Sunday 22 January, 2012

किताब से कट्टी

बात अभी गत सदी के सातवें और आठवें दशक की है। टीवी की चर्चा तो शुरू हो गई थी, लेकिन अभी यह पूरी तरह आया नहीं था और बच्चों के पास अपनी दुनिया से बाहर झांकने का साधन केवल किताबें थीं। बच्चों मे किताबों के लिए दीवानगी इस दौरान इस हद तक थी कि पराग, नंदन, चंपक और चंदामामा जैसी पत्रिकाओं की गांव-कस्बों और शहरों घर-स्कलों में बेसब्री से प्रतीक्षा होती थीं और इनके पहुंचने पर वहां माहौल उत्साह, सनसनी और उत्तेजना का होता था। ये कई हाथों से गुजरती थीं और इन्हें दुबारा तो कभी तिबारा पढ़ा जाता था। इनके लिए बच्चे लड़ते-झगड़ते थे और नए अंक आने तक इनकी हालत अक्सर लीर-चीर हो जाती थी। इनकी रंगीन पारदर्शिया, किस्से-कहानियां, कविताएं और लेख बच्चों को सपनों की दुनिया में ले जाते थे। इनको पढ़कर बच्चों को अपने घर-गांव, हाट-बाजार, खेत-खलिहान, नदी-पहाड़ और जंगल-जानवर नए और अनोखे लगने लगते थे।

किताबों से बच्चों की गहरी और मजबूत दोस्ती में दरार गत सदी के अंतिम दशक में तब पडना शुरू हुई, जब टीवी आया और विस्फोटक ढंग से एकाएक सब जगह फैल गया। किताबें और पत्रिकाएं अब पहले से ज्यादा हो गई हैं, इनमें रंगीन पारदर्शियां और चित्र भी बढ़ गए हैं, सामग्री भी पहले से अधिक और विविधतापूर्ण है, लेकिन बच्चों में इनके लिए कोई खास उत्साह नहीं है। किताबें अब पहले की तरह उनको अपनी दोस्त नहीं लगतीं क्योंकि एक तो टीवी के कैदी हो गए है और दूसरे, टीवी की आदत से उनका किताबों का जायका खराब होने लग गया है।

बच्चों के पास अब किताबों के लिए समय नहीं के बराबर है। पहले की बात अलग थी- खेलकूद और पढ़ाई-लिखाई के बाद बचे समय में किताबें ही बच्चों की संगी-साथी होती थीं। अब इस ज्यादातर समय पर टीवी का कब्जा हो गया है। विशेषज्ञ टीवी ‘प्लग इन ड्रग’ कहते हैं। मतलब यह कि स्विच दबाओं और नशीली दवा खाओ। यो तो टीवी का नशा अब बड़ों-बूढ़ों, सभी को अपनी गिरफ्त में ले चुका है, लेकिन बच्चों के संबंध में तो प्लग इन ड्रग की बात अक्षरशः सही साबित हो रही है। बच्चे फिलहाल टीवी की रंग-बिरंगी और चकाचौंध वाली दुनिया के सम्मोहन के शिकार हैं। यह सम्मोहन खतरनाक ढंग से वर्चस्वकारी है। इसने बच्चों को केवल किताब से ही नहीं, शेष सब से भी काटकर केवल अपना बना लिया है। बच्चे जब इसके सामने होते हैं, तो इस तरह इसके साथ होते हैं कि उन्हें और कुछ अच्छा नहीं लगता।

टीवी के आने से पहले तक किताबों से बच्चों की अंतरंगता इसलिए थी कि इनमें बहुत कुछ नया और अनजाना होता था, जो उन्हें विस्मित और आह्लादित करता था। अब टीवी ने सब एक्सपोज कर दिया है और किताबों के पास नया, अनजाना और गोपन बहुत कम रहता है। जब टीवी नहीं था, तो बच्चों की दुनिया आज जितनी बड़ी और विविधता पूर्ण नहीं थी। उनके मन-मस्तिष्क में अपने घर-गांव या शहर के आसपास के बिंब और जानकारियां होती थीं। इस छोटी-सी दुनिया में जब किताबें कुछ ईजाफा करती थीं, तो बच्चे आह्लाद और रोमांच से भर जाते थे। अद्भुत कहानियां, जानकारियां और नयी रंगीन पारदर्शियां उन्हें चंकित करती थीं। वे यह सब देख-पढ़कर गर्वित महसूस करते थे। अब किताबों में नया जोड़ने की कुव्वत कम होती जा रही है। टीवी की निगाह बहुत पैनी है और वह बहुत जल्दी, बहुत दूर तक जाती है इसलिए इसके अभ्यस्त बच्चों को अब पहले से ही सब पता है। ऐसी स्थिति में बच्चों की किताबों की दुनिया बासी और पुरानी लगती है और वे इससे न चकित अनुभव करते है और न ही यह उन्हें आह्लादित कर पाती है।

टीवी ने बच्चों की आदत इस तरह खराब कर दी है कि अब वे किताब में पढ़कर शब्द से देखने का रोमांच और आह्लाद महसूस नहीं कर पाते। टीवी में सब दिखता है, इसलिए शब्द उनके भीतर दृश्य में नहीं बदलता। किताब के शब्द बच्चों को देखने के लिए मुक्त करते थे। वे पढ़ते थे नदी, तो उनकी कल्पना एक नदी गढ़ देती थी। वे पढ़ते पहाड़ तो फिर कल्पना के सहारे वे अपने बनाए पहाड़ के शिखर पर जा खड़े होते थे। बच्चे इसी तरह लिलिस्म बनाते थे, खेत-खलिहान रचते थे और राजा-रानी गढ़ते थे। शब्द उनके मन-मस्तिष्क में धीरे-धीरे खुलता था और कल्पना के पंखों पर सवार होकर दृश्य की उड़ान भरता था। अब केवल दृश्य की आदत हो गई है। पहले गांव की नदी थी, पड़ोस का पहाड़ था और ज्यादा हुआ तो कभी कहीं देखा हुआ झरना था पर अब तो मन-मस्तिष्क में दृश्यों की भरमार है। अब शब्द दृश्य की यात्रा पर निकलने की तैयारी में ही हांफ जाते हैं। कल्पना भी अब दूर तक नहीं जाती-उसके पंख उड़ते ही दृश्यों के बोझ से भारी होकर जमीन पर धूल चाटने लगते हैं।

टीवी की आदत और नशे के कारण बच्चों को अब किताबों की दुनिया अपनी नहीं लगती। जब टीवी नहीं था, तो किताबों की दुनिया से बच्चों का रिश्ता ऐंद्रिक और बहुत कुछ नजदीक का था। उनकी कल्पना की पतंग को दूर तक उड़ान भरने की छूट थी, लेकिन उसकी डोर का आखिरी सिरा तो उनके घर-गांव या शहर के अपने यथार्थ से बंधा रहता था। वे पढ़ते थे बाजार, तो अक्सर अपनी ही गली-मोहल्ले से सटा हाट-बाजार ही नया रूप धर कर उनकी कल्पना में आ बैठता थ। वे जब मंदिर के बारे में पढ़ते थे, तो अपने गांव-कस्बे या शहर के मंदिर की घंटियां उनके कानों में गूंजने लगती थीं। किले का नाम आते ही वे अपने देखे-जाने किले की घुमावदार सीढियों पर जा खड़े होते थे। अब किताब की दुनिया से बच्चों का यह ऐंद्रिक रिश्ता खत्म हो रहा है। टीवी ने बच्चों को अपने आसपास में काट दिया है और उनके मन-मस्तिष्क को अजनबी और बेगानी दुनिया के गोदाम में तब्दील कर दिया है। अब वे कुछ पढ़ते हैं, तो अपना कम, बेगाना ज्यादा सामने आता है।

बच्चे प्लग इन ड्रग की हालत से बाहर आएंगे, फिलहाल इसकी गुंजाइश बहुत कम है। वे किताबों से पूरी तरह कट्टी कर लेंगे, इस संबंध में कोई निष्कर्ष निकालना भी जल्दबाजी होगी। इतना अवश्य है कि टीवी दोस्त नहीं हो सकता, क्योंकि दोस्ती दोतरफा होती है, जबकि टीवी एकतरफा है। किताबें दोस्त हो सकती हैं, लेकिन इसके लिए उनको अपना जायका बदलना पड़ेगा।

जनसत्ता के दुनिया मेरे आगे स्तंभ में 9 जनवरी, 2012 को प्रकाशित आलेख।

2 comments:

रोहित बिष्ट said...

I've experienced above said childhood with full of books,emotions & communication,but can't
say same thing about my sons.Totally agree with you that this so called era of 'digital revolution'
is making new generation 'perfect technocrat without heart'.Sorry for this comment in english
at present google transliteration is not working properly. With regard...

gaetanecadarette said...

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