Sunday 14 September, 2008

गिरीश कारनाड के नाटक का तुगलक का मूल्यांकन

बहुमुखी प्रतिभा के धनी गिरीश कारनाड आधुनिक भारतीय नाटक और रंग जगत की महत्वपूर्ण शख्सियत है। नाटक उनका पहला प्रेम है, लेकिन फिल्मों में लेखन, अभिनय और निर्देशन में भी उन्होंने कीर्तिमान कायम किए हैं। उनके कन्नड नाटकों के कई आधुनिक भारतीय भाषाओं में अनुवाद और मंचन हुए हैं। कन्नड रंग जगत में गिरीश कारनाड ने ऐतिहासिक और मिथकीय कथावस्तु वाले नाटक लिखकर अपनी अलग पहचान बनाई। उनके पहले नाटक ययाति की विषय वस्तु और रंग योजना इतनी नवीन थी कि कन्नड सहित दूसरी भारतीय भाषाओं इसको तत्काल ख्याति मिल गई। तुगलक ख्याति के मामले और भी आगे निकला। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में इब्राहिम अलकाजी के निर्देशन में हुए इसके मंचन से कारनाड आधुनिक रंगकर्मियों की पहली पंक्ति में आ गए। यह नाटक आदर्शवादी, स्पप्नदृश्टा और बुध्दिजीवी, लेकिन पागल के रूप में विख्यात भारतीय इतिहास के मुस्लिम शासक मुहम्मद बिन तुगलक पर एकाग्र है।

कारनाड ने तुगलक के समय और समाज के रूपक में दरअसल आजादी के बाद के दो-तीन दशकों के यथार्थ और द्वंद्व को प्रस्तुत किया है। तुगलक की चरित्र योजना में इतिहास और कल्पना, दोनों का योग है। इसका मुख्य और केन्द्रीय चरित्र अपने ऐतिहासिक चरित्र से काफी मिलता-जुलता है। वह आदसर्शवादी, स्वप्नदृष्टा, बुध्दिवादी और वैज्ञानिक सोच वाला है, लेकिन अपारंपरिक कार्यों के कारण उसे तत्कालीन समाज के किसी भी तबके का सहयोग नहीं मिलता। तुगलक के अन्य चरित्र भी अपने तबकों के प्रतिनिधि पात्र हैं, लेकिन वे रक्त-मांस वाले जीवंत चरित्र है। तुगलक में रंग आयाम अंतनिर्हित है और इसकी खासियत यह है कि इसमें लेखक ने मंच परिकल्पना दृष्यबंध, संगीत आदि को निर्देशकीय कल्पना और सूझबूझ पर छोड़ दिया है। इसके मंचन में तत्कालीन समय और समाज की झलक मिलनी चाहिए। विख्यात रंगकर्मी इब्राहिम अलकाजी ने तत्कालीन उपलब्ध स्रोतों और वास्तु विषेशज्ञों की मदद से तैयार सांकेतिक और वस्तुपरक दृंष्यबंधों के आधार पर इसका मंचन किया है। तुगलक की भाषा और संवाद, अभिजातवर्गीय हैं। तुगलक के बुध्दिजीवी और कल्पनाषील व्यक्तित्व के अनुरूप इस नाटक की भाषा प्रांजल और गंभीर है। यह पात्रों की सामाजिक हैसियत के अनुसार बदलती है, लेकिन निम्न स्तर पर नहीं जाती। अपने समय और समाज के यथार्थ से पलायन और टाइप चरित्र सृष्टि के आरोपों के बावजूद तुगलक आधुनिक भारतीय नाट्य साहित्य की उल्लेखनीय और महत्वपूर्ण रचना है।

तुगलक भारतीय नाट्य और रंग जगत की सर्वाधिक चर्चित कृतियों में से एक है। इसके कई आधुनिक भारतीय भाषाओं में अनुवाद और मंचन हुए हैं। इसके प्रकाशन और मंचन से रंगकर्मी के रूप में गिरीशकारनाड को अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है। साहित्यालोचकों और रंगकर्मियों में तुगलक को लेकर पर्याप्त वाद विवाद हुआ है। कारनाड के आलोचकों का कहना है कि वे अपने अन्य नाटकों की तरह तुगलक में भी अपने समय और समाज के यथार्थ और द्वंद्व को व्यक्त करने के लिए तुगलक के रूपक का सहारा लेते हैं, जिससे यथार्थ विकृत रूप में सामने आता है। इसके विपरीत कारनाड के समर्थकों का कहना है कि इस नाटक में अतीत के दूरस्थ यथार्थ को माध्यम बनाकर कारनाड अधिक निश्पक्ष और निर्भीक ढंग से अपने समय के यथार्थ को समझते-समझाते हैं। विख्यात कन्नड साहित्यकार यू.आर. अनंतमूर्ति के अनुसार ´´कारनाड नाटक के कवि हैं। समसामयिक समस्याओं से निबटने के लिए इतिहास और मिथ का उपयोग उन्हें अपने समय पर टिप्पणी की मनोवैज्ञानिक दूरी प्रदान करता है। तुगलक बहुत सफल हुआ, क्योंकि यह एक यथार्थवादी नाटक नहीं था।``

तुगलक पर एक आरोप यह भी है कि उसके चरित्र रक्त-मांस के जीवंत और यथार्थ चरित्र नहीं हैं, ये अपने समय और समाज के वगीय प्रतिनिधि मात्र हैं। कारनाड के प्रशंसकों ने इस आरोप का भी खंडन किया है। उनके अनुसार तुगलक के चरित्र केवल टाइप चरित्र नहीं है, वे सजीव और खास प्रकार के व्यक्तित्व लिए हुए हैं। तुगलक के हिंदी अनुवाद के राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में मंचन का निर्देशन करने वाले विख्यात रंगकर्मी इब्राहिम अलकाजी के शब्दों में ´´कारनाड की सूझबूझ कमी नहीं डगमगाती, उनके सभी चरित्र मांसमज्जा और प्राणों की उमंग से भरे-पूरे चरित्र हैं और प्रत्येक पात्र विशिष्ट बोली में बात करता है।``

यह सही है कि तुगलक अपने समय और समाज के यथार्थ में सीधे हस्तक्षेप नहीं करता और उसके चरित्र भी कुछ हद अपने समाज के वर्गीय प्रतिनिधि हैं, लेकिन इससे एक रंग नाटक के रूप में तुगलक का महत्व कम नहीं होता। यथार्थवादी रंगमंच की सीमाएं हमारे सामने हैं और यह दर्शकों को उस तरह से प्रभावित करने में सक्षम नहीं है, जिस तरह मिथकीय और ऐतिहासिक रचनाएं करती हैं। कारनाड भव्य और महान चरित्र और घटना वाले इस नाटक के माध्यम से दर्शकों के मन में अपने समय और समाज के यथार्थ को चरितार्थ करने में सफल रहे हैं। यह कृति इस तरह रंगमंच और नाट्य लेखन को यथार्थवादी शैली से मुक्त करने की पहल करती है। इस नाटक के बाद न केवल कन्नड में, बल्कि अन्य आधुनिक भारतीय भाषाओं में कई महत्वपूर्ण मिथकीय और ऐतिहासिक रचनाएं सामने आई हैं।