सही मायने में ग्लॉबलाइजशन की शु.रुआत पंद्रहवीं सदी में उस समय हुई, जब कुछ साहसी यूरोपीय व्यापार की मंशा से नए देशों की खोज में निकले। ग्लॉबलाइजेशन का पहला चरण 1492 में कोलंबस की नयी और पुरानी दुनिया के बीच व्यापार का मार्ग प्रशस्त करने वाली यात्रा से शुरू होकर 1800 तक चलता है। इसने दुनिया को सिकोड़कर बड़ी से मध्यम आकार में बदल दिया। इस चरण में परिवर्तन का मुख्य घटक और ग्लॉबल एकीकरण की चालक शक्ति देशों की ताकत मतलब बाहुबल, वायु शक्ति और बाद में वाष्प शक्ति को सर्जनात्मक ढंग से प्रयुक्त कर फैलाने की सामर्थ्य थी। विश्व को एक साथ गूंथकर ग्लॉबल एकीकरण का काम इस दौरान देशों और सरकारों ने किया। ग्लॉबलाइजेशन का दूसरा चरण 1800 से शुरू होकर 2000 में समाप्त हुआ, लेकिन यह पहले और दूसरे महायुद्ध के अवसाद से अवरुद्ध हुआ। इस चरण में परिवर्तन का मुख्य घटक और ग्लॉबल एकीकरण की चालक शक्ति बहुराष्ट्रीय कंपनियां थीं। श्रम और बाजारों की तलाश में ये कंपनियां ग्लॉबल हुईं। इस चरण के पूर्वार्ध में ग्लॉबल एकीकरण की प्रक्रिया को परिवहन की लागत कम हो जाने से बल मिला, जो भाप के इंजिन और रेल-मोटर के कारण संभव हुआइस चरण के उत्तरार्द्ध में ग्लॉबल एकीकरण की प्रक्रिया दूर संचार की कीमतें गिर जाने से द्रुत हुई और यह तार, टेलीफोन, पर्सनल कंप्यूटर, सैटेलाइट, फाइबर ऑप्टिक केबल और वर्ल्ड वाइड वेब के आरंभिक संस्करण के विस्फोटक प्रसार ससंभव हुआ। दुनिया इस चरण में मध्यम से छोटे आकार में तब्दील हो गई। इस चरण में ग्लॉबल अर्थव्यवस्था का जन्म भी हुआ। यह इस अर्थ में कि अब सूचनाओं और वस्तुओं का एक महाद्वीप से दूसरे महाद्वीप तक पर्याप्त मात्रा में यह संचलन हो रहा था।
ग्लॉबलाइजेशन की प्रक्रिया में वर्ष 2000 मील का पत्थर साबित हुआ। विख्यात पत्रकार औद वर्ल्ड इज फ्लैट नामक बहुचर्चित किताब के लेखक थॉमस एल फ़्रीडमेन के अनुसार इस वर्ष से ग्लॉबलाइजशन का तीसरा महान चरण शरू होता है। पहले चरण के ग्लॉबलाइजेशन में चालक शक्ति ग्लॉबल होते हुए देश थे, दूसरे चरण के ग्लॉबलाइजेशन में चालक शक्ति ग्लॉबल होती हुई बहुराष्ट्रीय कंपनियां थीं, जबकि इस तीसरे चरण में ग्लॉबलाइजशन की चालक शक्ति व्यक्तियों को ग्लोबल स्तर पर सहभागी और प्रतिद्वंद्वी होने की नयी सुलभ ताकत है। व्यक्तियों और समूहों को विश्व स्तर पर सहभागी और प्रतिद्वंद्वी होने में सक्षम बनाने का काम अब हॉर्सपॉवर या हार्डवेयर नहीं, सॉफ्टवेयर कर रहा है, जिसने ग्लॉबल ऑप्टिक फाइबर नेटवर्क के साथ जुड़कर विश्व के तमाम लोगों को निकटस्थ पड़ोसी बना दिया है। फ्रीडमेन कहते हैं कि दुनिया अब छोटे से नन्ही और सममतल हो गई है। दुनिया के समतल हो जाने का आशय स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं कि ''कंप्यूटर, ई-मेल, नेटवर्किंग, टेलीकान्फ्रेंसिंग और द्रुत और नए सॉफ्टवेयर के प्रयोगों विश्व इतिहास के किसी भी विगत समय की तुलना में दुनिया के ज्यादा लोग अलग-अलग हिस्सों में होते हुए भी अलग-अलग तरह के कामों के लिए समान धरातल पर एक ही समय में मिलजुल कर या प्रतिस्पर्धी रूप में काम कर सकते हैं।'' ग्लॉबलाइजेशन के दौरान पहले हार्डवेयर और फिर सॉफ्टवेयर की जो तकनीकी क्रांति हुई है, उसने मीडिया के स्वरूप और चरित्र में आधारभूत परिवर्तन कर दिए हैं। तकनीक के विकास और ग्लॉबलाइजेशन ने अब मीडिया काबहुत शक्तिशाली बना दिया है। आरंभिक अवस्था में जब संचार के साधन नहीं थे, तो मीडिया की हैसियत स्वायत्त नहीं थी, लेकिन अब यह स्वायत्त है। यह संदेश के पुनरुत्पादन की प्रक्रिया में संदेश को नया रूप देने और संदेश को नया गढ़ने में सक्षम है। मार्शल मैक्लुहान के शब्दों में अब मीडियम ही संदेश है। ग्लॉबलाइजेशन के दूसरे चरण में जो बहुरष्ट्रीय कंपनियां अस्तित्व में आईं, उन्होंने इस मीडिया की ताकत को पूरी तरह अपने व्यापारिक हितों के पोषण में झोंक दिया है।
ग्लॉबलाइजेशन और मीडिया विस्फोट से संस्कृति सबसे अधिक प्रभावित हुई है। अब स्वायत्त सांस्कृतिक विकास संभव नहीं है और सांस्कृतिक एकीकरण की प्रक्रिया बहुत द्रुत और व्यापक हो गई है। साहित्य भी संस्कृति कही एक रूप है, इसलिए परिवर्तन की उठापटक इसमें भी साफ दिखाई पड़ रही है। साहित्य का आवयविक संगठन तमाम परिवर्तनों के बाद भी पुराना है, इसलिए इस द्रुत संक्रमण और परिवर्तन के साथ तालमेल बिठाने में इसको असुविधहो रही है। इस कारण पारंपरिक अभिव्यक्ति रूपों के सामने संकट खड़ा हो गया है। इनमें से कुछ विस्थापित होकर हाशिए पर चले गए हैं और कुछ इसकी नयी प्रविधि के अनुसार नए रूप में ढलने के लिए विवश हुए हैं। इसने अपनी नयी प्रविधि की जरूरत के अनुसार नए अभिव्यक्ति रूपों का भी विकास किया हैं। अभिव्यक्ति भी अब स्वायत्त नहीं रही। अब यह पूंजी की गुलाम है। पूंजी ने इसे उत्पाद में बदल दिया है और विपणन के लिए इसको बदला और बनाया जा रहा है। इस तरह यह अपने यथार्थ से पूरी तरह कट गई है। मीडिया में भी इलेक्ट्रोनिक मीडिया दृष्य और श्रव्य प्रविधि है। उपग्रह प्रक्षेपण से इसकी पहुंच और प्रभाव का दायरा बहुत बड़ा हो गया है और डिजिटल तकनीक ने इसकी दृष्य-श्रव्य के संचार की गुणवत्ता बढ़ा दी है। पारंपरिक प्रिंट मीडिया में अभिव्यक्ति का माध्यम भाषा थी। भाषा की लाक्षणिकता, व्यंजकता, मुहावरा आदि ही इसकी अभिव्यक्ति के खास औजार थे। इलेक्ट्रोनिक मीडिया, उसमें भी खास तौर पर टीवी ने अभिव्यक्ति की पद्धति को पूरी तरह बदल दिया है। अब दृष्य का यथावत और त्वरित गति से संचार संभव हो गया है। भाषा भी यहां श्रव्य रूप पाकर अधिक लाक्षणिक और व्यंजक हो गई हैं। पाठय अभिव्यक्ति में भाषा की नाटकीयता लगभग खत्म हो गई थी- टीवी में उसको भी पुनर्जीवन मिला हैं। इस सबका नतीजा यह हुआ है कि पारंपरिक अभिव्यक्ति रूप इलेक्ट्रोनिक मीडिया की जरूरतों के अनुसार अपनी प्रकृति, प्रक्रिया और स्वरूप को बदलने कलिए तत्पर और बेचैन दिख रहे हैं। इस प्रक्रिया में कुछ अभिव्यक्ति रूपों का रूपांतरण हुआ है और कुछ सर्वथा नए अभिव्यक्ति रूप भी अस्तित्व में आए हैं। नया मीडिया और इसके अभिव्यक्ति रूप पहले के मीडिया और उसके अभिव्यक्तिरूपों को पूरी तरह ध्वस्त और नष्ट नहीं करते। मार्शल मैक्लुहान के अनुसार यह उनको नवीन करते हैं, बदलते हैं। ये उनकी प्रकृति, प्रक्रिया और स्वरूप को अपने अनुसार ढाल लेते हैं। इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने हमारे यहां यही किया है। इस कारण प्रिंट मीडिया में अपने को बदलने की जबर्दस्त खलबली है और इसका प्रभाव उसके अभिव्यक्ति रूपों पर साफ तौर पर दिखता है। उनमें से कई हाशिए पर हैं और कई अपने को बदल कर बनाए रखने की जद्दोजहद में लगे हुए हैं। समाचार पत्र दृष्यों और ग्राफिक्स से भरे हुए हैं और उनमें सनसनी और उत्तेजना पैदा करने वाली चीजों को तरजीह दी जा रही है। सिनेमा, टीवी और क्रिकेट की खबरें अंतिम पष्ठों से निकलकर पहले पेज पर आ गई हैं। इनमें रहस्य-रोमांच ससंबंधित फीचर लेखन बढ़ रहा है। फैशन और लाइफ स्टाइल छोटे कॉलमों से निकलकर पूरे पृष्ठों पर फैल गए है। इनके परिशिष्ठों में साहित्य के लिए अब कोई जगह नहीं रही। इनमें कहानी, कविता और पुस्तक समीक्षा के स्तंभ बंद हो गए हैं और उनकी जगह दूसरी लोकप्रिय चीजों ने ले ली है।
हमारे देश में ग्लॉबलाइजेशन की शुरुआत अंग्रेजों के आगमन के साथ ही शुरू हो गई थी। पुनर्जागरण आंदोलन के दौरान इसको लेकर प्रतिरोध और आत्मसातीकरण के स्वर एक साथ उठे, लेकिन कालांतर में प्रतिरोध कम होता गया। प्रिंट मीडिया की शुरुआत अपेक्षाकृत विलंब से, गत सदी की शुरुआत में उपनिवेशकाल में हुई। इस ने यहां अपने प्रसार के साथ ही पारंपरिक साहित्य को प्रभावित करना शुरू कर दिया। आधुनिक काल से पहले यहां काव्य ही साहित्य का पर्याय था और गद्य में अभिव्यक्ति की कोई खास परंपरा नहीं थी। प्रिंट मीडिया ने अपने प्रसार के साथ अपने गद्यात्मक अभिव्यक्ति रूपों-कहानी, उपन्यास, संस्मरण, आत्मकथा, रिपोर्ताज, आलोचना आदि का भी प्रसार किया। यहां इलेक्ट्रोनिक मीडिया की शुरुआत रेडियो के रूप में उपनिवेशकाल में हुई, लेकिन आरंभ में यह सूचनाओं के प्रसारण का सीमित साधन भर था। आजादी के बाद देश में ट्रांजिस्टर क्रांति हुई, लेकिन सरकार स्वामित्व में होने के कारण रेडियो का प्रभावी मीडिया के रूप में विकास नहीं हो पाया। यही स्थिति टीवी की भी रही। अपनी शुरुआत से लगाकर 1990 से पहले तक इस पर सरकारी एकाधिकार था। 1990 के दशक में हुए आर्थिक उदारीकरण् और संचार क्रांति से केबल सैटेलाइट टेलीविजन का जो विस्फोटक विस्तार हुआ उससे इलेक्ट्रोनिक मीडिया को स्वायत्त हैसियत मिल गई। अब यह निर्णायक ढंग से मनुष्य़ के वैयक्तिक और सामाजिक जीवन को प्रभावित करने की स्थिति में आ गया है।
ग्लॉबलाइजेशन के दौरान बहुराष्ट्रीय कंपनियां मीडिया के सहारे संस्कृति को उत्पाद और उद्योग में बदलती हैं। हमारे यहां यह तत्काल और आसानी से हो गया। दरअसल हमारे यहां परंपरा से समाज के सभी तबकों को संस्कृति के उपभोग की अनुमति नहीं थी। इस संबंध में कई सामाजिक विधि-निषेध और नैतिक अंतर्बाधाएं थीं। 1990 के दशक में आर्थिक उदारीकरण और इलेक्ट्रोनिक मीडिया के विस्फोटक विस्तार से यह सब भरभरा कर ढह गए। संस्कृति के उपभोग में अब कोई बाधा नहीं रही। इसके लिए केवल उपभोक्ता होना पर्याप्त था। देखते ही देखते संस्कृति विराट उद्योग में तब्दील हो गई और इसके व्यवसाय का ग्राफ तेजी से उपर चढ़ गया। टीवी, रेडियो, केबल और लाइव मनोरंजन में उफान आ गया। एक सूचना के अनुसार वर्ष दौरान हमारे यहां मनोरंजन उद्योग 16,600 करोड़ रुपए का कूता गया। एक अनुमान के अनुसार हमारे यहां फिल्मों का कारोबार वर्ष 2006 में 1.1 खरब डॉलर हो गया है। साहित्य भी संस्कृति रूप है, इसलिए इस सबसे या तो यह हाशिए पर आ गया है या तेजी से अपने को उत्पाद और उद्योग में बदल रहा है। फरवरी, 2004 में दिल्ली में आयोजित सोलहवें वि8व पुस्तक मेले के उदघाटन के अवसर पर भारतीय मूल के साहित्य के नोबेल पुरस्कार विजेता सर वीएस नायपाल ने साहित्य की इस स्थिति पर टिप्पणी करते हुए कहा कि दुर्भाग्य है कि ''आज साहित्य अपनी जड़ों से उखड़ गया है। साहित्य का स्थान घटिया कथानक, जादू-टोना और ओझाई लेखन ने ले लिया है। तकनीकी विकास के साथ पुस्तकों की बिक्री बढ़ी है और नए पाठक तैयार हो रहे हैं लेकिन बिक्री की नई तरकीबों के बीच साहित्य मर रहा है। उसे कोने में धकेल दिया गया है।''
संस्कृति के औद्योगीकरण की प्रक्रिया से हमारे पारंपरिक साहित्य में जबर्दस्त बेचैनी है। आरंभिक आंशिक प्रतिरोध के बाद थोडे असमंजस के साथ इसमें बाजार की जरूरतों के अनुसार ढलने की प्रक्रिया की शुरू हो गई है। साहित्य को उत्पाद मानकर उसकी मार्केटिंग हमारे यहां भी शुरू हो गई है। इसका नतीजा यह हुआ कि साहित्य की घटती लोकप्रियता के बावजूद पिछले कुछ सालों से हमारे यहां पुस्तकों की ब्रिक्री में असाधरण वृद्धि हुई है। एक सूचना के अनुसार हमारे यहां 70,000 पुस्तकें प्रतिवर्ष छपती हैं और ये 10 से 12 प्रतिशत सालाना की दर से बढ़ रही हैं। अब हमारे यहां साहित्य भी साबुन या नूडल्स की तरह उत्पाद है, इसलिए इसकी मार्केटिंग के लिए फिल्म अभिनेताओं का सहारा लेने की बात की जा रही है। इंडिया टुडे कॉनक्लेव, 2004 में शामिल विश्व विख्यात अमरीकी प्रकाशक अल्फ्रेड ए नॉफ के भारतीय मूल के अध्यक्ष और संपादक सन्नी मेहता ने प्रस्ताव किया कि ''कुछ समय पहले अमरीकी टीवी के लोकप्रिय प्रस्तोता ऑप्रा विनफ्रे के साप्ताहिक टीवी बुक क्लब शुरू करने के बाद पुस्तकों की बिक्री काफी बढ़ गई थी। कल्पना की जा सकती है कि अगर आज अमिताभ बच्चन या ऐशवर्या राय भारत में टीवी पर ऐसा कार्यकम शुरू कर दे तो क्या कमाल हो सकता हैं।'' मीडिया में चर्चित और विख्यात होने के कारण सलमान रुश्दी, विक्रम सेठ और अरुंधती राय की किताबें हमारे यहां तेजी से लोकप्रिय हुई हैं। बहुत उबाऊ और बोझिल होने के बावजूद इन किताबों के हिन्दी रूपांतरण निकले और पाठकों द्वारा खरीदे भी गए।
हमारे यहां अब उत्पाद मानकर साहित्य की मार्केटिंग ही नहीं हो रही है, बाजार की मांग के अनुसार इसके सरोकार, वस्तु, शिल्प आदि में भी बदलाव किए जा रहे हैं। इसमें मनोरंजन, उत्तेजना और सनसनी पैदा करने वाले तत्त्वों की घुसपैठ बढ़ी है। इस कारण पिछले कुछ वर्षों से हमारे साहित्य में भी राजनेताओं, उच्चाधिकारियों, अभिनेताओं और खिलाड़ियों के व्यक्तिगत जीवन से पर्दा उठाने वाली आत्मकथात्मक, संस्मरणात्मक और जीवनीपरक रचनाओं की स्वीकार्यता बढ़ी है। बिल क्लिंटन और मोनिका लेविंस्की की यौन लीलाओं के वत्तांत का हिन्दी रूपांतरण मैं शर्मिंदा हूं को साहित्य के एक विख्यात प्रकाशक ने प्रकाशित किया और यह हिन्दी पाठकों में हाथों-हाथ बिक गया। हिन्दी में ही नेहरू और लेडी माउंटबेटन एडविना के प्रणय संबंधों पर आधारित केथरिन क्लैमां के फ्रेंच उपन्यास ने पर्याप्त लोकप्रियता अर्जित की। इसी तरह विख्यात पत्रिका हंस में राजेन्द्र यादव द्वारा चर्चित प्रसंग होना और सोना एक औरत के साथ को हिन्दी की साहित्यिक बिरादरी ने चटखारे लेकर पढ़ा और सराहा। हिन्दी की श्रेष्ठ साहित्यिक रचनाओं में भी जाने-अनजाने मनोरंजन और उत्तेजना पैदा करने वाले तत्त्वों की मात्रा पिछले दस-बारह सालों में बढ़ी है। मैत्रेयी पुष्पा के साहित्यिक उपन्यासों में रति क्रियाओं के दृष्य अलग से पहचाने जा सकते हैं, विजयमोहनसिंह की कहानियों में सेक्स जबरन ठूंसा गया लगता है तथा अशोक वाजपेयी की कविताओं में रति की सजग मौजूदगी को भी इसी निगाह से देखा जा सकता है। पिछले दशक में प्रकाशित सुरेन्द्र वर्मा का हिन्दी उपन्यास दो मुर्दों के लिए गुलदस्ता तो संपूर्ण ही ऐसा है।
ग्लॉबलाइजेशन की चालक शक्ति बहुराष्ट्रीय कंपनियों का लक्ष्य उपभोक्ता समाज को अपने संजाल के दायरे में लाकर उसकी आकांक्षा, रुचि और स्वाद का अपने विज्ञापित उत्पादों के उपभोग के लिए, अनुकूलीकरण करना है। यह काम, जाहिर है, उपभोक्ता समाज की संपर्क भाषा में ही हो सकता है। हमारे देश में अपने प्रसार के साथ ही मीडिया ने उपभोक्ता समाज की संपर्क भाषा हिन्दी को अपनी जरूरतों के अनुसार नए सिरे से बनाना शुरू कर दिया है। पारंपरिक प्रिंट मीडिया और साहित्य की हिन्दी ठोस और ठस थी। इस भाषा में आम भारतीय उपभोक्ता समाज से संपर्क और संवाद संभव नहीं था। इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने दस-पंद्रह सालों में हिन्दी का नया रूपांतरण हिंगलिश कर दिया हैं। देखते ही देखते इसका व्यापक इस्तेमाल भी होने लग गया है। खास तौर पर यह नयी पीढ़ी के युवा वर्ग में संपर्क और संवाद की भाषा हो गई है। विख्यात फिल्म अभिनेता विवेक ओबेराय से एक बार पूछा गया कि आप सपने किस भाषा में देखते है, तो उनका जवाब था हिंगलिश में और जब उनसे पूछा गया कि आप किस भाषा में सोचते हैं, तो उन्होंने कहा कि भावना की बात हो तो हिन्दी में और विचार हो तो अंग्रेजी में। रस की बातें हिन्दी में होती है और अर्थ की बातें हो तो अंग्रेजी में। हिन्दी के इस कायांतरण से नफा और नुकसान, दोनों हुए हैं। नफा यह कि अब हिन्दी अपने लिखित-पठित, ठोस-ठस रूप के दायरे से बाहर निकल कर सरल और अनौपचारिक हो गई है। अब इसमें शुद्धता का आग्रह नहीं है। इसने परहेज करना भी बंद कर दिया है, इसलिए यह व्यापक सरोकारों वाली बाजार की जनभाषा का रूप ले रही है। नुकसान यह हुआ है कि इसमें विचार को धारण करने का सामर्थ्य कम होता जा रहा है। लेकिन इस संबंध में फिलहाल कोई निष्कर्ष निकालना ठीक नहीं है। यह समय संक्रमण का है-बाजार के बीच ही सही, व्यापक जनभाषा का रूप लेने से इसमें अभी नए पेच और खबनेंगे और यह अभी और नया रूप धारण करेगी। आज तक] स्टार न्यूज और डिस्कवरी पर हिन्दी के इस नए रूप की झलक अभी से देखी जा सकती है। हिन्दी के इस कायांतरण से गत दस-पंद्रह सालों के हिन्दी साहित्य की भाषा में भी असाधारण बदलाव आया है। यह अब पहले जैसी ठोस और ठस साहित्यिक भाषा नहीं रही। यह अब जनसाधारण की बोलचाल की बाजार की भाषा के निकट आ गई है। विख्यात कहानीकार उदयप्रकाश ने एक जगह स्वीकार किया कि ''इधर हिन्दी में कई लेखक उभरकर आए हैं जो बाजार की भाषा में लिख रहे हैंऔर उनके विचार वही हैं, जो हमारे हैं। मुझे लगता है कि हम लोगों को भी जो उन मूल्यों के पक्ष में खड़े हैं, जिन पर आज संकट की घड़ी है, अपना एक दबाव बनाने के लिए बाजार की भाषा को अपनाना पड़ेगा।'' यह बदलाव केवल साहित्य के गद्य रूपों की भाषा में ही नहीं, कविता की भाषा में भी हुआ है। यहां आग्रह अब सरलता का है और इसमें बोलचाल की भाषा की नाटकीयता एवं तनाव का रचनात्मक इस्तेमाल हो रहा है।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों और मीडिया ने हमारे देश में संस्कृति को उत्पाद और उद्योग में बदलकर उसका जो बाजारीकरण किया उसका एक लाभ यह हुआ है कि इसका उपयोग पहले की तरह अब कुछ वर्गों तक सीमित नहीं रहा। इसके उपभोग में जाति, धर्म, संप्रदाय और लैंगिक भेदभाव समाप्त हो गया है। साहित्य भी संस्कृति का एक रूप है, इसलिए इलेक्ट्रोनिक मीडिया के प्रसार के साथ हमारे देश में इसका भी व्यापक और त्वरित गति से जनतंत्रीकरण हुआ है। इस कारण हमारे यहां पिछले दस-पंद्रह सालों के दौरान साहित्यिक अभिव्यक्ति और इसके उपभोग की आकांक्षा समाज के सभी वर्गों में खुलकर व्यक्त हुई है। इस दौरान भारतीय भाषाओं के साहित्य में दलित वर्ग के कई साहित्यकारों ने अपनी अलग पहचान बनाई। हिन्दी में भी इस दौरान दलित विमर्श मुख्य धारा में आया। दलित वर्ग की तरह ही इधर साहित्य में अपनी अस्मिता के प्रति सचेत स्त्री रचनाकारों ने भी बड़ी संख्या में उपस्थिति दर्ज करवाई है। अंग्रेजी और हिन्दी की लगभग सभी लोकप्रिय और साहित्यिक पत्र -पत्रिकाओं ने इस दौरान स्त्री रचनाओं पर विशेषांक प्रकाशित किए हैं। साहित्य के जनतंत्रीकरण का एक और लक्षण गत कुछ वर्षों की हिन्दी की साहित्यिक सक्रियता में खास तौर पर लक्षित किया जा सकता है। पहले हिन्दी की साहित्यिक सक्रियता और प्रकाशन के केन्द्र महानगरों में होते थे। अब ये वहां से शहरों, कस्बों और गांवों में फैल गए हैं। सूचनाओं की सुलभ्के कारण दूरदराज के कस्बों-गांवों के रचनाकार आत्म विश्वास के साथ हिन्दी के समकालीन साहित्यिक विमर्श का हिस्सा बन रहे हैं और अपनी पहचान बना रहे हैं।
बहुरष्ट्रीय कंपनियां और मीडिया हमारे देश में बहुराष्ट्रीरीय पूंजी के नियंत्रण और निर्देशन में जिस उपभोक्तावाद और आर्थिक-सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का प्रसार कर रहे हैं उसका प्रतिरोध मुख्यतया हमारे साहित्य में ही हो रहा है। यू.आर. अनंतमूर्ति ने पिछले दिनों एक जगह कहा था कि ''जैसे टेलीविजन वाले करते हैं वैसे हमें नहीं करना चाहिए। हमें रेसिस्ट करना है, डिसक्रिमीनेट करना है।'' इस प्रतिरोध के कारण गत दस-पंद्रह सालों के हमारे साहित्य के सरोकारों और विषय वस्तु में बदलाव आया है। हिन्दी में भी यह बदलाव साफ देखा जा सकता है। मनुष्य को उसके बुनियादी गुण-धर्म और संवेदना से काटकर महज उपभोक्ता में तब्दील कर दिए जाने की प्रक्रिया का खुलासा करने वाली कई कविताएं इस दौरान हिन्दी में लिखी गई हैं। इसी तरह आर्थिक-सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के दुष्परिणामों पर एकाग्र उपन्यास और कहानियां भी हिन्दी में कई प्रकशित हुई हैं उपभोक्तावाद और आर्थिक-सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के विरुद्ध प्रतिक्रिया इस दौरान हिन्दी कविता में पलायन की नई प्रवृत्ति के उभार में भी व्यक्त हुई है। कई कवि इस नई स्थिति से हतप्रभ और आहत होकर घर-गांव की बाल किशोरकालीन स्मृतियों में लौट गए हैं। इस कारण इधर की हिन्दी कविता में कहीं-कहीं वर्तमान यथार्थ से मुठभेड़ की जगह स्मृति की मौजूदगी बढ़ गई है।
मीडिया अपनी प्रविधि और खास चरित्र से पारंपरिक साहित्य की शिल्प प्रविधि को भी अनजाने ढंग से प्रभावित कर बदलता है। साहित्यकार मीडिया का उपभोक्ता है इसलिए अनजाने ही उसकी कल्पनशीलता इससे प्रभावित होती है। इसके अनुसार उसका अनुकूलीकरण होता है। हमारे यहां खास तौर पर टीवी के कारण साहित्य की प्रविधि और शिल्प में जबर्दस्त बदलाव हुए हैं। दस-पंद्रह सालों के हिन्दी साहित्य में इस कारण दॄष्य का आग्रह बढ़ गया है-यहां वर्णन पहले की तुलना में कम, दृष्य ज्यादा आ रहे हैं। इसी तरह पाठक अब पहले से सूचित है और पहले से ज्यादा जानता है, इसलिए इधर की रचनाओं में सूचनाएं कम हो गई हैं या असाधारण सूचनाएं बढ़ गई हैं। टीवी के प्रभाव के कारण ही हिन्दी में लंबी कहानियों और उनके एपिसोडीकरण की प्रवृत्ति बढ़ी है। साहित्य की पारंपरिक तकनीक रोचकता और रंजकता के पारंपरिक उपकरण ओवर एक्सपोजर से बासी हो गए हैं, इसलिए इधर के हिन्दी साहित्य में इनके विकल्पों के इस्तेमाल की सजगता दिखाई पड़ती है। रचनाकार पुराकथाओं या मिथकों की तरफ लौट रहे हैं और वर्णन की पुरानी शैलियों का नवीनीकरण हो रहा है। मीडिया ने पारंपरिक साहित्य में एक और खास तब्दीली की है। गत दस-पंद्रह सालों के दौरान साहित्यिक विधाओं का स्वरूपगत अनुशासन ढीला पड़ गया है। इनमें परस्पर अंतर्क्रिया और संवाद बढ़ रहा है। इसका असर हिन्दी में भी दिखाई पड़ने लगा है। इसकारण हिन्दी में उपन्यास आत्मकथा की शक्ल और आत्मकथा उपन्यास की शक्ल में लिखे जा रहे हैं। कहानियां पटकथाएं लगती हैं और संस्मरण कहानी के दायरे में जा घुसे हैं। इसी तरह हिन्दी कविता ने भी अपने पारंपरिक औजारों का मोह लगभग छोड़ दिया है। यह अधिकांश बोलचाल की भाषा के पेच और खम के सहारे हो रही है।
ग्लॉबलाइजेशन और मीडिया विस्फोट के इस दौर में साहित्य का नया रूप क्या होगा, यह अभी तय करना मुश्किलकिल काम है। यह तय है कि इसके कुछ रूप खत्म हो जाएंगे और कुछ पूरी तरह बदल जाएंगे। इस पर कुछ लोग रोएंगे-धोएंगे और स्यापा करेंगे, लेकिन यह सब नक्कारखाने में तूती की आवाज की तरह दब जाएगा।
No comments:
Post a Comment