Wednesday 19 March, 2008

भूमंडलीकरण, सांस्कृतिक संक्रमण और समकालीन कविता

संस्कृति एक मानसिक अवधारणा है, जो किसी समाज के जीवन-चर्या संबंधी विश्वासों के समूह से बनती है। समाज इन विश्वासों-आस्थाओं को धीरे-धीरे अभ्यास और अनुभव से अर्जित करता है। इनके संस्कार-परिष्कार की प्रक्रिया भी समाज में नामालूम ढंग से निरंतर चलती रहती है। समाज की वर्गीय संरचना भी अक्सर संस्कृति को प्रभावित करती है। उच्चवर्गीय समाजों की संस्कृति के बरक्स निम्नवर्गीय किसान-मजदूर समाजों की अपनी पृथक् संस्कृति का भी विकास होता है। अलबत्ता वर्चस्व की स्थिति में होने के कारण उच्च वर्गीय समाज अपनी संस्कृति को ही तमाम समाज की संस्कृति की तरह ही प्रचारित करते हैं। संस्कृति स्थिर और एकरूप कभी नहीं रहती- इसमें परिवर्तन और संवर्धन की प्रक्रियाएं हमेशा जारी रहती है। एक समाज जब दूसरे समाज के संपर्क में आता है तो दोनों की ही संस्कृतियों में बहुत कुछ जुड़ता-घटता है। किसी समाज के अपने भीतर होने वाले नवाचार भी संस्कृति को निरंतर गतिशील और जीवन बनाए रखते हैं। कविता स्वयं एक सांस्कृतिक प्रक्रिया हैं, अत: किसी समाज के सांस्कृतिक संक्रमण से उसका गहरा संबंध होना लाजमी है। कविता इस सांस्कृतिक संक्रमण को स्वयं जीती और धारण करती है। यह आत्मसचेत रहकर इस संक्रमण को समझती-परखती है और इसके आत्मसातीकरण और प्रतिरोध का स्टैंड लेती है। सांस्कृतिक संक्रमण कविता के लिए खाद-पानी का काम करते है। यह इनसे पुनर्नवा होती है। हमारे यहां भक्ति आंदोलन के कवियों की अदभुत और असरदार कविता इस सांस्कृतिक संक्रमण से होने वाले आत्मसंघर्ष् की ही पैदाइश हैं।
गत सदी के अंतिम दो दशकों में हुई संचार क्रांति से पहले हालात दूसरी तरह के थे। विकसित संचार माध्यमों के अभाव में पहले सांस्कृतिक संक्रमण से होने वाले प्रतिरोध और आत्मसातीकरण में अक्सर समाज के सभी तबके शामिल नहीं होते थे। अक्सर समाज के कुछ तबकों में परिवर्तन हो जाते, धीरे-धीरे उन्हें स्वीकृति भी मिल जाती और मामूली प्रतिरोध के बाद उन्हें संस्कृति का हिस्सा भी मान लिया जाता था। मंद गति से होने वाले इस सांस्कृतिक संक्रमण से संस्कृतियों की पहचान को भी कोई खास नुकसान नहीं होता था। छोटे-मोटे झटके यदा-कदा लगते, लेकिन अक्सर संस्कृतियां उन्हें झेल जाती थीं। उसी पहचान के भीतर प्रतिरोध और आत्मसातीकरण धीमी गति और नामालूम ढंग से चलता रहता था। इस तरह का संक्रमण कविता की प्रकृति के अनुरूप था। दरअसल कविता का बुनियादी आवयविक संगठन बहुत प्राचीन है इसलिए इसे परिवर्तनों के आत्मसात करने में समय लगता है। अक्सर यह सामाजिक-सांस्कृतिक गतिशीलता के अनुरूप अपने को बदलने-ढालने में पिछड़ जाती है। अब तक सांस्कृतिक संक्रमण धीमी गति से होता था, इसलिए कविता भी धीरे-धीरे अपने को तदनुरूप ढाल लेती थी। लेकिन अब हालात पहले जैसे नहीं रहे। संचार क्रांति के विस्फोटक वस्तार से यह संतुलन बिगड़ गया है।
महायुद्धों से पूर्व की वैज्ञानिक उपलब्धियों से जैसे औद्योगिक क्रांति संभव हुई, वैसे ही, युद्धोत्तर काल के तकनीकी विकास ने संचार क्रांति का मार्ग प्रशस्त किया। विकसित संचार प्रौद्योगिकी के बल पर दुनिया के विकसित देश व्यापार, वित्त, निवेश आदि का भूमंडलीकरण कर अपने उत्पादों को बचने के लिए एक सकल विश्व बाजार बनाने की मुहिम में जुट गए। तकनीक के विकास से संचार की धीमी गति अचानक तीव्र हो गई। संचार आसान और सर्वसुलभ हो गया। इस सबने भिन्न पहचान वाले संस्कृति समूहों में संपर्क और संवाद को अचानक तीव्र और सघन करने में मदद की। संचार प्रौद्योगिकी पर विकसित देशों का एकाधिकार और वर्चस्व था, इसलिए इन देशों की संस्कृति विकासशील और अविकसित देशों में पहुंच गई। फिलहाल यह संक्रमण इतना अचानक, तीव्र और प्रभावी है कि इससे संस्कृतियों की पृथक् पहचानों के एकरूपीकरण का डर लगने लगा है। विश्व बैंक के अध्यक्ष ने कुछ वषोZं पहले बर्लिन में साफ कहा कि हमें भूमंडलीकृत विश्व में संस्कृति की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। हम संस्कृति के एकरूपीकरण के जिस भय के संबंध में पढ़ते-सुनते हैं, वह भय वास्तविक है। हमारे यहां भी गत सदी के अंतिम दशक के आरंभ में आर्थिक सुधारों की घोषणा के तत्काल बाद हुई संचार क्रांति ने सांस्कृतिक संक्रमण की प्रक्रिया को एकाएक तेज कर दिया है। इस तीव्र आक्रमण और सांस्कृतिक संक्रमण के साथ तालमेल बिठाने में कविता गड़बड़ा गई लगती है। सांस्कृतिक संक्रमण में अधिक उजली और धारदार होकर निकलने वाली कविता इस बार असमंजस से घिरी हुई हतप्रभ लग रही है। अधिक प्रभावी और चकाचौंध वाले नए संचार माध्यम इसकी जगह काबिज हो गए हैं। इसके प्रभाव और पहुंच का दायरा सिमटकर कुछ गिने-चुने लोगों तक सीमित रह गया है। तालमेल बिगडने से यह नए यथार्थ को उस तरह चरितार्थ नहीं कर पा रही, जिस तरह इसे करना चाहिए। संक्रमण के प्रतिरोध की इसकी रणनीति भी ज्यादातर पलायन की है।
आत्म सजगता कवि कर्म की बुनियादी शर्त है। खास तौर पर सांस्कृतिक संक्रंमण के दौरान कवि के लिए आत्मसचेत रहकर परिवर्तनों की थाह लेना जरूरी है। परिवर्तनों की यह समझ ही उसे प्रतिरोध या आत्मसातीकरण का स्टैंड लेने की समझ भी देती है। सांस्कृतिक प्रक्रियाएं अक्सर इतने नामालूम ढंग से समाज में होती है, कि उनके भीतर होकर, उनके प्रति आत्मसचेत रहना बहुत मुिश्कल काम होता है। नए सांस्कृतिक संक्रमण की खासियत यह है कि यह आकिस्मक और तीव्र होने के साथ साथ नयी संचार प्रौद्योगिकी के पंखों पर सवार होकर सम्मोहक प्रभाव के साथ होता है। यह प्रभाव इतना निर्णायक और सघन होता है कि इसमें आत्मविस्मरण स्वाभाविक है। समकालीन कविता का कवि भी इस सम्मोहन का िशकार है। नयी संस्कृति के बाजारवाद और उपभोक्तावाद ने उसके रहन-सहन, खान-पान और जीवन मूल्यों को बहुत हद तक बदल दिया है। वह उन लक्षित 70 करोड़ मध्यवर्गीय भारतीयों में शामिल है जिन्हें लुभाने-रिझाने के लिए विश्व की सभी बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां एड़ी-चोटी का जोर लगा रही है। उसके लिए इस सबसे अपने को अलग-थलग और अछूता रखना अब संभव नहीं रह गया। वह भी आम मध्यवर्गीय उपभोक्ता की तरह येन-केन प्रकारेण जल्दी से कुछ पाने की अंतहीन और अंधी दौड़ में शामिल हो गया है। यह दौड़ ऐसी है, जिसमें अपने आत्म को सचेत रखना संभव नहीं है। यही कारण है कि समकालीन कविता में आत्ममुखरता कम हो गई है। उसमें उपभोक्तावाद, बाजारवाद और नए साम्राज्यवाद के ब्यौरे तो बहुत आने लगे हैं, लेकिन ये ब्यौरे कवि के अपने आत्मसंघर्स की पैदाइश नहीं लगते। कवि को साफ-साफ दो अलग-अलग भूमिकाओं में देखा जा सकता है। एक में वह कवि है जहां वह संक्रमण के प्रतिरोध का स्टैंड ले रहा है और दूसरी में वह बहुराष्ट्रीय कंपनियों का टारगेट उपभोक्ता है जो जल्दी से कुछ पाने की हड़बड़ी में है।
कविता सांस्कृतिक संक्रमण के दौरान हमेशा प्रतिरोध या आत्मसातीकरण का स्टैंड लेती है। मध्यकाल में इस्लाम संबंधी सांस्कृतिक संक्रमण के दौरान कबीर और उनके समानधर्मा कवियों ने आत्मसातीकरण और प्रतिरोध का मिलाजुला स्टेंड लिया था। यूरोपीय संस्कृति की प्रतिक्रिया में भी कविता ने स्टेंड लिया था, लेकिन तत्काल स्टेंड लेने वाली इस कविता की ऐतिहासिक समझ बाद में ठीक नहीं पायी गई। नये सांस्कृतिक संक्रमण को लेकर आम तौर पर समकालीन कविता का स्टेंड प्रतिरोध का है। लेकिन प्रतिरोध के लिए उसकी रणनीति ज्यादातर पलायन की है। भूमंडलीकरण, बाजार, उपभोक्तावाद आदि की अपसंस्कृति से त्रस्त होकर अक्सर कवि अपने घर गांव और बचपन की स्मृतियों में लौट कर राहत की सांस लेता है। चला जाउंगा वापस, भूख और प्यास की दुनिया में, गले में गमछा डाले, जहां धूलभरे रास्तों पर, घूम सकता हूं बेरोक-टोक, इधर लिखी जाने वाली हर तीसरी-चौथी कविता का स्वर कुछ ऐसा ही है। आश्चर्य यह है कि इस अभूतपूर्व सांस्कृतिक संकट के समय ज्यादातर कविता का केंद्रीय सरोकार स्मृति है। भूमंडलीकरण से पीछे नहीं लौटा जा सकता इसलिए बाजार का वर्चस्व अब हकीकत है। इसकी मौजूदगी को स्वीकार करके ही इसके प्रतिरोध की कोई कारगर और व्यावहारिक रणनीति बन सकती है। डंकल, गेट, रेफ्रीजिरेटर और आइसक्रीम का प्रतिरोध लो मटके की रणनीति से नहीं हो सकता। यह साफ साफ पलायन है। बाजार की संरचना बेहद जटिल है इसका सम्मोहन और प्रभाव भी बहुत निर्णायक है। इसका प्रतिरोध पलायन, अवसाद और नॉस्टेलेजिया से नहीं, व्यावहारिक और कारगर रणनीति से संभव है। यह रणनीति आत्मसचेत कवि के अंतसंघ से निकलती है, जो फिलहाल कविता में दिखाई नहीं पड़ रही।
सांस्कृतिक संक्रमण के दौरान कविता प्रतिरोध का हथियार है, लेकिन साथ-साथ यह आत्मसातीकरण की प्रक्रिया भी है। नये सांस्कृतिक संक्रमण में बहुत कुछ ऐसा भी है जो हमारे काम का हो सकता है। आखिर आज हमारे पास जो कुछ भी प्रगतिशील और मूल्यवान है वो पिश्चम की ही देन है। बाजार में बहुत सारी बुराइयां है, लेकिन एक धूमिल संभावना यह भी है कि शायद कभी यहीं हमारी जाति आधारित समाज संरचना और रूिढवादी जीवन मूल्यों के ध्वंस का कारगर हथियार साबित हो। लेकिन दुभाZग्य से इस तरह के संकेत भी समकालीन कविता में नहीं दिखते।
कविता स्वयं भी एक सांस्कृतिक प्रक्रिया है, इसलिए सांस्कृतिक संक्रमण के दौरान संस्कृति के दूसरे रूपों की तरह यह भी पुनर्नवा होती है, यह नए यथार्थ को धारण करने के लिए अपने पुराने औजारों को छोड़कर, नये औजारों का आविष्कार करती है या पुराने औजारों को ही नयी धार देती है। पहले यथार्थ के बदलने की प्रक्रिया इतनी तेज नहीं थी, इसलिए छोटे-मोटे रद्दोबदल से ही काम चल जाता था लेकिन भूमंडलीकरण और त्वरित संचार प्रौद्योगिकी ने जो स्थितियां पैदा की हैं वे एकदम नयी और अभूतपूर्व हैं। अब केवल पुराने औजारों को धार देने से काम नहीं चलेगा। इनकी समझ और परख के लिए एकदम नए औजारों की जरूरत पड़ेगी। समकालीन कविता में इस संबंध में कोई अंतर्संघषZ व्यापक रूप से चल रहा हो, ऐसा नहीं लगता। कविता उन्हीं घिसी-पिटी मुद्राओं और मुहावरों से हो रही है। भूमंडलीकरण, बाजार, उपभोक्तावाद, अपसंस्कृति आदि के ब्यौरे तो इसमें है, लेकिन मुहावरा ज्यादातर आठवें-नवें दशक का घर-गांव, पेड़, चिडिया और अबूतर- कबूतरवाला ही है।
यह सब बातें ऐसी हैं, जो समकालीन कविता की नकारात्मक तस्वीर पेश करती है। रिवाज यह है कि बहुत सी नकारात्मक चीजों के साथ कुछ थोड़ी सकारात्मक चीजें रखकर बात समाप्त की जाए। ऐसा भी किया जा सकता है, लेकिन इससे क्या होगा। बहुत सारी खराब चीजों के साथ जुड़ी हुई थोडी-सी अच्छी चीजों का भी कोई खास मूल्य नहीं होता। अलबत्ता उनसे हम अपने मन को तसल्ली भर दे सकते हैं। फिलहाल वक्त तसल्ली देने का नहीं, गहरे आत्मान्वेषण का है।