Tuesday, 8 February 2011

गत दशक की कुछ किताबें

उत्सव का निर्मम समय: नंद चतुर्वेदी

उत्सव का निर्मम समय कवि और समाजवादी चिंतक नंद चतुर्वेदी की लगभग आधी सदी की काव्य यात्रा की बानगी है। उनकी ये कविताएं गैर बराबरी, अन्याय, शोषण, क्रूरता आदि के विरुद्ध उनके निरंतर संघर्ष की शाब्दिक अभिव्यक्ति है। खास बात यह है कि इन कविताओं में संघर्ष और संकल्प शब्दों से नहीं आता, शब्दों में होता है।’ इन कविताओं में घर-परिवार और आस-पास की मौजूदगी एक ऐन्द्रिक संसार रचती है, जिससे ये पाठकों को अपनी ओर आत्मीय लगती है। नंद चतुर्वेदी इन कविताओं में अस्तित्व के बुनियादी सवालों से भी रूबरू होते हैं। खास बात यह है कि इन कविताओं में जीवन और प्रकृति के प्रति अकुंठ अनुराग का भाव है। जीवन और प्रकृति की गतिविधियां इसीलिए इन कविताओं में सघन है। अतीत इन कविताओं में निरंतर और सघन है। नंद चतुर्वेदी अतीत का इस्तेमाल अपने समय की विरूपताओं को समझने में करते हैं। ये कविताएं कई आंदोलनों के दौर से गुजरी हैं, इसलिए इन पर उनके अलग-अलग प्रभावों की छायाएं देखी जा सकती हैं। अपने कवि कर्म के आरंभिक दौर में नंद चतुर्वेदी ने गीत में हाथ आजमाया था इसलिए गीत के कुछ गुण धर्म इन कविताओं में भी मौजूद हैं और इन्हें लगभग एक तरह के मिजाज वाली हिंदी की समकालीन कविताओं अलग करते हैं।

लीला मुखारविंद: ऋतुराज

लीला मुखारविंद ऋतुराज का आठवां कविता संकलन है और यह उस बात का सबूत है कि इसमें उनकी पहले की ही चिंताएं, संवेदनाएं और सरोकार ही अधिक प्रौढ़ और परिपक्व हुए हैं। ऋतुराज के यहां विचलन नहीं है- वे अपने बुनियादी सरोकारों और संवेदनाओं पर अब भी कायम हैं। यह अवश्य है कि उनकी कविता पहले की तुलना में अधिक गंभीर और विवेकावान हो गई है। इस संकलन की कविताएं जीवन के मूल और सहज रूपों के विरूपीकरण की असलियत को कई तरह से हमारे मन-मस्तिष्क में खोलती चलती हैं। जीवन का विरूपीकरण तो हिंदी की कई और कविताओं में मिल जाएगा, लेकिन इन कविताओं की खास बात यह है कि इनमें इसकी चिंता और अवसाद भी निरंतर है। ऋतुराज को यह चिंता और दुःख निरंतर है कि इस वक्त नदी नहीं है/ और उसकी मांग के बीच नागफनी उगी है। निरंतर संस्कार-परिष्कार और अभ्यास से ऋतुराज अब शिल्प के मामले में सहज और अनायास हैं। इस संकलन की कविताएं अनायास और सहज शिल्प में हैं। लीलाऔर जीवनहमारे समय और समाज में इस तरह से मिल गए हैं कि इनमें अंतर करना मुश्किल हो गया है, लेकिन इन कविताओं से गुजर कर यह अंतर कुछ हद तक समझ में आने लगता है।

साहित्य और संस्कृति: हेतु भारद्वाज

कथाकार, आलोचक और संपादक हेतु भारद्वाज की इस किताब में समय-समय पर साहित्य और संस्कृति पर लिखे हुए और उनके आलेख और टिप्पणियां संकलित हैं। अपने समय के साहित्यिक माहौल और रचनाधर्मिता के साथ इसमें अपने समय की सांस्कृतिक उथल-पुथल पर तोखी और धारदार टिप्पणियां है। साहित्य भी संस्कृति का ही रूप है इसलिए भूमंडलीकरण और आर्थिक उदारीकरण से हुए व्यापक सांस्कृतिक बदलाव से यह अछूता नहीं है। किताब के आलेख और टिप्पणियां साहित्य और संस्कृति में गत दो-तीन दशकों में बदलावों का व्यापक स्तर पर जायता लेते हैं। अपनी सोच में हेतु भारद्वाज अपनी जमीनी जरूरतों को अनदेखा नहीं करते, इसलिए उनके इन आलेख-टिप्पणियों का स्वर हवाई नहीं लगता और अतिवादी भी नहीं होता। यह किताब इस बात का सबूत है कि हिंदी में लेखक की चिंताएं अब केवल साहित्य तक सीमित नहीं है और अब वह व्यापक सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में सोचता और समझता है और यथा जरूरत इसमें हस्तक्षेप भी करता है। इस संकलन में संस्कृति नीति, साहित्य शिक्षण, वर्तमान सांस्कृतिक संकट आदि कई अछूते विषयों पर इस पुस्तक मे गंभीरता से विचार किया गया है।

ईंधन: स्वयं प्रकाश

स्वयं प्रकाश का ईंधन भूमंडलीकृत अर्थ संस्कृति में सुख और सफलता की दौड़ में शामिल एक ऐसे दंपती की कथा है, जिसे अंत में लगता है कि उसके पास कुछ नहीं है और जीवन व्यर्थ निकल गया है। उपन्यास में दो भिन्न प्रकार की समाजार्थिक पृष्ठभूमि वाले रोहित और स्निग्धा नामक युवक-युवति विवाह करते हैं और इन दोनों के पारस्परिक संबंधों का तनाव और द्वंद्व ही इस उपन्यास की कथा बनता है। स्वयं प्रकाश इन दोनों चरित्रों की मध्यवर्गीय बुनावट की अदृश्य परतें इस तरह खोलते हैं कि नयी अर्थ संस्कृति का यथार्थ सामने आ जाता है। स्वयं प्रकाश वामपंथी हैं और उनकी चिंता विचार और व्यवहार में दूरी पाटने की है। यह चिंता उनके उपन्यास बीच में विनय में भी थी और इस उपन्यास में भी है। यह अवश्य है कि यहां यह पारदर्शी नहीं है। मध्यवर्गीय जीवन के विस्तृत और सूक्ष्म विवरण, जिन पर आम तौर पर हमारा ध्यान नहीं जाता, इस उपन्यास में खूब हैं। भूमंडलीकृत अर्थसंस्कृति की बुनावट इस तरह की है कि यह अपने अस्तित्व और निरंतरता के लिए मनुष्य को बतौर ईंधन इस्तेमाल करती है। यह उपन्यास इस सच्चाई का जीवंत दस्तावेज है। रोहित और स्निग्धा उपन्यास के अंत में नयी अर्थसंस्कृति की अंधी दौड़ से निकलकर नयी शुरुआत करते हैं। चरित्रों की यह स्थिति जीवन नहीं, स्वयंप्रकाश तय करते हैं। उपन्यास की कई खूबियों के बीच बस यही एक कमजोरी अलग से दिखाई पड़ती है।

अन्य होते हुए: नंदकिशोर आचार्य

समकालीन हिंदी कवियों में अलग पहचान रखने वाले नंदकिशोर आचार्य की कविताओं का यह छठा संकलन है। कविता नंदकिशोर आचार्य के लिए हमेशा आत्मावेषण और अस्तित्वगत पहचान का माध्यम रही है। उनकी कविता का शिल्प और मुहावरा बदलता रहा है, लेकिन सरोकार और चिंताएं हमेशा अस्तित्व की ही रही है। इस संकलन की कविताएं भी अस्तित्व से जुड़े बुनियादी सवालों का ही विस्तार है। इन कविताओं में रचना और कला से जुड़ी अन्यथाकरण की समस्या भी कई तरह से आई है। सृजन का रहस्य अन्यथाकरण में इसलिए कवि इन कविताओं में कई तरह से इस प्रक्रिया को समझता-समझता है। इन कविताओं का शिल्प पहले की तुलना में सहज हुआ है। रूपकों, प्रतीकों और सादृश्यों पर निर्भरता इनमें पहले की तुलना में कम हो गई है और दैनंदिन जीवन और उसकी भाषा ही इन कविताओं को गढ़ने में कच्चे माल की तरह इस्तेमाल हुई हैं।

शिगाफ: मनीषा कुलश्रेष्ठ

किसने नष्ट किया जमीन पर बसी एक जन्नत को? कश्मीर को लेकर शिगाफ में यह सवाल पूछने और इससे जुझने का ढंग एकदम अलग है। यह एक संवेदनशील रचनाकार का ढंग है। विस्थापन को अभी तक उस तरह से कमी नहीं समझा गया, जिस रह शिगाफ में समझा गया है। अपनी जमीन से उखड़कर खुली जड़ें लिए भटकने और कहीं भी जम नहीं पाने की मजबूरी का जीवंत आख्यान इस उपन्यास में पहली बार है। शिगाफ का मतलब है दरार। कश्मीर के लोगों के मन में बनी इस दरार की गहराई और विस्तार को मापने के लिए मनीषा ने जो शिल्प ईजाद किया है, वो बहुत प्रभावी, नया और अलग है। समस्या की जटिलता को केवल इस शैल्पिक नवाचार से ही खोला जा सकता है। अमिता का ब्लाग ,यास्मीन की डायरी, मानव बम जुलेखा का मिथकीय कोलाज, अलगाववादी नेता वसीम के एकालाप इन सबके साथ समस्या अपने सभी अयामों, कोणों और मोड़-पड़ावों के साथ उभरती है। उपन्यास की एक और बहुत ध्यानाकर्षक खूबी यह है कि इसमें विवरण और उनका वर्णन बहुत जीवंत और बांधने वाला है। इस लिहाज से यों तो पूरा उपन्यास पठनीय है, लेकिन रोड टू ला मांचाके वर्णन पर तो आप अभिभूत और मुग्ध हो सकते हैं।

धूणी तपे तीर: हरीराम मीणा

उपनिवेशकालीन दक्षिणी राजस्थान के मानगढ़ आदिवासी विद्रोह पर एकाग्र हरिराम मीणा की रचना धूणी तपे तीर को यों तो उपन्यास की संज्ञा दी गई है, लेकिन यह इतिहास और दस्तावेज भी है। गल्प के अनुशासन में होने के कारण यह एक औपन्यासिक रचना है, लेकिन ऐतिहासिक दस्तावेज होने के कारण इसका साहित्येतर महत्व भी बहुत है। यह रचना हिंदी में साहित्य की साहित्येतर अनुशासनों के साथ बढ़ रही निकटता और इससे होने वाली अंतिर्कयाओं की भी साक्ष्य है। यह रचना राजस्थान के दक्षिणी भूभाग में उपनिवेशकाल के दौरान ब्रिटिश-सामंती गठजोड़ के विरुद्ध हुए आदिवासी विद्रोह पर आधारित है। इतिहास के साथ यह कृति एक रचनात्मक आख्यान भी है। लेखक इसमें बहुत कौशल के साथ संयम में रहकर इतिहास को रचना में ढालता है। हिंदी के कहानी-उपन्यासों में क्षेत्रीय भूगोल और प्रकृति की मौजूदगी कभी भी ध्यानाकर्षक और उल्लेखनीय हैसियत नही बना पाई, लेकिन इस रचना में ऐसा हुआ है। दक्षिणी राजस्थान का खास भूगोल और प्रकृति अपनी समग्रता यहां मौजूद हैं। इतिहास और आख्यान के संतुलित और संयमित मेल से बनी इस रचना का आस्वाद पारंपरिक औपन्यासिक रचनाओं से अलग तरह का है।

कहानीः समकालीन चुनौतियां: शंभु गुप्त

हिंदी कथा आलोचना के क्षेत्र में लगभग दो दशकों से सक्रिय शंभु गुप्त की पुस्तक कहानी: समकालीन चुनौतियां में समाकलीन हिंदी कहानी के परिदृश्य का आकलन और आलोचना है। यह पुस्तक कुछ मायनों में खास है। हिंदी में कविता की आलोचना तो शास्त्र और औजार हैं, लेकिन कथा आलोचना के क्षेत्र में इस तरह की सक्रियता नगण्य ही है। यह किताब कुछ हद इस अभाव की पूर्ति करने में सहायक सिद्ध होगी। अक्सर शिकायत की जाती है कि हिंदी कथा आलोचना केवल वस्तुपरक होती है, लेकिन शंभु गुप्त इस किताब में कहानियों की शिल्प प्रविधि की आलोचना को तरजीह देते हैं। कहानी की आलोचना और मूलांकन के लिए शंभु गुप्त अपने कुछ औजार भी गढ़ते है। पाठ, प्रतिबद्ध जीवन दृष्टि और कहानी की योजना में पाठकीय मौजूदगी आदि कुछ ऐसे आधार हैं, जिनके आधार पर इस किताब में उन्होंने कहानियों का मूल्यांकन किया है। पाठ उनके मूल्यांकन का सर्वोपरि आधार है। उनके अपने शब्दों में ‘पाठाधारित आलोचना से अच्छे-अच्छों के भूत भागते हैं।इस किताब की खास बात यह है कि इसमें चर्चित और अच्छी कहानियों के साथ अज्ञात और दोयम दर्जे की कहानियां भी विवेचन के लिए चुनी गई है।

आंखन देखी: दुर्गाप्रसाद अग्रवाल

भूमण्डलीकरण से होने वाली व्यापक सांस्कृतिक उथल-पुथल के बावज़ूद हिन्दी में अभी भी साहित्यिक विधाओं के दायरे बहुत संकीर्ण हैं| उनमें अंतर्क्रिया और रद्दोबदल में वह तेज़ी नहीं आई है, जो अंग्रेज़ी आदि भाषाओं के साहित्य में इधर दिखाई पड़ रही है। साहित्यकार डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल की किताब आंखन देखी इस लिहाज़ से अलग किस्म की है. यह विधाओं के बीच अंतर्क्रिया और उठापटक का जीवंत दस्तावेज है. इसमें लेखक अनायास यात्रा वृत्तांत को बीच में छोड़कर संस्मरण पर आ जाता है। यही नहीं वह संस्मरण को भी बीच में छोड़कर जब-तब सभ्यता या संस्कृति की समीक्षा में जुट जाता है। इस तरह जो चीज़ बनती है, ज़ाहिर है, वह हिन्दी की पारम्परिक साहित्यिक विधाओं के संकीर्ण दायरे से बाहर की ठहरती है. यह किताब इस अर्थ में खास है कि हिन्दी की पारम्परिक साहित्यिक विधाओं के अभ्यस्त पाठकों को इसमें एकाधिक विधाओं के मिले जुले, अलग और नए स्वाद को आज़माने का मौका मिलेगा। सराहना और लगभग अभिभूत भाव से लिखी गई इस किताब की खास बात यह है कि इसमें लेखक का नज़रिया आद्यंत तुलनात्मक रहा है. लेखक अमरीका को खास भारतीय दृष्टिकोण से, भारतीय परिप्रेक्ष्य में समझता-परखता है।

एक-एक कदम: भवानी सिंह

भवानी सिंह के कहानी संग्रह एक-एक कदम में उस आदमी की कहानियां हैं जो गांव से शहर आ गया है, लेकिन गांव से संबंध पूरी तरह टूटा नहीं है। एक–एक कदम शीर्षक कहानी में गांव की नयी पंचायती राज व्यवस्था में दलित बसन्ती के सरपंच बन जाने के बाद का चित्र है। कहानी का अन्त रोचक है और एक प्रगाढ़ आशावाद में समाप्त हुआ है। उनकी कहानी सपनों में साइकिल गांव के समग्र यथार्थ का चित्र एक नवयुवक के माध्यम से उपस्थित करती है। गांव में बदलाव आ रहा है लेकिन बदलाव के संक्रमण को स्वीकार करने का साहस गांव के मोतबिरों में कहाँ? सपनों में साइकिल इस कठिन बदलाव का धैर्यपूर्वक रचा गया वृत्तान्त है और यह बदलाव अन्ततः सही दिशा में ले जाएगा। निम्न वर्ग के जीवन और समाज के ये चित्र राजस्थान को सही नजरिये से देखे जाने का प्रस्ताव करते हैं.

सितम्बर में रात: सत्यनारायण

सत्यनारायण आम तौर पर रेत के कंकरीले यथार्थ में प्रेम की खोज में भटकते युवक की कहानियां लिखते हैं लेकिन इस संकलन में गांव उनका केन्द्रीय सरोकार है। संकलन की कहानी हे राम में वे नये दौर में वर्ण व्यवस्था असलियत से रूबरू होते हैं है। दलित उत्पीड़न के बरअक्स दरक रहे ब्राह्मणवाद की कहानियां हिन्दी में नहीं है। सत्यनारायण पुरोहिती कर रहे एक पंडित की कथा कहते हैं जो अब समझ भी रहा है कि जजुमानी का बखत नहीं रहा। मन्दिर के किवाड़ ओढालते-ओढालते चूलों से उसे कीर्तन की नहीं पेट की भूख जैसी आवाजें सुनाई देना अपने आप में एक ऐसा करुण शोक गीत बन जाता है जबकि यह वह राजस्थान है जहाँ अभी भी सामन्ती-ब्राह्मणवादी संस्कार गहरे पैठे हैं। एक जगह पंडितजी कहते हैं- सालो ऐसी भगती भी किस काम की कि भूख से मौत हो शोकगीत में पुरोहित के मुँह सेपरमेसर को भीकोसणे बेसाख्ता निकल जाऐं तो क्या आश्चर्य ?

मीरा एक पुनर्मूल्यांकन: पल्लव

अक्सर कहा जाता है कि मीरा के संबन्ध में ज्ञात कम और प्रचारित ज्यादा है। युवा आलोचक पल्लव द्वारा सम्पादित यह किताब इस कथन का प्रत्याख्यान है। इसमें पहली बार मीरा के जीवन और काव्य का अंत:अनुशासनीय आधार पर मूल्यांकन किया गया है । मीरा पर केन्द्रित इस संकलन में छब्बीस आलेख हैं। यह संकलन इन अर्थों में महत्वपूर्ण है कि भक्तिकाल की कवयित्री मीरा के काव्य को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में परखा गया है। मीरा के संदर्भ में साहित्य और इतिहास में बहुत मत वैभिन्न्य देखने को मिलता है। बावजूद इसके मीरा के काव्य में ऐसी स्त्री-चेतना दिखाई पड़ती है, जो अपनी पूर्ववर्ती परंपरा से तो विशिष्ट है ही, आधुनिक स्त्री-विमर्श के पैमानों पर नई राहों का अन्वेषण करती है। पुस्तक में विश्वनाथ त्रिपाठी, मैनेजर पाण्डेय, नवलकिशोर और रामबक्ष सहित नए पुराने अनेक लेखकों मीरा के जीवन और कविता पर नए ढंग से विचार किया है। पंकज बिष्ट का यात्रावृत्त पुस्तक में शामिल किया गया है जो एक संवेदनशील कथाकार की आंख से मीरा के जीवन और उसके देश को देखता है।

इलियट और हिन्दी साहित्य चिंतन: मोहनकृष्ण बोहरा

समालोचक मोहनकृष्ण बोहरा बोहरा की इस बहुप्रतीक्षित पुस्तक में अज्ञेय, डॉ. देवराज, मुक्तिबोध और दिनकर के चिन्तन पर इलियट के प्रभाव का विवेचन है। हिन्दी में समकालीनता का वर्चस्व इतना प्रबल है कि अब अपनी विरासत नए सिर से समझने के प्रयास नही के बराबर हो रहे हैं। यह पुस्तक हमारे निकट अतीत के तीन रचनाकारों नए सिरे से समझने का अवसर सुलभ करवाती है। आजादी के तत्काल बाद के साहित्यकारो की पीढी को इलियट ने गहराई तक प्रभावित किया था। इस पुस्तक इन प्रभावों का सूक्ष्म आकलन और विवेचन किया गया है। इलियट की सैद्धांतिकी सीधी-सीधे इस पुस्तक नहीं है लेकिन विवेच्य रचनाकारों के चिंतन के संदर्भ में उसका उल्लेख निरंतर हुआ है।

पीपल के फूलः चरणसिंह पथिक

युवा कहानी के नये परिदृश्य में चरणसिंह पथिक उन कथाकारों में हैं जो कहानी के देशज संस्कारों से अपने को अलग नहीं होने देते। उनकी कहानियों की अंतर्वस्तु और कहन सीधे ग्रामीण समाज से आते हैं। पीपल के फूल में भूमंडलीकरण के दबावों में बदल रहे भारतीय गांव की कथा हैं पेड़ के बहाने आई है। फिरने वालियां संबंधों में आ रहे सूक्ष्म बदलावों को पहचान है तो मूँछे जातिवादी हठधर्मी आंदोलनों की सीमाएं बताती हैं। उल्लेखनीय है कि यह संकलन चरणसिंह पथिक को एक कथाकार के रूप में सुस्थापित ही नहीं करता, अपितु राजस्थान में रांगेय राघव, आलमशाह खान और स्वयं प्रकाश की पक्षधर्मी कहानियों की विरासत को समृद्ध भी करता है।

कोई तो रंग है: विनोद पदरज

विनोद पदरज हिन्दी के उन कवियों में से हैं जिनके यहां कविता घर-परिवार और पास-पड़ोस के ऐन्द्रिक संसार से बनती है। उनका पहला काव्य संकलन कोई तो रंग है इसका सबूत है। इस संकलन की कविताओं में माता, पिता, बहन, भाई, बेटी दोस्त आदि का संसार मिलकर कविता संभव करते हैं। पदरज की इन कविताओं में इस दुनिया को मानवीय बनाने ललक निरंतर है और यह ललक ही जो इन कविताओं अर्थपूर्ण बनाती है। इन कविताओं की सबसे बड़ी खूबी इनकी आडंबरहीनता और सहज संप्रेषणीयता है। संकलन की पहली ही कविता सरोकार बहुत प्रभावशाली है।