प्लासी की निर्णायक विजय के बाद अंग्रेजों की रीति-नीति में बदलाव हुए। उन्होंने यहां रेल, भाप के जहाज और तार की आधुनिक संचार-व्यवस्था का विस्तार किया। उन्होंने यहां के धार्मिक-सामाजिक मामलात में अब तक चली आ रही अहस्तक्षेप की नीति को छोड़कर ईसाई धर्म प्रचारकों को कार्य करने की छूट और सुविधाएं दी। उन्होंने शिक्षा के भी अंग्रेजीकरण का निर्णय लिया-इसके लिए संस्थाएं कायम कीं और उनमें साहित्य, इतिहास और विज्ञान के अध्ययन-अध्यापन के प्रबंध किए। यह सब उन्होंने अपने शासन की दृढ़ता और प्रभुत्व के विस्तार के लिए किया। उनका अनुमान यह था कि आधुनिक संचार-व्यवस्था उनके शासन और सैनिकों की दूरस्थ क्षेत्रों में पहुंच को सुगम बनाएगी और उससे यहां की अकूत भौतिक संपदा का दोहन भी आसान होगा। ईसाई मिशनरियों के धर्म प्रचार से उन्हें लगता था कि यहां का जनसाधारण साम्राज्य और शासन के प्रति वफादार और सेवाभावी बनेगा। अंग्रेजी षिक्षा तो उनके लिए अपने प्रभुत्व और वर्चस्व के विस्तार का सबसे अहम् हथियार थी। उनको विष्वास था कि इस षिक्षा से यहां एक ऐसा वर्ग पैदा हो जाएगा, जो रक्त और रंग में भारतीय लेकिन बुद्धि, रुचि और नैतिकता की दृष्टि से पूरी तरह अंग्रेज होगा। ओ. मैले के अनुसार उपनिवेशवादियों को आशा थी कि इस शिक्षा से उत्पन्न ज्ञान, जनता को ब्रिटिश शासन का सम्मान करना सिखलाएगा और उनमें एक हद तक शासन के प्रति अपनत्व की भावना पैदा करेगा। लेकिन हुआ इससे भिन्न। उनका उद्देष्य था विनाष किन्तु हुआ पुनरुज्जीवन। ब्रिटिश शिक्षा के विस्तार से यहां जो नया पढ़ा-लिखा तबका तैयार हुआ, वह आधुनिक यूरोपीय विचारधाराओं, युक्तियुक्तता, उदारतावाद, स्वतंत्रता और जनवाद, मानवतावाद और समानता के संपर्क में आया। इन नए विचारों की रोशनी में उसने अपनी परंपरा, समय और समाज को नए सिरे से समझने-पहचानने की शुरुआत की और इस तरह समाज-सुधार और पुनरुत्थान के आंदोलन जोर पकड़ने लगे।
आधुनिक संचार-व्यवस्था, जो अंग्रेजों ने अपने प्रभुत्व और विस्तार के लिए कायम की थी, इन विचारों को देश भर में फैलाने में मददगार सिद्ध हुई। महादेव गोविंद रानाडे, विवेकानंद, दयानंद सरस्वती, सर सैयद अहमद खान नवजागरण के अग्रदूत बने। इस नवजागरण से राष्ट्रीय चेतना के विस्तार में भी मदद मिली। आगे चलकर धीरे-धीरे उपनिवेषवाद के विरुद्ध संघशZ के लिए जैसे-जैसे राजनीतिक चेतना उग्र और व्यापक होने लगी समाज-सुधार और पुनरुत्थान के स्वर मंद पड़ते गए। इस व्यापक नवाचार की उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं सदी के आरंभ के हिंदी में साहित्य के स्वरूप निर्धारण में निर्णायक भूमिका थी। यह उसकी नींव में पत्थरों की तरह इस्तेमाल हुआ। बीसवीं सदी में बहुत आगे जाकर भी हिंदी साहित्य में इसकी स्मृति और संस्कार बने रहे।
उन्नीसवीं सदी में जब नवजागरण आंदोलन चल रहे थे और आधुनिक आचार-विचार का विस्तार हो रहा था, तो इनकी प्रेरणा और प्रभाव से उत्तर भारत में खड़ी बोली हिंदी को आधुनिक गद्य की भाशा में बदलने की निर्णायक कोषिषें भी चल रही थीं। खड़ी बोली हिंदी को गद्य-भाशा में ढालने-संवारने का काम इस दौरान अंग्रेजों द्वारा भारतीयों की षिक्षा के लिए स्थापित फोर्ट विलियम कॉलेज में हिन्दुस्तानी के अध्यक्ष जॉन गिलक्राइस्ट की देखरेख में लल्लूलाल और सदल मिश्र ने किया। कुछ ऐसी कोशिशें कॉलेज से बाहर के लोगों-सैयद ईशा अल्ला खां और ईसाई धर्म प्रचारकों ने भी की। दयानंद सरस्वती ने भी सत्यार्थ प्रकाश हिंदी में लिखकर इस काम को आगे बढ़ाया। राजा शिवप्रसाद और राजा लक्ष्मणसिंह का भी हिंदी के आरंभिक गद्य का स्वरूप तय करने में महत्वपूर्ण योगदान है। इन्होंने शुरुआत में पाठ्योपयोगी किताबें लिखीं और कुछ अनुवाद किए।
ये तमाम कोषिषें साहिित्यक नहीं थीं- इनका उद्देष्य हिंदी में पठन-पाठन के लिए जरूरी आधार सामग्री सुलभ करवाने या धर्म-प्रचार तक सीमित था। इनसे हिंदी गद्य का रूप कुछ तय हुआ और पठन-पाठन और पत्रकारिता में इसका उपयोग भी होने लगा। नतीजा यह हुआ कि दुविधा और संकोच में उबरकर हिंदी में साहित्य को संभव करने का आत्मविष्वास आ गया। हिंदी में साहित्यकर्म की शुरुआत थोड़ी झिझक के साथ भारतेन्दु हरिष्चन्द्र ने की। अब तक साहित्य की भाशा ब्रज थी इसलिए इसे छोड़कर खड़ी बोली हिंदी में साहित्यकर्म के लिए प्रवृत्त होने में भारतेन्द्र हरिष्चन्द्र को थोड़ी असुविधा हुई। उन्होंने ब्रज में पूर्ववत कविकर्म जारी रखते हुए खड़ी बोली हिंदी साहित्य कर्म शुरू किया।
भारतेन्दु के समकालीन अन्य लोगों में, जिन्होंने ब्रज के साथ खड़ी बोली में साहित्यकर्म की शुरुआत की, बदरीनारायण चौधरी, ठाकुर जगमोहन सिंह, बालकृष्ण भट्ट, अंबिकादत्त व्यास और लाला श्रीनिवासदास प्रमुख हैं। कुल मिलाकर वस्तुस्थिति यह थी कि बीसवीं सदी की शुरूआत में जब हिंदी के विकास और संस्कार परिश्कार के काम की बागडोर महावीर प्रसाद द्विवेदी ने संभाली, तो हिंदी अपने पांवों पर खड़ी हो चुकी थी और इसमें साहित्य की सभी आधुनिक गद्य विधाओं में लिखने की शुरूआत हो चुकी थी। 1903 में द्विवेदी जी सरस्वती के संपादक बने और इस पद पर रहकर उन्होंने हिंदी के साहित्यकारों और उदीयमान पाठकों के एक उदीयमान प्रांतीय समूह को साफ-सुथरी शिष्ट अभिव्यक्ति कला का प्रषिक्षण दिया। उन्होंने सरस्वती के माध्यम से हिंदी में गद्य का स्वीकृत और मानक रूप गढ़ा। गद्य का स्वरूप तय हो जाने के बाद इसमें लेखन की सक्रियता बढ़ी। कहानी, उपन्यास, नाटक, आलोचना आदि के साथ जीवनी संस्मरण और यात्रा वृत्तांत जैसी कथेतर गद्य विधाओं में लेखन शुरू हुआ।