Thursday 17 April, 2008

जीवन के खाद पानी से फूटी कविताएं

गोविंद माथुर हिंदी के उन कुछ कवियों में से एक हैं, जिन्होंने निरंतर आत्मान्वेषण और अभ्यास द्वारा खास अपनी तरह की अलग कविता संभव की है। ऐसे समय में जब कविता की सामाजिक स्वीकार्यता निरंतर कम हो रही हो और खुद कविता अपनी ताकत को लेकर बहुत आश्वस्त नहीं हो, गोविंद माथुर की यह खास शैली और मुहावरा कविता के भविष्य के संबंध में नयी आशा जगाते हैं गोविंद माथुर बहुत अनौपचारिक ढंग से अपने निजी और पास-पड़ोस के दैनंदिन मध्यवर्गीय सरोकारों और स्मृतियों के बीच अनायास जीवन की बड़ी सच्चाइयों से रूबरू होते हैं और सामान्य बातचीत की लय और मुहावरे में ही उसे व्यक्त भी करते हैं। उनकी बहुत सरल और सहज संप्रेषणीय कविताएं पाठकों के मन-मस्तिष्क में अपनी कविताओं की तरह अनायास खुलती चली जाती हैं। इन कविताओं की सबसे बड़ी और ध्यानाकर्षक खूबी यह है कि इनमें से झांकता जीवन और मुहावरा, दोनों बहुत अकृत्रिम और अनौपचारिक हैं।
आत्मान्वेषण का अमूर्तन से गहरा रिश्ता है, लेकिन गोविंद माथुर की कविताएं अमूर्तन से अछूती रहकर भी एक नए अर्थ और संदर्भ में खास तरह की अलग आत्मान्वेषण की कविताएं हैं। यह आत्मान्वेषण पारंपरिक किस्म के आत्मान्वेषण से बहुत अलग है। यहां कवि अपने को टटोल रहा है, वह उलट-पलट कर अपनी जांच-परख और क्या पाया-क्या खोया जैसे लेखे-जोखे में लगा हुआ है। यह खोज-परख कवि के अपने घर- परिवार, पास-पड़ोस, माता पिता, पत्नी, बच्चे, दोस्त, दफ्तर आदि की जीवंत और ऐंद्रिक उठापटक के बीच है। अपने को पाने और पहचानने की पूरी जद्दोजहद और बेचैनी इन कविताओं में है, लेकिन यह सब कवि अपने यथार्थ से भाग कर नहीं, उसमें डूबकर कर रहा है। इन कविताओं में जीवन की कई बड़ी सच्चाइयां कवि के अपने मध्यवर्गीय सरोकारों के बीच से फूट रही हैं। गोविंद माथुर की ऐसी ही एक कविता है, एक दिन कुछ नहीं होगा। यह कविता बिना किसी बड़ी मुद्रा के मृत्यु से रूबरू करवाती है :
बचपन में दौड़ते हुए
एक घाटी से लुढ़का
छिल गए हाथ पैर
लेकिन बच गया मैं
उन्हीं दिनों तांगे के
पहिए के नीचे आ गया पैर
लंगड़ा कर चलता रहा कई दिन
लेकिन बच गया मैं
कितनी दुघZटनाओं में
कितनी बार बचा
और बचूंगा कितनी बार
एक दिन कुछ नहीं होगा
पर यह नहीं कह सकूंगा
बच गया मैं
हिंदी कविता की सामाजिक स्वीकार्यता में जो गिरावट आई है उसका एक बड़ा कारण सामान्य दैनंदिन जीवन से उसकी बढ़ती दूरी है। अधिकांश हिंदी कविता में व्यक्त जीवन इतना ऊंचा और असाधारण है कि यह पाठकों का अपना नहीं लगता। गोविंद माथुर की कविताओं के संबंध में खास उल्लेखनीय बात यह है कि इनकी निर्भरता पूरी तरह सामान्य और दैनंदिन मध्यवर्गीय जीवन पर हैं। इन कविताओं में सब तरफ रोजमर्रा मध्यवर्गीय उठापटक और सुख दु:ख का फैलाव दिखाई पड़ता है। यहां कपड़े सिलती मां, कैंची की तरह जबान चलातीं बहनें, कढ़ाई -बुनाई करती और घर-गृहस्थी में खटती पत्नी, उघाड़े बदन बच्चे और खटिया पर बैठे बुजुर्ग हैं। अपने आसपास की ऐंद्रिक दुनिया के खाद-पानी से फूटी इन कविताओं का यथार्थ बहुत आसानी से पाठकों का अपना यथार्थ हो जाता है। गोविंद माथुर की दो ऐसी अभिभूत करने वाली मर्मस्पशीZ कविता पत्नी के साथ जीवन का यहां उल्लेख जरूरी है। यह कविता पत्नी के साथ एक मध्यवर्गीय पति के संबंधों के यथार्थ को हमारे सामने उघाड़कर रख देती है:
दस बार कहने पर
एक बार गए होंगे पत्नी के साथ बाजार
सौ बार कहने पर एक बार गए होंगे सिनेमा
कभी चले भी गए तो
दस कदम आगे रहे पत्नी से
मुड़-मुड़ कर देखते रहे कितनी दूर है
कंधे से कंधा मिलाकर नहीं चले कभी
अपनी पत्नी से कभी नहीं कहा सुंदर हो तुम
नीला आसमानी रंग कितना अच्छा लगता है
तुम्हारे उजले बदन पर जैसे आकाश न ढक लिया हो धरती को
कभी सराहा नहीं खाना खाते समय
कितनी स्वादिष्ट है उड़द की दाल
और दही की पकौिड़यां
प्रशंसा के दो शब्द नहीं कहे कभी
जली-कटी जरूर कहते रहे
कढ़ाई-बुनाई को करते रहे नजर अंदाज
कभी नाम लेकर नहीं पुकारा
चुपचाप सुनते रहे गुनगुना
नॉस्टेल्जिया इधर की गत दो-तीन दशकों की हिंदी कविता में बहुतायत से है और कुछ हद यह उसका केंद्रीय स्वर जैसा हो गया है। गोविंद माथुर की इन कविताओं में इसकी सघन मौजूदगी चौंकाने वाली हद तक है। इन अधिकांश कविताओं की बुनावट में इसीलिए स्मृति कच्चे माल की तरह इस्तेमाल हुई है। कवि के मन में जो बीत गया है उसके लिए गहरा रागात्मक लगाव है और यह इन कविताओं में बार-बार आता है। कायस्थ पाठशाला, राजकीय वाचनालय, मानप्रकाश टॉकीज, गुड़ की चाय, चमड़े की सीट वाली काली सायकिल, हवाई चप्पल, शहर की एक गली आदि कुछ कविताएं तो संपूर्ण ही ऐसी हैं। अतीत से कवि का यह लगाव अकारण नहीं है। दरअसल कवि निरंतर विकट और निष्करण होते जाते समय में है, जहां प्रेम और आत्मीयता का अकाल हो गया है। कवि इसी प्रेम और आत्मीयता के लिए बार-बार अपने अतीत में लौटता है और उसके बरक्स अपने वर्तमान को रखकर आहत महसूस करता है। वह चीजों के बदल जाने से दु:खी नहीं है, वह उनमें कम होते प्रेम और आत्मीयता से दु:खी और चिंतित है। वह मोनप्रकाश टाकिज कविता अंत में कहता है:
क्या कहीं नहीं बचेगा कोई स्मृति चिन्ह
जिन इमारतों में टहलते हुए
बैठे हुए, हंसते हुए, गाते हुए
बातें करते हुए, प्रेम करते हुए
स्वप्न बुनते हुए
स्मय बिताया था
क्या उन सभी
स्कूलों, वाचनालयों
चाय घरों, सिनेमा घरों को
ढहा दिया जाएगा
क्या प्रेम, आत्मीयता
मित्रता और स्मृतियां
शेष रह जाएंगी सिर्फ कविताओं में
सघन मौजूदगी के बावजूद नॉस्टेल्जिया गोविंद माथुर की कविताओं में आत्म रति में नहीं बदलता। कवि नॉस्टेल्जिया का सहरा लेकर अपने समय और समाज के यथार्थ से भागता नहीं है। वह स्मृति में इसलिए होता है कि उसके बरक्स रखकर अपने समय और समाज के कुरूप चेहरे को बेनकाब कर सके। यह गोविंद माथुर की कविताओं में बार-बार होता है। उनका एक कविता उपनगर में घर का एक उदाहरण यहां दृष्टव्य है:

पता नहीं कहां घोंसला
बनाती होंगी इस नगर की चििड़यां
न घरों में रोशनदान है न ही
टंगी हैं बुजुगोZं की तस्वीरें
किसी कोने में सहमा हुआ कबूतर नजर नहीं आता
न ही किसी बच्चे को फिक्र करने की जरूरत है।
आखिर यह चििड़या उड़ क्यों नहीं रही
नॉस्टेल्जिया की बहुतायत के बावजूद गोविंद माथुर अपने समय और समाज के यथार्थ से मुंह नहीं चुराते। वे बिना बड़बोला हुए अपने समय के यथार्थ की चुनौती से भी रूबरू होते हैं। गुजरात, कैट वाक, इधर उधर के लोग जैसी उनकी कविताएं इसका प्रमाण है। उनकी कविता वे आतंकवादी नहीं है बाजार के बढ़ते वर्चस्व और उसकी नयी व्यूह रचना का अच्छा खुलासा करती है:
वे नहीं चाहते
मैं पैदल जाऊं या फिर
धक्के खाता फिरूं सिटी बस में
वे मुझे बड़े आग्रह से स्कूटर दे देते हैं
मैं उनकी घेरेबंदी से
घबरा कर स्कूटर ले लेता हूं
वे कभी भी आ जाते हैं
दे जाते हैं कुछ भी
मैं धीरे-धीरे उनका
कर्जदार होता जा रहा हूं
मेरे पोते चुकाएंगे मेरा कर्ज
सरलता गोविंद माथुर की कविताओं का स्वभाव है और यही एक बात उन्हें अधिकांश मुशिकल, जटिल और बड़बोली समकालीन हिंदी कविता में अलग पहचान देती है। गोविंद माथुर ईमानदारी के साथ, अपने पांवों पर, अपनी जमीन के बीच खड़े हैं, इसलिए उन्हें कविता के लिए अलग से भाषा और मुहावरा गढने रचने की जरूरत नहीं पड़ती। यह सब तो उनके पास है। अपनी दैनंदिन भाषा, उसके पेच-खम और उसका मुहावरा ही उनकी कविता को कविता की हैसियत और दर्जे तक पहुंचा देते हैं। जड़े अपनी जमीन में गहरी हों, तो कविता अनायास फूटती है। गोविंद माथुर की कविताएं इसका प्रमाण है।

बची हुई हंसी : रचना प्रकाशन, 57, नाटाणी भवन, मिश्रराजाजी का रास्ता, चांदपोल बाजार, जयपुर-302001,2006, मूल्य:100 रुपए