Friday 27 June, 2008

गिरीश कारनाड के नाटक तुगलक का हिन्दी अनुवाद और अनुवादक

तुगलक का हिंदी अनुवाद विख्यात रंगकर्मी और सिने शख्सियत बी.वी.कारंत (बाबु कोडि वेंकटरामन कारंत) ने किया है। बी.वी.कारंत का जन्म 1928 में कर्नाटक के दक्षिणा कन्नड जिले के बंटवाल ताल्लुक के मांची गांव में हुआ। रंगमंच से कारंत का पहला साक्षात्कार तब हुआ जब वे तीसरी कक्षा में थे। उन्होंने तब पी.के.नारायण के निर्देशन में नाना गुपाला नामक नाटक में अभिनय किया। कारंत ने बहुत कम उम्र में ही घर से भाग कर कर्नाटक की गुब्बी वीरन्ना नाटक कंपनी में काम करना शुरु कर दिया। गुब्बी वीरन्ना ने बाद में कारंत को स्नातकोत्तर की षिक्षा के लिए बनारस भेजा। यहीं रहकर कारंत ने ओंकारनाथ ठाकुर से हिंदुस्तानी गायन की शिक्षा भी ली। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से कारंत का गहरा रिश्ता रहा है। पहले वे यहां के विद्यार्थी रहे और बाद में इब्राहिम अलकाजी आदि के साथ निर्देशन का कार्य किया। 1977 में कारंत ने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के निदेशक का पद ग्रहण किया। उन्होंने अपनी पत्नी प्रेमा कारंत के साथ बेनका नामक रंग संस्था भी कायम की। मध्य प्रदेष सरकार ने भारत भवन स्थापित करने के बाद वहां रंगमंडल का कार्यभार संभालने के लिए कारंत को निमंत्रित किया। कारंत ने 1981-86 की अवधि के दौरान भारत भवन के रंगमंडल के निदेषक रहे और उन्होंने यहां वाद्य यंत्रों का अद्भुत संग्रहालय कायम किया। 1989 में कर्नाटक सरकार के निमंत्रण पर उन्होंने बैंगलोर में रंगायन संस्था कायम की। कारंत ने अब तक कन्नड सहित हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत, पंजाबी, तेलगु, मलयालम आदि के लगभग सौ नाटकों का निर्देषन किया है, जिसमें मेकबेथ, किंग लियर, घासीराम कोतवाल, मृच्छकटिकम्, मुद्राराक्षस, हयवदन, एवं इंद्रजीत, ईडीपस, चंद्रहास, मालविकाग्निमित्र आदि शामिल हैं। कारंत ने चार फीचर और चार ही डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्देषन और लगभग 26 फिल्मों में संगीत दिया है। कारंत को भारत सरकार के पद्मश्री सहित कई सम्मान और पुरस्कार प्राप्त हुए हैं।

भारत जैसे बहुभाषिक समाज में अनुवाद का बहुत महत्व है। इससे भिन्न भाषाभाषी समाजों के बीच अंतकिZया और संवाद का बढ़ावा मिलता है। नाटक तुगलक मूलत: कन्नड में रचित इसी नाम के नाटक का हिंदी अनुवाद है। खास बात यह है कि यह अनुवाद प्रसिद्ध रंगकर्मी बी.वी. कारंत ने किया है, जिन्हें कन्नड और हिंदी, दोनों भाषाओं में महारत हासिल है और जिन्होंने हिंदी और सहित कई अन्य आधुनिक भाशाओं में रंगकर्म का अनुभव प्राप्त है। अक्सर कहा जाता है कि अनुवाद में रचना की मूल आत्मा सुरक्षित नहीं रहती, लेकिन यह कथन तुगलक के इस हिंदी अनुवाद के संबंध में सही नहीं है। यह अनुवाद इस तरह का है कि इसमें मूल नाटक की आत्मा सुरक्षित रही है, क्योंकि एक तो, अनुवादक कारंत स्वयं मूलत: कन्नड भाशी और कन्नड रंगकर्मी हैं और दूसरे, गिरीश कारनाड और उनके बीच पारस्परिक समझ बहुत अच्छी है। दरअसल हिंदी में अनुवादित होकर यह नाटक अधिक प्रभावशाली और अर्थपूर्ण हो गया है, क्योंकि इसमें प्रयुक्त अधिकांष उर्दू शब्द हिंदी की मूल प्रकृति से कन्नड की तुलना में ज्यादा मेल खाते हैं। इसी तरह इस नाटक की वाक्य रचना और दरबारी अदब-कायदों और रवायतों वाला मुहावरा भी हिंदी के अधिक निकट पड़ता है। अनुवाद की भाषा आद्यंत प्रवाहपूर्ण है। लंबे संवादों के बावजूद इसमें चमत्कार बना रहता है। इसमें लंबे संवाद जरूर है, लेकिन कारंत ने छोटे और अर्थपूर्ण वाक्यों से उनको उबाऊ और नीरस होने से बचा लिया है। मूल कन्नड में रचित तुगलक के बजाय इसके हिंदी अनुवाद को अधिक लोकप्रियता मिली। राश्ट्रीय नाट्य विद्यालय में इब्राहिम अलकाजी द्वारा इसके हिंदी अनुवाद के मंचन के बाद इसके कई दूसरी आधुनिक भारतीय भाशाओं में अनुवाद और मंचन हुए। गिरीष कारनाड को भी इसके हिंदी अनुवाद और मंचन के बाद ही कर्नाटक से बाहर एक भारतीय रंगकर्मी की प्रतिष्ठा और सम्मान मिले।