मल्टी- मीडिया की दुनिया में मीरां का समाज और जीवन: बियॉन्ड पोस्टमॉर्डनिज़्म
रंजना अरगड़े
(1)
The face of scholarship has changed… It does not weigh heavy upon you, but
none the less is serious. It is beautiful, attractive and yet reliable!! It’s
different!
सतरंग भेस और नौरंग चूनर में अगर "पचरंग चोला" आपके सामने उपस्थित हो तो उससे प्रभावित हुए बिना तो रहा
नहीं जा सकता। एक कौतुक आपके भीतर जागता है। इतना बढ़िया पैकेजिंग है कि आप उसे
खोले बिना नहीं रहे सकेंगे। ऐसी बहुत सी
बातें होती हैं जिन्हें हम सैद्धांतिक रूप से काफी पहले से और अपनी समझ में बहुत
बेहतर जानते हैं; लेकिन उससे साक्षात्कार का क्षण तो अलग ही होता है। उत्तर आधुनिकता
के अनेक लक्षण गिनाए गए हैं, उन लक्षणों में बुक बाईडिंग का भी उल्लेख एक लक्षण के
रूप में किया गया है। उसका जादू क्या होता है यह तो माधव हाड़ा की इसी वर्ष (2015)
वाणी प्रकाशन, नयी
दिल्ली से प्रकाशित और बहु चर्चित पुस्तक पचरंग चोला
पहर सखी री का कवर और बाईंडिंग देख कर मालूम हुआ। इस पुस्तक का चोला सुंदर
है। लेकिन केवल सुंदर ही नहीं है, इसके संदर्भ में एक बात गौर करनी चाहिए। उस पर
जो मीरांबाई का चित्र है वह मीरां की परंपरागत स्वीकृत सन्यासिनी जैसी छवि से हट
कर एक सामान्य रूप से प्रचलित सामन्त स्त्री के समान है। इस पुस्तक में मीराँ को
लेकर इसी मुद्दे को विशेष भार दे कर, तथ्य जुटा कर, शोध-परक दृष्टि से रखा गया है।
यह उपक्रम शोधपरक है। इसे दर्शाते दोनों कवर पेज के लिए (आगे-पीछे के) पांडुलिपि
का चित्र पसंद किया गया है, कागज़ का रंग भी उसी तरह का है। अनेक प्राचीन पांडुलिपियां
चित्र वाली भी मिलती हैं। फिर यह पांडुलिपि का कवर पेज मीरां से संबंधित ही है। उत्तर
आधुनिक समय में जहाँ विभिन्न विधाएं एक दूसरे में घुल मिल गयी हैं[i] वहाँ इस
पुस्तक के संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि बाईंडिंग के स्तर पर, एक उत्पाद के
पैकेजिंग के स्तर पर सृजनात्मक पुस्तक और आलोचनात्मक पुस्तक एक दूसरे में घुल गए
से लगते हैं। पुस्तक देख कर पहले यही लगता है कि कोई उपन्यास-नुमा आत्म-कथ्य होगा।
कम-से-कम आलोचना की पुस्तक तो नहीं ही लगती है। मीरां का जीवन और समाज पढ़ कर कुछ
संदेह जागता है कि आलोचना की पुस्तक भी हो सकती है, पर उसका रूप-रंग इस संदेह को
मिटा देता है। लेकिन....।
पुस्तक के अनुक्रम पर भी विचार करना चाहिए। मीरां के जीवन
और समाज पर लिखी यह पुस्तक मीरां के पाठ के विभिन्न संदर्भ हमारे सामने खोलने का
उपक्रम करती है। इसीलिए इसमें क्रमशः निम्नलिखित संदर्भ खुलते हैं- जीवन / समाज /
धर्माख्यान / कविता / कैननाइजेशन / छवि निर्माण। इस अनुक्रम के दो भाग हैं। पहले
में जीवन/समाज और कविता तथा दूसरा भाग है धर्माख्यान/ कैननाइज़ेशन और छवि निर्माण।
डेढ़ सौ पृष्ठ की कुल यह पुस्तक है जो यह दावा करती है कि इसमें उन संदर्भों को
शामिल किया गया है जिन पर इसके पूर्व कुछ कहा नहीं गया है। इस किताब का स्वाद अलग
और नया है। हिन्दी की पारम्परिक ठोस-ठस आलोचना से अलग इतिहास आलोचना और आख्यान के
मिले-जुले आस्वाद वाली यह किताब उपन्यास की तरह रोचक और पठनीय है। खास बात यह है
कि इसे कहीं से भी पढ़ा जा सकता है।(हाडा फ्लैप से) शायद यही इसकी समस्या भी है कि इसे कहीं
से भी पढ़ा जा सकता है।
हालांकि पुरुषोत्तम अग्रवाल की कबीर पर लिखी पुस्तक और इस
पुस्तक की तुलना करने का यहाँ कोई औचित्य नहीं है पर वह पुस्तक याद इसलिए आयी कि
वह भी एक मध्यकालीन संत कवि पर लिखी पुस्तक है। लेकिन माधव हाड़ा की यह पुस्तक
विमर्श केन्द्री है और अग्रवाल की पुस्तक विचारधारा केन्द्री है। पुरुषोत्तम अग्रवाल
ने कबीर के समाज और समय पर जो और जितना भी कहा पर पुस्तक के केन्द्र में संत कवि कबीर है। किन्तु हाड़ा की इस पुस्तक के केन्द्र में मीरां का समाज है, मीरां
का जीवन है, सब कुछ है पर मीरां की कविता नहीं है। शायद यह लेखक का आशय भी नहीं
है। पुस्तक के छहों अध्यायों में यह बात
अलग-अलग ढंग से अनेक बार कही गयी है। यह सवाल इसलिए होता है कि क्या लेखक केवल इस
बात के कारण मीरां के समाज पर बल दे रहा है कि अभी तक किसी ने उस ढंग से मीरां के समाज
को नहीं देखा जिस तरह माधव हाड़ा ने इस पुस्तक में देखा है? कई बार आलोचना अथवा
रचना का जन्म आइडेंटिटि क्राइसिस के कारण होता है तो कहीं आइडेंटिटी करेक्शन इसका कारण होता है - इस
पुस्तक के साथ भी कहीं ऐसा तो नहीं है?
इस पुस्तक का अनुक्रम भी विलक्षण है। इसमें कैननाईज़ेशन नामक
एक अध्याय है।[ii]
साहित्य में जब कैननाइजेशन शब्द का प्रयोग होता
है तब प्रायः इसका तात्पर्य कला के क्षेत्र से संबंधित सर्व-स्वीकृत नियमों
के अर्थ में ही लिया जाता है; पर यहाँ उसका अर्थ प्रलेखन तथा धर्म से संबंधित है, मीरां
के गौरवान्वित किए जाने से है। मीरां के विषय में जो प्रलेखन प्राप्त हैं,
डॉक्यूमेंटेशन हैं उससे संबंधित है। यह पुस्तक साहित्य से संबंधित होने के कारण
पहला अर्थ पहले ध्यान में आता है, पर उस अर्थ को एक ओर रख कर के दूसरे अर्थ को
स्वीकारना पड़ता है।[iii]
इस तरह का शीर्षक देना अपने आप में लाक्षणिक है। पहली बात तो इसलिए कि इससे जो
अर्थ-ध्वनियाँ निकलती हैं उसके लिए संभवतः हिन्दी में कोई शब्द नहीं है। भाषा के
प्रयोग का यह एक उत्तर आधुनिक नज़रिया[iv] है।
सूचना-प्रौद्योगिकी उत्तर आधुनिकता का एक लक्षण है। इस
पुस्तक का एक फेस-बुक पेज भी है। जिसमें इसके संबंध में छपी अनेक समीक्षाएं लेखक
का साक्षात्कार, मीरां पर लिखी अन्य एक पुस्तक की जानकारी मिलती है। विभिन्न ब्लॉग्स
पर लिखी तथा प्रिंट- मीडिया में लिखी ये समीक्षाएं क्लिक भर की दूरी पर उपलब्ध है।
प्रस्तुति का यह तरीका भी तो उत्तर -आधुनिक है। कहने का तात्पर्य यह है कि पहली
बार कोई आलोचना की पुस्तक अपने उत्तर –आधुनिक‛वेश’- स्वरूप में हिन्दी के पाठकों
तक आयी है। आलोचना को रचनात्मकता की भूमिका पर लाना वैसा ही है जैसे अनुवाद को भी
रचना का सम-स्थानीय मानना होता है और यह भी उत्तर आधुनिकता का एक लक्षण है।
मीरां के संदर्भ में जो चित्र कथाएं मिलती हैं उनके भी
नमूने माधव हाड़ा ने छवि निर्माण वाले अध्याय में दे कर उत्तर आधुनिक आलोचना का एक
नूतन उदाहरण प्रस्तुत किया है।
(2)
इस पुस्तक को पढ़ कर कहा जा सकता है कि माधव हाड़ा की दो
प्रमुख चिंताए हैं। पहली यह कि मीरां का समाज गतिशील समाज था और दूसरी मीरां एक
सामान्य सामंत स्त्री थी। मीरां के समय में सामान्य सामन्त स्त्रियाँ ऐसी ही होती रही
होंगी। वह न संत थीं न भक्त पर जैसे कोई भी सामन्त विधवा स्त्री अपना जीवन यापन
करती रही होगी, मीरां ने उसी प्रकार अपना जीवन यापन किया। उन्होंने दो शब्दों का
प्रयोग किया है- आत्मचेता और स्वावलंबी। मीरां के समय में स्वावलम्बन का अर्थ जो
हो सकता है यानी स्वयं कमाना नहीं अपितु स्वयं के नाम संपत्ति होना। ऐसे समय में
जब इतिहास लेखन स्वयं संदेह के घेरे में हो तब पूर्ववर्ती इतिहास संदर्भों के
बरक्स किए हैं जो नए संदर्भ हाड़ा ने प्रस्तुत किए हैं वे अगर अधिक सही भी हों तो
भी कुछ प्रश्न हमारे सामने खड़ा करते हैं। टॉड ने मीरां को गौरवान्वित किया, यह
सही हो सकता है पर टॉड ने जब यह किया तब भारत में स्त्री को लेकर क्या नज़रिया था,
यह भी देखना चाहिए। हाड़ा ने इसकी यथेच्छ चर्चा की है। उपनिवेशवादी दृष्टि से मुक्त
हो कर अपने ढंग से अपना इतिहास देखना यह तो इस नए दौर की दृष्टि सत्य है ही, परन्तु
एक बात का जवाब हमें देना ही होगा कि अगर मीरां बहुत सामान्य थी तो क्या ऐसी मीरां
को हम स्वीकारेंगे? मीरां के समय का समाज तो हाड़ा ने अत्यंत शोध परक दृष्टि से
हमारे सामने रखा है। पर आज का हमारा समाज इतना उदार तो नहीं है। मीरां को जो
गौरवान्वित किया है उस चोले को हटा दिया जाए तो मीरां की स्वीकृति क्या आज भी हो
सकती, ख़ास कर जिस परिवार और परिवेश में मीरां रहती थी। इसका अर्थ यह तो नहीं कि मीरां
चूंकि गौरवान्वित की गयी है, तभी स्वीकृत हो सकती है। हाड़ा ने मीरां के मूल्यांकन
के लिए जो नए संदर्भ प्रस्तुत किए हैं उनसे मीरां के काव्य को देखने की नई दृष्टि दे
सकेंगे?
मीरां के जीवन के संदर्भ में हाड़ा ने कुछ महत्वपूर्ण विधान किए
हैं-
1-
मीरां का बाल्यकाल बड़े कुटुम्ब और एक भर्-पूरे परिवार के बीच लगभग सुखपूर्वक
व्यतीत हुआ।(22)
2-
मीरां का आरंभिक वैवाहिक जीवन कुछ मामूली प्रतिरोधों और दैनंदिन
ईर्ष्या-द्वेषों के अलावा कमोबेश सुखी था।(25)
3-
मीरां सामन्त स्त्री थी और अपने जीवनकाल में ही लोक में प्रसिद्ध हो गयी थी।(29)
4-
विवाहोपरान्त मीरां सर्वथा असहाय और सुरक्षित नहीं थी । उसके आर्थिक
स्वावलंबंन का प्रबंध था और उसे कुछ हद तक पारम्परिक सामाजिक सुरक्षा भी प्राप्त
थी। (29)
5-
मीरां का अधिकांश विधवा जीवन कष्टमय और घटनापूर्ण था। बताया है कि उनका बचपन
सुखमय था, वैवाहिक जीवन भी भरा- भरा ही रहा ।(30)
6-
मीरां के सती न होने को लेकर नाराज़गी और निंदा का भाव तब और बढ़ गया होगा जब
उसके सामने उसके देवर रत्नसिंह की मृत्यु पर उसकी चार में से तीन पत्नियां-
रेणुकँवर, सांखला रत्नकँवर और हाड़ा कँवराबाई सती हुईँ। इस नाराज़गी ,
निन्दा-भर्त्सना और उपेक्षा अवहेलना के कारण मीरां अन्तःपुर में एकाकी होकर
अधिकाधिक भक्ति का आश्रय लेने लगी होगी।(31)
मीरां के जीवन संबंधी उपरोक्त तथ्य इस बात को समझने में सहायरूप होते हैं कि मीरां
का समग्र जीवन कष्टमय नहीं था।
मीरां के कैननाइजेशन की बात उठाना मीरां
के जीवन को समझने के लिए एक नया दृष्टिकोण बनाता है। कर्नल टाड के संदर्भ इस अर्थ
में महत्वपूर्ण है कि किसी मध्यकालीन कवि को देखने के लिए इस तरह की छानबीन कर के
नई भूमि तैयार की जा सकती है। यह पुस्तक इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि मीरां की
धार्मिक छवि, उपनिवेशी छवि, मार्क्सवादी छवि और स्त्रीवादी छवि के अलावा एक नयी
आइडेंटिटि के साथ मीरां हमारे सामने
उपस्थित होती है।
लेखक के इस नए विमर्श को ध्यान से सुनने की आवश्यकता है, क्योंकि यह संभवतः
केन्द्र और परिधि के समीकरणों को बदलने का उपक्रम करता है।
[i]और कई बार यह तय करना मुश्किल हो जाता
है कि कहानी कहें या निबंध। नई कहानी के प्रणेताओं में से एक निर्मल वर्मा की बाद
की कहानियाँ निबंध के समान लगती हैं।
[ii]इस शब्द के दो प्रमुख अर्थ इस प्रकार से हैं जैसे-
1- कला के
क्षेत्र में सर्व स्वीकृत ऐसे नियम, सिद्धांत या मापदंड जो किसी भी प्रकार के
प्रश्नों से परे हों, जो स्वतः स्पष्ट हों और सभी के लिए समान रुप से बंधन कर्ता
हों।
2- गौरवान्वित करना। जिसका संबंध चर्च (मंदिर) अथवा
पादरी(पंडों) से है जो धार्मिक हाँ और जो धर्म निरपेक्ष नहीं है अथवा जिसका संबंध
कार्यालय के प्रलेखन (डॉक्यूमेंटेशन) से है।
[iii]अभिधेयार्थ को छोड़ कर व्यंग्यार्थ को स्वीकारना पड़ता है।
[iv]देरिदा के यहाँ अपने तर्क को प्रस्तुत करने के लिए इसी
प्रकार के प्रयोग देखे जा सकते हैं.
समीक्षित पुस्तक: पचरंग चोला पहर सखी री (मीरां का जीवन और समाज): वाणी
प्रकाशन, 4695, 21-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली-110002; संस्करण 2015, मूल्य: रु.375,
पृष्ठ 166
संपर्क: अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, गुजरत विश्वविद्यालय, अहमदाबाद
मो.+91 9426700943 e-mail: argade_51@yahoo.co.in
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