Wednesday, 7 February 2018

नेहरू का रास्ता



जीवन दृष्टि और राजनीतिक विचार के मामले में नेहरू और गांधी का रवैया एकदम भिन्न किस्म का था। गांधी का सुसंगत विचार-प्रणाली और जीवन दृष्टि के साथ सार्वजनिक जीवन में उतरे, जबकि नेहरू ने सार्वजनिक जीवन में रहकर उसके अनुभवों से ही अपनी जीवन दृष्टि और राजनीतिक विचारों का विकास किया। इस कारण नेहरू के राजनीतिक विचारों में वैसी सुसंगति और दृढ़ता नहीं है, जैसी गांधी में हैं। किसी विचार प्रणाली को अन्तिम मानकर उस पर कायम रहने को नेहरू गलत मानते थे। दुनिया में हालात जिस तेज रफ्तार से बदल रहे थे, उनके अनुसार, विचारों में गतिशीलता नेहरू को जरूरी लगती थी। उन्होंने साफ लिखा कि- विचार स्थिर कर लेना या सन्तुष्ट हो जाना ज्यादा सुविधाजनक भले ही हो सकता है, लेकिन निश्चय ही यह प्रशंसनीय नहीं हो सकता, क्योंकि यह केवल जड़ता और सड़ांध की तरफ ले जाता है। तयशुदा विचार प्रणालियों से भी नेहरू प्रभावित हुए। उन्होंने इनके अनुसार अपने राजनीतिक विचारों और आचरण को ढालने की कोशिश भी की। खासतौर पर गांधीवाद, पूंजीवाद और समाजवाद-साम्यवाद को उन्होंने अलग-अलग दौर में इस महादेश की समस्याओं के समाधान के लिए ठीक पाया, लेकिन वे इनमें से किसी को भी पूरी तरह स्वीकार नहीं कर पाए। आजादी से पहले और बाद में इस महादेश के जो हालात थे उसकी रोशनी में ये सभी विचार-प्रणालियां उनकी कमोबेश अधूरी लगीं। वे आजीवन इस महादेश की समस्याओं के समाधान के लिए अपनी तरह का रास्ता खोजते रहे। उनमें राजनीतिक विचारों का अन्तर्संघर्ष अन्तिम समय तक जारी रहा। क्या आजादी के लिए संघर्ष और देश निर्माण के काम के अपने लंबे अनुभव के बाद भी नेहरू किसी अंतिम निष्कर्ष तक तक नहीं पहुंचे? इस सवाल का कुछ जवाब 1958 में छपे उनके एक आलेख बुनियादी रास्तामें हैं। इस आलेख में इस महादेश की अद्वितीय समस्याओं का, इसकी अपनी परिस्थितियों के अनुसार, समाधान पाने के लिए जद्दोजहद साफ दिखाई पड़ती है।
गांधी के तौर-तरीकों के संबंध में नेहरू का नजरिया बदलता रहा। इससे संबंधित अपनी पसंद- नापसन्द को उन्होंने जब-तब जाहिर भी किया। खासतौर पर तीसरे दशक में और आगे चलकर आजादी से ठीक पहले गांधी से उनके मतभेद बहुत बढ़ गए थे। हिन्द स्वराजके अवधारणात्मक ढांचे पर गांधी 1945 में भी कायम थे, जबकि नेहरू को इसके बहुत से विचार दकियानूसी और गुजरे जमाने के लगते थे। गांधी ने नेहरू को अपना उत्तराधिकारी बनाया, लेकिन यह सही है कि उन्हें अपने अनुसार ढालने से वे कामयाब नहीं हुए। यह जरूर है कि गांधी का कुछ प्रभाव नेहरू की शख्सियत और राजनीतिक विचारों पर हुआ। शुरूआती दिनों में यह असर खासा गहरा भी था। नेहरू ने इसे स्वीकार करते हुए लिखा कि- ‘‘मैने अहिंसा के सिद्धान्त को सोलहों आने नहीं मान लिया था, या हमेशा के लिए नहीं अपना लिया था, लेकिन हां, वह मुझे अधिकाधिक अपनी तरफ खींचता चलता जाता था और यह विश्वास मेरे दिल में पक्का बैठ जाता था कि हिन्दुस्तान की जैसी परिस्थिति बन गयी है, हमारी जैसी परम्परा और संस्कार हैं, उन्हें देखते हुए यही सही नीति हैं, लेकिन जल्दी ही नेहरू की राय बदल गई। 1927 में ब्रुसेल्स में हुए उत्पीड़ित जातियों की कांग्रेस में शामिल होने और दो-तीन दिन के रूस प्रवास के बाद तो उन्हें पूरी तरह विश्वास हो गया कि गांधी के प्रचलित तौर-तरीके गलत हैं। 1945 में उन्होंने देश का भविष्य तय करने में गांधीवादी तौर-तरीकों पर अमल करने से साफ मना कर दिया। आजादी के बाद देश के निर्माण और विकास के काम में अपने तजुर्बे से नेहरू ने बहुत सीखा। समाजवादी तरीके को अमल में लाने की व्यावहारिक दिक्कतों से रूबरू होने के बाद इसके बारे में उनकी राय थोड़ी बदली। समाजवाद और खास तौर पर उसके साम्यवादी तरीके में जो हिंसा है उसको लेकर असमंजस तो उनके मन में शुरू से ही था, लेकिन आजादी के एक दशक बाद उनको साफ लग गया कि इस मामले में गांधी सही थे। उन्होंने बुनियादी रास्तामें लिखा कि हिंसा के रास्ते आज की किसी भी बड़ी समस्या का समाधान मुमकिन नहीं है, क्योंकि हिंसा का स्वरूप अत्यन्त भीषण और संहारक हो गया है। गांधी की ही तरह वे भी इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि गलत साधनों से सही नतीजे नहीं प्राप्त किये जा सकते और अब यह सिर्फ नीति सम्भव मान्यता नहीं है, बल्कि व्यवहार सम्मत उक्ति भी है।
नेहरू अपनी शिक्षा के दौरान इंण्लैण्ड में यूरोप की भौतिक समृद्धि और उदारवादी जनतान्त्रिक विचारों के साथ-साथ फेबियन समाजवादियों से भी प्रभावित हुए। देश लौटने के बाद राष्ट्रीय आन्दोलन में भागीदारी करते हुए नेहरू ने अपनी कोई राजनीतिक लाइन तय नहीं की। इन दिनों, जैसा उन्होंने खुद लिखा है, वे शुद्ध राष्ट्रीयतावादीथे। समाजवाद की तरफदारी और झण्डाबरदारी नेहरू ने 1927 के बाद शुरू की। बुसेल्स कान्फ्रेंस और रूस प्रवास के बाद जब वे मद्रास के कांग्रेस अधिवेशन में शामिल हुए, तो उनका नजरिया बिल्कुल बदला हुआ था। अपनी आत्मकथा में नेहरू ने इसका जिक्र करते हुए लिखा है कि- मेरा दृष्टि बिन्दु व्यापक हो गया है। और राष्ट्रीयता का लक्ष्य मुझे निश्चित रूप से तंग और नाकाफी मालूम होता था। इसमें कोई शक नहीं कि राजनीतिक स्वतन्त्रता लाजिमी थी, लेकिन यह तो सही दिशा में कदम भर है। जब तक सामाजिक आजादी न होगी तथा समाज का तथा राज का बनाव समाजवादी न होगा तब तक न तो देश की उन्नति कर सकता है, न उसमें रहने वाले लोग ही। तीसरे और चौथे दशक के दौरान नेहरू ने कांग्रेस और कांग्रेस से बाहर समाजवादी विचारों के प्रचार-प्रसार में खासी दिलचस्पी ली। उनकी शह पर कांग्रेस के भीतर ही अलग कांग्रेस समाजवादी पार्टी का गठन हुआ। कांग्रेस में समाजवादियों ने प्रभाव के बढ़ने के कारण गांधी को कांग्रेस से अलग होना पड़ा। समाजवादियों की तरफदारी करते हुए भी नेहरू पूरी तरह आश्वस्त और सन्तुष्ट नही थे। खास तौर पर साम्यवाद को लेकर दुविधा उनके मन में बराबर थी। 1929 में श्रीभगवत दयाल को एक पत्र में उन्होंने लिखा कि- जाति तौर पर उनके सिद्धान्तों की तरफ मेरा खिंचाव है, हालांकि उनके कितने तौर-तरीकों से मैं सहमत नहीं हूं और मुझे इसमें शक है कि उसके लिए हिन्दुस्तान कहां तक तैयार हो पाया हैं। अपने द्वारा कायम यूथ लीगों के दरवाजे भी उन्होंनें सभी तरह के राजनीतिक रुझान वाले लोगों के लिए खुले रखे। इस सम्बन्ध में उन्होंने एक पत्र में लिखा कि- ‘‘ये उन लोगों के लिए भी खुले हैं, जिनका रुझान साम्यवाद की तरफ है और उनके लिए भी जो साम्यवाद को शैतान की खास देन मानते हैं। ट्रेड यूनियन आन्दोलन में भी वे दक्षिणपंथियों और वामपंथियों के बीच समान रूप से लोकप्रिय थे। त्रिपुरा कांग्रेस के दौरान भी जब समाजवादी सुभाषचन्द्र बोस को त्याग पत्र देने के लिए विवश किया गया, तो नेहरू ने इस कार्यवाही का समर्थन नहीं किया, लेकिन उन्होंने खुलकर बोस की तरफदारी भी नहीं की।
तीसरे दशक में नेहरू साम्यवाद से गहराई तक प्रभावित हुए, सोवियत रूस की महान उपलब्धियों पर अभिभूत भाव से उन्होंने एक छोटी-सी किताब भी लिखी, लेकिन आजादी के बाद साम्यवाद से उनका मोहभंग हो गया। इसका खास कारण तो विश्व के बदले हुए हालात थे, लेकिन इसमें कुछ भूमिका गांधी के साथ नेहरू के लम्बे सहकर्म की भी रही। बुनियादी रास्तामें उन्होंने साम्यवाद के बारे में अपनी राय प्रकट करते हुए लिखा है कि- ‘‘यह रास्ता मैं निरा अवैज्ञानिक, अविवेकपूर्ण और असभ्य पाता हूं। इसके उन्होंने तीन कारण गिनाए- पहला यह कि यह जीवन के आध्यात्मिक और नैतिक पक्ष की अवहेलना करता है, दूसरा यह कि इसमें व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का दमन होता है और तीसरा यह कि इसका हिंसा के साथ मेल-मिलाप है। साम्यवाद से मोहभंग के बाद भी गरीबी के सवाल को राजनीति से जोड़ने का समाजवादी जज्बा नेहरू में आजादी के बाद भी बना रहा। हालांकि पश्चिम की भौतिक समृद्धि और उदार लोकतान्त्रिक विचार के बुनियादी संस्कार और विश्व के बदलते हालत के कारण पंजीवादी के बारे में नेहरू ने बुनियादी रास्तामें लिखा कि- पूंजीवाद ने जनतन्त्र को अपना कर अपनी अनेक बुराइयों को निष्प्रभ कर दिया है और दरअसल, अब यह वही नहीं है, जो एक या दो पीढ़ियों पहले था आगे उन्होंने और लिखा कि इन दोनों के बीच की दूरी कम होना तय है, क्योंकि समाजवाद के कई विचार एक-एक करके पूंजीवादी व्यवस्था में समाहित किये जा रहे हैं। पूंजीवाद की एक ही बात नेहरू को अखरती थी, वह यह कि ‘‘उसकी ताकतों पर अगर निगरानी नहीं रखी जाए, तो वे गरीब को और गरीब तथा अमीर को और अमीर बनाती है। इस मुद्दे पर नेहरू समाजवाद को अच्छा पाते थे, क्योंकि यह जानबूझ कर सामान्य प्रक्रिया में हस्तक्षेप करता है और इस तरह यह न सिर्फ उत्पादक शक्ति में कुछ जोड़ता है, बल्कि गैरबराबरी कम करता है।
इस तरह निरन्तर आत्मसंघर्ष और जद्दोजहद से गुजरकर नेहरू इस महादेश के विकास-उत्कर्ष के लिए जो बुनियादी रास्ता तय करते हैं, वो उनके अनुसार विकास के सभी तयशुदा रास्तों से अलग इस देश की परिस्थिति के अनुकूल नया रास्ता है। इसमें विकास के सभी प्रचलित रास्तों से कुछ-न-कुछ लिया गया है। गांधी गांवों की आत्मनिर्भरता के लिए विकेन्द्रीकरण को आवश्यक मानते थे, लेकिन नेहरू की राय इससे बिल्कुल भिन्न थी। उनके अनुसार इसका मतलब- उत्पादन के पुराने और किंचित आदिम तरीकों की और लौटना होगा, जिससे हमारी गरीबी और बढ़ेगी। नेहरू तेज रफ्तार के लिए आधुनिक तकनीक और ऊर्जा के नये स्रोतों के अधिकतम उपयोग को जरूरी समझते थे, क्योंकि इनके उपयोग से पश्चिमी देशों में भौतिक समृद्धि आई है। नेहरू इस संबंध में लिखते हैं कि- ‘‘गरीबी के इस दुष्चक्र से निकलने का और कोई रास्ता मुझे नजर नहीं आता, सिवा इसके कि हम ऊर्जा के नये स्रोतों का इस्तेमाल करें, जो विज्ञान ने हमारे हाथ में सौंपे हैं। नेहरू यह भी चाहते थे कि इस रास्ते पर चलकर जो समृद्धि आए, वो पूंजीवादी समाजों की तरह कुछ लोगों या तबकों तक ही सीमित नहीं रहे, उसके बराबर बंटवारे का कोई कारगर प्रबन्ध हो। विकास के काम के निरन्तर, सुनियोजित और सनतुलित ढंग से चलाने के लिए नेहरू एकीकृत राष्ट्रीय योजना को जरूरी मानते थे। योजना उनके अनुसार महज परियोजनाओं और कार्यक्रमों का जमावड़ा नहीं है, बल्कि इसका अर्थ तरक्की की रफ्तार और बुनियाद को मजबूत करने का सुविचारित तरीकाहै। नेहरू की विकास की इस अवधारणा में मनुष्य की अवहेलना नहीं है। इसकी प्राथमिकताओं में तेज रफ्तार विकास के साथ-साथ जड़ समाज के वर्गीय ढांचे को तोड़ने के लिए भूमि सुधार, सही शिक्षा और अच्छे स्वास्थ्य के लिए भी जगह है।
नेहरू का यह रास्ता कितना कारगर है या खुद नेहरू ने इस पर कितना अमल किया या नेहरू और जिन्दा रहते तो इस पर कितना कायम रहते, इन सवालों पर लम्बी बहस की गुंजाइश है। बुद्धिजीवियों के बीच इन सवालों पर खूब बहस-मुबाहिसा हुआ भी है। ऐसे समय में जब हमारा सारा राजनीतिक आचरण विचारविहीन हो गया है, यही क्या कम है कि नेहरू सोचते-विचारते थे और सबसे अहम बात यह है कि अपने समय की विचारधाराओं के साथ उनका संबंध द्वन्द्व का था।

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