Thursday 28 February, 2008

मध्य वर्ग की चाकरी में हिंदी दैनिक

ग्लॉबलाइजेशन और आर्थिक उदारीकरण से हिंदी दैनिकों के प्रसार और लोकप्रियता में जो विस्फोटक वृद्धि हुई है, उससे उनकी सामग्री और चरित्र पूरी तरह बदल गए हैं। कभी हिंदी दैनिकों को बुनियादी सामाजिक सरोकारों से गहरा लगाव था, लेकिन अब वे इनसे कटकर केवल नए समृद्ध मध्य वर्ग की सेवा-टहल में लग गए हैं। अशिक्षा, बेरोजगारी, गरीबी, भूख, भ्रष्टाचार, अन्याय, शोषण, कुपोषण, जातीयता, लैंगिक भेदभाव और सांप्रदायिकता जैसे बुनियादी सामाजिक सरोकार अब हिंदी दैनिकों की प्राथमिकताओं में शामिल नहीं हैं। फिलहाल बाजार की दिलचस्पी बढ़ी हुई क्रय शक्ति और उपभोग क्षमता से बड़े उपभोक्ता समूह के रूप में वैश्विक पहचान बनाने वाले भारतीय मध्य वर्ग में है, इसलिए हिंदी दैनिकों ने भी अपने को इस वर्ग पर एकाग्र कर लिया है। इस समृद्ध मध्य वर्ग को लुभाने-रिझाने के लिए हिंदी दैनिक अब पूरी तरह बाजार के विषेशज्ञों पर निर्भर हो गए हैं और उनके इशारों पर ही इनमें सामग्री का निर्माण और प्रकाशन हो रहा है।
भारतीय मध्य वर्ग
भारतीय अर्थ व्यवस्था की गतिशीलता में यों तो मध्यवर्ग की हमेशा ही महत्वपूर्ण भूमिका रही है, लेकिन 1991 में शुरू हुए आर्थिक सुधारों के दौर में इसको पहली बार एक निर्णायक ताकत के रूप में पहचाना गया। अपनी बढ़ हुई क्रय शक्ति और उपभोग क्षमता के कारण यह वर्ग एकाएक बाजार की दिलचस्पी के केन्द्र में आ गया। विषेशज्ञों ने इस 25 से 30 करोड़ के बीच की जनसंख्या वाले वर्ग को भारतीय अर्थ व्यवस्था की रेल का इंजन मान लिया। एनसीएईआर ने 1994 के अपने एक सर्वेक्षण में पाया कि लगभग 70 करोड़ जनसंख्या वाले मध्य वर्ग की तीन श्रेणियां हैं और इसकी पहली 15 करोड़ की उच्च मध्यवर्गीय श्रेणी के नीचे 55 करोड़ लोगों की ऐसी दो श्रेणियां हैं, जो उपभोक्ता होने की मध्यवर्गीय आकांक्षाओं से लबालब हैं। आर्थिक सुधारों से इस वर्ग की मनोरचना, जीवन शैली और दृिष्टकोण में हुए रद्दोबदल को भी बाजार ने खासी अहमियत दी। यह महसूस किया गया कि यह वर्ग पहले की तरह दकियानूसी और जड़ होने के बजाय पर्याप्त शिक्षित, गतिशील और महत्वाकांक्षी है। बाजार की निगाह में इस वर्ग की सबसे बड़ी खूबी इसकी उपभोक्तावादी तृष्णा है, जो अब पारंपरिक नैतिक अंतर्बाधाओं मुक्त होने के बाद खुलकर खेल रही है।
बाजार के साथ जुगलबंदी
ग्लॉबलाइजेशन और आर्थिक सुधारों से जो संचार क्रांति हुई, उससे हिंदी दैनिकों का भी कायाकल्प हो गया। अब ये पूरी तरह व्यावसायिक उपक्रम में बदल गए हैं। अपनी क्रय शक्ति और उपभोग क्षमता के कारण मध्य वर्ग आर्थिक सुधारों की शुरुआत से ही बाजार की दिलचस्पी केन्द्र में था, इसलिए हिंदी दैनिकों ने भी इसी पर अपनी निगाहें टिका दीं। ये मध्यवर्ग के उपभोक्ता होने की महत्वकांक्षा का हवा देने की बाजार की मुहिम के साथ जुगलबंदी में जुट गए। इनमें प्रकाशित अधिकांश सामग्री मध्य वर्ग की आकांक्षा, रुचि और स्वाद के ईदगिर्द सिमट गई। इस वर्ग को केन्द्र में रखकर हिंदी दैनिको ने इस सदी की शुरुआत में अपनी नियमित समाचार सामग्री में भी बदलाव किए और इसके अतिरिक्त परिशिष्टों और विशेष पृष्ठों का प्रकाशन शुरू किया। सिटी मिक्स, जस्ट जयपुर, सिटी भास्कर, खुशबू शॉपी और प्रॉपर्टी प्लस जैसे परििशष्टों का प्रकाशन खास तौर पर मध्यवर्गीय रुचियों और प्रवृत्तियों को ध्यान में रखकर शुरू किया गया। इन परिशिष्टों के एन्जॉयपुर, सिटी इंवेन्ट, सिटी स्केन, यूथ ब्रिगेड, रील लाइफ, ग्लैमर सिटी, ग्लैमर ज्ञान, वीमन पॉवर, सिटी हैपनिंग्ज, सिटी डायरी, यूथ विमन, वूमन भास्कर, वूमन इन्फो, एन्टरटेनमेंट भास्कर, यूथ ज्ञान, एफएम कलैसिक, स्टार एक्शन, टेली-दशZन, फन विद फैमिली, बॉडी एंड सोल, टेेस्ट एंड लाइफ, करेन्ट टॉक, माई वल्र्ड, मिक्सड बेग, स्टार जोन, स्टार सेज आदि पृष्ठों पर केवल शॉपिंग, मनोरंजन, लाइफ स्टाइल, सेलीब्रिटी, ज्योतिष और योग विषयक समृद्ध मध्यवर्गीय दिलचस्पी की सामग्री चमक-दमक के साथ सचित्र परोसी जा रही है।
शॉपिंग और केवल शॉपिंग
आर्थिक उदारतावाद से मध्य वर्ग का नजरिया बहुत बदल गया है। मितव्ययिता और भोग की अनिच्छा कभी मध्य वर्ग के आदशZ थे, लेकिन अब उसने इनसे किनारा कर लिया है। अब मध्य वर्ग जमकर खर्च कर रहा है-बचाओ और खरीदों- का उसका पारंपरिक दृिष्टकोण अब Þउधार लो और चुकाओं में बदल गया है। इसी तरह भोग से परहेज करने वाला मध्य वर्ग अब अतिभोग का िशकार है। भोग की उसकी सदियों से दमित इच्छाएं अब खुलकर शॉपिंग में व्यस्त हो रही है। मध्य वर्ग जमकर और खुलकर खरीदारी कर रहा है और 250 बिलियन डॉलर से अधिक का भारतीय खुदरा बाजार विश्व का सबसे अधिक वृिद्ध दर वाला बाजार बन गया है। हिंदी दैनिक मध्य वर्ग की इसी खरीदारी की प्रवृत्ति को हवा देने में लगे हुए हैं। हिंदी दैनिकों के नगरीय परििशष्टों में शॉपिंग सेलीब्रेशन, शॉपिंग हंगामा, कंजूमर कािर्नवाल, क्राफ्ट मेला आदि से संबंधित कथाओं की बाढ आ गई हैं। यहीं नहीं, इनमें परिधान, इलेक्ट्रॉनिक उत्पाद, ऑटोमोबाइल, ज्वैलरी, भवन संपत्ति आदि से संबंधित विज्ञापनों को समाचार कथाओं की शक्ल दी जा रही है। लॉन्च, प्रमोशन और एक्जीबीशन भी इनमें अब प्रमुखता पा रहे हैं। रॉयल शॉपिंग फन आज से, दुल्हन की तरह सजा जयंती बाजार, यहां है हर तरह का खजाना, दीवाली पर नहीं-कुछ पहले खरीदें सोना, स्वीट होम की तलाश में उमड़े लोग और खुिशयों खरीदारियों का मेला जैसे शीषZक वाली कथाओं से ये परििशष्ट अंटे पड़े हैं।
मनोरंजन की बाढ़
मध्य वर्ग के लिए अब मनोरंजन वर्जित क्षेत्र नहीं रहा। दृिष्टकोण में बदलाव और तकनीक की सुलभता से अब उसके लिए मनोरंजन का रास्ता आसान हो गया और वह डूबकर फिल्म, टीवी, रेडियो संगीत और लाइव मनोरंजन का आनंद ले रहा है। मनोरंजन की मध्यवर्गीय आकांक्षा को फिलहाल पंख लग गए हैं। भारतीय उद्योग संघ और केपीएमजी का अनुमान है कि भारतीय मनोरंजन उद्योग 165 प्रतिशत की दर से छलांगेे लगाता हुआ 2010 तक 58,800 करोड़ रुपए का हो जाएगा। एक पत्रकार के शब्द उधार लेकर कहें तो Þउसका तामझाम इतना कल्पनातीत है कि इंद्रसभा भी ईष्र्या करे और उसका अर्थ तंत्र इतना विशाल है कि कुबेर का कोष भी मात खा जाए।ß हिंदी दैनिकों में मध्य वर्ग की मनोरंजन की कामना इससे संबंधित सामग्री की बाढ़ में प्रकट हो रही है। इनमें फिल्म-टीवी से संबधित सचित्र सामग्री वाले पृष्ठों में गत कुछ वषोZं में विस्फोटक वृिद्ध हुई है। हिंदी दैनिक नवरंग और बॉलीवुड जैसे परिशिष्टों के साथ अब अपने नगरीय परिशिष्टों में रील, ग्लैमर सिटी फिल्मी किचकिच, एन्जॉयपुर और ग्लैमर जैसे पृष्ठों पर फिल्म-टीवी से संबंधित सामग्री परोस रहे हैं। इनमें अपने सेक्सी टेग से खुश है सेलीना, विद्या ने सेट पर कपड़े क्यों फेंके, अमृता ने किस के खातिर ठुकराई फिल्म, सुष की जिंदगी में यह कौन, राखी से कोई स्पर्धा नहीं, शाहिद की जोड़ीदार और भी है, चुंबन पाकर कुणाल खुश हुए और फिर छोटे हुए बिपाशा के बाल जैसी कथाएं मध्य वर्ग का मन बहला रही हैं। एफएम रेडियो की लोकप्रियता मध्य वर्ग और उसमें भी खास तौर पर युवाओं में बढ़ रही है, इसलिए हिंदी दैनिकों ने नगरों में अपने एफएम चैनल शुरू कर दिए हैं और वे आक्रामक कवरेज से इनको प्रमोट भी कर रहे हैं। फिल्म-टीवी के अलावा लाइव मनोरंजन भी अब हिंदी दैनिकों की प्राथमिकताओं में शामिल हो गया है। नवरात्र पर होने वाला गरबा-डांडिया गुजरात के साथ हिंदी भाषी क्षेत्रों में भी पांव जमा चुका है और इसका बाजार 10 करोड़ रुपए तक पहुंच गया है। हिंदी दैनिकों में इस नए बाजार को लपकने की होड़ लगी हुई है। इन्होंने गत नवरात्र में नगरों में गरबा-डांडिया महोत्सव आयोजित किए और साथ ही इनके सचित्र कवरेज में अपनी सारी ताकत झौंक दी। नौ दिनों तक हिंदी दैनिकों के नगरीय परििशष्टों में केवल गरबा-डांडिया छाया रहा। हिंदी दैनिकों ने इस दौरान बाजार के साथ तालमेल बिठाकर गरबों के परिधान, Üाृंगार और खानपान पर सचित्र कथाएं, प्रकाशित कीं। एक खास बात इधर यह हुई है कि हिंदी दैनिक अब लाइव मनोरंजन के लिए खुद खेल स्पर्धाएं, फूड फेस्टीवल सांस्कृतिक कार्यक्रम, फैशन शो आदि आयोजित कर रहे हैं और इनको पूरे तामझाम के साथ कवर भी कर रहे हैं।विलासिता पूर्ण जीवन-शैलीभारतीय मध्य वर्ग की जीवन शैली में भी आर्थिक सुधारों से ध्यानाकषZक परिवर्तन आए है। समृिद्ध के साथ-साथ इसका कुछ हद तक पिश्चमीकरण भी हुआ है। 1996 में भारत भ्रमण पर आए नोम चोमस्की ने इस पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि भारतीय अभिजात वर्ग की जीवन शैली वास्तव में आश्चर्यजनक है। मैंने अमरीका में इस तरह की अमीरी नहीं देखी। कभी सैट-सपाटे, बाहर खाने-पीने और मौज -मस्ती को विलासिता समझने वाला मध्य वर्ग अब बदल गया है। अब यह सब उसकी जरूरतों में शामिल है। आजकल हिंदी दैनिक मध्य वर्ग की इन नयी जरूरतों के अनुसार ढलने में लग हुए हैं। हिंदी दैनिक पर्यटन पर परििशष्ट निकाल रहे हैं, जिनमें सैर-सपाटे के लिए जगह से लेकर यात्रा, व्यय, खानपान आदि तक का विवरण दिया जा रहा है। बाहर खाने-पीने के मध्यवर्गीय नए चलन को हवा देने में भी हिंदी दैनिक पीछे नहीं है। इनके नगरीय परििशष्टों में शहर के होटल-ढाबों पर समाचार कथाएं दी जा रही हैे। इनमें पांच दिनों तक होगी व्यंजनों की बहार जैसी कथाओं के माध्यम से फूड फेस्टीवल कवर किए जा रहे हैं। क्लब, सेलीब्रिटी, फ्रेन्डिशप, मोबाइल आदि मौज-मस्ती के नए मध्यवर्गीय शगल भी हिंदी दैनिको में खूब दिख रहे हैं। क्लब मेरी फुर्सत का फरीश्ता, कुछ टिप्स दो न लव गुरु, फ्रेन्डिशप फॉर एवर, पॉकेट में इंटरनेट, सेलफोन गले में घंटी बांधे कोन, वेज का क्रेज और नौ रातें नौ Üाृंगार जैसी समाचार कथाएं इनमें निरंतर प्रकािशत हो रही हैं।
सांस्कृतिक अस्मिता का आग्रह
ग्लॉबलाइजेशन और आर्थिक उदारतावाद ने मध्य वर्ग का नजरिया बदल जरूर है, लेकिन अभी भी उसकी जड़े परंपरा और विरासत में बनी हुई हैं। ग्लॉबलाइजेशन से उसमें भोग की वृत्ति बढी है, उसके भोग का पैटर्न कुछ हद तक पिश्चमी हुआ है, लेकिन संस्कृतिक अिस्मता पर उसका बल देने का आग्रह अभी भी कायम है। बाजार के विशेषज्ञों ने मध्यवर्गीय दृिष्टकोण के इस द्वैत को आर्थिक उदारता के पहले दौर में ही समझ लिया था। कोका कोला के तत्कालीन वरिष्ठ उपाध्यक्ष संजीव गुप्ता ने इस सदी की शुरुआत में एक जगह लिखा था कि Þहमारी व्यूह रचना में मध्य वर्ग, जो सतह पर पाश्चात्य और मूल में भारतीय है, का हृदय प्रतिबिंबित होना चाहिए।ß हिंदी दैनिकों ने मध्य वर्ग की इस द्वैत मनोदशा का खूब अच्छा व्यावसायिक दोहन किया है। इनकी सामग्री में भारतीय मध्यवर्गीय आग्रह के अनुसार अमरीकी और यूरोपीय ढंग की जीवन शैली, खानपान और मनोरंजन के साथ पारंपरिक भारतीय संस्कृति को छौंक भी बराबर दिया जा रहा है। सांस्कृतिक अिस्मता के प्रति आग्रह की मध्यवर्गीय मनोवृति के कारण हिंदी दैनिकों ने अपनी सामग्री में ज्योतिष योग, वास्तुशास्त्र आदि पर केंद्रित स्टार जोन, स्टार सेज, तंत्र मंत्र यंत्र, कुछ अलग जैसे पृष्ठों के प्रावधान किए हैं, जिनमें पितर हमारे जीवन के अदृश्य सहायक, देवालय के आसपास नहीं हो घर और मूलांक 3 वाले पहनें पुखराज जैसी कथाएं प्रकािशत हो रही हैं। इसी तरह हिंदी दैनिकों में पारंपरिक पर्व-त्योहारों पर भी विशेष सामग्री निरंतर प्रकािशत की जा रही है। नवरात्र, संक्रांति, दीपावली, होली आदि के साथ क्षेत्रीय लोक पर्वों को भी इनमें खासा महत्व दिया जा रहा है।
शॉपिंग में व्यस्त, खाते-पीते और आकंठ मनोरंजन में डूबे नए भारतीय मध्य वर्ग को केन्द्र में रखकर संपूर्ण देश की जो तस्वीर हिंदी दैनिक पेश कर रहे हैं, वह असलियत से बहुत दूर है। विडंबना यह है कि देश की जनसंख्या का बड़ा हिस्सा, जिसमें गरीब, अल्पसंख्यक, जनजातियां, वृद्ध आदि शामिल हैं इस तस्वीर में कहीं भी नहीं हैं। दरअसल एक तो केवल मध्य वर्ग संपूर्ण भारतीय जनसंख्या का प्रतिनिधित्व नहीं करता और दूसरे, यह मध्य वर्ग भी गरीब देश का मध्य वर्ग है। जाहिर है, हिंदी दैनिक अब असलियत से कटकर केवल बाजार पर निर्भZर हैं और इसके दबाव में ही उपभोक्तावादी महत्वाकांक्षाओं से भरपूर छोटे-से समृद्ध मध्यवर्गीय तबके तक सिमट गए हैं।
विदुर,अक्ट.-दिस.,2007 में प्रकाशित