमान सुनाता है।

Sunday 4 May, 2008

इलेक्ट्रोनिक मीडिया से बदल रहा है साहित्य?

इलेक्ट्रोनिक मीडिया दृश्य और श्रव्य प्रविधि है। उपग्रह-प्रक्षेपण से इसकी पहुंच और प्रभाव का दायरा बड़ा हो गया और डिजिटल-तकनीक ने इसकी दृश्य-श्रव्य के संचार की गुणवत्ता बढ़ा दी। पारम्परिक प्रिंट मीडिया में अभिव्यक्ति का माध्यम भाषा थी। भाषा की लाक्षणिकता, व्यंजकता, मुहावरा आदि ही इसकी अभिव्यक्ति के खास औजार थे। इलेक्ट्रोनिक मीडिया, उसमें भी खास तौर पर टीण्वीण् ने अभिव्यक्ति की पद्धति को पूरी तरह बदल दिया। अब दृश्य का यथावत और त्वरित गति से संचार संभव हो गया। भाषा भी यहां श्रव्य रूप पाकर अधिक लाक्षणिक और व्यंजक हो गई। पाठ्य अभिव्यक्ति में भाषा की नाटकीयता लगभग खत्म हो गई थी-टीण्वीण् में उसका भी पुनराविष्कार हुआ। इस सबका नतीजा यह हुआ कि पारम्परिक अभिव्यक्ति-रूप इलेक्ट्रोनिक मीडिया की जरूरतों के अनुसार अपनी प्रकृति, प्रक्रिया और स्वरूप को बदलने के लिए तत्पर और बेचैन दिखे। इस प्रक्रिया में कुछ अभिव्यक्ति-रूपों का रूपान्तरण हुआ और कुछ सर्वथा नए अभिव्यक्ति-रूप भी अस्तित्व में आए।
इलेक्ट्रोनिक मीडिया बहुराष्ट्रीय पूंजी के स्वामित्व वाला व्यापारिक उपक्रम है, इसलिए यह अपने लाभ के लिए संस्कृति को उत्पाद और उद्योग में बदलता है। अपने विस्फोटक विस्तार के साथ ही हमारे देश में भी उसने यही किया। हमारे यहां यह तत्काल और आसानी से हो गया। दरअसल हमारे यहां परंपरा से समाज के सभी तबकों को संस्कृति के उपभोग की अनुमति नहीं थी। इस संबंध में कई सामाजिक विधि-निषेध और नैतिक अंतबाZधाएं थीं। 1990 के दशक में इलेक्ट्रोनिक मीडिया के विस्फोटक विस्तार से यह सब भरभरा कर ढह गए। संस्कृति के उपभोग में अब कोई बाधा नहीं रही। इसके लिए केवल उपभोक्ता होना पर्याप्त था। देखते-ही-देखते संस्कृति विराट उद्योग में तब्दील हो गई और इसके व्यवसाय का ग्राफ तेजी से ऊपर चढ़ गया। टीण्वीण्, रेडियो, केबल और लाइव मनोरंजन में उफान आ गया। एक सूचना के अनुसार वषZ 2003 के दौरान हमारे यहां मनोरंजन उद्योग 16,600 करोड़ रुपए का कूता गया। एक अनुमान के अनुसार हमारे यहां फिल्मों का कारोबार वषZ 2006 में 1.1 खरब डॉलर हो जाएगा। साहित्य भी संस्कृति-रूप है, इसलिए इस सब से या तो यह हािशए पर आ गया है या तेजी से अपने को उत्पाद और उद्योग में बदल रहा है। फरवरी, 2004 में दिल्ली में आयोजित सोलहवें विश्व पुस्तक मेले के उद्घाटन के अवसर पर भारतीय मूल के साहित्य के नोबेल पुरस्कार विजेता सर वी.स.नायपाल ने साहित्य की इस स्थिति पर टिप्पणी करते हुए कहा कि ´´दुर्भाग्य है कि आज साहित्य अपनी जड़ों से उखड़ गया हैं। साहित्य का स्थान घटिया कथानक, जादू-टोना और ओझाई लेखन ने ले लिया है। तकनीकी विकास के साथ पुस्तकों की बिक्री बढ़ी है और नए पाठक तैयार हो रहे है, लेकिन बिक्री की नई तरकीबों के बीच साहित्य मर रहा है। उसे कोने में धकेल दिया गया है।``
संस्कृति के औद्योगीकरण की प्रक्रिया से हमारे पारंपरिक साहित्य में जबर्दस्त बेचैनी है। आरिम्भक आंशिक प्रतिरोध के बाद थोड़े असमंजस के साथ इसमें बाजार की जरूरतों के अनुसार ढलने की प्रक्रिया की शुरुआत हो गई है। साहित्य को उत्पाद मानकर उसकी माकेZटिंग हमारे यहां भी शुरू हो गई है। इसका नतीजा यह हुआ कि साहित्य की घटती लोकप्रियता के बावजूद पिछले कुछ सालों से हमारे यहां पुस्तकों की बिक्री में असाधारण वृिद्ध हुई है। एक सूचना के अनुसार हमारे यहां 70,000 पुस्तकें प्रतिवर्ष छपती हैं और ये 10 से 12 प्रतिशत सालाना की दर से बढ़ रही है। अब हमारे यहां साहित्य भी साबुन या नूडल्स की तरह उत्पाद है, इसलिए इसकी मार्केटिंग के लिए फिल्म अभिनेताओं का सहारा लेने की बात की जा रही है। इंडिया टुडे कॉनक्लेव, 2004 में शामिल विश्वविख्यात अमरीकी प्रकाशक अल्फ्रेड एण् नॉफ के भारतीय मूल के अध्यक्ष और संपादक सन्नी मेहता ने प्रस्ताव किया कि ´´कुछ साल पहले अमरीकी टी.वी. के लोकप्रिय प्रस्तोता ऑप्रा विनफ्रे के साप्ताहिक टीण्वीण् बुक-क्लब शुरू करने के बाद पुस्तकों की बिक्री काफी बढ़ गई थी। कल्पना की जा सकती है कि अगर आज अमिताभ बच्चन या ऐश्वर्या राय भारत में टीण्वीण् पर ऐसा कार्यक्रम शुरू कर दें तो क्या कमाल हो सकता है।`` इलेक्ट्रोनिक मीडिया पर चर्चित और विख्यात होने के कारण सलमान रश्दी, विक्रम सेठ और अरुंधती राय की किताबें हमारे यहां तेजी से लोकप्रिय हुई हैं। बहुत उबाऊ और बोिझल होने के बावजूद इन किताबों के हिन्दी रूपान्तरण निकले और पाठकों द्वारा खरीदे भी गए।
हमारे यहां उत्पाद मानकर साहित्य की मार्केटिंग ही नहीं हो रही है, बाजार की मांग के अनुसार इसके सरोकार, वस्तु, ल्प आदि में भी बदलाव किए जा रहे हैं। इसमें मनोरंजन, उत्तेजना और सनसनी पैदा करने वाले तत्वों में घुसपैठ बढ़ी है। इस कारण पिछले कुछ वर्षों से हमारे साहित्य में भी राजनेताओं, उच्चाधिकारियों, अभिनेताओं और स्टार खिलािड़यों के व्यक्तिगत जीवन से पर्दा उठाने वाली आत्मकथात्मक, संस्मरणात्मक और जीवनपरक रचनाओं की स्वीकार्यती बढ़ी है। बिल िक्लंटन और मोनिका लेविंस्की की यौन लीलाओं के वृत्तांत का हिन्दी-रूपान्तरण ´मैं शर्मिंदा हूं` को साहित्य के एक विख्यात प्रकाशक ने प्रकाशित किया और यह हिन्दी-पाठकों में हाथों-हाथ बिक गया। हिन्दी में ही नेहरू और लेडी माउंटबेटन एडविना के प्रणय संबंधों पर आधारित केथरिन क्लैमां के फ्रेंच उपन्यास ने पर्याप्त लोकप्रियता अर्जित की। इसी तरह विख्यात पत्रिका ´हंस` में राजेन्द्र यादव द्वारा चर्चित प्रसंग ´होना और सोना एक औरत के साथ` को हिन्दी की साहित्यिक बिरादरी ने चटखारे लेकर पढ़ा और सराहा। हिन्दी की श्रेष्ठ साहित्यिक रचनाओं में भी जाने-अनजाने मनोरंजन और उत्तेजना पैदा करने वाले तत्वों की मात्रा पिछले दस-बारह सालों में बढ़ी है। मैत्रेयी पुष्पा के साहित्यिक उपन्यासों में रतिक्रियाओं के दृश्य अलग से पहचाने जा सकते हैं, विजय मोहन सिंह की कहानियों में सेक्स जबरन ठूंसा गया लगता है तथा अशोक वाजपेयी की कविताओं में रति की सजग मौजूदगी को भी इसी निगाह से देखा जा सकता है। पिछले दशक में प्रकािशत सुरेन्द्र वर्मा का हिन्दी उपन्यास ´दो मुर्दों के लिए गुलदस्ता` तो संपूर्ण ही ऐसा है।
इलेक्ट्रोनिक मीडिया व्यावसायिक उद्यम है और इसका लक्ष्य उपभोक्ता-समाज को अपने संजाल के दायरे में लाकर उसकी आकांक्षा, रुचि और स्वाद का, अपने विज्ञापित उत्पादों के उपभोग के लिए, अनुकूलीकरण करना है। यह काम, जाहिर है, उपभोक्ता समाज की संपर्क भाषा में ही हो सकता है। हमारे देश में अपने प्रसार के साथ ही इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने उपभोक्ता-समाज की संपर्क भाषा हिन्दी की अपनी जरूरतों के अनुसार नए सिरे से बनाना शुरू कर दिया है। पारम्परिक प्रिंट मीडिया और साहित्य की हिन्दी ठोस और ठस थी। इस भाषा में आम भारतीय उपभोक्ता समाज से संपर्क और संवाद संभव ही नहीं था। इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने दस-पंद्रह सालों में हिन्दी का नया रूपान्तरण ´हिंगलिश` कर दिया। देखते-ही-देखते इसका व्यापक इस्तेमाल भी होने लग गया। खास तौर पर यह नयी पीढ़ी के युवा वर्ग में संपर्क और संवाद की भाषा हो गई। विख्यात फिल्म अभिनेता विवेक ओबेराय से एक बार पूछा गया कि आप सपने किस भाषा में देखते हैं, तो उनका जवाब था ´हिंगलिश में` और जब उनसे पूछा गया कि आप किस भाषा में सोचते हैं तो उन्होंने कहा कि "भावना की बात हो तो हिन्दी में और विचार हो तो अंग्रेजी में। रस की बातें हिन्दी में होती हैं और अर्थ की बातें हो तो अंग्रेजी में।" हिन्दी के इस कायान्तरण से नफा और नुकसान दोनों हुए हैं। नफा यह कि अब हिन्दी अपने लिखित-पठित, ठोस-ठस रूप के दायरे से बाहर निकल कर सरल और अनौपचारिक हो गई है। अब इसमें शुद्धता का आग्रह नहीं है और इसने परहेज करना भी बंद कर दिया है इसलिए यह व्यापक सरोकारों वाली बाजार की जनभाषा का रूप ले रही है। नुकसान यह हुआ है कि इसमें विचार को धारण करने का सामथ्र्य कम होता जा रहा है। लेकिन इस संबंध में फिलहाल कोई निष्कर्ष निकालना ठीक नहीं है। यह समय संक्रमण का है-बाजार के बीच ही सही, व्यापक जनभाषा का रूप लेने से इसमें अभी नए पेच-खम बनेंगे और यह अभी और नया रूप धारण करेगी। आज तक, स्टार न्यूज और डिस्कवरी पर हिन्दी के इस नए रूप की झलक अभी से देखी जा सकती है। हिन्दी के इस कायान्तरण से गत दस-पंद्रह सालों के हिन्दी साहित्य की भाषा में भी असाधारण बदलाव आया है। यह अब पहले जैसी ठोस और ठस साहित्यिक भाषा नहीं रही। यह अब जनसाधारण के बोलचाल की बाजार की भाषा के निकट आ गई है। विख्यात कहानीकार उदयप्रकाश ने एक जगह स्वीकार किया कि ´´इधर हिन्दी में कई लेखक उभरकर आए हैं जो बाजार की भाषा में लिख रहे हैं और उनके विचार वही हैं, जो हमारे हैं। मुझे लगता है कि हम लोगों को भी जो उन मूल्यों के पक्ष में खड़े हैं, जिन पर आज संकट की घड़ी है, अपना एक दबाव बनाने के लिए बाजार की भाषा को अपनाना पडे़गा।`` यह बदलाव केवल साहित्य के गद्य रूपों की भाषा में ही नहीं, कविता की भाषा में भी हुआ है। यहां आग्रह अब सरलता का है और इसमें बोलचाल की भाषा की नाटकीयता एवं तनाव का रचनात्मक इस्तेमाल हो रहा है।
इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने हमारे देश में संस्कृति को उत्पाद और उद्योग में बदलकर उसका जो बाजारीकरण किया, उसका एक लाभ यह हुआ है कि इसका उपयोग पहले की तरह अब कुछ वर्गों तक सीमित नहीं रहा। इसके उपभोग में जाति, धर्म, संप्रदाय और लैंगिक भेदभाव समाप्त हो गया है। साहित्य भी संस्कृति का एक रूप है इसलिए इलेक्ट्रोनिक मीडिया के प्रसार के साथ हमारे देश में इसका भी व्यापक रूप से और त्वरित गति से जनतंत्रीकरण हुआ है। इस कारण हमारे यहां पिछले दस-पंद्रह सालों के दौरान साहिित्यक अभिव्यक्ति और इसके उपभोग की आकांक्षा समाज के सभी वर्गों में खुलकर व्यक्त हुई है। इस दौरान भारतीय भाषाओं के साहित्य में दलित वर्ग के कई साहित्यकारों ने अपनी अलग पहचान बनाई। हिन्दी में भी इस दौरान दलित-विमर्श मुख्यधारा में आया। दलित वर्ग की तरह ही इधर साहित्य में अपनी अस्मिता के प्रति सचेत स्त्री रचनाकारों ने भी बड़ी संख्या में उपस्थिति दर्ज करवाई है। अंग्रेजी और हिन्दी की लगभग सभी लोकप्रिय और साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं ने इस दौरान स्त्री रचनाओं पर विशेषांक प्रकाशित किए। साहित्य के जनतंत्रीकरण का एक और लक्षण गत कुछ वर्षों की हिन्दी की साहित्यिक सक्रियता और प्रकाशन के केन्द्र महानगरों में होते थे। अब ये वहां से शहरों, कस्बों और गांवों में फैल गए हैं। सूचनाओं की सुलभता के कारण दूरदराज के कस्बों-गांवों के रचनाकार आत्मविश्वास के साथ हिन्दी के समकालीन साहिित्यक विमर्श का हिस्सा बन रहे हैं और अपनी पहचान बना रहे हैं।
इलेक्ट्रोनिक मीडिया हमारे देश में बहुराष्ट्रीय पूंजी के नियंत्रण और निर्देशन में जिस उपभोक्तावाद और आर्थिक-सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का प्रसार कर रहा है उसका प्रतिरोध मुख्यतया हमारे साहित्य में ही हो रहा है। यूण्आरण् अनंतमूर्ति ने पिछले दिनों एक जगह कहा था कि जैसे टेलीविजन वाले करते हैं वैसे हमें नहीं करना चाहिए हमें रेसिस्ट करना है, डिसक्रिमीनेट करना है। इस प्रतिरोध के कारण गत दस-पंद्रह सालों के हमारे साहित्य के सरोकारों और विषय-वस्तु में बदलाव आया है। हिन्दी में भी यह बदलाव साफ देखा जा सकता है। मनुष्य को उसके बुनियादी गुण-धर्म और संवेदना से काटकर महज उपभोक्ता में तब्दील कर दिए जाने की प्रक्रिया का खुलासा करने वाली कई कविताएं इस दौरार हिन्दी में लिखी गई हैं। इसी तरह आर्थिक-सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के दुष्परिणामों में एकाग्र उपन्यास और कहानियां भी हिन्दी में कई प्रकाशित हुई हैं। उपभोक्तावाद और आर्थिक-सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के विरुद्ध प्रतिक्रिया इस दौरान हिन्दी कविता में पलायन की नई प्रवृत्ति के उभार में भी व्यक्त हुई है। कई कवि इस नई स्थिति से हतप्रभ और आहत होकर घर-गांव की बाल-किशोर कालानी स्मृतियों में लौट गए हैं। इस कारण इधर की हिन्दी कविता में कहीं-कहीं वर्तमान यथार्थ से मुठभेड़ की जगह स्मृति की मौजूदगी बढ़ गई है।
इलेक्ट्रोनिक मीडिया अपनी प्रविधि और खास चरित्र से पारम्परिक साहित्य की िशल्प-प्रविधि को भी अनजाने ढंग से प्रभावित कर बदलता है। साहित्यकार इलेक्ट्रोनिक मीडिया का उपभोक्ता है इसलिए अनजाने ही उसकी कल्पनाशीलता इससे प्रभावित होती है। इसके अनुसार उसका अनुकूलीकरण होता है। हमारे यहां खास तौर पर टी.वी. के कारण साहित्य की प्रविधि और शिल्प में जबर्दस्त बदलाव हुए हैं। दस-पंद्रह सालों के हिन्दी साहित्य में इस कारण दृश्य का आग्रह बढ़ गया-यहां वर्णन पहले की तुलना में कम, दृश्य ज्यादा आ रहे हैं। इसी तरह पाठक अब पहले से सूचित है और पहले से ज्यादा जातना है इसलिए इधर की रचनाओं में सूचनाएं कम हो गईं हैं या असाधारण सूचनाएं बढ़ गई हैं। टी.वी.के प्रभाव के कारण ही हिन्दी में लंबी कहानियों और उनके एपिसोडीकरण की प्रवृत्ति बढ़ी है। साहित्य की पारम्परिक तकनीक-रोचकता और रंजकता के पारम्परिक उपकरण ओवर एक्सपोजर से बासी हो गए हैं इसलिए इधर के हिन्दी साहित्य में इनके विकल्पों के इस्तेमाल की सजगता दिखाई पड़ती है। रचनाकार पुराकथाओं या मिथकों की तरफ लौट रहे हैं और वर्णन की पुरानी शैलियों का नवीनीकरण हो रहा है। इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने पारम्परिक साहित्य में एक और खास तब्दीली की है। गत दस-पंद्रह सालों के दौरान साहित्यिक विधाओं का स्वरूपगत अनुशासन ढीला पड़ गया है। इनमें परस्पर अंतर्क्रिया और संवाद बढ़ रहा है। इसका असर हिन्दी में भी दिखाई पड़ने लगा है। इसी कारण हिन्दी में उपन्यास आत्मकथा की शक्ल और आत्मकथा उपन्यास की शक्ल में लिखीं जा रही हैं। कहानियां पटकथाएं लगती हैं और संस्मरण कहानी के दायरे में जा घुसे हैं। इसी तरह हिन्दी कविता ने भी अपने पारम्परिक औजारों का मोह लगभग छोड़ दिया है। यह अधिकांश बोलचाल की भाषा के पेच और खम के सहारे हो रही है।
जाहिर है, साहित्य पर इलेक्ट्रोनिक मीडिया का गहरा और व्यापक प्रभाव है। यह अलग बात है कि आत्म मुग्ध और अपने तक सीमित साहित्यिक बिरादरी को अभी इसका अहसास बहुत कम है।

Thursday 1 May, 2008

सिरोही राज्य में 1857 का सैनिक विद्रोह

1857 का विद्रोह देशव्यापी तो था, लेकिन उस समय क्षेत्रीय विषमताएं इतनी ज्यादा थीं कि यह विद्रोह सभी क्षेत्रों में एकरूप ढंग से नहीं हुआ। खास तौर पर राजस्थान, जहां हालात बंगाल, बिहार, अवध, दिल्ली आदि की तुलना में बहुत अलग थे, यह विद्रोह व्यापक जनसहभागिता वाली किसी मुहिम या संघर्ष का रूप नहीं ले पाया। यहां यह भिन्न परिस्थितियों के कारण केवल ब्रिटिश सेना के असंतुष्ट देशी सैनिकों और कुछ हद तक सामंत शासकों से निजी कारणों से नाराज जागीरदारों के विद्रोह तक सीमित रह गया। खास बात यह है कि इन जागीरदारों ने भी बहुत खुलकर अंग्रेजों की मुखालपत करने से परहेज किया। आऊवा और कोटा के विद्रोह में जनसाधारण की सहभागिता के जो साक्ष्य दिए जाते हैं वे सही मायने में किसी राजनीतिक चेतना से प्रेरित नहीं थे। प्रस्तुत आलेख में तत्कालीन राजपुताना के गुजरात की सीमा से लगे हुए सिरोही राज्य की ऐरिनपुरा छावनी के जोधपुर लीजन के सैनिकों के विद्रोह का अध्ययन है। यह अध्ययन यह संकेत करता है कि अलग प्रकार के हालात के कारण यहां विद्रोह में जनसाधारण की भागीदारी बिलकुल नहीं थी। खास बात यह है कि इस विद्रोह से यहां के जनजीवन पर भी कोई असर नहीं पड़ा। कुछ सीधे राज्य के कामकाज से जुड़े अभिजात तबके के अलावा अन्य किसी को इसकी जानकारी भी नहीं हुई। सिरोही राज्य से व्यक्तिगत कारणों से नाराज दो बागी जागीरदार ठाकुरों ने विद्रोही सैनिकों को उकसाया, पर वे भी खुलकर उनके साथ नहीं हुए।
ब्रिटिश सरकार और सिरोही
राजपुताना के दक्षिण-पिश्चम में गुजरात की सीमा से लगा हुआ सिरोही राज्य मराठों-पिंडारियों की लूटपाट और आतंक से तो अछूता रहा, लेकिन इसके बावजूद उन्नीसवीं सदी के आरंभिक दशकों में यहां के हालात बहुत खराब और चिंताजनक थे। पड़ोसी राज्य जोधपुर के निरंतर आक्रमण, जागीरदारों के स्वेच्छाचार और भील-मीणों की लूटपाट से यहां पूरी तरह अव्यवस्था हो गई थी। उदयभाण 1807 में सत्तारूढ हुआ लेकिन राज्य में प्रशासन कायम करने के बजाय उसकी दिलचस्पी रागरंग में थी।1 जोधपुर नरेश मानसिंह की मंशा सिरोही को अपने राज्य में मिलाने की थी इसलिए वह निरंतर आक्रमण और लूटपाट से इसको कमजोर करने में लगा हुआ था। उसने 1812 में सेना भेजकर आक्रमण किया और लूटपाट की। उसने तीर्थ यात्रा से लौटते हुए उदयभाण को पाली में गिरफ्तार करवाकर जोधपुर में तीन माह तक नजरबंद रखा। इस दौरान उसने उदयभाण से सिरोही के जोधपुर के अधीन होने की तहरीर भी लिखवा ली।2 जोधपुर नरेश ने 1816 में फिर सेना भेजकर सिरोही के भीतरोट परगने को तबाह कर दिया। 1817 में उसकी सेना ने फिर भीषण आक्रमण किया और इस बार लूटपाट निरंतर दस दिन तक जारी रही। यह सेना सिरोही से लगभग ढाई लाख का माल-असबाब लेकर जोधपुर लौटी। सिरोही नरेश को इस दौरान पहाड़ों में शरण लेनी पड़ी।3 निरंतर आक्रमणों से हालत इतनी खराब हो गई थी कि राज्य में आबाद गांव गिनती के ही रह गए थे।4 अंतत: सिरोही के जागीरदार एकमत होकर उदयभाण के छोटे भाई नादिया के जागीरदार ठाकुर िशवसिंह के पास गए और उससे राज्य का प्रबंध अपने हाथ में लेने का आग्रह किया। 1817 में शिवसिंह ने उदयभाण का नजर कैद कर राज्य का प्रबंध अपने हाथ में ले लिया।5 राज्य में इस समय माहौल अराजकता का था और इसका राजस्व केवल 60 हजार रुपए वार्षिक रह गया था। गौरीशंकर हीराचंद ओझा के अनुसार देश उजड़-सा गया था और राज्य की इतनी ताकत न थी कि प्रजा के जान-माल की रक्षा कर सके।6 चोरी-डकैती राज्य के भील-मीणों की आजीविका के मुख्य स्त्रोत थे। ये सिरोही सहित पड़ोसी जोधपुर और पालनपुर राज्यों में लूटपाट करते थे। जोधपुर के पॉलिटिकल एजेंट पीण्वाईण् वाघ ने अपने समाचार लेखकों के साक्ष्य से सिरोही राज्य के बिगड़ते हालातों के संबंध में एकाधिक बार दिल्ली और मालवा के रेजिडेंट डेविड ऑक्टरलोनी को लिखा। वाघ ने स्पष्ट किया कि भील-मीणों की लूटपाट रोकने की क्षमता और साधन सिरोही नरेश के पास नहीं है।7 उसने कुख्यात भील-मीणों-भरथ, हुरजीरा, राणोमा, रूपला, बिड्डा, कायरा, बेडिया, पीठा और जोधा के नामोल्लेख करते हुए ऑक्टरलोनी को यह भी लिखा कि इनको मोचाल, रेवाडा, अरठवाड़ा आदि के ठाकुरों का संरक्षण प्राप्त है।8 जागीरदार ठाकरों का स्वेच्छाचार भी इस समय बहुत बढ़ गया था। वे राज्य की अवज्ञा करते थे और संतान नहीं होने की स्थिति में राज्य अनुमति के बिना ही किसी को गोद ले लेते थे। निंबज का जागीरदार ठाकुर सिरोही नरेश का मुख्य शत्रु था, जिसको जोधपुर नरेश का संरक्षण प्राप्त था। सिरोही नरेश का अधिकांश समय इस बागी ठाकुर की छलकपटपूर्ण चालों का मुकाबला करने में बीतता था।9
उन्नीसवीं सदी दूसरे दशक तक आपसी प्रतिद्वंद्विता और द्वेष तथा मराठों और पिंडारियों की लूटपाट से कमजोर हो गई राजस्थान की अधिकांश रियासतों ने संधियों द्वारा ब्रिटिश सरकार का संरक्षण प्राप्त कर लिया था। जोधपुर के आक्रमणों और आतंरिक अव्यवस्था से परेशान सिरोही नरेश िशवसिंह ने भी सत्तारूढ होते ही 1817 में कंपनी सरकार के संरक्षण में जाने की इच्छा व्यक्त की। उसने इस निमित्त बड़ोदा के रेजिडेंट कप्तान करनिक को पत्र लिखा।10 सिरोही राजपुताना में होने के कारण दिल्ली रेजिडेंट के अधीन था, इसलिए करनिक ने सिरोही नरेश को इस संबंध में वहां से पत्राचार करने के निर्देश दिए।11 सिरोही नरेश की पहल पर पिश्चमी राजपुताना के पॉलिटिकल एजेंट कर्नल जेम्स टॉड के माध्यम से पत्राचार आरंभ हुआ, लेकिन इसमें जोधपुर के नरेश मानसिंह ने बाधा डाल दी। उसके अनुसार सिरोही जोधपुर राज्य के अधीन उसका एक अंग है और जोधपुर राज्य से 1818 में संधि हो चुकी है, इसलिए सिरोही से पृथक् से संधि गलत है।12 जोधपुर के इस दावे की पड़ताल का काम कर्नल टॉड को सौंपा गया, जिसने बहुत निष्पक्ष रहकर दोनों पक्षों के वकीलों की दलीलें सुनीं और दस्तावेज देखे। उसने जोधपुर के दावे को खारिज करते हुए सिरोही के स्वतंत्र राज्य होने की पुिष्ट कर दी।13 इसके बाद दिल्ली और मालवा के रेजिडेंट डेविड ऑक्टरलोनी ने कोषागार खाली होने, यात्रा असुरक्षित होने तथा कानून की अवज्ञा करने वाले तत्वों के निरंतर बढ़ने का उल्लेख करते हुए आपराधिक तत्वों के दमन और व्यापार को सुरक्षा प्रदान करने के लिए सिरोही राज्य को ब्रिटिश संरक्षण लेने की सिफारिश कर दी।14 कप्तान स्पीयर्स को सिरोही राज्य के साथ संधि करने का दायित्व दिया, जिसने विचार-विमशZ कर संधि का प्रारूप तैयार किया, जो स्वीकार कर लिया गया और अंतत: 11 सितंबर, 1823 को संधि हो गई और सिरोही राज्य ब्रिटिश संरक्षण और सुरक्षा में आ गया।15
ब्रिटिश संरक्षण में जनसाधारण और जागीरदार
सिरोही के ब्रिटिश संरक्षण में आ जाने के अच्छे परिणाम निकले। इससे यहां नरेश की सत्ता फिर कायम हुई। जनसाधारण ने राहत की सांस ली, भील-मीणों का आतंक कम हुआ और जागीरदारों के स्वेच्छाचार में भी कमी आई। जोधपुर के आक्रमणों के दौरान होने वाली लूटपाट और भील-मीणों के आतंक से यहां के जनसाधारण को कुछ हद तक मुक्ति मिली। गौरीशंकर हीराचंद ओझा के अनुसार सरकार अंग्रेजी की सहायता लोगों के वास्ते ऐसी फायदेमंद हुई, जैसी कि सूखती हुई खेती के लिए बारिश होती है।16 9 जून, 1822 को जब कर्नल टॉड इंग्लैंड जाने से पूर्व यात्रा करता हुआ यहां से गुजरा तो हालात सामान्य होने लगे थे। उसने लिखा कि ष् शहर जो पहले बिलकुल उजड़-सा गया था अब बसने लग गया है, जो व्यापारी तीन या चार साल पहले यह समझते थे कि सिरोही में घुसना चोरों की मांद में घुसना है और यह बात अक्षरश: सत्य भी थी, वे अब फिर दुकानें खोलने लगे हैं।17 यहां भील-मीणों की लूटपाट और आतंक में कमी आई। आधिपत्य में आते ही ब्रिटिश सरकार ने बंबई रेजिडेंसी की एक सैनिक टुकड़ी को सिरोही में नियुक्त कर दिया, जिसने बहुत अच्छा काम किया। ब्रिटिश सेना की मौजूदगी का यहां की लूटपाट ओर चोरी-चकारी करने वाली जनजातियों पर जादुई असर हुआ। जीण् स्वीन्टोन ने डेविड ऑक्टरलोनी को 11 जून, 1824 को एक पत्र में लिखा कि ष्जंगली जातियां सोचती हैं कि अंग्रेज जादूगर हैं, जो अपनी अपनी जेब में सेना छिपाकर ले जा सकते हैं और वे लड़ाई के समय कागज के सिपाहियों से काम लेते हैं।ष्18 अंग्रेजों के परामशZ पर राज्य में भील-मीणों की लूटपाट के विरुद्ध कई उपाय किए। टॉड ने अपने यात्रा विवरण में लिखा है कि ष्मीणा जाति की पूरी तरह रोक दिया गया हैं, मजबूत चौकियां कायम कर दी गई हैं और व्यापारियों, कारीगरों व किसानों को लूट के विरुद्ध सुरक्षा एवं प्रोत्साहन देने के पट्टे दिए जाते है।19
ब्रिटिश संरक्षण में यहां के स्वेच्छाचारी जागीरदार ठाकुरों के विरुद्ध भी कार्यवाही शुरू की गई। निंबज का ठाकुर जोधपुर नरेश की शह पर सिरोही नरेश की मुखालपत करता था। 1840 में उसने अपने पुत्र को गिरवर में गोद रखकर वहां का पट्टा अपने अधीन कर लिया। गिरवर पर सेना भेजी गई, जिसने ठाकुर के पुत्र को गिरफ्तार कर लिया। पॉलिटिकल एजेंट ने हस्तक्षेप कर निबंज ठाकुर को अपना दावा छोड़ने के लिए विवश किया, जिससे सिरोही नरेश ने गिरवर को खालसा घोषित कर सीधे अपने अधीन कर लिया।20 यहां के कुछ जागीरदार ठाकुर भील-मीणों को लूटपाट के लिए प्रोत्साहन और संरक्षण देकर उनसे हिस्सा लिया करते थे, इसलिए उन पर भी ब्रिटिश सेना के सहयोग से सख्ती की गई। जोगापुरा के ठाकुर को इसके लिए दंडित किया गया।21 भटाणा के जमीरदार ठाकुर के दो गांव सीमा निर्धारण के दौरान पालनपुर में चले गए थे, इसलिए उसने विद्रोह कर दिया। पहाड़ों में शरण लेकर उसने लूटपाट आरंभ कर दी। अंग्रेजी सेना के सहयोग से वह पकड़ा गया, लेकिन 1858 में वह जेल से भाग गया। उसको पकड़ने के सभी प्रयत्न व्यर्थ गए। अंत में उसने सिरोही नरेश से समझौता कर लिया।22 रोहुआ के बागी ठाकुर के विरुद्ध भी अंग्रेजी सेना के सहयोग से कार्यवाही की गई। इसी तरह धानता, वेलांगरी, सणवाड़ा, सिरोड़ी, पीथापुरा आदि ठिकानों के जागीरदारों के विद्रोह और झगड़ों को दबाने में भी अंग्रेजों ने नरेश की भरपूर मदद की।23
जोधपुर लीजन और सैनिक विद्रोह
1818 में संपन्न संधि के अनुसार जोधपुर राज्य को यथावश्यकता ब्रिटिश सरकार को 1500 घुड़सवार सैनिक उपलब्ध करवाने थे। 1832 में ब्रिटिश सरकार के आदेश पर भेजे गए ये सैनिक अनुशासनहीन और अयोग्य पाए गए। 1835 में इस संबंध में फिर संधि हुई और यह प्रावधान किया गया कि 1500 घुड़सवारों के बदले जोधपुर राज्य 1,15,000 रुपए वार्षिक देगा, जिससे ब्रिटिश सरकार एक सेना तैयार करेगी।24 इस रािश से ब्रिटिश सरकार ने 1836 में अजमेर में केिप्टन डाउनिंग के नेतृत्व जोधपुर लीजन नामक सेना का गठन किया। 1842 में इस सेना का मुख्यालय अजमेर से हटाकर जोधपुर की सीमा के निकट स्थित सिरोही राज्य के ऐरिनपुरा में कर दिया गया। विद्रोह के समय केिप्टन हॉल के नेतृत्व में जोधपुर लीजन के पैदल, तोपखाना और घुड़सवार, तीन अंग थे। इसकी पैदल सेना में आठ कंपनियां पूरबिया और शेष तीन भील सैनिकों की थीं।25 माउंटआबू राजपुताना में अरावली शृंखला का सबसे ऊंचा और ठंडा स्थान था, इसलिए 1845 में सिरोही के साथ संधि26 कर ब्रिटिश सरकार ने यहां एक सेनिटोरियम बनाया, जहां राजपुताना और उसके पास स्थित अन्य राज्यों के ब्रिटिश सैनिक स्वास्थ्य लाभ और विश्राम के लिए रहते थे। यह ब्रिटिश अधिकारियों और उनके परिवारों का ग्रीष्मकालीन आवास भी था। विद्रोह के समय यहां जोधपुर लीजन के 60 देशी सैनिकों की एक सुरक्षा टुकड़ी के अतिरिक्त हिजमेजेस्टीज रेजिमेंट के 30 या 35 बीमार ब्रिटिश सैनिक भी विश्राम कर रहे थे। 18 अगस्त, 1857 को जोधपुर लीजन की एक कंपनी रोहुआ के बागी जागीरदार ठाकुर के विद्रोह को दबाने के लिए माउंट आबू के नीचे अनादरा पहुंची। कोटिन हॉल, जो इस समय माउंटआबू में था, 19 अगस्त, 1857 की नीचे आया और उसने सैनिकों को जरूरी दिशा-निर्देश दिए और वह माउंट आबू लौट गया। मार्ग में उसकी भेंट माउंटआबू में नियुक्त जोधपुर लीजन की सुरक्षा टुकड़ी के हवलदार गोजनसिंह से हुई। गोजनसिंह ने उसके पूछने पर बताया कि वह अनादरा में नियुक्त अपने साथियों से मिलने जा रहा है। बाद में हुई जांच-पड़ताल में पता लगा कि अनादरा में जोधपुर लीजन की कंपनी के विद्रोह में इस गोजनसिंह ने निर्णायक भूमिका निभाई।28 अनादरा के निकट स्थित भटाना और रोहुआ के जागीरदार ठाकुरों की भी इस विद्रोह में महत्वपूर्ण भूमिका थी। ये दोनों ठाकुर सिरोही नरेश से निजी कारणों से नाराज थे। भटाना का बागी ठाकुर नाथूसिंह सिरोही जेल से भागकर पहाड़ों में छिपा हुआ था और रोहुआ के ठाकुर उम्मेदसिंह के बागी तेवर के विरुद्ध ही अनादरा में जोधपुर लीजन की कंपनी नियुक्त की गई थी। ये दोनों ठाकुर सिरोही नरेश के साथ अंग्रेजों से भी खफा थे, क्योंकि उनकी सरपरस्ती में सिरोही नरेश उनके पारंपरिक विशेषाधिकारों में कटौती कर रहा था। कहते हैं कि ये दोनों ठाकुर माउंटआबू पर नियुक्त जोधपुर लीजन की सुरक्षा टुकड़ी के संपर्क में थे और उनके सुझाव पर ही गोजनसिंह नीचे आया था। दरअसल ये दोनों ठाकुर और विद्रोही माउंटआबू में ब्रिटिश सैनिकों की वास्तविक उपस्थिति के बारे में जानना चाहते थे।29 जोधपुर के पुराने अभिलेखों में भटाना ठाकुर नाथुसिंह देवडा के संबंध में एक लोकगीत मिला है, जिसमें उसके द्वारा छावनी लूटने और गोरों की हत्या करने का उल्लेख मिलता है, लेकिन तत्कालीन ब्रिटिश साक्ष्यों से इसकी पुष्टि नहीं होती ।30
21 अगस्त को सुबह लगभग 3 बजे अनादरा स्थित जोधपुर लीजन की कंपनी ने विद्रोह कर दिया। कंपनी के 40 या 50 सैनिक अनादरा से माउंटआबू पर चढ़ गए।30 सुबह कोहरा इतना घना था कि किसी को उनकी भनक तक नहीं लगी।31 उन्होंने अंग्रेज सैनिकों की बैरकों पर गोलियां चलाना शुरू कर दिया। बीमार और अयोग्य अंग्रेज सैनिकों ने भी उत्तर में गोलीबारी की।32 कोई भी अंग्रेज सैनिक हताहत नहीं हुआ। एक सार्जेंट के साथ 14 सैनिकों एक टुकड़ी ने पास ही स्थित स्कूल की ओर प्रस्थान किया। मेहरबानसिंह के नेतृत्व विद्रोही सैनिकों ने केिप्टन हॉल के आवास पर भी आक्रमण किया, लेकिन उसने सपरिवार पिछले दरवाजे से निकल कर स्कूल में शरण ले ली।33 केिप्टन हॉल के आवास पर गोलीबारी की आवाज सुनकर एजीजी का पुत्र एण् लॉरेंस बाहर निकला और विद्रोहियों की गोलीबारी में घायल हो गया। सभी अंग्रेज परिवारों को स्कूल में सुरक्षित पहुंचाकर केिप्टन हॉल और डाक्टर यंग हिज मेजेस्टीज रेजिमेंट के आठ अंग्रेजी सैनिकों के साथ जोधपुर लीजन की सुरक्षा टुकड़ी के िशविर की ओर गए। कुछ देर गोलीबारी के बाद केप्टिन हॉल ने विद्रोहियों को पहाड़ी के नीचे, अनादरा की तरफ खदेड़ दिया।34 अनादरा में एकत्रित होकर विद्रोहियों ने सिरोही की ओर प्रस्थान किया। मार्ग में चौकियों पर नियुक्त सुरक्षा प्रहरी भी विद्रोहियों के साथ हो गए।35 यह पता लगने पर कि सिरोही नरेश ने नगर के द्वार पर दो तोपें तैनात कर दी हैं तो विद्रोही मार्ग बदलकर ऐरिनपुरा पहुंच गए।36
ऐरिनपुरा छावनी में अनादरा के विद्रोही सैनिकों के पहुंचने से पहले ही विद्रोह हो गया था। माउंटआबू में हुए विद्रोह की सूचना लेफ्टिनेंट कोनोली को अपने अर्दली मखदूम बख्श से प्राप्त हुई। दरअसल मखदूम बख्श को आबू से एक विद्रोही सैनिक ने पत्र लिखा था जिसमें आबू में हुए विद्रोह का अतिरंजित विवरण देते हुए ऐरिनपुरा छावनी के सैनिकों से आग्रह किया गया था कि वे छावनी की तोपें छीनकर दिल्ली की ओर प्रस्थान कर दें। यह पत्र मखदमू बख्श ने कोनोली के सौंप दिया। कोनोली ने विद्रोह सूचना के साथ एक गोपनीय संदेश तत्काल सैनिक सहायता के लिए जोधपुर के पॉलिटिकल एजेंट मॉक मेसन भेज दिया।37 छावनी में इस समय लेिफ्टनेंट कोनोली सहित तीन अंग्रेज अधिकारी और उनके परिवार, जिनमें दो महिलाएं और पांच बच्चे थे, निवास कर रहे थे। 22 अगस्त को दिन निकलने के बाद कोनोली घोड़े पर सवार होकर परेड ग्राउंड पर गया तो माहौल में उत्तेजना थी। तोपों की तरफ दौड़ रहे सैनिकों को उसने उनसे दूर रहने का आदेश दिया, लेकिन इसका कोई असर नहीं हुआ। इसी समय घुड़सवार सेना भी बागी हो गई। वह मेजर वूडी के साथ तोपखाने की तरफ गया, लेकिन सैनिकों ने तोपों का मुंह उसकी तरफ घुमाकर उसको मारने की धमकी दी। कोनोली ने दूसरी दिशा से तोपों की ओर पहुंचने का प्रयत्न किया, लेकिन सैनिकों ने उसकी तरफ बंदूकें तान कर यह प्रयास विफल कर दिया। भील सैनिक निष्ठावान बन रहे, लेकिन विद्रोही इतने अधिक उत्तेजित थे कि उन्होंने उनके विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की। कुछ निष्ठावान सैनिक, जिनमें रिसालदार अब्बास अली, इलाही बख्श और नसीरूद्दीन प्रमुख थे, कोनोली की रक्षा के लिए आगे आए। विद्रोहियों में मतभेद और झगड़ा हो गया। कुछ सैनिक कोनोली सहित सभी अंग्रेजों को उनके भाग्य पर छोड़ देने के पक्ष में थे, जबकि कुछ उन्हें मार डालना चाहते थे। अब्बास अली बेग ने अपनी पगड़ी विद्रोहियों के पैरों में रखते हुए ऐलान कर दिया यदि कोई सैनिक कोनोली की तरफ बढ़ेगा तो उसे पहले उसकी लाश पर से गुजरना होगा।38 विद्रोहियों ने सभी अंग्रेज अधिकारियों और उनके परिवारों को परेड ग्राउंड के बीच एक टेंट में रात गुजारने की अनुमति दी, जहां वे पूरी रात सो नहीं पाए।39 23 अगस्त की सुबह माउंट और अनादरा के विद्रोही सैनिक ऐरिनपुरा पहुंच गए, जहां उनका भव्य स्वागत हुआ। निष्ठावान सैनिकों ने इन विद्रोही सैनिकों को अंग्रेजों को नुकसान पहुंचाने से रोक दिया। विद्रोहियों ने अपने नेता मेहरबानसिंह को जनरल के पद पर पदोन्नत कर दिया। उन्होंने कोनोली के अतिरिक्त सभी अंग्रेज अधिकारियों, महिलाओं और बच्चों को जाने की अनुमति दे दी और इन सभी को िशवगंज के कामदार को सौंप दिया गया, जिसने उन्हें सुरक्षित सिरोही पहुंचा दिया।40 विद्रोहियों ने अपने नेता मेहरबानसिंह के आदेश पर 24 अगस्त को पाली के मार्ग से दिल्ली की ओर कूच किया। उन्होंने लेफ्टिनेंट कोनोली को भी उसके निष्ठावान सैनिकों सहित घोड़े पर बिठाकर अपने साथ ले लिया। अंतत: ढोला के पास पहुंचकर विद्रोहियों ने कोनोली को उसके निष्ठावान देशी सैनिकों के साथ मुक्त कर दिया।41 सिरोही राज्य के मुंशी नियामत अली की भेंट दो दिन तक निरंतर विद्रोहियों का पीछा करने के बाद कोनोली से हुई। नियामत अली कोनोली और उसके रक्षक सैनिकों को सुरक्षित सिरोही ले आया।42 विद्रोही पाली की ओर बढ़ रहे थे, लेकिन जोधपुर के किलेदार अनाड़सिंह के सेना सहित पाली में होने की सूचना मिलने पर उन्होंने अपना मार्ग बदल लिया। वे खेरवा होते हुए आऊवा के निकट एक गांव में पहुंचे, जहां आऊवा के ठाकुर ने उनके सामने जोधपुर राज्य के विरुद्ध उसका साथ देने का प्रस्ताव रखा। विद्रोही तत्काल दिल्ली पहुंचना चाहते थे, इसलिए वे दो भागों में बंट गए।43 इनमें से कुछ ने दिल्ली की ओर कूच किया, जबकि शेष ने आऊवा के संग्राम में वहां के ठाकुर की मदद की। आऊवा में जोधपुर और ब्रिटिश सेना की दो बार परास्त करने के बाद जोधपुर लीजन के इन शेष सैनिकों ने भी प्रमुख जागीरदार ठाकुरों के साथ 10 अक्टूबर, 1857 को दिल्ली की ओर प्रस्थान कर दिया
सिरोही राज्य के माउंटआबू और ऐरिनपुरा में हुआ जोधपुर लीजन का विद्रोह केवल सैनिक विद्रोह था। बंगाल, बिहार, अवध आदि राज्यों में जनसाधारण और उसमें भी खास तौर पर किसानों ने विद्रोह में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, लेकिन सिरोही में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। यहां के जनसाधारण ने न तो विद्रोह में भाग लिया और न ही उसका समर्थन किया। विद्रोह के दौरान सिरोही का सामान्य जन जीवन भी अप्रभावित रहा। हमेशा की तरह यहां खेती और व्यापार होते रहे, राजस्व वसूली हुई और सभी प्रकार का लेन देन और दैनंदिन कामकाज निबाZध हुआ।44 दरअसल पूर्वी और केन्द्रीय प्रांतों को ब्रिटिश मौजूदगी और शासन का लंबा अनुभव था, जबकि सिरोही के जनसाधारण को यह अनुभव फिलहाल नहीं के बराबर था। सिरोही राज्य ने 1823 में ही ब्रिटिश सरकार से संधि की थी और जनसाधारण के मन में फिलहाल ब्रिटिश मौजूदगी से कोई नाराजगी और असंतोष नहीं था। उल्टे जोधपुर के आक्रमणों और भील-मीणों की लूटपाट से त्रस्त जन साधारण के लिए ब्रिटिश मौजूदगी राहत और सुकून पहुंचाने वाली सिद्ध हुई। सिरोही के ब्रिटिश संरक्षण में जाने का सर्वाधिक नुकसान जागीरदार ठाकुरों को हुआ। सही मायने में सिरोही नरेश ने ब्रिटिश सरकार से संधि ही इन ठाकुरों के दमन के लिए की थी और कुछ हद तक ब्रिटिश सहयोग से वह इनके स्वेच्छाचार पर लगाम लगाने में भी सफल हुआ। बावजूद इसके सिरोही राज्य के जागीरदार ठाकुरों में अंग्रेजों के प्रति कोई असंतोष और नाराजगी नहीं पनप पाई। जोधपुर लीजन के सैनिक विद्रोह में सहभागिता तो दूर, इन्होंने इसका समर्थन भी नहीं किया, जबकि मारवाड़ के आसोप, आलनियावास, गूलर, लांबिया, बांता, निंबालिया, बाजानास आदि के ठाकुरों ने आऊवा के विद्रोह और संग्राम सक्रिय सहभागिता की थी। भटाना और रोहुआ के बागी जागीरदार ठाकुरों ने जोधपुर लीजन के सैनिकों को विद्रोह के लिए उकसाने का काम तो किया, लेकिन वे खुलकर विद्रोहियों के साथ नहीं हुए।
स्पष्ट है कि सिरोही राज्य में 1857 का विद्रोह तो हुआ, लेकिन खास प्रकार की परिस्थितियां होने के कारण यह केवल सैनिक विद्रोह तक सीमित रहा गया। जन साधारण की इसमें कोई सहभागिता नहीं थी, इसलिए आज यहां के लोगों की स्मृति और संस्कार में इसका कोई अवशेष मौजूद नहीं है।
<अक्सर,अक्टू.-दिस.2007 में प्रकाशित