भारतीय साहित्य की कोई एकरूप पहचान गढ़ने से पहले इसके वैविध्य को समझ लेना बहुत जरूरी है। सदियों से यहां विभिन्न धर्मों-संप्रदायों, संस्कृतियों और भाषाओं के लोग परस्पर सहभाव के साथ रहते आए हैं। इस सहभाव से जो अंतर्क्रिया और संवाद हुए हैं उससे इस वैविध्य में एकता के कुछ अंतर्सूत्र भी बने हैं। सदियों पुरानी यहां की अलग-अलग भाषाओं के साहित्य अलग-अलग तरह से विकसित हुए, लेकिन परस्पर संवाद और अंतर्क्रिया के कारण उनमें भारतीयता का तत्व सब जगह मौजूद है। आरंभिक काल में संस्कृत के कारण यह एकता बनी रही, तो आधनिक काल में संचार साधनों के विकास और अनुवादों की लोकप्रियता ने इसको बढ़ावा दिया है। डॉ.सर्वपल्ली राधाकृश्णन ने 1954 में कहा था कि भारतीय साहित्य एक है, यद्यपि यह बहुत-सी भाषाओं में लिखा जाता है। सुनीतिकुमार चटर्जी ने अपनी पुस्तक लैंगवेजस एंड लिटरेचर्स ऑफ इंडिया में भारतीय साहित्य के वैविध्य और एकता को अच्छी तरह से समझा है। उनके अनुसार भारतीय साहित्य एकवचन नहीं, बल्कि बहुवचन है। दरअसल अलग-अलग भारतीय भाशाओं में अपनी तरह से अलग-अलग ढंग से विकसित साहित्य ही भारतीय साहित्य है। इसकी समवेत पहचान में अलग-अलग भाषाओं की अपनी पहचानें सुरक्षित हैं।
आरंभिक भारतीय साहित्य संस्कृत, पाली, प्राकृत, तमिल और कन्नड़ में मिलता है। इन भाशाओं के लेखकों ने अपनी-अपनी विशिष्ट सामाजिक-ऐतिहासिक पृश्ठभूमि में रचना कर्म किया। फिर भी, जहां तक विचार और सरोकारों की आवृत्ति का प्रष्न है, तो सबके संदर्भ सूत्र लगभग समान हैं। यह माना जाता है कि वेदों की रचना स्वयं ईष्वर ने की है और इनका मानव आख्याता ईष्वरीय संदेश को संप्रेिशत करने का निमित्त मात्र था। ऋग्वेद इस प्रकार का प्रथम ज्ञात ग्रंथ है, जिसमें ईष वंदना के मंत्र संकलित हैं, जो विभिन्न देवताओं को संबोधित है। ऋग्वेद में और उसके बाद के यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद में मनुश्य के वे प्रारंभिक प्रयास दिखाई देते हैं, जो उसने विराट विष्व में अपनी स्थिति को समझने और किसी अज्ञात के साथ संवाद स्थापित करने की संभावना रचने के लिए किए। ब्राह्मण गंथ 11 हैं, जिनमें वैदिक मंत्रों की व्याख्या है। इनमें केवल धार्मिक चिंतन ही नहीं है, बल्कि दार्शनिक, व्याकरणिक, व्युत्पत्ति विषयक तथा छंद विषयक ज्ञान भी समाहित है। आरण्यक ग्रंथ तीन हैं जिनमें कार्मकांडों या अनुश्ठानों का वर्णन है। ये ग्रंथ वेदों में निहित ज्ञान के अन्वेशण के संक्रमण काल का प्रतिनिधित्व करते हैं। उपनिशद भी महत्वपूर्ण हैं। उपनिशद शब्द का अर्थ है `आदेष प्राप्ति के लिए श्रद्धा के साथ अपने गुरु के निकट बैठना।´ मुख्य उपनिशद 13 हैं और इनकी विशयवस्तु मुख्यत: आध्याित्मक है, जो जीवन, मृत्यु, अमरत्व, सुख, सत्य, ईष्वर और जीवन का उद्गम जैसे चिरंतन प्रष्नों का उत्तर पाने की मनुश्य की लालसा को प्रदर्षित करती हैं। श्रुति ग्रंथ वे हैं, जिनका वाचन और श्रवण किया जाता है यानि जिन्हें बोला और सुना जाता है। स्मृति ग्रंथ स्मरण के लिए हैं। स्मृति पाठों को इस अर्थ में प्राचीन परंपरा से भिन्न माना जाता है कि इनका श्रेय मानवीय सृजन को दिया गया है। इनकी विशय-वस्तु विविध और व्यापक है ये तथा षिक्षा, छंद, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिश, अनुश्ठान तथा कल्प जैसे विशयों पर केिन्द्रत है। स्मृति साहित्य का पाठ छह वेदांगों में निहित है। ये वेदांग वेदों के तुल्य ही माने गए हैं और इनमें रामायण, महाभारत जैसे महाकाव्य तथा पुराण ‘ाामिल हैं। सर्वाधिक लोकप्रिय पुराण भागवत पुराण है, जो कृश्ण की जीवन गाथा पर केिन्द्रत है। उत्तर वैदिक युग की संस्कृत कविता अपनी प्रकृति में नैतिक, शृंगार और संन्यास विशयक है। इन कविताओं की रचना राजाओं के संरक्षण में हुई। आचार्य भरत का नाट्यषास्त्र नाट्य कलाओं पर लिखा गया सैद्धांतिक ग्रंथ है। उस समय लिखे गए अधिकतर नाटकों का कथ्य भावुकतापूर्ण प्रेम या नाटकीय शौर्य था। इनका नायक देवता के समान होता था और ये नाटक विष्व में ‘ाांति और समृिद्ध की कामना के साथ प्रारंभ और समाप्त होते थे। नाटकों के स्रोत मुख्य रूप से वेद, पुराण और इतिहास होेते थे तथा पात्रों का चयन समाज के विभिन्न वर्गों में से किया जाता था। भास और कालिदास जैसे नाटककारों द्वारा लिखे गए प्रेम और शौर्य के नाटकों के अलावा शूद्रक जैसे कुछ नाटककारों ने सामाजिक व्यंग्य-हास्यपरक नाटक भी लिखे, जबकि विषाखदत्त जैसे अन्य नाटककारों ने राजनीतिक शडयंत्रों आर राजदरबारों के जीवन को नाटक का विशय बनाया। इस दौरान प्रचलित अन्य साहित्य रूपों में महाकाव्य, लघु काव्य, अभिलेख, आख्यायिका, चंपू आदि प्रमुख हैं। संस्कृत साहित्य की भाशा थी तो प्राकृत दैनंदिन संवाद और व्यापार की भाशा थी। प्राकृत का प्रयोग बौद्ध जैन और लौकिक साहित्य किया गया था। इस युग में एक अन्य भाशा अपभ्रंष थी, जिसका प्रयोग मुख्यत: जैन साहित्य में हुआ।
तमिल साहित्य का प्राचीन काल संगमयुग के नाम से ख्यात है। इसका प्राचीनतम ज्ञात ग्रंथ है तोल्लकिप्पयम´ जो तमिल व्याकरण पद्धति पर प्रबंध रचना है। प्रेम और युद्ध के संगम काव्य की परिकल्पना लौकिक वातावरण में की गई थी, जहां प्रकृति के साथ मनुश्य की भावनाओं तथा अनुभवों के संबंधों का अन्वेशण किया गया है। प्राचीन तमिल साहित्य का अगला चरण उपदेषात्मक चरण है, जिसमें जैन धर्म और बुद्ध धर्म का प्रभाव पर्याप्त है। इस काल की सर्वाधिक प्रमुख कृति तिरुक्कुरुल है। तमिल का भक्ति साहित्य नायनार कहे जाने वाले शैव संतों और आलवार कहे जाने वाले वैश्णव संतों द्वारा गाए गए भक्ति गीतों के विषाल संयोजन में बना हुआ है। प्राचीन कन्नड़ साहित्य संस्कृत, प्राकृत, वैदिक और जैन गाथाओं तथा रामायण और महाभारत की कथाओं से प्रभावित था। कन्नड़ की प्राचीनतम ज्ञात कृति कविराजमार्गम´ है और तमिल की प्रथम कृति की तरह यह भी अलंकार, व्याकरण, भाशा, छंदषास्त्र की कृति है, जिसमें तत्कालीन समाज, धर्म और संस्कृति के संबंध में भी विचार किया गया हैं। रामायण और महाभारत के प्रभाव में कन्नड़ में बड़े कथा काव्यों की रचना भी हुई। इसमें स्रोत ग्रंथों से चर्चित कथाएं ली गई और फिर उन्हें स्थानीय संदर्भो में रखा गया था। इस युग में सर्वाधिक महत्वपूर्ण कन्नड़ लेखक पम्पा, पोन्ना, और रन्ना थे।
ग्यारहवीं शताब्दी से भारतीय उपमहाद्वीप में व्यापक परिवर्तन शुरू हुए। ये विविध प्रकार के राजनैतिक और सामाजिक परिवर्तन विभिन्न संस्कृतियों, धर्मों और भाशाओं के बीच परस्पर संवाद के युग का सूत्रपात करते हैं। भारतीय साहित्य के इस युग का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलू आधुनिक भारतीय भाशाओं का विकास है। आधुनिक भारतीय भाशाओं के अस्तित्व में आने और विकसित हो जाने के बाद अगली छह-सात शतािब्दयों तक उनमें विषिश्ट प्रकार के साहित्य का विकास हुआ। यह युग विदेषी आक्रमणों, सांस्कृतिक संपर्कों, विस्थापनों और स्थानांतरणों, धर्मांतरणों और सामाजिक-आर्थिक संबंधों में बदलावों का युग था। अधिकांष मध्ययुगीन भारतीय साहित्य में रामायण, महाभारत, पुराण-कथाओं, मिथकों और पुरागाथाओं में अनुवाद, रूपांतरण और पुनर्लेखन हुआ। अपने नए रूपों में ये पाठ अपने भाषायी क्षेत्र की स्थानीय परंपराओं को प्रतिबििम्बत करते थे। तमिल में कम्बन द्वारा रचित रामायण तेलुगु में नन्नइया रचित महाभारत इसके उदाहरण हैं।
सभी भारतीय भाशाओं में लोकतत्व भी हमेषा मौजूद रहा है। मैथिली, मणिपुरी राजस्थानी और नेपाली जैसी भाशाओं में यह साफ तौर पर देखा जा सकता है। नाट्य लेखन और मंचन की परंपरा भी स्थानीय भाशाओं में लगातार फलती-फूलती रही। उदाहरण के लिए गुजरात और राजस्थान को रखा जा सकता है, जहां अभिनय की स्थानीय ‘ौलियों और लोक रंगमंच में भवई और ख्याल जैसे नाट्य रूप विकसित हुए। इन नाट्य प्रस्तुतियों की सहकला के रूप में साहिित्यक पाठों की रचना हुई। उदाहरण के लिए मलयालम में अट्टक्कथाएं हैं, जो कथकली प्रदर्शनों के पूरक के रूप में तैयार हुईं। मनुश्य और ईष्वर के बीच एक नए प्रकार का संवाद बनने से समूचे देष में विभिन्न भाशाओं में कविताओं की रचना हुईं। नए मत के प्रतिपादक आचायोZं और भक्त कवियों ने भगवदगीता और पुराणों पर टीकाएं भी लिखीं। जैसे कि मराठी में संत ज्ञानेष्वर ने भगवदगीता के आधार पर ज्ञानेष्वरी टीका लिखी और असमिया में पद्मपुराण की रचना हुई। इस युग में महिला संत कवियों की रचनाएं भी सामने आईं, जिनमें कष्मीर में लालदेद और हब्बा खातून, तेलुगु में मुद्दुपरानी और कन्नड़ में अक्कमहादेवी और राजस्थानी में मीरा के नाम प्रमुख हैं। संत कवियों द्वारा धार्मिक आस्था को एक नए मुहावरे में अभिव्यक्त किए जाने से ``साहित्य और विचारधारा के बीच एक नया रोचक संबंध स्थापित हुआ। संत कवियों के प्रेम और मानवता के जीवंत संदेष क्षेत्र, भाशा और वर्ग की सीमाओं के पार फैल गए।´´ बुद्ध और जैन धर्मों का प्रभाव बना रहा मगर मुगलों और पुर्तगालियों के आगमन के साथ इसमें इस्लाम और ईसाई मतों का प्रभाव भी जुड़ गया। युद्धों के कारण राजनीतिक क्षेत्रों और सीमाओं में निरंतर बदलाव का युग था इसलिए इस समय जिस एक नयी विधा का विकास शुरू हुआ वह था काव्य में इतिहास लेखन। जैसा कि असम के बुरांजी और राजस्थान में युद्धों पर लिखे गए रासो काव्य में दिखाई देता है। भारतीय उपमहाद्वीप में उर्दू का विकास मुस्लिम सेनाओं, आव्रजनों, सूफियों, व्यापारियों, यात्रियों उपनिवेषियों के आगमन के साथ शुरू हुआ, जो अपने साथ अरबी, फारसी और विषिश्ट साहिित्यक परंपराएं लेकर आए थे। एषिया और यूरोप में आने वाने विभिन्न जातीय, सामाजिक और भाशाई समूहों की संस्कृतियां स्थानीय समुदायों को निकट संपर्क में आईं और इस अंत: संपर्क ने न केवल नई साहिित्यक परंपराओं को जन्म दिया बल्कि संप्रेशण और साहिित्यक अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में एक समान भाशा के विकास को भी बढ़ावा दिया। उर्दू, अरबी, फारसी ने तत्कालीन साहित्य को गजल, मसनवी और कसीदा जैसी नयी विधाएं दीं। इस समय दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों में सामान्य लोगों की संप्रेशण की भाशा खड़ी बोली थी। यही भाशा बाद में एक प्रमुख साहिित्यक भाशा के रूप में विकसित हुई। उन्नीसवीं सदी के आरंभ में इस तरह भारत एक बहुभािशक समाज था और इसकी विभिन्न भाशाओं में लिखित और वाचिक साहिित्यक परंपराएं बन गई थीं। 1800 तक भारत में प्रिंटिंग प्रेस का युग पूरी तरह प्रतििश्ठत हो चुका था। यह संप्रेशण के नये दौर की ‘ाुरुआत थी। प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना ने भारत में कुछ अन्य महत्वपूर्ण बदलावों को भी संभव किया। अभी तक विद्वान लेखकों की अभिव्यक्ति का माध्यम या तो संस्कृत थी या फारसी, या फिर, द्वितीय चुनाव के रूप में उनकी अपनी क्षेत्रीय भाशाएं। प्रिंटिंग प्रेस ने जल्दी ही स्थानीय इलाकों में पहुंच बनानी ‘ाुरू कर दी और जिन भाशाओं का व्यापक पाठक वर्ग था उन्हें महत्व मिलने लगा। विभिन्न भारतीय भाशाओं में बाइबिल के अनुवादों ने गद्य-लेखन को प्रोत्साहित किया। अठारहवीं ‘ाताब्दी के चौथे दषक तक अखबार और पत्रिकाओं का प्रचार-प्रसार होने लगा। इससे पत्रकारिता का विकास हुआ और अब तक अपेक्षित गद्य-विधा चलन में आ गई। मैकाले की षिक्षा नीति के अमल में आने के बाद भारत के राजनीतिक और सामाजिक जीवन में अंग्रेजी भाशा ने अपनी उपस्थिति दर्ज करानी शुरू कर दी। इसका प्रकट उद्देष्य भारतीयों का ऐसा वर्ग पैदा करना था जो रंग और रूप में भारतीय हो, लेकिन जिसके आचार-विचार अंग्रेजों जैसे हों। उन्नीसवीं सदी के अंत तक अंग्रेजी ने पूरी तरह फारसी की जगह ले ली और वह सत्ता तथा षिक्षा की नई भाशा बन गई। धीरे-धीरे तमाम भारतीय भाशाओं की साहिित्यक अभिव्यक्तियों में अंग्रेजी का असर दिखाई देने लगा और कुछ भारतीय अंग्रेजी में साहित्य कर्म भी करने लगे। ऐसे आरंभिक लोगों हेनरी डेरोजियो, माइकेल मधुसूदन दत्त आदि प्रमुख थे।
अंग्रेजों के प्रति भारतीय जनसाधारण के भीतर, जो नफरत और गुस्सा था, वो 1857 में विद्रोह के रूप में फूटा। विद्रोह असफल रहा, लेकिन इससे औपनिवेषक ‘ाासन के प्रति जनसाधारण में असंतोश और असहमति अब मुखर रूप लेने लगी। यह सभी भारतीय भाशाओं के साहित्य में भी व्यक्त हुईं। बकिमचंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास आनंद मठ (1882) में आया देषभक्तिपूर्ण गीत वंदेमातरम् आगामी दिनों में समूचे देष के स्वतंत्रता सेनानियों का राश्ट्रगीत बना। उन्नीसवीं सदी के दौरान ही बहुत से सामाजिक और धार्मिक सुधारवादी आंदोलनों को चलाने वाली संस्थाओं, जैसे ब्रह्म समाज, रामकृश्ण मिषन और आर्य समाज का गठन हुआ। बीसवीं सदी की ‘ाुरुआत तक पिष्चमी और अंग्रेजी साहित्य से जीवंत और निरंतर संपर्क से प्रेरित भारतीय साहित्य ने नए विशयों और मुद्दों को शामिल करना शुरू कर दिया। तमाम भाशाओं में अनुवाद उपलब्ध हो गए। सभी मुख्य भाशाओं की साहिित्यक अभिव्यक्ति बदल गई। अभिव्यक्ति की मुख्य विधा के रूप में कविता की जगह उपन्यास, निबंध और कहानियों ने ले ली। कविता में रोमांस और शौर्य गीतों को लोकप्रियता मिली। इस वक्त अंग्रेजी में भारतीय लेखन को खासा महत्व प्राप्त हुआ और यह ऐसा माध्यम बन गया जिसे कुषलता और दक्षता के साथ-साथ बरता जाना था। भारतीय साहित्य की पहुंच पिष्चम तक हुई। स्वामी विवेकानंद, टैगोर, रवींन्द्रनाथ, श्री अरविंद, गांधी, नेहरु और दूसरे लोगों ने पिष्चमी जगत में औपनिवेषिक सत्ता के विरुद्ध अपने विचार प्रचारित किए और उन्हें समर्थन भी मिला। किसी न किसी रूप में अधिकांष लेखक स्वतंत्रता आंदोलन में ‘ाामिल थे। सभी भारतीय भाशाओं में इस समय का साहित्य लोगों की सुधारवादी चेतना को व्यक्त कर रहा था। साहित्य ने राजनीतिक-सामाजिक दमन के विरुद्ध अपनी आवाज उठाई। राश्ट्रवादी आंदोलन ने बहुत से लेखकों को अपनी भािशक और वैयक्तिक पहचान और अतीत के प्रति जागरूक किया।
यूरोपीय स्वच्छंदतावाद का गहरा और व्यापक प्रभाव इस दौरान भारतीय साहित्य पर भी हुआ। यह हिंदी के छायावाद और कन्नड़ के नवोदय जैसे काव्यांदोलनों देखा जा सकता है। प्रगतिषील लेखक संघ की पहली बैठक 1936 में लखनऊ में हुई। प्रेमचंद इसके अध्यक्ष बनाए गए। इस आंदोलन के समाजवादी और समानतावादी सरोकारों ने बीसवीं शताब्दी के भारतीय साहित्य को प्रभावित किया। समूचे भारतीय उपमहाद्वीप में आर्थिक शोषण और दमन, वर्ग-सरोकार और वंचितों के प्रति लगाव साहित्य के विशय बने। इप्टा इसी गहमागहमी की उपज था। कुछ बुिद्धजीवियों, वैज्ञानिकों और कलाकारों द्वारा बम्बई में ‘ाुरू किया गया यह जन नाट्य आंदोलन थोडे़ ही वक्त में समूचे देष में फैल गया। देष को स्वाधीनता मिली, लेकिन भारत विभाजन ने इसका सुख खंडित कर दिया। इसके साथ ही तेलंगाना आंदोलन 1946 में प्रारंभ हुआ, जो अगले लगभग पांच वशोZं तक चलता रहा। 1947 में स्वाधीनता-प्राप्ति के साथ भारतीय साहित्य में एक नया मोड़ आता है। भारतीय साहित्य के इस नए अध्याय की पृश्ठभूमि में तीन धाराएं मोटे तौर पर मौजूद हैं- राश्ट्रवादी लेखन की धारा, जो सीधे तौर पर स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सेदारी करती थी और साहिित्यकता की ज्यादा परवाह किए बिना राजनीतिक आजादी के लिए तड़प और जोष पैदा करने का काम कर रही थी। दूसरी धारा रोमांटिक लेखन की थी। इसका उद्भव पिष्चम में हुआ था और यह अंग्रेजी साहित्य से हमारे संपर्क के जरिए जहां तक पहुंची थी। तीसरी धारा प्रगतिवादी लेखन की थी जो मुख्यत: स्वच्छंदतावादी लेखन को नकारते हुए उभरी थी। राजनीतिक और सांस्कृतिक स्वाधीनता की बजाए यह धारा आर्थिक शोषण से मुक्ति को प्रमुखता देती थी। इस धारा को सबसे लंबा जीवन मिला और यह अब भी गतिमान है। आजादी मिलने के साथ विभाजन का गहरा घाव भी लगा था। उर्दू, हिंदी और पंजाबी साहित्य में भारत-विभाजन की पीड़ा खास तौर से दर्ज की गई। हिंसा, घृणा, धार्मिक उन्माद और तमाम तरह के शोषणों के विरुद्ध समूचे भारतीय साहित्य ने संघशZ छेड़ा। भारतीय लोकमानस ने आजादी के लिए किए गए बलिदानों को देखते हुए उससे बड़ी उम्मीदें बांध रखी थीं। स्वतंत्र भारत में शुरू की गई पंचवर्षीय योजनाओं ने इन उम्मीदों को और बढ़ाया। जब उम्मीदें पूरी नहीं हुई, आदषZ, त्याग और बलिदानों की नींव पर खड़ी की गई इमारत में स्वार्थपरता, बेईमानी और भ्रश्टाचार का बोलबाला हो गया तो मोहभंग की स्थिति आई। उपन्यासों, कविताओं और नाटकों में मोहभंग का स्वर विषेश रूप से मुखरित हुआ। बीसवीं शताब्दी के आठवें दषक से भारतीय साहित्य में फिर एक नए दौर की शुरुआत होती है। भारतीय साहित्य में अब अिस्मतावादी आवाजें सुनाई पड़ रही हैं। नारीवादी लेखन और दलित लेखन इनमें मुख्य हैं। इनके जरिए साहित्य में बिलकुल अछूते, नए विशयों का प्रवेश होता है। मराठी क्षेत्र में पैदा हुआ दलित आंदोलन शीघ्र ही गुजराती, कन्नड़, तमिल, तेलगु, हिंदी, पंजाबी और उिड़या आदि भाशा क्षेत्रों में फैल गया है। अब दलित साहित्यकार पारंपरिक सौंदर्य शस्त्र की परवाह न करते हुए रोजमर्रा की अपरिश्कृत भाशा में साहित्य रचना कर रहे हैं। स्त्रियां भी अब साहित्य में अपने पहचान के लिए सक्रिय हैं। वे साहित्य की सभी विधाओं में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रही हैं। भूमंडलीकरण और बाजारीकरण के वर्तमान दौर ने भारतीय साहित्य को प्रभावित किया है। नव साम्राज्यवाद और नव उपनिवेशवाद के खतरों को भारतीय साहित्यकार महसूस कर रहे हैं, उनका सशक्त प्रतिरोध भी रच रहे हैं।