Sunday 4 May, 2008

इलेक्ट्रोनिक मीडिया से बदल रहा है साहित्य?

इलेक्ट्रोनिक मीडिया दृश्य और श्रव्य प्रविधि है। उपग्रह-प्रक्षेपण से इसकी पहुंच और प्रभाव का दायरा बड़ा हो गया और डिजिटल-तकनीक ने इसकी दृश्य-श्रव्य के संचार की गुणवत्ता बढ़ा दी। पारम्परिक प्रिंट मीडिया में अभिव्यक्ति का माध्यम भाषा थी। भाषा की लाक्षणिकता, व्यंजकता, मुहावरा आदि ही इसकी अभिव्यक्ति के खास औजार थे। इलेक्ट्रोनिक मीडिया, उसमें भी खास तौर पर टीण्वीण् ने अभिव्यक्ति की पद्धति को पूरी तरह बदल दिया। अब दृश्य का यथावत और त्वरित गति से संचार संभव हो गया। भाषा भी यहां श्रव्य रूप पाकर अधिक लाक्षणिक और व्यंजक हो गई। पाठ्य अभिव्यक्ति में भाषा की नाटकीयता लगभग खत्म हो गई थी-टीण्वीण् में उसका भी पुनराविष्कार हुआ। इस सबका नतीजा यह हुआ कि पारम्परिक अभिव्यक्ति-रूप इलेक्ट्रोनिक मीडिया की जरूरतों के अनुसार अपनी प्रकृति, प्रक्रिया और स्वरूप को बदलने के लिए तत्पर और बेचैन दिखे। इस प्रक्रिया में कुछ अभिव्यक्ति-रूपों का रूपान्तरण हुआ और कुछ सर्वथा नए अभिव्यक्ति-रूप भी अस्तित्व में आए।
इलेक्ट्रोनिक मीडिया बहुराष्ट्रीय पूंजी के स्वामित्व वाला व्यापारिक उपक्रम है, इसलिए यह अपने लाभ के लिए संस्कृति को उत्पाद और उद्योग में बदलता है। अपने विस्फोटक विस्तार के साथ ही हमारे देश में भी उसने यही किया। हमारे यहां यह तत्काल और आसानी से हो गया। दरअसल हमारे यहां परंपरा से समाज के सभी तबकों को संस्कृति के उपभोग की अनुमति नहीं थी। इस संबंध में कई सामाजिक विधि-निषेध और नैतिक अंतबाZधाएं थीं। 1990 के दशक में इलेक्ट्रोनिक मीडिया के विस्फोटक विस्तार से यह सब भरभरा कर ढह गए। संस्कृति के उपभोग में अब कोई बाधा नहीं रही। इसके लिए केवल उपभोक्ता होना पर्याप्त था। देखते-ही-देखते संस्कृति विराट उद्योग में तब्दील हो गई और इसके व्यवसाय का ग्राफ तेजी से ऊपर चढ़ गया। टीण्वीण्, रेडियो, केबल और लाइव मनोरंजन में उफान आ गया। एक सूचना के अनुसार वषZ 2003 के दौरान हमारे यहां मनोरंजन उद्योग 16,600 करोड़ रुपए का कूता गया। एक अनुमान के अनुसार हमारे यहां फिल्मों का कारोबार वषZ 2006 में 1.1 खरब डॉलर हो जाएगा। साहित्य भी संस्कृति-रूप है, इसलिए इस सब से या तो यह हािशए पर आ गया है या तेजी से अपने को उत्पाद और उद्योग में बदल रहा है। फरवरी, 2004 में दिल्ली में आयोजित सोलहवें विश्व पुस्तक मेले के उद्घाटन के अवसर पर भारतीय मूल के साहित्य के नोबेल पुरस्कार विजेता सर वी.स.नायपाल ने साहित्य की इस स्थिति पर टिप्पणी करते हुए कहा कि ´´दुर्भाग्य है कि आज साहित्य अपनी जड़ों से उखड़ गया हैं। साहित्य का स्थान घटिया कथानक, जादू-टोना और ओझाई लेखन ने ले लिया है। तकनीकी विकास के साथ पुस्तकों की बिक्री बढ़ी है और नए पाठक तैयार हो रहे है, लेकिन बिक्री की नई तरकीबों के बीच साहित्य मर रहा है। उसे कोने में धकेल दिया गया है।``
संस्कृति के औद्योगीकरण की प्रक्रिया से हमारे पारंपरिक साहित्य में जबर्दस्त बेचैनी है। आरिम्भक आंशिक प्रतिरोध के बाद थोड़े असमंजस के साथ इसमें बाजार की जरूरतों के अनुसार ढलने की प्रक्रिया की शुरुआत हो गई है। साहित्य को उत्पाद मानकर उसकी माकेZटिंग हमारे यहां भी शुरू हो गई है। इसका नतीजा यह हुआ कि साहित्य की घटती लोकप्रियता के बावजूद पिछले कुछ सालों से हमारे यहां पुस्तकों की बिक्री में असाधारण वृिद्ध हुई है। एक सूचना के अनुसार हमारे यहां 70,000 पुस्तकें प्रतिवर्ष छपती हैं और ये 10 से 12 प्रतिशत सालाना की दर से बढ़ रही है। अब हमारे यहां साहित्य भी साबुन या नूडल्स की तरह उत्पाद है, इसलिए इसकी मार्केटिंग के लिए फिल्म अभिनेताओं का सहारा लेने की बात की जा रही है। इंडिया टुडे कॉनक्लेव, 2004 में शामिल विश्वविख्यात अमरीकी प्रकाशक अल्फ्रेड एण् नॉफ के भारतीय मूल के अध्यक्ष और संपादक सन्नी मेहता ने प्रस्ताव किया कि ´´कुछ साल पहले अमरीकी टी.वी. के लोकप्रिय प्रस्तोता ऑप्रा विनफ्रे के साप्ताहिक टीण्वीण् बुक-क्लब शुरू करने के बाद पुस्तकों की बिक्री काफी बढ़ गई थी। कल्पना की जा सकती है कि अगर आज अमिताभ बच्चन या ऐश्वर्या राय भारत में टीण्वीण् पर ऐसा कार्यक्रम शुरू कर दें तो क्या कमाल हो सकता है।`` इलेक्ट्रोनिक मीडिया पर चर्चित और विख्यात होने के कारण सलमान रश्दी, विक्रम सेठ और अरुंधती राय की किताबें हमारे यहां तेजी से लोकप्रिय हुई हैं। बहुत उबाऊ और बोिझल होने के बावजूद इन किताबों के हिन्दी रूपान्तरण निकले और पाठकों द्वारा खरीदे भी गए।
हमारे यहां उत्पाद मानकर साहित्य की मार्केटिंग ही नहीं हो रही है, बाजार की मांग के अनुसार इसके सरोकार, वस्तु, ल्प आदि में भी बदलाव किए जा रहे हैं। इसमें मनोरंजन, उत्तेजना और सनसनी पैदा करने वाले तत्वों में घुसपैठ बढ़ी है। इस कारण पिछले कुछ वर्षों से हमारे साहित्य में भी राजनेताओं, उच्चाधिकारियों, अभिनेताओं और स्टार खिलािड़यों के व्यक्तिगत जीवन से पर्दा उठाने वाली आत्मकथात्मक, संस्मरणात्मक और जीवनपरक रचनाओं की स्वीकार्यती बढ़ी है। बिल िक्लंटन और मोनिका लेविंस्की की यौन लीलाओं के वृत्तांत का हिन्दी-रूपान्तरण ´मैं शर्मिंदा हूं` को साहित्य के एक विख्यात प्रकाशक ने प्रकाशित किया और यह हिन्दी-पाठकों में हाथों-हाथ बिक गया। हिन्दी में ही नेहरू और लेडी माउंटबेटन एडविना के प्रणय संबंधों पर आधारित केथरिन क्लैमां के फ्रेंच उपन्यास ने पर्याप्त लोकप्रियता अर्जित की। इसी तरह विख्यात पत्रिका ´हंस` में राजेन्द्र यादव द्वारा चर्चित प्रसंग ´होना और सोना एक औरत के साथ` को हिन्दी की साहित्यिक बिरादरी ने चटखारे लेकर पढ़ा और सराहा। हिन्दी की श्रेष्ठ साहित्यिक रचनाओं में भी जाने-अनजाने मनोरंजन और उत्तेजना पैदा करने वाले तत्वों की मात्रा पिछले दस-बारह सालों में बढ़ी है। मैत्रेयी पुष्पा के साहित्यिक उपन्यासों में रतिक्रियाओं के दृश्य अलग से पहचाने जा सकते हैं, विजय मोहन सिंह की कहानियों में सेक्स जबरन ठूंसा गया लगता है तथा अशोक वाजपेयी की कविताओं में रति की सजग मौजूदगी को भी इसी निगाह से देखा जा सकता है। पिछले दशक में प्रकािशत सुरेन्द्र वर्मा का हिन्दी उपन्यास ´दो मुर्दों के लिए गुलदस्ता` तो संपूर्ण ही ऐसा है।
इलेक्ट्रोनिक मीडिया व्यावसायिक उद्यम है और इसका लक्ष्य उपभोक्ता-समाज को अपने संजाल के दायरे में लाकर उसकी आकांक्षा, रुचि और स्वाद का, अपने विज्ञापित उत्पादों के उपभोग के लिए, अनुकूलीकरण करना है। यह काम, जाहिर है, उपभोक्ता समाज की संपर्क भाषा में ही हो सकता है। हमारे देश में अपने प्रसार के साथ ही इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने उपभोक्ता-समाज की संपर्क भाषा हिन्दी की अपनी जरूरतों के अनुसार नए सिरे से बनाना शुरू कर दिया है। पारम्परिक प्रिंट मीडिया और साहित्य की हिन्दी ठोस और ठस थी। इस भाषा में आम भारतीय उपभोक्ता समाज से संपर्क और संवाद संभव ही नहीं था। इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने दस-पंद्रह सालों में हिन्दी का नया रूपान्तरण ´हिंगलिश` कर दिया। देखते-ही-देखते इसका व्यापक इस्तेमाल भी होने लग गया। खास तौर पर यह नयी पीढ़ी के युवा वर्ग में संपर्क और संवाद की भाषा हो गई। विख्यात फिल्म अभिनेता विवेक ओबेराय से एक बार पूछा गया कि आप सपने किस भाषा में देखते हैं, तो उनका जवाब था ´हिंगलिश में` और जब उनसे पूछा गया कि आप किस भाषा में सोचते हैं तो उन्होंने कहा कि "भावना की बात हो तो हिन्दी में और विचार हो तो अंग्रेजी में। रस की बातें हिन्दी में होती हैं और अर्थ की बातें हो तो अंग्रेजी में।" हिन्दी के इस कायान्तरण से नफा और नुकसान दोनों हुए हैं। नफा यह कि अब हिन्दी अपने लिखित-पठित, ठोस-ठस रूप के दायरे से बाहर निकल कर सरल और अनौपचारिक हो गई है। अब इसमें शुद्धता का आग्रह नहीं है और इसने परहेज करना भी बंद कर दिया है इसलिए यह व्यापक सरोकारों वाली बाजार की जनभाषा का रूप ले रही है। नुकसान यह हुआ है कि इसमें विचार को धारण करने का सामथ्र्य कम होता जा रहा है। लेकिन इस संबंध में फिलहाल कोई निष्कर्ष निकालना ठीक नहीं है। यह समय संक्रमण का है-बाजार के बीच ही सही, व्यापक जनभाषा का रूप लेने से इसमें अभी नए पेच-खम बनेंगे और यह अभी और नया रूप धारण करेगी। आज तक, स्टार न्यूज और डिस्कवरी पर हिन्दी के इस नए रूप की झलक अभी से देखी जा सकती है। हिन्दी के इस कायान्तरण से गत दस-पंद्रह सालों के हिन्दी साहित्य की भाषा में भी असाधारण बदलाव आया है। यह अब पहले जैसी ठोस और ठस साहित्यिक भाषा नहीं रही। यह अब जनसाधारण के बोलचाल की बाजार की भाषा के निकट आ गई है। विख्यात कहानीकार उदयप्रकाश ने एक जगह स्वीकार किया कि ´´इधर हिन्दी में कई लेखक उभरकर आए हैं जो बाजार की भाषा में लिख रहे हैं और उनके विचार वही हैं, जो हमारे हैं। मुझे लगता है कि हम लोगों को भी जो उन मूल्यों के पक्ष में खड़े हैं, जिन पर आज संकट की घड़ी है, अपना एक दबाव बनाने के लिए बाजार की भाषा को अपनाना पडे़गा।`` यह बदलाव केवल साहित्य के गद्य रूपों की भाषा में ही नहीं, कविता की भाषा में भी हुआ है। यहां आग्रह अब सरलता का है और इसमें बोलचाल की भाषा की नाटकीयता एवं तनाव का रचनात्मक इस्तेमाल हो रहा है।
इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने हमारे देश में संस्कृति को उत्पाद और उद्योग में बदलकर उसका जो बाजारीकरण किया, उसका एक लाभ यह हुआ है कि इसका उपयोग पहले की तरह अब कुछ वर्गों तक सीमित नहीं रहा। इसके उपभोग में जाति, धर्म, संप्रदाय और लैंगिक भेदभाव समाप्त हो गया है। साहित्य भी संस्कृति का एक रूप है इसलिए इलेक्ट्रोनिक मीडिया के प्रसार के साथ हमारे देश में इसका भी व्यापक रूप से और त्वरित गति से जनतंत्रीकरण हुआ है। इस कारण हमारे यहां पिछले दस-पंद्रह सालों के दौरान साहिित्यक अभिव्यक्ति और इसके उपभोग की आकांक्षा समाज के सभी वर्गों में खुलकर व्यक्त हुई है। इस दौरान भारतीय भाषाओं के साहित्य में दलित वर्ग के कई साहित्यकारों ने अपनी अलग पहचान बनाई। हिन्दी में भी इस दौरान दलित-विमर्श मुख्यधारा में आया। दलित वर्ग की तरह ही इधर साहित्य में अपनी अस्मिता के प्रति सचेत स्त्री रचनाकारों ने भी बड़ी संख्या में उपस्थिति दर्ज करवाई है। अंग्रेजी और हिन्दी की लगभग सभी लोकप्रिय और साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं ने इस दौरान स्त्री रचनाओं पर विशेषांक प्रकाशित किए। साहित्य के जनतंत्रीकरण का एक और लक्षण गत कुछ वर्षों की हिन्दी की साहित्यिक सक्रियता और प्रकाशन के केन्द्र महानगरों में होते थे। अब ये वहां से शहरों, कस्बों और गांवों में फैल गए हैं। सूचनाओं की सुलभता के कारण दूरदराज के कस्बों-गांवों के रचनाकार आत्मविश्वास के साथ हिन्दी के समकालीन साहिित्यक विमर्श का हिस्सा बन रहे हैं और अपनी पहचान बना रहे हैं।
इलेक्ट्रोनिक मीडिया हमारे देश में बहुराष्ट्रीय पूंजी के नियंत्रण और निर्देशन में जिस उपभोक्तावाद और आर्थिक-सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का प्रसार कर रहा है उसका प्रतिरोध मुख्यतया हमारे साहित्य में ही हो रहा है। यूण्आरण् अनंतमूर्ति ने पिछले दिनों एक जगह कहा था कि जैसे टेलीविजन वाले करते हैं वैसे हमें नहीं करना चाहिए हमें रेसिस्ट करना है, डिसक्रिमीनेट करना है। इस प्रतिरोध के कारण गत दस-पंद्रह सालों के हमारे साहित्य के सरोकारों और विषय-वस्तु में बदलाव आया है। हिन्दी में भी यह बदलाव साफ देखा जा सकता है। मनुष्य को उसके बुनियादी गुण-धर्म और संवेदना से काटकर महज उपभोक्ता में तब्दील कर दिए जाने की प्रक्रिया का खुलासा करने वाली कई कविताएं इस दौरार हिन्दी में लिखी गई हैं। इसी तरह आर्थिक-सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के दुष्परिणामों में एकाग्र उपन्यास और कहानियां भी हिन्दी में कई प्रकाशित हुई हैं। उपभोक्तावाद और आर्थिक-सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के विरुद्ध प्रतिक्रिया इस दौरान हिन्दी कविता में पलायन की नई प्रवृत्ति के उभार में भी व्यक्त हुई है। कई कवि इस नई स्थिति से हतप्रभ और आहत होकर घर-गांव की बाल-किशोर कालानी स्मृतियों में लौट गए हैं। इस कारण इधर की हिन्दी कविता में कहीं-कहीं वर्तमान यथार्थ से मुठभेड़ की जगह स्मृति की मौजूदगी बढ़ गई है।
इलेक्ट्रोनिक मीडिया अपनी प्रविधि और खास चरित्र से पारम्परिक साहित्य की िशल्प-प्रविधि को भी अनजाने ढंग से प्रभावित कर बदलता है। साहित्यकार इलेक्ट्रोनिक मीडिया का उपभोक्ता है इसलिए अनजाने ही उसकी कल्पनाशीलता इससे प्रभावित होती है। इसके अनुसार उसका अनुकूलीकरण होता है। हमारे यहां खास तौर पर टी.वी. के कारण साहित्य की प्रविधि और शिल्प में जबर्दस्त बदलाव हुए हैं। दस-पंद्रह सालों के हिन्दी साहित्य में इस कारण दृश्य का आग्रह बढ़ गया-यहां वर्णन पहले की तुलना में कम, दृश्य ज्यादा आ रहे हैं। इसी तरह पाठक अब पहले से सूचित है और पहले से ज्यादा जातना है इसलिए इधर की रचनाओं में सूचनाएं कम हो गईं हैं या असाधारण सूचनाएं बढ़ गई हैं। टी.वी.के प्रभाव के कारण ही हिन्दी में लंबी कहानियों और उनके एपिसोडीकरण की प्रवृत्ति बढ़ी है। साहित्य की पारम्परिक तकनीक-रोचकता और रंजकता के पारम्परिक उपकरण ओवर एक्सपोजर से बासी हो गए हैं इसलिए इधर के हिन्दी साहित्य में इनके विकल्पों के इस्तेमाल की सजगता दिखाई पड़ती है। रचनाकार पुराकथाओं या मिथकों की तरफ लौट रहे हैं और वर्णन की पुरानी शैलियों का नवीनीकरण हो रहा है। इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने पारम्परिक साहित्य में एक और खास तब्दीली की है। गत दस-पंद्रह सालों के दौरान साहित्यिक विधाओं का स्वरूपगत अनुशासन ढीला पड़ गया है। इनमें परस्पर अंतर्क्रिया और संवाद बढ़ रहा है। इसका असर हिन्दी में भी दिखाई पड़ने लगा है। इसी कारण हिन्दी में उपन्यास आत्मकथा की शक्ल और आत्मकथा उपन्यास की शक्ल में लिखीं जा रही हैं। कहानियां पटकथाएं लगती हैं और संस्मरण कहानी के दायरे में जा घुसे हैं। इसी तरह हिन्दी कविता ने भी अपने पारम्परिक औजारों का मोह लगभग छोड़ दिया है। यह अधिकांश बोलचाल की भाषा के पेच और खम के सहारे हो रही है।
जाहिर है, साहित्य पर इलेक्ट्रोनिक मीडिया का गहरा और व्यापक प्रभाव है। यह अलग बात है कि आत्म मुग्ध और अपने तक सीमित साहित्यिक बिरादरी को अभी इसका अहसास बहुत कम है।