Wednesday 11 June, 2008

गिरीश कारनाड के नाटक तुगलक में इतिहास और कल्पना की जुगलबंदी

तुगलक आधुनिक भारतीय नाटक और रंगमंच के शीर्षस्थानीय रंगकर्मी गिरीश कारनाड की मुस्लिम शासक मुहम्मद बिन तुगलक के जीवन पर आधारित नाट्य रचना है, जिसमें देश की आजादी के बाद के दो-ढाई दषकों के आदर्शवाद और उससे मोहभंग के यथार्थ को सम्मोहक रूपक में प्रस्तुत किया गया है। इतिहासकार तुगलक के चरित्र के संबंध में एक राय नहीं हैं। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि तुगलक अपने समय का सबसे महान और उल्लेखनीय शासक था, जबकि कुछ के अनुसार वह सनकी और पागल था। इतिहासकार एलफिन्स्टन के अनुसार उसमें पागलपन का कुछ अंष जरूर था, वी.एन. स्मिथ उसे आश्चर्यजनक विरोधी तत्वों का सिम्मश्रण मानते हैं, जबकि रोमिला थापर के अनुसार ´´यद्यपि उसकी कुछ नीतियां उसके सनकी दिमाग की तरंग मात्र प्रतीत होती है, तो भी उनके पीछे कुछ तर्क जरूर था।`` कुछ भी हो, जैसा वल्जले हेग ने कहा है कि ´´तुगलक दिल्ली के सिंहासन पर बैठने वाले असाधारण शासकों में से एक था।`` दरअसल तुगलक आदर्शवादी, स्वप्नद्रुष्टा और उदारचित्त बुध्दिजीवी शासक था, जिसे उसके अपारंपरिक कार्यों के कारण तत्कालीन जनसाधारण, अमीर और उलेमा वर्ग का सहयोग नहीं मिला। तुगलक के आदर्शों और सपनों के पराभव की यह कहानी ही इस नाटक की विशयवस्तु है। कारनाड ने आजादी के बाद के सपनों की उड़ान और कुछ समय बाद उनके धराषायी होने के यथार्थ को इस कथा के रूपक में बांधने का प्रयत्न किया है।

नाटक तुगलक विवादास्पद मध्यकालीन शासक मुहम्मद बिन तुगलक के जीवन पर आधारित है। कारनाड ने तुगलक के चरित्र निर्माण में उसके जीवन के संबंध में इतिहास में उपलब्ध सभी तथ्यों का उपयोग किया है। इतिहासकारों के अनुसार तुगलक अपने युग का सबसे उल्लेखनीय शासक था। कुछ इतिहासकार उसके अपरंपरागत कार्यों के कारण उसे पागल कहते हैं। उसके संबंध में सर्वाधिक महत्वपूर्ण उल्लेखनीय तथ्य यह है कि ´´उसकी महत्वाकांक्षाएं उसके साधनों की तुलना में हमेषा अधिक थीं।`` तुगलक ने कई साहसिक प्रयोग किए और उसने कृिश क्षेत्र के विकास में गहरी दिलचस्पी ली। उसने धर्म और दर्शन का गहन अध्ययन किया। वह आलोचनात्मक प्रवृत्ति और उदारचित्त वाला व्यक्ति था। इतिहासकार सतीशचंद्र के अनुसार ´´वह न केवल मुसलमान अध्यात्मवादियों के साथ, बल्कि हिन्दू योगियों और जिनप्रभा सूरी जैसे जैन महात्माओं के साथ तर्क-वितर्क कर सकता था।`` उसके समय के कट्टरपंथी मुसलमान उसे नापसंद करते थे। उनके अनुसार वह बुध्दिवादी था। मतलब यह कि वह धार्मिक मान्यताओं की केवल विष्वास के आधार पर स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था। वह महत्वाकांक्षी था और बड़े-बड़े सपने देखता था, लेकिन तत्कालीन इतिहासकार बरनी के अनुसार वह चिड़चिड़ा और अधीर स्वभाव का भी था। दुभाZग्य से उसके सपने पूरे नहीं हुए और उसकी योजनाएं क्रियान्वयन के दौरान असफल हो गईं।

तुगलक ने अपने सपनों को हकीकत में बदलने के लिए कई योजनाएं बनाईं और उनको सख्ती से अमल में लाने का प्रयास किया। वह एक भारतव्यापी साम्राज्य की स्थापना करना चाहता था इसलिए उसने कई साहसिक प्रयोग किए। वह मध्य एषिया में सैन्य अभियान कर खुरासान पर अधिकार करना चाहता था, इसलिए उसने दोआब के किसानों पर लगान बढ़ा दिया। दुभाZग्य से इसी समय दोआब में अकाल पड़ा और किसानों ने यह बढ़ा हुआ लगान देना अस्वीकार कर विद्रोह कर दिया। तुगलक का सबसे विवादास्पद निर्णय राजधानी का दिल्ली से दौलताबाद स्थानांतरण था। तुगलक दक्षिण भारत पर प्रभावषाली ढंग से शासन करना चाहता और दिल्ली उत्तर में स्थित होने के कारण दक्षिण से बहुत दूर थी, इसलिए उसने अपनी राजधानी दिल्ली से हटा कर सुदूर दक्षिण में स्थित देवागिरी, जिसका नामकरण उसने बाद में दौलताबाद किया, ले जाने का आदेष दिया। निर्णय तर्कसंगत था लेकिन अव्यावहारिक था। एक तो उसने दरबार की जगह समस्त दिल्लीवासियों को दौलताबाद जाने के लिए विवष किया और दूसरे इस निर्णय का क्रियान्वयन ग्रीश्मकाल में हुआ, जिससे कई लोग मार्ग में ही मर गए। इसके अलावा दिल्ली से दौलताबाद पहुंचे लोगों को घर की याद सताने लगी। तुगलक के विरुद्ध इस कारण जन असंतोश बढ़ गया और केवल दो ही साल बाद तुगलक स्वयं दिल्ली आ गया और यह फिर राजधानी हो गई। खुरासान पर अधिकार की अपनी महत्वाकांक्षी योजना के लिए धन अपेक्षित था, इसलिए तुगलक ने चांदी की जगह पीतल और तांबे की प्रतीक मुद्राएं जारी कीं। इस तरह के प्रयोग चीन और फारस में सफल हो चुके थे, लेकिन वह लोगों को नकली सिक्के ढालने से नहीं रोक पाया। नतीजा यह हुआ कि नकली सिक्कों के ढेर लग गए और मुद्रा का अवमूल्यन हो गया। अपनी योजनाओं और प्रयोगों की निरंतर असफलता से तुगलक को निराषा हुई। उसने खुरासान पर अधिकार की अपनी योजना छोड़ दी और हिमाचल में स्थित कांगडा पर आक्रमण कर संतोश कर लिया। तुगलक प्रतापी, महत्वाकांक्षी और स्वप्नदृश्टा शासक था, लेकिन उसकी अधिकांष योजनाएं और प्रयोग अपारंपरिक थे, इसलिए उसे इनके क्रियान्वयन में तत्कालीन अमीरों, उलेमाओं और जनसाधारण का सहयोग नहीं मिला। जनसाधारण में असफल प्रयोगों के कारण उसके लिए गुस्सा था, उलेमा और धार्मिक कट्टपंथी मुसलमान अपनी उपेक्षा के कारण उससे खफा थे और अमीर वर्ग में निहित स्वार्थों की पूर्ति नहीं होने के कारण उसके विरुद्ध नाराजगी थी। इस तरह तमाम शुभेच्छाओं के बावजूद तुगलक को सब जगह असफलताएं हाथ लगीं। इतिहासकार इसीलिए उसे अभागा आदषZवादी कहते हैं। तुगलक का यही महत्वाकांक्षी और स्वप्नदृश्टा, लेकिन सब जगह असफल और निराष व्यक्तित्व गिरीश कारनाड के इस नाटक का आधार है। उसके सपने और उनकी दुर्गति का यथार्थ ही इस नाटक की धुरि है।

इतिहास और साहित्य में बुनियादी अंतर यह है कि इतिहास तथ्य पर आधारित होता है, जबकि साहित्य में तथ्य कल्पना के साथ संयुक्त होकर जीवंत रूप ले लेता है। यह सही है कि तुगलक की रचना के लिए कारनाड के मध्यकालीन भारतीय इतिहास का गहन शोध और अध्ययन किया है, लेकिन उनकी कल्पनाशीलता ही इस नाटक को सही मायने में नाटक का रूप देती है। इतिहास इस नाटक की रीढ है, लेकिन कल्पना इसका जीवन है। इतिहास यहां तथ्य तो उपलब्ध करवाता है, लेकिन इन तथ्यों को जीवंत मानवीय सरोकारों और संबंधों में दरअसल कल्पना ही ढालती है। कारनाड ने इस नाटक में चरित्रों और घटनाओं का ताना-बाना इतिहास से लिया है, लेकिन संबंधों का विस्तार, उनकी प्रकृति आदि का निर्धारण उनकी उर्वर कल्पना ने किया है। तुगलक ऐतिहासिक व्यक्तित्व है, लेकिन उसकी सोच, उसके निरंतर अंतर्संघशZ और संवेदनषीलता को गढने का काम कारनाड के रचनाकार की कल्पना ने किया है। तुगलक इतिहास में सनकी और पागल के रूप में कुख्यात है, लेकिन यह अकारण नहीं है। दरअसल निरंता असफलता और हताशा तुगलक के सकारात्मक चरित्र को नकारात्मक बना देती है। कारनाड का कल्पनाषील रचनाकार तुगलक के सनकी और निरंकुष शासक में तब्दील हो जाने प्रक्रिया के मानवीय पहलू को बहुत खूबी ओर बारीकी के साथ पेष करता है। कारनाड की कल्पनाषीलता तुगलक को एक ऐसे असाधारण मनुश्य का रूप देती है, जो अपनी सोच को अमल में लाने की जद्दोजहद में टूटता जाता है और अंतत: हार जाता है। यह कारनाड की कल्पना का ही चमत्कार है कि नाटक के अंत में तुगलक ऐसे शख्स के रूप में सामने आता है, जिसे परिस्थितियों में सनकी और पागल बना दिया है और दषZकों को उससे सहानुभूति होती है। कारनाड की कल्पना तुगलक के एक साथ परस्पर विरोधी और एक-दूसरे को करते हुए कई रूप गढती है। वह चिंतनषील, संवेदनशील और परदुखकातर है, लेकिन साथ ही वह कूटनीतिज्ञ, नृषंश, क्रूर और निरंकुष भी है। इस तरह का परस्पर विरोधी चारित्रिक विषेशताओं वाला व्यक्तित्व गढना और उसको स्वीकार्य बनाए रखना मुिष्कल काम है, लेकिन कारनाड अपनी कल्पना के सहारे यह कर लेते हैं। तुगलक के संबंधों के बहुत विस्तार और बारीकी में कारनाड नहीं जाते, लेकिन सौतेली मां के चरित्र की कल्पना से उसके व्यक्तित्व को मानवीय जीवंतता का स्पषZ मिलता है। यह संबंध बहुत सांकेतिक है- इसके विस्तार में कारनाड नहीं जाते, लेकिन स्पश्ट हो जाता है कि सौतेली मां तुगलक पर अनुरक्त है और उससे उसकी अपेक्षाएं भी मां की नहीं है।

कारनाड की रचनात्मक कल्पना का इस नाटक में सबसे अच्छा उदाहरण धार्मिक नेता शेख इमामुद्दीन की कूटनीतिक ढंग से हत्या का प्रकरण है। यह प्रकरण कारनाड की कल्पना की असाधारण सूझबूझ का नतीजा है। इस घटना से उन्होंने समाज में धर्म की हैसियत की असलियत को सामने रख दिया है। मुहम्मद तुगलक का यह कथन कि ´´आमो-खास की मजहबी अकीदत की जड़ें किस कदर कमजोर है! अवाम का भोलापन फितरती तौर पर शुबहा और वहम से वाबस्ता होता है`` दरअसल हमारे समय और समाज में भी धर्म की कमजोर बुनियाद की ओर संंकेत है। कारनाड इस घटना की कल्पना से यह सिद्ध करते हैं कि समय कोई भी हो जनसाधारण की जड़ें धर्म में कम, चमत्कार और भ्रम में ज्यादा गहरी होती हैं। दौलताबाद किले के ऊपरी हिस्से पर तुगलक और बरनी के बीच हुआ संवाद भी कारनाड की कल्पनाशीलता का ही नतीजा है। इस प्रकरण की कल्पना से तुगलक का उदात्त और संवेदनषील शासक व्यक्तित्व उभरता है। इन संवादों से कारनाड तुगलक की सोच और उसके कार्यों के औचित्य पर रोषनी डालते हैं। बरनी के इस परामर्श पर कि सबको माफी बख्श दें, तुगलक कहता है-´´ लेकिन उससे पहले मुझे ये यकीनी तौर पर इल्म होना चाहिए कि मेरा मकसद ही गलत था। मेरे इरादे ही नाकिस थे। तब ‘यद तुम्हारा यह इलाज मुफीद साबित हो। लेकिन जब तक वो लम्हा नहीं आयेगा, तब तक इसी पर अमल करूंगा। मैंने जो सीखा है या जाना है, उसी को जारी रखूंगा, उसी से रिआया को रूशनास कराता रहूंगा। मैं यह कभी गवारा नहीं करूंगा कि तवारीख को फिर अंधों की तरह अपने- आपको दुहराने का मौका मिले। ये मजबूरी है कि अपने पास मौजूदा एक ही जिंदगी पड़ी है, इसलिए मैं इसे नाकाम नहीं होने दूंगा। (एक-एक हर्फ पर जोर देकर) लोग जब तक मेरी बातों पर गौर नहीं करेंगे, तब तक यह कत्ले-आम मुसलसल जारी रहेगा। दूसरा कोई चारा नहीं, बरनी।``

नाटक में ढिंढोरची और उसकी घोषणाएं भी कारनाड की कल्पनाषीलता का नमूना हैं। इस कल्पना से नाटक में समय के विस्तार और घटनाओं की भीड़भाड़ कम करने में बहुत मदद मिली है। ढिंढोरची मंच पर आकर अपने ऐलान से घटनाओं का वृत्तांत पेष करता है, जिससे दषZक, जो देख रहे हैं उसको व्यापक परिप्रेक्ष्य में समक्ष लेते हैं। सबसे पहले ढिंढोरची पहले दृष्य के बीच में आता है और उपस्थित जन साधारण को सुल्तान के विरुद्ध ब्राह्मण विष्श्णुप्रसाद की दरख्वास्त पर हाकिमे अदालत का फैंसला बताता है। दृष्य चार से पहले िढंढोरची आईन-उल-मुल्क की दिल्ली पर चढ़ाई, सुल्तान के कन्नोज प्रस्थान, शेख इमामुद्दीन द्वारा सुल्तान को सहयोग देने और सुल्तान की अनुपस्थिति में शहाबुद्दीन के नायब सुल्तान होने की सूचना देता है। दृष्य सात के पूर्व िढंढोरची के दो महत्वपूर्ण ऐलान हैं। एक में वह शाही महल में बगावत और उसमें शहाबुद्दीन शहीद होने की सूचना और दूसरे में वह दिल्ली के जनसाधारण को एक माह में दौलताबाद जाने का शाही फरमान सुनाता है।