Tuesday 12 April, 2011

कहानीकार की समाज विवेचना

साहित्य से जुड़े शाश्वत और ग्लोबल किस्म के विषयों में विचार-विमर्श का कोलाहल तो हिन्दी में बहुत है, लेकिन इसमें हमारी जिंदगी को सीधे और तत्काल प्रभावित करने वाले सामान्य मुद्दों पर गंभीर विचार विमर्श और लेखन नहीं के बराबर है। हिंदी के अधिकांश बड़े रचनाकारों का हमारी जिंदगी को बदलने-बनाने में निर्णायक योग देने वाले फिल्म, टीवी, फैशन, संगीत, बाजार आदि मुद्दों पर नजरिया अनदेखी या उपेक्षा का है। वे इन मुद्दों पर विचार और लेखन में अपनी हेठी समझते हैं। इस मामले में नामचीन कथाकार स्वयंप्रकाश का नजरिया शुरू से ही अलग है। उन्होंनेअ अपने कथाकर्म के साथ हमारे देनंदिन जीवन से सीधे जुड़े सरोकारों और समस्याओं पर बहुत मनोयोग और गंभीरता से निरंतर लिखा है। उनकी समय-समय पर लिखी गईं इन आलेख-टिप्पणियों को ही उनकी इस नयी किताब एक कहानीकार की नोट बुक में संकलित किया गया है। इन आलेख-टिप्पणियों में आम हिंदी लेखकों से अलग स्वयंप्रकाश कि अपने समय और समाज पर विचार करते हुए न तो सभी तरह के परिवर्तनों के प्रतिरोध में खड़े होते हैं और न ही किसी नॉस्टेलजिया की गिरफ्त आते हैं। इन आलेख-टिप्पणियों की भाषा भी हिंदी में विचार के लिए आम तौर पर प्रयुक्त पत्थर तोड़ ठोस-ठस भाषा से अलग, बोलचाल के छौंकवाली कहानीकार की सरल और सहज भाषा है।

स्वयं प्रकाश की सोच का दायरा बहुत विस्तृत है। संस्कृति पर विचार करते हुए वे सरकारी हलकों इसको केवल रूपंकर कलाओं का पर्याय और पर्यटन का हिस्सा मान कर इसमें से विचार को बाहर कर देने पर चिंतित हैं। उनके अनुसार रूपंकर कलाओं में विचार और मतभेद के गुंजाइश कम हैं, इसलिए इनका विकास अवरुद्ध है और ये अभी तक मध्यकाल में ही रुकी हुई हैं। कुछ लोगों द्वारा योजनाबद्ध ढंग से संस्कृति में असहमति को असहिष्णुता में बदलने की कशिशों का वे विरोध करते हुए वे कहते हैं कि असहमति भी विचार का एक आयाम है। उनके शब्दों मे “असहमति की अनुपस्थिति रेजीमेंटेशन, दमन और तानाशाही की सूचक होती है।”(पृ.10) भारत को विश्व का सबसे बड़ा बाजार मानकर खुश होने वालों से स्वयं प्रकाश असहमत हैं। वे नियंत्रण मुक्त और स्वेच्छाचारी बाजार की हिमायत करने वालों से अपनी धारणा के औचित्य पर पुनर्विचार का आग्रह करते हैं। उनके अनुसार मुनाफे के लिए जानवर बन जाना बाजारवाद है और इसकी पुष्टि के लिए वे दैनन्दिन जीवन के उदाहरण देते हैं। वे कहते हैं कि बाजार के पशुवत आचरण के कारण ही साहित्य में इसका विरोध तेजी से बढ़ रहा है(पृ.13) स्वयं प्रकाश इस किताब में हिंदू हित बात करने वालों की भी अलग ढ़ंग से खबर लेते हैं। वे यह नहीं कहते कि वे क्या करते हैं। वे यह कहते हैं कि यह-यह करना उनका दायित्व है, लेकिन वे इससे भाग कर वो सब करते हैं, जो उन्हें नहीं करना चाहिए। वे हिंदुओं के वैयक्तिक और सामाजिक जीवन से सीधे जुड़े मुद्दों को पाठकों के सामने सिलसिलेवार रखते जाते हैं, जिनकी हिंदू हित की बात करने वालों ने अब तक उपेक्षा की है। अंत मे वे धर्म, संस्कृति और परंपरा की बार-बार दुहाई देनेवाली और क्रांतिकारी सोच रखने वाली ताकतों में किसी एक को चुनने विकल्प पाठकों पर छोड़ देते हैं।(पृ.17) नास्तिक जीवन शैली पर विचार करते हुए वे कहते हैं कि आस्तिक ईश्वर को सिर्फ मानता है, जबकि नास्तिक ईश्वर को मानता भी है और जानता भी है। ईश्वर मनुष्य का उससे अधिक बुद्धिमान और शक्तिशाली निर्माण उनके अनुसार वैसे ही है जैसे गायों का कल्पित ईश्वर किसी बलशाली सांड जैसा होगा।(पृ.19) स्वयं प्रकाश को कलाओं में अराजक किस्म का स्वेच्छाचार भी परेशान करता है, जिसको कुछ लोग लोकतंत्र कह कर जायज ठहराते नजर आते हैं। कलाओं में शास्त्रीय अनुशासन सामंती युग के अवशेष हैं, इसलिए इसके टूटने से वे विचलित नहीं है, लेकिन उनकी चिंता यह है कि अपनी सारी क्षमता और प्रतिभा लगाकर भी आजकल कलाकार कुछ नया और मौलिक करने के बजाय अनुकरण में लगे हुए हैं।(पृ.25) मंचीय कविता के विलुप्त हो जाने पर हिंदी में शायद ही किसी ने विचार किया हो, पर स्वयं प्रकाश इअस कितब में करते हैं। वे सातवें और दसवें दशक के दृश्यों को सिलसिलेवार रखकर कविता की वाचिक परंपरा के फूहड़ हास्य और चूटकलेबाजी तब्दील जाने के यथार्थ से पाठकों को रूबरू करवाते हैं। वे इसके लिए आधुनिक हिंदी कवियों को भी जिम्मेदार ठहराते हैं, जिन्होंने जनता को कविता सुनाना घटिया काम समझकर तीसरे-चौथे दर्जे के कवियों के लिए मंच छोड़ दिया है।(पृ.28) टीवी स्वयं प्रकाश की निगाह में हमारे समाज में हुए वेल्यूशिफ्ट का महत्वपूर्ण उपकरण सिद्ध हुआ है। वे इसके सम्मोहक और निर्णायक प्रभाव से होने वाले सकारात्मक और नकारात्मक, दोनों प्रकार के परिणामों की तह में जाते हैं। टीवी बच्चों में लिप्सा और इकलखुरेपन को बढावा देता है, लेकिन वे इस सच्चाई को भी स्वीकार करते हैं कि यह जाने के लिए नहीं आया है। इंटरनेट को भी उनके अनुसार आने से रोका नहीं जा सकता। वे इनका विरोध करने वालों की खबर लेते हुए लिखते हैं कि “एक तरफ आप सूचना के अधिकार के लिए संघर्ष करते हैं और दूसरी तरफ क्रांति के विरुद्ध विश्वामित्र बनने की चेष्टा करते हैं।” (पृ.32) फिल्म संगीत में सुरुचि में निरंतर गिरावट से भी वे चिंतित है, लेकिन रीमिक्स की, जैसा अक्सर बुद्धिजीवी करते है, वे आलोचना नहीं करते। आर. डी. बर्मन के संगीत का रीमिक्स उनके अनुसार युवा पीढ़ी को अच्छा लगता है, क्योंकि यह अपने समय में भी सामंती परिवेश से विद्रोह और लोकतंत्र की अभिव्यक्ति था। आर. डी. बर्मन के रीमिक्स धुनों की लोकप्रियता के बारे मे उनकी धारणा है कि यह अतीत की मिठास के संरक्षण के साथ आधुनिकता की खिड़कियां खोलने जैसा है।(पृ.35) स्त्री और दलित विमर्श के बारे में स्वयं प्रकाश का नजरिया एकदम खांटी मार्क्सवादी है। उन्हें जेंडर युद्ध या पितृसता का विरोध सत्ता के विमर्श का ही दूसरा रूप लगता है। इसकी पुष्टि में वे कहते हैं कि सत्तासीन होते ही स्त्री ठीक उसी तरह व्यवहार करने लगती है जिस तरह से सत्तासीन पुरुष करता है। दलित विमर्श के संबंध में भी स्वयं प्रकाश इसी तरह सोचते हैं। कुछ दलित समर्थेकों का यह तर्क कि दलित ही दलित की कथा लिख सकता है, उन्हें सिरे से गलत लगता है। वे इसी तर्क को आगे तक खींचते हुए लिखते हैं कि “मैं मुर्गी की कहानी लिखना चाहूंगा तो आप कहेंगे मुर्गी की कहानी लिखनी है तो पहले अंडा देकर दिखाओ।” वे इन दोनों विमर्शों के संबंध में इस निष्कर्ष पर पहुंचते है कि “जेंडर, जाति, स्थानीयता या संख्या की चेतना का विस्तार वर्ग चेतना को कहीं न कहीं कुंठित करता है।”(पृ.115) इस तरह की सजगता उन्हें हिन्दी की जनवादी-प्रगतीशील कहानी को भीतर से तोड़ने का षडयंत्र लगती है। वे लिखते हैं कि “अब इसे भीतर से तोड़ने की कोशिश की जा रही है। स्त्रियो! तुम इनसे विलग हो जाओ। दलितो! तुम इनसे अलग हो जाओ। इनसे कुट्टी कर लो। देखो हमारी मुठ्ठी में क्या है? आओ, आओ, आओ! शाबाश!” (पृ.105) लोकप्रिय धारावाहिक जस्सी जैसा कोई नहीं पर टिप्पणी में वे इसमें अंतर्निहित साम्राज्यवादी ताकतों के खेल को उजागर करते हैं। वे पाते हैं कि यह लोकप्रिय धारावाहिक मध्यवर्ग को साम्राज्यवादी ताकतों के प्रति वफादार रहने को प्रेरित करता है। अपनी एक और टिप्पणी ‘आदमी में नुक्स है’ में स्वयं प्रकाश टी.वी. चैनलों पर दिखाए जाने वाले एलिमिनेशन गेम्स में अंतर्निहित बारीक पूंजीवादी स्वार्थ को समझने की कोशिश करते हैं। वे कहते हैं कि यह आदमी को उसकी कमतरी का अहसास दिलाने और फुसलाने का तरीका है। वे लिखते हैं कि “उन्हें उनकी कमतरी और नकारापन का का अहसास दिलाओ। उनसे खुद पूछो कि तुम्हीं बताओ कि तुम में से सबसे ज्यादा नकारा कौन है?” (पृ.134) वे इसी टिप्पणी में कारपोरेट क्षेत्र की लोकप्रिय पुस्तकों हू मूव्ड माय चीज और रिच डैड पुअर डैड जैसी किताबों में पूंजीवादी जीवन दर्शन के प्रचार-प्रसार असलियत रोशनी डालते हैं। हू मूव्ड माय चीज का निष्कर्ष उनके शब्दों में यह है कि “इतिहास और परंपरा पर खाक डालो, समतावादी न्यायपूर्ण समाज की रचना का स्वप्न छोड़ दो, क्षणजीवी बन जाओ और जितना संभव हो उपभोग करो।”(पृ.134) रिच डैड पुअर डैड का संदेश उनके अनुसार यह कि “पैसे के लिए काम मत करो, पैसे को अपने लिए काम करने दो।”(पृ.136) ‘मन में चावै, मूंड हिलावै’ टिप्पणी में स्वयं प्रकाश हिंदी लेखक समाज के पुरस्कारों के संबंध में दोहरे रवैये की अरुंधती राय को मिले बुकर सम्मान के बहाने आलोचना हैं। वे कहते हैं कि “पुरस्कारों को धिक्कारते सब हैं, लेकिन कोई यह घोषणा नही करता कि मुझे मिलेगा तो मैं नहीं लूंगा। फिर वितृष्णा के इस पाखंड की भी क्या जरूरत है?”(पृ.110)

पुस्तक में स्वयंप्रकाश ने अपने समय के साहित्यिक सरोकारों और माहौल पर भी विचार किया है। खास तौर पर अपने अनुशासन कहानी के संबंध में इस पुस्तक में उनके एकाधिक लेख और टिप्पणियां हैं। वे यह स्वीकार करते हैं कि लंबे समय तक केवल संघर्ष को सरोकार बना लेने से हिंदी कहानी में प्रेम की उपेक्षा हुई है। कथादेश और लोकायत पत्रिकाओं के प्रेमकथा विशेषांकों में प्रकाशित कहानियों में वे पहले क्या नहीं है और क्या है का ब्यौरा पेश करते हैं और फिर कहानीकारों के ‘डूब कर’ प्रेम कथाएं न लिख पाने के कारणों की तह में जाते हैं। इसके कारण गिनाते हुए वे कहते हैं कि एक तो हिंदी भाषी समाज भयानक रूप से दमित-कुंठित और वर्जनाग्रस्त है दूसरे, यह असहिष्णु और हिंसा प्रेमी है। इस कारण हिन्दी का कहानीकार का नजरिया इस संबंध में दो टूक नहीं है। वे ज्ञान चतुर्वेदी के शब्दों में कहते हैं कि “सब दिखाओ पर तरीके से। काम कायदे का हो, चाहे फालतू हो। कहानी से लुच्चापन न झांके। लुच्चापन बना रहे, पर झांके न!.... पाठक मुंह फाड़ कर जुमहाइयां लेता रहे, वह उत्तेजित न हो जाए। हिन्दी साहित्य के पाठक की लंगोट की रक्षा करना हमारा प्रथम कर्तव्य है।”(पृ.55) आज की हिंदी कहानी को स्वयं प्रकाश सोवियत संघ और पूर्वी यूरोपीय सत्ताओं के पतन, संचार क्रांति और वैश्वीकरण जैसी परिघटनाओं से प्रभावित मानते हैं। इस माहौल में उनके अनुसार दो तरह की कथा पीढियां सामने आई हैं। एक बाजारवादी पीढ़ी है, जिसको व्यावसायिक पत्र-पत्रिकाओं और प्रकाशकों ने खूब हवा दी है, जबकि दूसरी पीढ़ी प्रगतिशील-जनवादी कहानीकारों की है, जो नवसाम्राज्यवाद के प्रतिरोध में खड़ी है।(पृ.88) हिंदी में व्यंग्य की समृद्ध परंपरा के सूख जाने की पड़ताल के लिए वे हमारे सामाजिक सोच में हो रहे बदलावों की तह में जाते हैं। वे कहते हैं कि अब सब कुछ जान लेने के बावजूद न्याय व्यवस्था बाहुबलियों के समक्ष लाचार नजर आती , इसलिए व्यंग्य का स्थान आक्रोश और गालियों ने ले लिया है। उनके अपने शब्दों में “हम हंसने की सलाहियत खो चुके है।”(पृ.73) हरिशंकर परसाई के बारे में उनकी धारणा बहुत ऊंची है। उनके अनुसार हास्य-विनोद में स्खलित हो चुके व्यंग्य को भारतेंदु युग की गौरवशाली परंपरा से जोड़कर परसाई ने संस्कारित किया और इसे एक स्वतंत्र विधा की प्रतिष्ठा हिलाई। वे मान हैं कि परसाई को यह खास की हैसियत भारतीय जनसाधारण की उनकी गहरी समझ, आडंबरहीनता, करूणा और स्वाभिमान से मिली है।(पृ.91) प्रेमचंद की परंपरा पर कलावादियों के कब्जे के प्रयास पर लिखी उनकी टिप्पणी का स्वर बहुत उग्र है। प्रेमचंद को केवल ‘कफन’ में रिड्यूज करके देखना उनके अनुसार नादानी नहीं, बदमाशी है।(पृ.125) लेखक संगठनों की प्रासंगिकता पर विचार करते हुए वे उनकी समर्थक पार्टियों की भी खबर लेते हैं। उनके अनुसार वामपंथों राजनीतिक दलों ने भी अपनी पहले की चमक और प्रखरता खो दी है और अनेक बातों में उनका सोच और आचरण किसी भी अन्य बूर्ज्वा पार्टी से बहुत ज्यादा भिन्न नहीं दिखाई देता।(पृ.138)

मनुष्य और कहानीकार के रूप में स्वयंप्रकाश के जड़ें अपनी जमीन में है। उनकी सोच-समझ का खाद-पानी इसी जमीन से आता है। वे अपनी धारणाओं की पुष्टि के लिए तर्क अपने पास के दैनंदिन जीवन से ही जुटाते हैं। इस कारण उनका पाठक उनके तर्कों से अनायास सहमत हो जाता है। सोच-विचार की उनकी पद्धति आडंबरहीन है- वे एक के बाद एक सवाल रखते चले जाते हैं और फिर उनके सभी संभावित उत्तर देते हुए युक्तिसंगत निष्कर्ष पर पहुंचते हैं। इस पद्धति में वे विरोधी के तर्क को भी पूरा विस्तार और असहमियत देते हैं। कभी-कभी वे तर्क को खींचकर बहुत दूर तक ले जाते हैं। उनका तर्क का यह खेल देखना हो, तो दलित विमर्श पर लिखी गई उनकी टिप्पणी ‘बात निकलेगी..’ पढ़ना चाहिए। निंदा और सराहना में भी वे कभी-कभी बहुत दूर तक चले जाते हैं। उनकी टिप्पणी ‘प्रेमचंद की परपंरा का सवाल’ इसका अच्छा उदाहरण है। अलग-अलग समय और जरूरतों के लिए लिखी गईं इन आलेख-टिप्पणियों के सोच-विचार में कुछ अन्तर्विरोध रह गए हैं। एक जगह वे साहित्य और कलाओं के अधिरचना होने का हवाला देते हैं(पृ.86) और इनमें हो रहे बदलावों को सहज और स्वाभाविक ठहराते हैं, लेकिन एक दूसरी टिप्पणी में कुछ साहित्यिक विधाओं के लोप पर उनका क्षोभ समझ में नहीं आता। (पृ.57) प्रौद्योगिकी और समाजार्थिक बदलावों से साहित्यिक विधाओं का लोप, अनुकूलन और रूपांतरण सहज-स्वाभाविक है, लेकिन इस टिप्पणी में उनका मिटते जाना उनको व्यथित और चिंतित करता है। इसी तरह हिन्दी भाषा में हो रहे बदलावों की सहजता को लेकर भी वे दुविधाग्रस्त लगते हैं। उनके लिए यह भाषा को भ्रष्ट करना भी है और उसे संप्रेषणीय और अनौपचारिक बनाना भी है।(पृ.69) टिप्पणी ‘आखिर हिंदी नाटक कहां चला गया’ में वे हिंदी में अच्छे नाटक नहीं है की जगह हिंदी में अच्छे नाटक क्यों नहीं है पर विचार करते हैं, लेकिन इसके कारणों की गहराई और विस्तार में जाने के बजाय वे इसका ठिकरा राष्ट्रीय नाटय विद्यालय के फोड़ देते हैं, जो बहुत युक्तिसंगत नहीं लगता। (पृ.45)

हिंदी में सोच-विचार ठोस-ठस भाषा करने का रिवाज है, लेकिन स्वयं प्रकाश के इन आलेख-टिप्पणियों की भाषा ठोस-ठस नहीं है। यह दैनंदिन जीवन के खट्टे-मीठ अनुभवों की आंच में तप कर बनी बोलचाल की व्यंजना और तनाव से भरी-पूरी असरदार भाषा है। दरअसल दैनंदिन जीवन की भाषा के मुहावरे और व्यंजना के इस्तेमाल का जो महारत स्वयं प्रकाश को हासिल है वो हिंदी में अन्यत्र दुर्लभ है। सरयूपारी या और किसी वेरायटी के ब्राह्मण के घर पैदा हो जाते, इनमें से अधिकांश श्री गुलशन नंदा की मौसी के लड़के साबित हो जाऐंगे, जिस देश के राष्ट्रपति को नौकरानी के घाघरे पर वीर्यपात करने में शर्म नहीं आए और उसे लोटा ले लेकर जंगल जाने पर टट्टी नहीं उतरती थी जैसे सीधे दैनंदिन जीवन से उठाए हुए बोलचाल की भाषा के तत्काल असर करने वाले प्रयोग स्वयं प्रकाश के यहीं मिलेंगे।

यदि विचार है तो अक्सर उसका विषय गुरु और गंभीर होगा, उसकी भाषा जटिल और कठिन होगी और यह उबाऊ और नीरस होगा। यह किताब ऐसी तमाम धारणाओं का प्रत्याख्यान करती है। इसमें गंभीरता का आडंबर नहीं है, यह सरल और बोलचाल की भाषा में है और खास बात यह है कि यह पढ़ने के दौरान मनहूसियत के बजाय आनंद और उत्साह का संचार करती है।


समीक्ष्य पुस्तक: स्वयं प्रकाश: एक कहानीकार की नोटबुक, अंतिका प्रकाशन, सी-56/यूजीएफ-IV, शालीमार गार्डन, एक्सटेंशन-II, गाजियाबाद-201005 (उ.प्र.), पहला पेपरबैक संस्करण, 2010, मूल्य: 120 रुपए, पृ.151