Saturday 8 November, 2008

विविध सरोकारों वाली पैनी व्यंग्य रचनाएं


हिंदी में साहित्यिक सक्रियता इस कदर कथा-कविता एकाग्र रही है कि उसमें कथेतर गद्य विधाओं की कोई खास पहचान नहीं बन पाई। हरिशंकर परसाई, शरद जोशी आदि कुछ रचनाकारों ने अपनी असाधारण प्रतिभा से बीच में व्यंग्य को एक मुक्कमिल साहित्यिक अनुशासन की पहचान दिलवाई, लेकिन यह सिलसिला आगे नहीं बढ़ पाया। लोकप्रिय पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर मौजूदगी के बावजूद व्यंग्य को आज भी कथा-कविता की तुलना में इसलिए कमतर आंका जाता है, क्योंकि इसके पुस्तकाकार प्रकाशन अपेक्षाकृत कम हैं। इस दिशा में महत्वपूर्ण पहल संपादक द्वय दुर्गाप्रसाद अग्रवाल और यश गोयल ने जमाने का दर्द नामक सद्य प्रकाशित संकलन के माध्यम से की है, जिसमें हमारे समय के महत्वपूर्ण छत्तीस व्यंग्यकारों की रचनाएं शामिल हैं।

हमारे जीवन के हर मोड़-पड़ाव पर मौजूद राजनीति सहित, नौकरशाही, उपभोक्तावाद, अपसंस्कृति, धर्म-अध्यात्म, भ्रष्टाचार, आडंबर आदि कई विषय इन रचनाओं में सरोकार के रूप में मौजूद हैं। राजनीति फिलहाल हमारे जीवन की धुरि है, इसलिए यहां शामिल रचनाओं में से सर्वाधिक इसी पर एकाग्र हैं। अतुल कनक, ईशमधु तलवार, फारूक आफरीदी, भगवतीलाल व्यास, मनोज वार्ष्णॆय़ॅ, रमेश खत्री आदि की रचनाएं हमारे समय की राजनीतिक विसंगतियों से बुनी गई हैं। अंग्रेजों से विरासत में मिले हमारे प्रशासनिक ढांचे की गड़बड़ों पर भी इन व्यंग्यकारों की निगाह गई है। अजय अनुरागी, अशोक राही, चंद्रकुमार वरठे, बुलाकी शर्मा, राजेशकुमार व्यास, सुरेन्द्र दुबे और हरदर्शन सहगल की यहां शामिल व्यंग्य हमारे प्रशासन तंत्र की विसंगतियों और अंतर्विरोधों को उभार कर सामने लाते हैं। गत दो-तीन दशकों में भारतीय मध्यवर्ग की धर्म और अध्यात्म में एकाएक दिलचस्पी बहुत बढ़ गई है। धर्म से जुड़े आडंबर और पाखंड पर भी इस संकलन में एकाधिक रचनाएं हैं। अनुराग वाजपेयी, यशवंत व्यास, यश गोयल और हेमेन्द्र चंडालिया के व्यंग्य इसी तरह के हैं। हमारे दैनंदिन सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में फिलहाल भूचाल जैसी स्थिति है। भ्रष्टाचार, अपसंस्कृति, दोहरा आचरण, उपभोक्तावाद जैसी कई बीमारियों ने इसे जकड़ रखा है। आदर्श शर्मा, दुर्गाप्रसाद अग्रवाल, पूरन सरमा, देवेन्द्र इन्द्रेश, भगवान अटलानी, मदन केवलिया, रामविलास जांगिड, लक्ष्मीनारायण नंदवाना, शरद उपाध्याय, शरद केवलिया, देव कोठारी, मनोहर प्रभाकर, संजय कौशिक, बलवीरसिंह भटनागर, प्रभाशंकर उपाध्याय, यशवंत कोठारी और संपत सरल की यहां शामिल रचनाओं में हमारे विसंगतिपूर्ण सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन के कई रंग मौजूद हैं।

यहां संकलित रचनाओं की खास बात यह है कि इनमें हमारे समय और समाज की धड़कन साफ सुनाई पड़ती है। खास हमारे समय और समाज की विसंगतियों और अंतर्विरोध इनमें उभरकर सामने आते हैं। इन रचनाओं में सरोकारों का वैविध्य है, लेकिन खास बात यह है कि अपने आसपास और दैनंदिन जीवन से इनका रिश्ता बहुत गहरा और अटूट है।

व्यंग्य की धार और पैनापन कमोबेश इन सभी रचनाओं में हैं, लेकिन कहीं रचनाकर इनमें सतह पर साफ दिखाई पड़ने वाली विसंगतियों और अंतर्विरोधों पर ठहर गया है, जबकि कहीं वह इनके लिए सतह के नीचे गहरे में उतरा है। यहां संकलित कुछ रचनाएं सतह पर नहीं दिखाई देने वाली हमारे सांस्कृतिक-सामाजिक जीवन की विसंगतियों को उभारने वाली बहुत अर्थपूर्ण रचनाएं हैं, जिनका निहातार्थ पाठक मन में धीरे-धीरे खुलता है और गहरा असर करता है।

यशवंत व्यास की भगवान बड़ा दयालु है, अनुराग वाजपेयी की फिर नया अवतार, ईशमधु तलवार की वे बाघ हो गए, फारूक आफरीदी की बापू, यहां कुशल मंगल है संजय झाला की अपुन का गांधी कॉलेज और बुलाकी शर्मा की प्रकाशक का सुखी सफरनामा आदि रचनाओं में गहराई है। इन व्यंग्यों में रचनाकार कम, रचना ज्यादा है। भगवान बड़ा दयालु है और अपुन का गांधी कॉलेज जैसी व्यंग्य रचनाओं में निहितार्थ भाषा के खेल से उभरता है और इनसे कविता जैसा स्वाद आता है। इन रचनाओं की मम्मा ने परंपरागत अम्मा होने की चिंता को शाम के क्लब प्रोग्राम के पेपरवेट तले तबाया और बिटिया चली गई, फिर जब संस्कृति का चांद उनकी सदाशयता की चलनी से दिखाई देता है तो पतिव्रता होने का आनंद कितने गुना हो जाता होगा?, आदमी साला जड़स्थितप्रज्ञ हो गया है, न सुखेन सुखी, न दुखेन दु:खी जैसी पंक्तियां बहुत अर्थपूर्ण और सांकेतिक हैं।
अतिरंजना भी व्यंग्य का हथियार है। यहां शामिल कुछ रचनाओं में इसका बखूबी इस्तेमाल हुआ है। मनोहर प्रभाकर की घर-घर चैन चुरैया और आदर्श शर्मा की बाई! जीवन में पहले क्यूं न आई में यह साफ देखा जा सकता है। पुस्तक का प्रकान साफ-सुथरा और सुरुचिपूर्ण है।
विवेच्य पुस्तक
जमाने का दर्द (श्रेष्ठ हास्य-व्यंग्य संकलन) : विवेक पब्लिशिंग हाउस, धामाणी मार्केट, चौड़ा रास्ता, जयपुर, प्रथम संस्करण : 2008, मूल्य: 175 रुपए, पृष्ठ संख्या: 130