Wednesday 25 June, 2008

गिरीश कारनाड का नाट्य कर्म

विख्यात नाटककार, कवि, अभिनेता, निर्देशक, आलोचक, अनुवादक और सांस्कृतिक प्रशासक गिरीश कारनाड का जन्म महाराष्ट्र के माथेराम में एक कोंकणीभाषी परिवार में 19 मई, 1938 को हुआ। कारनाड ने 1958 में धारवाड स्थित कर्नाटक विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद वे रोहड्स स्कॉलर के रूप में इग्लैंड गए, जहां उन्होंने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र और दर्शनशास्त्र में स्नातकोत्तर की शिक्षा ग्रहण की। कारनाड शिकागो विविद्यालय के फुलब्राइट महाविद्यालय में विजिटिंग प्रोफेसर भी रहे। कारनाड की मातृभाषा कोंकणी थी, लेकिन वे अंग्रेजी में लिखकर शेक्सपीयर और टी.एस. ईलियट की तरह विख्यात होना चाहते थे। कारनाड विख्यात तो हुए, लेकिन कोंकणी या अंग्रेजी में नहीं, कन्नड़ में हुए। 1961 में कन्नड़ में प्रकाषित उनके पहले नाटक ययाति ने उनको भारतीय साहित्य की महत्वपूर्ण शख्सियत के रूप में स्थापित कर दिया। इस नाटक के कई भारतीय भाषाओं में अनुवाद और मंचन हुए। इसके बाद कारनाड मद्रास स्थित ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस की नौकरी छोड़ कर पूर्णकालिक स्वतंत्र लेखन में जुट गए।

रंगकर्मी के रूप में स्थापित होने के बाद कारनाड की दिलचस्पी फिल्मों में भी हुई। इस नए माध्यम में भी उन्होंने बतौर लेखक, निर्देशक और अभिनेता कई कीर्तिमान कायम किए। उनकी फिल्म संस्कार को आरंभिक विवादों के बाद राश्टपति का स्वर्ण पदक पुरस्कार दिया गया। इसके अतिरिक्त उन्होंने वंशवृक्ष, काडू, अंकुर, निशांत, स्वामी और गोधुलि जैसी फिल्में बनाईं और इनमें अभिनय भी किया। मृच्छकटिकम् पर आधारित विख्यात लोकप्रिय फिल्म उत्सव का लेखन और निर्देषन भी कारनाड ने ही किया। इकबाल जैसी लोकप्रिय फिल्म से भी कारनाड संबंधित रहे हैं। कारनाड को उनके साहित्य में समग्र योगदान के लिए 1990 में भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया। इसके अतिरिक्त पद्मभूषण-पद्मश्री, साहित्य अकादमी और संगीत-नाटक अकादमी सहित कई पुरस्कार-सम्मान उनको प्राप्त हो चुके हैं। निरंतर सृजनषील रहने के बावजूद कारनाड अपनी चिकित्सक पत्नी और दो बच्चों को पर्याप्त समय देते हैं और अपने व्यक्तिगत जीवन की सार्वजनिक चर्चा करने से परहेज करते हैं। फिलहाल सभी तरफ से समेटकर कारनाड ने अपने को नाटकों के लिए समर्पित कर दिया है। उनके अपने शब्दों में ´´अब जो भी समय मेरे पास बचा है, उसे मुझे नाटक लेखन, जो मुझे सबसे अधिक पसंद है, में व्यतीत करना चाहिए।

गिरीश कारनाड मूलत: नाटककार हैं और उनकी प्रतिभा का सर्वोत्तम इस अनुशासन में ही व्यक्त हुआ है। बतौर फिल्म निर्देशक, लेखक और अभिनेता उनकी ख्याति का पर्याप्त विस्तार हुआ, उन्हें इन विभिन्न भूमिकाओं के लिए पुरस्कार-सम्मान भी मिले, लेकिन उनका पहला और आखिरी प्यार नाटक है और उनकी आत्मा इसी में रची-बसी है। उनके अपने शब्दों में ´´मैं अभिनेता जीविकोपार्जन के लिए बना। अगर नाटक लेखन से यह हो गया होता, तो मैं कुछ और नही करता।`` कारनाड ने जिस समय कन्नड में नाट्य कर्म की शुरुआत की, तो वहां पश्चिमी साहिित्यक पुनर्जागरण का गहरा और व्यापक प्रभाव था। कन्नड लेखकों में इस समय नवाचार और प्रयोगशीलता की होड़ लगी हुई थी। ऐसे समय में कारनाड ने पौराणिक और ऐतिहासिक विषय वस्तु और चरित्रों वाले नाटकों के माध्यम से अपने समय और समाज समझने-समझाने की कोशिश की, जो बहुत लोकप्रिय हुई।

कारनाड का महाभारत के मिथकीय चरित्रों पर एकाग्र पहला नाटक ययाति 1961 में प्रकाशित हुआ। यह नाटक चरित्र सृष्टि और रंग योजना के लिहाज से असाधारण था, इसलिए इसको तत्काल पहचान मिली। 1964 में प्रकाशित कारनाड का दूसरा नाटक तुगलक सल्तनतकालीन विख्यात ऐतिहासिक चरित्र मुहम्मद बिन तुगलक पर आधारित था। तुगलक प्रतापी और स्वप्नदृ, लेकिन निरंकुश शासक था, जिसको कारनाड ने इस नाटक में नेहरूयुगीन द्वंद्व और यथार्थ की जटिलता को उजागर करने के लिए चुना। इस नाटक का मंचन विख्यात रंगकर्मी इब्राहिम अलकाजी ने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में किया। कारनाड के नाटक रक्त कल्याण के भी कई भारतीय भाषाओं में अनुवाद और मंचन हुए। 1168 ईण् से पहले के दो दषकों के कर्नाटक के इतिहास पर आधारित इस नाट्य रचना का नायक बसवण्णा नामक कवि और समाज सुधारक है। धर्म, जाति, लिंग आदि की असमानता का विरोध और कर्म का निर्वाह बसवण्णा के आदर्श थे। इन आदर्शों के लिए बसवण्णा द्वारा किए गए संघर्ष को कारनाड इस नाटक के माध्यम से हमारे समय और समाज के लिए प्रासंगिक बनाते हैं। यह नाटक नाटय शिल्प के लिहाज से भी सुगठित है और इसकी रंग योजना इस तरह की है कि इससे आठ सौ वर्ष पूर्व की कन्नड़ संस्कृति जीवंत हो उठती है। 1971 में प्रकाषित नाटक हयवदन भी गिरीश कारनाड के नाट्य कर्म को नई ऊंचाइयों पर ले जाने वाला है। यहां नाटककार स्त्री-पुरुष संबंधों की जटिलता को खोलने के लिए मिथकीय आख्यान का सहारा लेता है। स्त्री-पुरुष संबंधों की संपूर्णता की अंतहीन तलाष की यातना और बुद्धिऔर देह का सनातन संघर्ष इस नाटक में खास तौर पर दिखाया गया है। प्रासंगिक और आकर्षक कथ्य तथा सम्मोहक शिल्प इस नाटक की खासियत है। इन कुछ विभिन्न भारतीय भाशाओं में अनूदित नाटकों के अतिरिक्त अग्नि मटट, माले, ओदेकलु बिंब, अंजुमालिंगे, मा निशाद, टीपूविना, कनासुगल, हित्तिना हुंज, नाग मंडल और बलि भी कारनाड के नाटकों में शामिल हैं।