Thursday 19 June, 2008

गिरीश कारनाड के नाटक तुगलक की रंग योजना

तुगलक विख्यात रंगकर्मी गिरीश कारनाड की मूलत: कन्नड़ में रचित नाट्य कृति है, जिसके हिंदी सहित कई आधुनिक भारतीय भाशाओं में अनुवाद और मंचन हुए हैं। इसके नाटककार गिरीश कारनाड आधुनिक भारतीय साहित्य और रंगमंच की महत्वपूर्ण शख्शियत हैं। यह कृति आदर्शवादी, स्वप्नदृष्टा और बुध्दिजीवी, लेकिन इतिहास में सनकी और पागल के रूप में चर्चित मुस्लिम शासक मुहम्मद बिन तुगलक के चरित्र पर एकाग्र है।

गिरीश कारनाड विख्यात रंगकर्मी हैं और उन्हें रंगकला के सभी अनुषंगों-नाट्य लेखन, निर्देशन, अभिनय आदि का अनुभव है। तुगलक की रग योजना इसीलिए अपार संभावनाओं से युक्त है। खास बात यह है कि यहां नाटककार ने प्रस्तुति के लिए निर्देशक को पूरी छूट दी है। उसने मंच परिकल्पना, साज-सज्जा, प्रकाष व्यवस्था और संगीत के लिए अपनी तरफ से कोई बांधने वाला विधान नाटक में नहीं किया है। नाटक ऐतिहासिक है, इसमें वर्णित घटनाएं और चरित्र महान और भव्य हैं, इसलिए इसके मंचन के लिए व्यापक शोध और कल्पनाशीलता अपेक्षित है। नाटककार पहले दृष्य की शुरूआत में समय, 1327ई.का और दृष्यों के आरंभ में केवल भवनों या स्थानों का नामोल्लेख करता है। वह इस तरह उस समय के भवनों या स्थानों की मंच परिकल्पना निर्देषक पर छोड़ देता है। नाटक की कथावस्तु भव्य और महान है, इसलिए इसमें वृहदाकार दृबंध और भव्य वेषभूशा अपेक्षित है। यह दृष्य बंध और वेषभूशा यथार्थवादी भी हो सकते है और प्रयोगधर्मी भी।

भव्य और महान कथावस्तु के बावजूद गिरीष कारनाड इस नाटक में समय, स्थान और कार्य व्यापार की अिन्वति बनाए रखने में सफल रहे हैं। नाटक 25-30 वर्षों के कालखंड में विस्तृत है। नाटक की शुरूआत तुगलक के सत्तारूढ होने के आरंभिक समय 1327 ई. से होती है और तुगलक के सनकी और पागल हो जाने की अवस्था में नाटक खत्म हो जाता है। रोमिल थापर के अनुसार तुगलक का निधन 1357 ईण् में हो गया था। तेरह अंकों में विभक्त इस नाटक में आठ दृष्य बंध है। मंच सज्जा यदि प्रयोगधर्मी हो, तो दृष्य बंधों की संख्या कम भी की जा सकती है। नाटक की ‘ाुरुआत दिल्ली की मिस्जद के बाहरी हिस्से से होती है, जहां से तुगलक लोगों के मजमे की संबोधित करता है। आगे के अंकों में शाही महल, मिस्जद के सामने का सेहन, अमीर की कायमगाह, दिल्ली से दौलताबाद जाने के रास्ते पर एक खेमा, दौलताबाद किले का ऊपरी हिस्सा, पहाड़ी गुफा और दौलताबाद किले के बंद दरवाजे के दृष्य बंध हैं। कारनाड ने संपूर्ण भवन या स्थान के बजाय उसके बाहरी हिस्से या कोने को ही दृष्य बंध में शामिल किया है। यह अवश्य है कि माहौल को सल्तनतकालीन बनाने के लिए भवनों में तत्कालीन स्थापत्य की झलक बेहद जरूरी है। स्थानों के दिल्ली और दौलताबाद में होने के बावजूद कार्य व्यापार में गति होने के कारण नाटक की अन्विति नहीं टूटती।

ऐतिहासिक होने कारण इस नाटक में वेषभूशा का खास महत्व है। इसी से दृश्यों में भव्यता का माहौल बनता है। वेषभूशा के संबंध में भी नाटककार ने अपनी तरफ से कोई रंग निर्देष नहीं दिए हैं। यह उसने निर्देषक की कल्पना और सूझबूझ पर छोड़ दिए हैं। नाटक के ऐतिहासिक कथानक को देखते हुए सल्तनतकालीन दरबारी औपचारिक वेषभूशा इस नाटक के लिए जरूरी है। युद्ध और शडयंत्रों की निरंतरता के कारण इस नाटक के प्रमुख पात्रों को शस्त्रों से भी लैस होना चाहिए। माहौल की भव्य रूप देने और खास तौर पर तुगलक के अंतर्संघर्ष और द्वंद्व को व्यक्त करने के लिए इस नाटक के मंचन में संगीत का भी महत्व है।

तुगलक के बी.वी.कारंत के हिंदी अनुवाद का मंचन विख्यात रंगकर्मी इब्राहिम अलकाजी ने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली में किया था। उन्होंने इसका मंचन यथार्थवादी दृश्यबंधों के आधार पर तो नहीं किया, लेकिन मंच सज्जा, वेषभूशा, संगीत आदि के निर्धारण में उन्होंने तत्कालीन इतिहास सामग्री और स्थापत्य को आधार बनाया। उन्होंने इसकी प्रस्तुति राष्ट्रीयनाट्य विद्यालय के वृहदाकार खुले रंगमंच पर की। उन्होंने इसको एकाधिक भागों में बांटकर अलग-अलग भागों को कुछ खास पात्रों से संबद्ध किया। मंच के पृष्ठ भाग में तुगलक के अध्ययन कक्ष की मंच सज्जा इस तरह की गई कि जिससे उसकी अध्ययनषील, वैज्ञानिक और अन्वेषणप्रिय रुचि का संकेत मिल सके। उन्होंने मंच के पृष्ठ भाग में ही तुगलक की सौतेली मां के महल के दरवाजे का दृष्य बंध बनाया। इसी प्रकार ऊंची मेहराब वाले चबूतरे के एक दृष्यबंध को अलकाजी ने दो दष्यों के लिए काम लिया- एक बार जब अदालत के बाहर तुगलक भीड़ को संबोधित करता है, और दूसरी बार जब वह खलीफा के प्रतिनिधि गियासुद्दीन का दौलताबाद किले के दरवाजे के बाहर स्वागत करता है। इसी तरह नीचे स्थित चबूतरे से उन्होंने जंगल के खुले स्थान का काम लिया। अन्विति के लिए इन सभी ऊंचे-नीचे और अलग-अलग दृष्यबंधों को उन्होंने सीढ़ियों से जोड़ दिया। दृश्य बंधों की परिकल्पना और निर्माण में अलकाजी ने पर्सी ब्राउन के ग्रंथ इंडियन आर्किटेक्चर (द इस्लामिक पीरियड) और वास्तु विषेशज्ञों का भी सहयोग लिया। पहले और छठे दृश्य में दरबारी शान-शौकत और तड़क-भड़क के लिए अलकाजी ने फर्श पर कालीन बिछाया। तत्कालीन मुस्लिम दरबार का माहौल बनाने के लिए उन्होंने दरबारी अदब-कायदों की बारीकियां तबकात-अल-नासिरी और आईने-अकबरी जैसे ऐतिहासिक ग्रंथों की मदद से जुटाईं। अलकाजी ने इस नाटक के मंचन में पात्रों की वेषभूशा पर खास ध्यान दिया। उन्होंने विभिन्न सामाजिक तबकों के लिए अलग-अलग रंग-जनसाधारण के लिए भूरे, अमीर-उमरा के लिए भूरे और चटख गुलाबी, दरबारी औरतों के लिए फिरोजी, पन्ना और सोने तथा तुगलक के लिए काले और सुनहरी रंगों की पोषाकें रखीं। अलकाजी ने लंबे शोध के बाद पारंपरिक तुर्की और फारसी संगीत के टुकड़ों को मिला कर इस नाटक के लिए संगीत तैयार किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने बीच-बीच में स्थिति के अनुसार कुरान पाक की आयतों के पाठ का भी प्रावधान किया, जिससे तुगलक के निजी अंतर्संघर्ष् को उदात्तता देने में मदद मिली।